Sunday, December 5, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (6)



'बलि'एक पढ़ने और समझने योग्य रचना
-डॉ. सुरजीत बराड़(पंजाबी लेखक)

हरमहिंदर चहल का यह पहला उपन्यास जब मुझे कथाकार जिंदर ने पढ़ने के लिए भेजा तो मैंने इस उपन्यास पर अधिक ध्यान न देकर इसे अपनी लाईब्रेरी में संभाल कर रख दिया था। कारण- एक तो यह उपन्यास चहल का पहला उपन्यास था, दूसरा इस उपन्यासकार के विषय में सुना भी नहीं था, न ही कोई इस लेखक के कार्यों का ज्ञान था, तीसरा यह कि लेखक प्रवासी था। लेकिन जिंदर के ज़ोर देने पर मैंने इस उपन्यास को न चाहते हुए भी पढ़ना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे उपन्यास का पाठ करता गया, वैसे-वैसे मैं इस उपन्यास से जुड़ता चला गया। कमाल की बात तो यह है कि उपन्यासकार चहल का यह उपन्यास (पढ़ने/परखने के बाद मैंने जो अनुभव किया) लेखक का प्रथम उपन्यास लगता नहीं। क्योंकि इस उपन्यास में औपन्यासिक गुण मौजूद हैं। पहली बात, इस उपन्यास में जबर्दस्त रवानी और रोचकता है। रवानी और रोचकता के अतिरिक्त यह उपन्यास भावपूर्ण भी है। उपन्यास की भाषा-संरचना ही नहीं, उपन्यास की पाठ-संरचना भी सुडौल है। उपन्यास की शैली भी ध्यान आकर्षित करती है। इस उपन्यास में कई कलात्मक विधियों का प्रयोग किया गया है। गतिशील यथार्थ की विभिना जुगतें ( आलोचनात्मक, प्रश्नात्मक, संकेतात्मक, प्रतीकात्मक और तुलनात्मक आदि) के सुप्रयोग से यह उपन्यास सहज औत कला के तौर पर उत्तम श्रेणी ग्रहण करता है। उपन्यास का आकार न लघु है, न दीर्घ है। औपन्यासिक ज़रूरतें, स्थितियाँ- परिस्थितियाँ- इन सबके अनुसार ही उपन्यास को विस्तार दिया गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि यह समूचा उपन्यास तरतीबबद्ध है, कोई अध्याय आगे-पीछे नहीं, कोई अध्याय अनावश्यक नहीं। ‘आतंकवाद और पंजाब संकट’ उपन्यास की केंद्रीय कथा है। इस कथा को उत्तेजित करने और उसे गति देने के लिए विभिन्ना लघुकथाएँ भी बुनी गई हैं। उपन्यास का शीर्षक ‘बलि’ किसी एक पात्र को रेखांकित नहीं करता वरन पंजाब (अथार्त पंजाबी लोगों) और एक व्यवहार को दर्शाता है। चहल का यह प्रथम उपन्यास जो कला पक्ष के तौर पर पूरी तरह कसा हुआ नहीं है, फिर भी इस उपन्यास को पहले दर्जे के अंक दिए जा सकते हैं।

यह उपन्यास इस पहलू से भी महत्वपूर्ण है कि पंजाबी उपन्यास क्षेत्र में कोई ऐसा विशुद्ध उपन्यास दृष्टिगोचर नहीं होता जो पंजाब संकट और आतंकवाद पर केन्द्रित हो। बेशक यह बात ठीक होगी कि कुछ पंजाबी उपन्यासों में आतंकवाद के कुछ भावुक दृश्यों(वह भी सतही) को उभारा अवश्य गया है, परन्तु ऐसे उपन्यास पंजाब संकट और आतंकवाद लहर की बारीक और महीन तांतों को पकड़ने में असमर्थ रहे हैं। पंजाबी के वरिष्ठ उपन्यासकारों ने भी इस आवश्यक और दुर्गम कार्य को हाथ लगाने में गुरेज ही किया है। वास्तव में यह एक संवेदनशील मसला भी था जिस कारण हमारे उपन्यासकारों ने इस मसले को समझने और रचना में दर्ज़ करने की कोशिश ही नहीं की।
हरमहिंदर चहल इस पक्ष से बधाई का पात्र है। सो, ‘बलि’ उपन्यास पंजाबी में ऐसा पहला उपन्यास बन गया है जो विशुद्ध पंजाब संकट और आतंकवाद की उत्पत्ति के कारकों की तलाश ही नहीं करता बल्कि इस संकट और लहर के परिणाम-स्वरूप उपजे विभिना मसलों और संकटों को अपने कलेवर में लेता है। उपन्यास में दर्ज़ एक अहम पात्र गुरलाभ है जो विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों से डरता नहीं, वरन उनका दिल से मुकाबला करता हुआ मंजिल की ओर बढ़ता चला जाता है। यह नायक ज़िन्दगी में संघर्ष का नायक है। ऐसे नायक की पंजाबी उपन्यासों में कमी है। उपन्यास में विभिन्न यथार्थपरक घटनाओं, स्थितियों-परिस्थितियों को रेखांकित करने के पीछे उपन्यासकार का एक खास मनोरथ नज़र आता है। यह उपन्यास इस पक्ष से भी मार्मिक और गौरतलब है कि उपन्यास में आवश्यकतानुसार रोमांटिक पल भी उपलब्ध हैं। असल में उपन्यास प्यार के मानवीय जुज़, प्रवृति और सरोकार को स्थापित करने के लिए यत्नशील है। प्रेम, सांझ, आपसी व्यवहार और भाईचारे के संबंध ही इस उपन्यास का आधार हैं। ऐसे सरोकारों से ही समाज सुन्दर बन सकता है। आतंकवादी कार्यों से तो समाज के अन्दर अराजकता फैलती है। अंत में मेरी धारणा है कि ‘बलि’ उपन्यास एक पठनीय ही नहीं, बल्कि समझने और ग्रहण करने योग्य उपन्यास भी है।
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Saturday, November 13, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (5)



'बलि' का सच
-तलविंदर सिंह(पंजाबी कथाकार)

पंजाब संकट धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं में से पैदा हुआ एक बहु-पेचीदा मसला था। इसे किसी एक रचना में रेखांकित करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। इसकी अनगिनत तहें हैं जिन्हें एक समाजशास्त्री दूसरी नज़र से खंगालने की कोशिश करेगा, एक राजनीतिज्ञ दूसरी तरह से, धार्मिक व्यक्ति अन्य तरह से और एक लेखक किसी और तरह से। अन्य पक्ष अपने विचारधारात्मक पैंतड़े में किसी न किसी एक वर्ग विशेष के साथ सहानुभूति या अनुकूल भावना की शिकार होती दिखाई देंगे, परन्तु लेखक की दृष्टि में हमेशा मानववादी सुर गूँजता सुनाई देगा। बेशक यह लेखक की सामर्थ्य, अध्ययन, ज्ञान और हुनर पर निर्भर करता है कि वह किसी मसले को कितनी प्रवीणता से स्पर्श करता है। पंजाब की संकटमयी गाथा को जितना कुछ गिने-चुने लेखकों ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के गहराई से समझा, जाना और पेश किया है, उनमें हमारा प्रवासी लेखक हरमहिंदर चहल एक है।
इसमें कोई शक नहीं कि लगभग डेढ़ दशक में पसरे इस संकट की जड़ें इतिहास के कई पृष्ठों में गहरी धंसी हुई नज़र आती हैं। इस समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को कई खोज पत्रों और गद्य के अन्य रूपों में पेश करने के सार्थक यत्न हुए है, पर एक रचना में इसके कुछ हिस्सों पर ही प्रकाश डाला जा सकता है। समय बीतने के साथ-साथ और विभिन्न प्रकार की प्रस्तुतियों को देखते, विचार करते हुए इस समस्या के कई पहलुओं को अधिक शिद्दत से प्रस्तुत करने की गुंजाइश बन गई है। हरमहिंदर चहल भी अपने उपन्यास ‘बलि’ में इस संकट को नये कोणों से देखने का यत्न करता है। यह उपन्यास पंजाब में व्याप्त अतिवाद की समस्या को न तो आदर्शित करने की कोई कोशिश करता है और न ही किसी एक पक्ष की सरदारी(प्रभुता) स्थापित करने में कोई रुचि दिखाता है। घटनाओं, स्थितियों और पात्रों को कलात्मक रंग चढ़ाकर पेश करने की जगह तर्कालीन क्रूरता को ज्यों-का-त्यों दर्शाता है। पाठक के लिए रोचकता परोसने की बजाय उसे सोचने के लिए विवश करता है और समय के सच से मिलाता है। नि:संदेह इस उपन्यास के कथानक में से गुजरते हुए कई खलनायकों के चेहरे और साफ़ हो कर दिखाई देने लगते है। मज़लूमों की पीड़ा और अधिक महसूस होने लगती है।
‘बलि’ पंजाबी उपन्यास जगत में किसी नायक को लेकर आने वाली कृति नहीं है। मुख्य पात्र गुरलाभ सिरे की खलनायकी से ओतप्रोत है और कदम-कदम पर संकट को गहराने में भूमिका निभाता चला जाता है। लूट-खसोट, क़त्ल, बलात्कार, वायदा-ख़िलाफ़ियाँ, गद्दारियाँ और मौका-परस्तियाँ उसके सहज व्यवहार के हिस्से हैं। वह वामपंथी दलों को लताड़ता धर्मयुद्ध के नाम तले खून का दरिया बहाता चला जाता है। उसे पालने वाले राजसी खिलाड़ी और अफ़सर मदारी हैं। मज़हब उसकी पीठ पर सवार है। उसका भविष्य रौशन है। ज़िन्दगी के कई द्वार खुले हैं। विशाल अम्बर और अनदेखे रस्ते उसे पनाह देने के लिए बुलाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिसके हाथ मज़लूमों के रक्त से सने हैं, माथा कालिख़ से पुता पड़ा है और रूह गुनाहों से दागदार हुई पड़ी है, वही साफ़ बरी कर दिया जाता है। हमारे फ़लसफ़ों में पड़ी ‘अन्त बुरे का बुरा’ वाली धारणा सामाजिक व्यवहारों में सच नहीं है। अमन-चैन से जीने वाले, नेकी करने वाले और सीधेसादे लोग ही बलि के बकरे बनते हैं। पंजाब संकट का यही सार-तत्व था। जिसने किया, उसने भोगा नहीं और जिसने कुछ नहीं किया, उसने नंगे बदन सबकुछ सहा।
यह कठोर हकीकत उपन्यास ‘बलि’ का सच भी है और हमारे आम जीवन का भी। सच कड़वा होता है, पर पंजाब के राजनैतिक, धार्मिक और प्रबंधकीय मंचों पर इसका बोलबाला देखा जा सकता है। अकेला गुरलाभ खलनायक नहीं, पंजाब में ज़हर के बूटे को पालने वाला हर दल खलनायकी किरदार वाला है। पंजाबियों ने इस डेढ़-दशक के अंधे युद्ध में बहुत कुछ गंवाया, लेकिन खलनायकी दलों ने बहुत कुछ कमाया, यही ‘बलि’ उपन्यास लिखने का प्रयोजन है। इस प्रयोजन को सोच-विचार कर लिखना बेहद जोख़िम भरा कार्य था। लेखक द्वारा रचना को ‘काल्पनिक’ घोषित करने के बावजूद न तो सच की क्रूरता छिपती है, न अतिवाद को हवा देने वाले खलनायक पहचाने जाने से वंचित रहते हैं। हरमहिंदर चहल ने लेखकीय धर्म को निभाया है जिसके लिए वह बधाई का हकदार है।
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Sunday, November 7, 2010

कहानी


एक और बलि
हरमहिंदर चहल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बलराज ने मेन डैस्क से कार्ड बनवाया। फिर कैश काउंटर पर जाकर पैसे जमा करवाये। वापस जाकर मेन डैस्क पर रसीद दिखाई तो उसने शीशे वाले दरवाजे की ओर जाने का इशारा कर दिया। शीशे का दरवाजा खोलकर जैसे ही वह अन्दर घुसा तो उसका सामना सरू जैसी लम्बी नर्स से हुआ जो सिर से पैरों तक हुस्न की मूरत बनी खड़ी थी। भरपूर जवानी, सुन्दर मुखड़ा, प्यार भरे शब्दों से वह बलराज से मुखातिब हुई। उसने बताया कि वह ही है जिसने बलराज को अंटैंड करना है। बीमारी तो उसे कोई खास नहीं थी। बस, कुछ मामूली मसल पेन होने के कारण उसने पीठ की मसाज-सी करवानी थी।
बलराज की उम्र हालांकि चालीस के आसपास थी पर उसके गठे हुए शरीर और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण वह मुश्किल से तीस के करीब लगता था। नर्स ने अपनी ड्यूटी निभाई। मशीनों से करीब आधा घंटा मसाज की। कुछ और एक्सर्साइज करवाईं और कल पुन: आने को कहा। वैसे तो नर्सों और डाक्टरों का रोज़ ही हर प्रकार के लोगों से वास्ता पड़ता है, पर पता नहीं नर्स को वह कुछ अपना-अपना-सा लगा। उधर बलराज के भी उसकी शरबती आँखें अन्दर गहरे तक उतर गई थीं। वह कोई न कोई बातचीत करना चाहता था पर झिझक-सी में चुप ही रहा।
बलराज कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका से आया था। उसके भाई का एक्सीडेंट हो गया था। वह तुरन्त टिकट लेकर इंडिया पहुँचा था। दिल्ली से सीधा दयानंद अस्पताल, लुधियाना आया था। कुछेक दिन तो खूब दौड़धूप रही। उसका भाई भी बहुत मुश्किल में से गुजरा। हफ्ते भर बाद सारे खतरे टल गए और उसके भाई को कॉमन वार्ड में भेज दिया गया। अब बलराज खाली था। वह दिन भर इधर-उधर घूमता फिरता रहता। फिर उसे ख़याल आया कि अब अस्पताल में तो रहना ही है क्यों न खुद को भी डॉक्टर से चैकअप करवा ले। पिछले कई महीनों से उसकी पीठ में दर्द रहता था। पर अमेरिका की भागदौड़ की ज़िन्दगी में वह यूँ ही चैकअप को टालता आ रहा था। डॉक्टर ने एक्सरे करके उसे फिजोथरैपी विभाग में भेज दिया। आगे उसकी इस नर्स से मुलाकात हो गई।
दूसरे दिन दोनों एक-दूसरे को हँस कर मिले। नर्स ने अपने बारे में बताते हुए कहा कि उसका नाम डिम्पल है। वे तीन बहनें और एक भाई हैं। भाई छोटा है और कमाने वाला अकेला पिता है। वह नौकरी करती है और साथ ही साथ पढ़ाई भी कर रही है। घरवालों के ज़ोर देने के बावजूद वह चाहती है कि कोई अच्छी डिग्री हासिल करके ही अपनी ज़िन्दगी शुरू करे। मतलब वह अभी तक अकेली थी। माँ-बाप के संग रह रही थी। उधर बलराज ने भी अपने विषय में काफी कुछ बताया कि वह अमेरिका में सैटिल है और उसका अपना बिज़नेस है। ऐसी बातें करते हुए दूसरा दिन भी गुजर गया। डिम्पल उसकी घरेलू ज़िन्दगी के बारे में चाहते हुए भी कुछ न पूछ सकी। वैसे पता नहीं क्यों वह बलराज की तरफ खिंचती जा रही थी। शायद बलराज का भी यही हाल था। उसके चले जाने के बाद भी डिम्पल उसी के बारे में सोचती रही।
तीसरे दिन डिम्पल उसकी पहले से ही प्रतीक्षा कर रही थी। वह बार-बार हॉल की तरफ देखती। बलराज आज कुछ लेट हो गया था। आखिर उसने कोने वाली खिड़की में से बलराज को अन्दर आते हुए देखा। वह टकटकी लगाकर सजे-संवरे बलराज को सिर से लेकर पैरों तक निहारती रही। डिम्पल की देह में झनझनाहट-सी छिड़ी और दिल में कोई मिठास-सी घुल गई। बलराज ने भी करीब आकर ‘हैलो’ करते हुए डिम्पल के चेहरे की खुशी पढ़ ली। उसने बलराज को ऊँचे बैड पर उलटा लिटा दिया और मशीन चालू कर दी। डिम्पल मशीन से मसाज कर रही थी और साथ ही, दोनों छोटी-छोटी बातें किए जा रहे थे। इन दो-तीन दिनों में ही बलराज ने भांप लिया था कि मछली तो फुदकती फिरती है, बस जाल फेंकने की देर है। वह अपनी तीन हफ्ते की शेष बची छुट्टियों को रंगीन बनाना चाहता था। यही कारण था कि वह आज विशेष तौर पर बन-ठन कर आया था। वह चल रही बातों के बीच सोच रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए। यही हाल डिम्पल का था। बलराज की मुश्किल आसान हो गई जब डिम्पल ने मन कड़ा करके उसके विषय में पूछा, ''बलराज, तुम्हारे परिवार में कौन कौन है ?''
बलराज उलटा लेटे-लेटे एक कुटिल हँसी हँसा, पर बोला कुछ नहीं।
''तुमने तो हँसकर बात टाल दी। प्लीज़, बताओ न अपने परिवार के बारे में।'' डिम्पल ने पुन: पूछा।
''वो मैडम जी, हमारी तो वो बात है कि लंडा चिड़ा पहाड़ों का साथी। बस, अकेले-इकहरे हैं। न शादी, न मंगनी, परिवार कहाँ से होना था।'' बलराज ने बड़ी चतुराई से जाल फेंक दिया।
इतना सुनते ही डिम्पल का दिल बागोबाग हो उठा। शायद, वह यही सुनना चाहती थी।
''पर तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं करवाया ?'' डिम्पल कोई भ्रम नहीं छोड़ना चाहती थी।
''आज तक लड़की मिली ही नहीं। बस, करवा लेंगे जब तुम्हारे जैसी कोई हुस्नपरी मिल गई।'' इतना कहते हुए बलराज मन ही मन सोच गया कि आ फंसी मछली जाल में। इतना सुनते ही डिम्पल के दिल में गुदगुदाहट हुई और उसने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए मशीन बन्द कर दी।
कमीज पहनते हुए बलराज बोला, ''डिम्पल जी, क्यों न तुम्हारी ड्यूटी के बाद किसी नज़दीक के रेस्ट्रोरेंट में बैठकर कुछ खुलकर बातें करें। सच पूछो तो पहली बार मुझे तुम्हारे जैसी नेकदिल लड़की मिली है।''
डिम्पल ने तुरन्त हामी भर दी। उसके कोमल और साफ़ दिल में शायद बलराज के लिए प्यार अंकुरित होना शुरू हो गया था।
उसी शाम वह नज़दीक के रेस्ट्रोरेंट में मिले। बलराज शराफत का चोगा पहने डिम्पल की नज़रों में एक शरीफ़ और अच्छा इन्सान होने का ढोंग कर रहा था। उधर डिम्पल के दिल में पल-पल बलराज के लिए बढ़ रहा प्यार इस ढोंग को पहचानने के काबिल ही नहीं रहा था। भरी जवान उम्र, पहला प्यार और फिर ऊपर से अमेरिका की चमक, इन बातों ने डिम्पल की विचार शक्ति को ताले लगा दिए। अगले दिन वे किसी पॉर्क में मिले। इस प्रकार बढ़ती मुलाकातों ने चारेक दिनों में दोनों को एक-दूजे के निकट ला दिया। डिम्पल को तो लगता था कि जैसे कोई वर्षों का साथ हो। बलराज ने तो साफ़ ही कह दिया था कि वह तो बहुत दिनों से उस जैसी जीवन-साथी की तलाश में था।
फिर, बलराज ने अगला पत्ता फेंका, ''डिम्पल, हम किसी होटल में इकट्ठे रात बितायें।''
''न न बलराज, विवाह से पहले यह कैसे हो सकता है ?'' डिम्पल ने कानों को हाथ लगाया।
''देख डिम्पल, बस महीने भर की बात है, फिर तूने मेरे संग अमेरिका चले जाना है। वहाँ अपना विवाह भी हो जाएगा। और फिर, अमेरिका में तो विवाह से पहले रात इकट्ठे गुजारना कोई खास बात नहीं।''
''नहीं बलराज, मैं तो इस तरह सोच भी नहीं सकती।'' डिम्पल के दिल के किसी कोने से भारतीय नारी बोली।
''फिर अब ?'' इतना कहकर बलराज चुप हो गया।
उसकी चुप ने डिम्पल को दुविधा में डाल दिया। न वह आगे बढ़ सकती है और न ही पीछे हटना चाहती है। यदि वह बलराज की इच्छानुसार नहीं चलती तो उसे लगता है कि कहीं उसका प्यार और अमेरिका ही न हाथ से निकल जाए। बलराज की मर्जी के मुताबिक उसको उसका नारीमन नहीं चलने देता। आखिर उसे एक उपाय सूझा।
''बलराज, हम पहले विवाह क्यों न करवा लें ?''
बलराज ऐसे चौंका जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। अपनी घबराहट को नियंत्रित करता वह बोला, ''वह तो ठीक है पर...'' उसने फिर लम्बी चुप धारण कर ली। मन ही मन वह सोचने लगा कि अब कौन-सा पत्ता खेला जाए। उसे अगला राह भी डिम्पल ने ही दिखाया।
''बलराज, हम मेरे घरवालों के पास चलते हैं और इस विवाह की बात तुम उनसे कर लो।''
बलराज सहमत हो गया।
डिम्पल के घर जाते हुए वह कोई न कोई रास्ता खोजता रहा। डिम्पल ने ही अपने माँ-बाप को इस मुलाकात के बारे में बताया और आगे विवाह वाली समस्या भी बताई। सयाने माँ-बाप ने बलराज से उसके परिवार के विषय में पूछा तो वह सोचे-समझे ढंग से उनकी तसल्ली करवाता गया।
''आंटी, परिवार तो हमारा सारा बाहर है। सब रिश्तेदार भी बाहर ही हैं। मैं तो पंजाब आया ही इसलिए हूँ क्योंकि मैं इधर की जन्मी-पली किसी लड़की से शादी करवाना चाहता था। बस, डिम्पल तो मुझे ऐसे मिली जैसे पिछले जन्म का कोई मेल हो।''
''फिर बेटा, तुम डिम्पल का वीज़ा लगवा लो और उधर जाकर शादी कर लो।''
''नहीं जी, इधर शादी करे बिना वीज़ा नहीं मिलेगा। मेरी छुट्टी भी कम ही रहती है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि इधर विवाह की आम-सी रस्म कर लें और फिर वीज़ा लगवाकर डिम्पल को मैं साथ ही ले जाऊँ।'' इतना कहकर वह डिम्पल की ओर देखने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह डिम्पल की पहले विवाह वाली बात कैसे पूरी करे।
''बेटा, आम रस्म से तुम्हारा मतलब ?'' डिम्पल की माँ ने फिर पूछा।
''देखो जी, असली तरीके से विवाह तो उधर मेरे परिवार में सारी रस्मों के मुताबिक ही होगा। इधर हम यहीं अपने घर ही एक-दूसरे को हार डालकर विवाह कर लेते हैं। फिर इसे कचहरी में दर्ज़ कराकर मैं डिम्पल के वीज़े के लिए अप्लाई कर दूँगा।''
डिम्पल के माँ-बाप ने एकतरफ होकर विचार-विमर्श किया। उन्हें इस बात का भय था कि कोई जान-पहचान नहीं है। कोई इसका इधर रिश्तेदार भी नहीं था। दूसरी ओर वे सोचते थे कि लड़की अगर अमेरिका चली गई तो सारे परिवार का उधर जाने का रास्ता आसान हो जाएगा। उन्हें डिम्पल की बलराज के सामने रखी पहले विवाह वाली शर्त का कोई इल्म नहीं था। आखिर, वे मान गए।
वैसे बलराज ने घरवालों का मुँह भी बन्द कर दिया, ''आंटी, जब तक मैं डिम्पल को लेकर अमेरिका नहीं पहुँचता, आप इस विवाह के बारे में किसी को न बताना। यूँ ही कोई एम्बेसी पहुँचकर किसी किस्म का कोई अड़ंगा लगा दे। ज़माना खराब है। कौन किसी को सुखी देखना सहन करता है।''
डिम्पल के माँ-बाप ने मन ही मन में उसकी समझदारी की दाद दी।
बलराज की सारी योजनाएँ अपने आप ही पूरी हो गईं। वह डिम्पल को लेकर दिल्ली एम्बेसी का चक्कर लगा आया। वापस आकर वह डिम्पल के घर ही रहने लगा। घरवालों ने बलराज को होटल में रहने से मना करते हुए उसे घर में ही एक अलग कमरा रहने के लिए दे दिया। तीनेक हफ्ते वह वहीं रहा। दिन में मसाज करवाने हर रोज़ जाता। फिर वे घूमते-फिरते और नये विवाहित युगल की भाँति मौज-मस्ती करते।
फिर वह एक दिन दिल्ली एम्बेसी डिम्पल के वीज़े का पता करने चल दिया। अकेला ही गया क्योंकि शाम को तो लौट आना था। सभी देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे। फिर सोचने लगे, शायद लेट हो जाने के कारण वहाँ रुकना पड़ गया होगा। लेकिन वह अगले रोज़ भी न आया। डिम्पल उसका कहाँ पता करे। न कोई फोन नंबर और न ही अन्य कोई पहुँच का साधन। तीन दिन गुजर गए। उसका कोई अता-पता नहीं था। डिम्पल का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। वह सोचती कि कहीं एक्सीडेंट या अन्य कोई बुरी घटना न घट गई हो। वह सारा दिन बुझे मन से फिजोथरैपी डिपार्टमेंट में काम करती थी। उसका ध्यान बार-बार गेट की तरफ जाता था। उसकी नज़रें हर तरफ़ बलराज को तलाशती रहती थीं। चौथे दिन जब दो जने एक मरीज़ को व्हील-स्ट्रेचर पर लेकर उसके केबिन की ओर आए तो वह खुशी और हैरानी-सी में उस तरफ लपकी। उसे लगा जैसे यह बलराज हो। पर यह बलराज नहीं था। वैसे शक्ल हू-ब-हू उससे मिलती थी।
''आप बलराज को जानते हैं ?'' उसने करीब होकर पूछा।
''हाँ मैडम, वह मेरा भाई है। महीनाभर पहले वह मेरा एक्सीडेंट होने के कारण अमेरिका से मेरा पता करने आया था।''
''पर अब वह है कहाँ ?'' डिम्पल ने काँपते स्वर में पूछा।
''उसकी पत्नी का फोन आया था कि उसकी बेटी बीमार है और वह खड़े पाँव ही वापस अमेरिका लौट गया।''
''वह तो कहता था कि मेरा कोई परिवार नहीं। फिर यह पत्नी-बेटी ?'' डिम्पल गिरती-ढहती हाथों में सिर थामकर वहीं बैठ गई और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, ''हाय री माँ... मैं लुट गई री !''
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Sunday, October 31, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (4)



'बलि' का गुरलाभ
-हरजीत अटवाल(पंजाबी कथाकार एवं उपन्यासकार)

पिछले वर्ष पंजाबी में आए उपन्यासों में 'बलि' अपना एक खास और पृथक स्थान रखता है। इसके कई कारण हैं। एक तो यह पंजाब के काले दिनों की दास्तां का उपन्यास है। लेखक ने अपने इस अनुभव को बहुत सादगी से पेश किया है। पंजाब के दुखांत के बारे में इतनी शिद्दत से लिखा गया शायद यह पहला उपन्यास है। इसके पृथक स्थान का एक खास कारण इसकी पात्र सृजना है। इसके बहुत से पात्र किसी न किसी तरह हालात के शिकार हैं। इसके पात्रों में से एक पात्र है- गुरलाभ। गुरलाभ का आतंकवाद की लहर में पड़ जाने का कोई खास कारण भी नहीं है, वह सहज-स्वभाव ही इस लहर में आ घुसता है। खालिस्तान की लहर में ऐसे युवाओं की भरमार थी जो कि शौकिया तौर पर ही लहर में कूद पड़े थे। अच्छे खाते-पीते घर का लड़का गुरलाभ भी ऐसा ही युवक है और वह इस लहर में ऐसा घुसता है कि फिर अन्दर ही घुसता चला जाता है। इस लहर में शामिल लोगों के काम उसके स्वभाव से मेल खाते हैं। बैंक में डाका पूरे चाव से मारता है। लड़कियों का बलात्कार करना उसका शौक बन जाता है। ज़रूरत पड़ने पर पुलिस से भी हाथ मिला लेता है और पुलिस कैट बनकर अपने ही साथियों को पकड़वाने लगता है और पुलिस को अपने हक में इस्तेमाल भी कर लेता है तथा पुलिस कर्मचारियों की तरक्की का साधन भी बनता है। किसी को अगवा करके फिरौती लेना उसके लिए बहुत ही साधारण-सी बात बन जाती है। उसके दुश्मन दोनों खेमों में हैं। पुलिस तो उसके पीछे है ही, बड़े आतंकवादी उसे खोजते फिरते हैं। उन्हें पता है कि गुरलाभ ने उनके दर्जनों साथियों को पुलिस के हाथों मरवाया है या पकड़वाया है। ऊँचे स्तर के आतंकवादियों अथवा अपने दुश्मनों को खत्म करने में किस्मत उसका साथ देती जाती है। अपने कुकुर्मों में वह अपने खास दोस्तों को भी इस्तेमाल कर लेता है। गुनाह की दुनिया में वह सबको रौंदता हुआ आगे बढ़ता जाता है। किसी वीडियो गेम के हीरो की भाँति अपने सामने आने वालों का सफाया करके साफ़ बचकर निकल जाता है। उसकी बहादुरी देखकर इलाके का मंत्री उसे चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित करता है। गुरलाभ उस मंत्री के विरोधियों का सफाया करने में उसकी मदद करता है। इतने क़त्लों, बलात्कारों और फिरौतियों में से मंत्री उसका बचाव करता है और जब मंत्री को पता चलता है कि पानी सिर से ऊपर बहने लगा है या मंत्री को लगता है कि गुरलाभ उस पर भी हावी होने लगा है तो वह उसे कैनेडा के लिए हवाई-जहाज चढ़वा देता है। गुरलाभ के लिए इस उपन्यास का अन्त बहुत सुखान्तक है, अपनी प्रेमिका के साथ कैनेडा में जा बसना, जहाँ उसने लूट की अथाह दौलत पहले ही भेजी हुई है, से बढ़कर सुख और क्या हो सकता है। लेकिन इस उपन्यास का अन्त पाठक को बेचैन कर जाता है। यही इस उपन्यास की प्राप्ति है। यह उपन्यास पंजाब के आतंकवाद के दौर का दस्तावेजी उपन्यास है। इस उपन्यास का एक किरदार सुखचैन इस गुरलाभ का दोस्त होने के साथ ही बहुत बड़े दुखांत में से गुजर रहा है, पर गुरलाभ बख्शता उसे भी नहीं। उस समय पंजाब में एक नहीं कई गुरलाभ काम करते रहे हैं। वे पंजाब में खून की नदियाँ बहाकर चुपचाप पंजाब में से खिसकते रहे हैं और पश्चिमी देश उनकी पनाहगाह बने हैं। उनकी आत्मा पर किसी किस्म का बोझ नहीं है। जो बाहर के देशों में नहीं जा सके, ऐसे गुनाहगारों को नेताओं ने बड़े चतुर तरीके से मुआफियाँ भी दिला दी हैं, कई तो आजकल राजनीति में सक्रियता से हिस्सा भी ले रहे हैं।
गुरलाभ का किरदार इस उपन्यास की खासियत है। इतने बड़े किरदार पंजाबी उपन्यास में कम ही देखने को मिलते हैं। भविष्य में ऐसे अन्य उपन्यासों की आस रखनी चाहिए।
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Sunday, October 24, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (3)



पंजाब में आतंकवाद के दौर का अहम दस्तावेज़ - 'बलि' उपन्यास
-बलदेव सिंह

लेखक को अपनी मर्जी के अनुसार और अपने सामर्थ्य के अनुसार रचना करने का पूरा हक है। पर पुस्तक रूप में छप जाने के बाद उस रचना संबंधी कोई राय बनाने का हक पाठकों का होता है। इस उपन्यास को मैंने एक पाठक के अधिकार से ही पढ़ा है।
‘बलि’ उपन्यास से पहले मुझे हरमहिंदर चहल की कोई अन्य रचना पढ़ने का अवसर नहीं मिला। लेकिन उसकी एक ही रचना से मैंने चहल के सामर्थ्य और उसकी प्रतिभा को पहचान लिया है।
अस्सी के दशक के पंजाब में घटित काले दौर के विषय में भिन्न-भिन्न लेखकों ने अपनी पहुँच और समझ के अनुसार रचनाएँ रची हैं। कहानियाँ और कविताएँ तो आम हैं। उपन्यास के रूप में ‘बलि’ से पहले मैंने कोई सार्थक रचना नहीं पढ़ी जिसमे दहशतवाद के दैत्य को जन्म देने वाले कारणों की निशानदेही करने का यत्न किया गया हो। यह विषय इतना सूक्ष्म और संवेदनशील है, यदि लेखक आतंकवाद का विरोध करता है तो सरकारी तंत्र की ओर झुकने का भय रहता है और यदि वह सरकारी धक्केशाही का जिक्र करता है तो पासा आतंकवादियों की तरफ़ झुक जाता है। इसलिए बहुत सचेत होकर तराजू के दोनों पलड़े बराबर रखने की ज़रूरत होती है। ‘बलि’ उपन्यास में चहल ने इस समतल को बा-ख़ूबी निभाया है।
उपन्यास में बहुत कुछ अनकहा भी है लेकिन वृतांत में उसकी समझ आती है। बहुत कुछ प्रगट रूप में भी सामने आता है। साहित्य कभी भी यथार्थ नहीं होता। कलात्मक बिम्बों के माध्यम से यथार्थ का पुनर्सृजन होता है। सच तो यह है, बिम्ब भी यथार्थ नहीं होते। इन बिम्बों में लेखक की कल्पना और विचारधारा समायी होती है।
उपन्यास ‘बलि’ में एक तरफ़ सरकारी प्रबंध है, दूसरी तरफ़ अफ़सरशाही है, तीसरी ओर खाड़कू टोले हैं और चौथी तरफ़ भोलेभाले और बेकसूर लोग हैं, जो किसी न किसी रूप में इन तीन धड़ों की राजनीति के पाटों के बीच में पीसे जा रहे हैं। मंत्री जैसे लोग अपने दांव पर हैं, गुरलाभ जैसे अपने दांव पर, बाबे जैसे खाड़कुओं का अपना मकसद है और रणबीर जैसे अपनी फीतियाँ और रुतबे को बढ़ाने की ख़ातिर किसी भी हद तक जा सकते हैं। रणबीर की कभी-कभी इंसानियत जागती है, पर वह अपने हितों की बलि नहीं देता। बख़्शीश सिंह, नाहर, महिंदर और अन्य ऐसे कितने ही लड़के हैं जो मोहरों की भाँति इस्तेमाल किए जाते हैं। सुखचैन और बाबे जैसे युवक जंगल में लगी आग में परिन्दों के लड़ने की तरह हैं जो सारी उम्र हारते नहीं।
उपन्यास में यह बात उभरकर सामने आती है कि खाड़कूवाद लहर का न कोई मकसद था, न कोई सिद्धांत। दहशत के माहौल में गुरलाभ जैसा मौकापरस्त पंडितों की नौजवान लड़की को कहता है- “अपने परिवार को बचाना है तो बैड पर चल।”
बहुत से आतंकी मार्केबाजी के कारण इधर जुड़े थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि लड़ाई किस प्राप्ति के लिए हो रही है। इन युवकों में कुछ नौजवान समझ रखने वाले थे, पर उनकी सुनता कौन था। एक आतंकी कहता है –“हम सफलता लोक लहर बनाकर ही हासिल कर सकते हैं।”
उपन्यास में चहल ने इसके एक पात्र के माध्यम से इस खाड़कू दौर की इमदाद में पड़ोसी देश के हाथ होने की ओर संकेत किया है। जब वह दूसरे से कहता है- “दरअसल वह तो हिंदुस्तान टुकड़े करके बंगला देश वाला हिसाब चुकता करना चाहता है।”
इन धारणाओं या विचारों से सहमत होने या न होने को एक तरफ़ रख दें और उपन्यास की सामग्री और इसकी वृतांत विधि की बात करें तो यह रचना बहुत ही रोचक और पठनीय है। किसी सनसनीख़ेज विषय से ही कोई रचना महान नहीं हो जाती है अगर इसमें लेखक की विचारधारा सहज रूप में पेश न हुई हो। इस तरह की रचना बोझिल हो जाती है। ‘बलि’ उपन्यास इस दोष से मुक्त है। लेखक ने इस काले दौर की जिस ढंग से चीरफाड़ करते हुए इस व्यवस्था और उसके ताने-बाने का चेहरा नंगा किया है, वह कमाल की बात है।
हर समय, चाहे वह मिथक है या इतिहास, गद्दारों ने सदैव ही किसी भी लहर या मुहिम का, युद्ध का, भारी नुकसान किया है। ये युद्ध या लहरें लोकपक्षीय हों अथवा लोकविरोधी, गद्दारों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्होंने तो सदैव अपने हितों को ही तरजीह देनी होती है। लेखक ने उपन्यास में ऐसे किरदारों का सृजन बड़ी सूझ-बूझ से किया है।
अन्त में, मैं चहल की इस शक्तिशाली रचना के लिए मुबारक देता हूँ जिसने अपने इस उपन्यास ‘बलि’ के माध्यम से एक समर्थ उपन्यासकार के तौर पर पंजाबी उपन्यास-जगत के द्वार पर दस्तक दी है।
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Sunday, October 17, 2010

कहानी



ममता
हरमहिंदर चहल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

मुझे नहरी विभाग में काम करते हुए चार-पाँच साल हो गए थे। पहली बार मेरी बदली दूर ग्रामीण इलाके की हुई थी। वैसे मुझे तो कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मेरा बचपन गाँव में ही बीता था। मुझे यह इलाका बहुत बढ़िया लगा। गाँव से दो-तीन किलोमीटर दूर नहर के किनारे पर ही सभी कर्मियों के क्वार्टर बने हुए थे। यह इलाका पंजाब और राजस्थान की सीमा पर पड़ता था। सारे क्वार्टरों से एक तरफ हटकर मेरा क्वार्टर था और बीच में एक पुराना बना हुआ रैस्ट हाउस था। इस सारी जगह को नहरी कोठी कहा जाता था। आसपास टीले ही टीले। गर्मियों में दिनभर धूल के बगूले उठते, आँधियाँ चलतीं। शाम होते ही कोठी एक ख़ामोश और शान्त वातावरण में डूब जाती थी। मेरा यहाँ बहुत दिल लगता था और मेरे दो वर्षीय बेटे बब्बू का भी। पर श्रीमती कई बार बोर हो जाती। शनि-इतवार शहर में अपने मायके में एक-आध रात गुजार आती। धीरे-धीरे उसका भी दिल लगने लग पड़ा। परन्तु जब कभी उसे शहर जाना होता तो बब्बू मेरे पास रह जाता था। बेशक बहुत छोटा था पर उसे मम्मी के जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।
गाँवों के लोग बहुत सीधे-सादे और मिलनसार थे। हालांकि वे जाट बोली बोलते, पर आहिस्ता-आहिस्ता मुझे उनकी बोली समझ में आने लग पड़ी थी। जैसे-जैसे उनके बीच घुलते-मिलते जा रहे थे, वैसे-वैसे उनके विषय में और बहुत कुछ पता चल रहा था। ये लोग बहुत साफ़ दिल के थे और मेहमान-नवाज़ भी थे। विशेषकर हमारे मकहमे की बहुत कद्र करते थे।
इस इतवार को श्रीमती शहर चली गई थी। मुझे गाँव के सरपंच को मिलने जाना था। मैं बब्बू को भी संग ही ले गया। शाम के समय हम सरपंच के घर पहुँचे। वह गाँव का चौधरी था। उसके परिवार ने बब्बू को आँखों पर बिठा लिया। सारे परिवार ने उसे बहुत प्यार दिया। बब्बू भी दौड़ते-भागते बहुत खुश था। कभी वह उनके चौबारों पर चढ़ जाता, कभी आँगन में दौड़ा फिरता। ऐसे दौड़ते-भागते हुए उसकी निगाह मृग के एक बच्चे पर पड़ी। चौधरी ने बहुत समय से मृगों का एक जोड़ा पाल रखा था। यह उसी जोड़े का एक छोटा-सा बच्चा था। वैसे भी इस इलाके में एक तो जंगली जानवरों को मारने की मनाही थी और दूसरा बहुत खुला जंगल-बियाबान था। बाहर खेतों में मृगों की डारें दौड़ती फिरतीं। मेरे ख़याल में पंजाब का यही इलाका बचा था जहाँ पर शिकार की मनाही होने के कारण पुराने जानवरों की निशानी शेष बची थी। दिन छिपने के समय मृगों की डारें इन जंगलों में उछलती-कूदती रहतीं। हमारी नहरी कोठी के पिछवाड़े भी मृगों की एक डार हर रोज़ शाम के वक्त ख़रमस्तियाँ करते हुए गुजरा करती थी।
चौधरी के घर मृग का बच्चा देखकर बब्बू मचल उठा। बोला, ''पापा, मैं तो मिलग का बत्ता लूंगा।'' मैंने बहुत समझाया कि यह बच्चा इनका है, हम कैसे ले जा सकते हैं। चौधरी ने भी बताया कि ले जाने की तो कोई बात नहीं, पर यह छोटा-सा बच्चा वहाँ अकेले रही नहीं पाएगा।'' पर बब्बू को कौन समझाए। जैसे-जैसे मृग का बच्चा हवा में छलांगे मारता था, बब्बू की उसे ले जाने की जिद्द बढ़ती जाती थी। आख़िर, चौधरी ने एक रास्ता निकाला। उसने कहा कि कल वह अपने कामगार को भेजकर हमारी कोठी के पास से गुजरने वाली मृगों की डार में से एक बच्चा इसके लिए पकड़वा देगा। वैसे चौधरी ने मुझे समझाया कि इस तरह डार से बिछुड़ा बच्चा कम ही पला करता है।
अब बब्बू बहुत अधिक खुश था। अगले दिन उसे प्रतीक्षा करते-करते बमुश्किल शाम हुई। हम कोठी के पिछवाड़े आ गए जिधर से डार ने गुजरना था। दिन छिपने के साथ ही दूर से धूल उड़ातीं मृगों की डार आ रही थी। मस्ती में आए मृग हवा में अठखेलियाँ करते, छलांगे लगाते आते थे। करीब आने पर चौधरी के आदमी डार की तरफ चल दिए। पहले तो कुछ बड़े मृग मारने को दौड़े, परन्तु कारिन्दे ऐसे कामों के भेदी थे। आख़िर, वे एक बच्चा उठाकर भाग पड़े। दो जनों ने बड़ी कठिनाई से बच्चे को काबू में किया। बच्चे की माँ हिरनी पहले तो मारने को दौड़ी, पर उसका वश न चला। फिर उसने असहाय-सा होकर मुँह से एक ऐसी दर्द भरी आवाज़ निकाली जैसे दया की भीख मांग रही हो। फिर उसने अगले दोनों पैर धरती पर जोड़कर पटके जैसे आखिरी बार मिन्नत कर रही हो, ''मेरा बच्चा दे दो...।'' उसकी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं तो वह मायूस-सी होकर खड़ी हो गई। फिर उसने डार की ओर देखा जो थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़ गई थी। वह भी डार के पीछे चल पड़ी। कुछ कदम चलकर फिर खड़ी हो गई। बच्चा छूटने के लिए छटपटा रहा था। लेकिन मजबूत हाथों ने उसे काबू में कर रखा था। हिरनी फिर डार के पीछे चल पड़ी। काफी आगे जाकर उसने खड़े होकर गर्दन घुमाकर बच्चे की तरफ देखा। फिर चल पड़ी। अब वह कुछ कदम चलती, फिर रुककर बच्चे की तरफ तरसभरी नज़रों से देखती। फिर चल पड़ती। ऐसा उसने कई बार किया। उसकी डार भी उससे दूर होती जा रही थी। आख़िर, बेबस हिरनी अनचाहे मन से धीरे-धीरे डार में जा मिली।
चौधरी के आदमियों ने मृग के बच्चे को एक कमरे में ले जाकर बन्द कर दिया। बाहर से कुंडा लगा दिया। वे नौकर को उसे कुछ खिलाने-पिलाने के बारे में भी बता गए। अब मृग का बच्चा हद से ज्यादा उदास और बब्बू हद से ज्यादा खुश था। नौकर ने मृग के बच्चे के पैर में रस्सी डालकर उसे चारपाई के पाये से बांध दिया। बब्बू कभी उसके आगे पानी रखता और कभी दूध। कभी कटोरी में दाने डालकर रखता, कभी रोटी। बब्बू हर कोशिश कर रहा था कि मृग का बच्चा कुछ खा ले और उसके साथ दोस्ती कर ले। लेकिन मृग का बच्चा इन सबसे बेमुख उदास एक तरफ हुआ बैठा था। उदासी आँखों में पानी तैर रहा था। बब्बू परेशान था कि बच्चा उसका दोस्त क्यों नहीं बनता। पर उसे क्या पता था कि जो डारों से बिछुड़ जाते हैं, उन पर क्या बीतती है।
अगले दिन बब्बू दिन भर मृग के बच्चे के आसपास दौड़ता-भागता रहा। बच्चे ने एक भी चीज़ को मुँह नहीं लगाया। निराश्रय-सा होकर एक कोने में लगकर बैठा रहा। शाम के वक्त जब डार वापस आ रही थी तो कोठी के बराबर आकर हिरनी पैर गाड़कर खड़ी हो गई। उसने मुँह से कोई आवाज़ निकाली जैसे कोई गाय रंभाती है। फिर क्या था, अन्दर बन्द किया गया बच्चा उछलने-कूदने लग पड़ा। कई तरह की आवाज़ें भी निकालने लगा। बब्बू बहुत खुश हुआ। उसने सोचा कि शायद बच्चा अब उससे दोस्ती कर रहा है। बाहर हिरनी की याचना देखने वाली थी और अन्दर बच्चे की छटपटाहट। दोनों माँ-बेटा मजबूर थे। बाहर काफी देर परेशान होने के बाद हिरनी डार में मिलकर चली गई। अन्दर बच्चा फिर ख़ामोश होकर एक कोने से लगकर बैठ गया। बच्चे के ख़ामोश होने के बाद बब्बू उदास-सा बाहर निकला। उसने मृगों की डार को जाते हुए देखा। बब्बू एकदम उदास-सा हो गया। रात में पहले तो चुप-सा पड़ा रहा, फिर मेरे संग बातें करने लग पड़ा-
''पापा, बत्ता तुप क्यों है ?''
मैंने कहा कि बेटा उसका अपनी मम्मी के बगैर जी नहीं लगता।
''पापा, उसकी मम्म लोती होगी।'' वह उदास-सा बोला।
''पता नहीं।'' मैंने चुप तोड़ी।
''पल मैंने देखा है बत्ता तो लोता था।''
मैंने पूछा, ''तूने कब देखा ?''
वह कहने लगा कि जब डार यहाँ से निकली थी तो वो अन्दर रोये जाता था और इसकी माँ बाहर रो रही थी।
इससे पहले मैंने बब्बू से पूछा था कि हम बच्चे को छोड़ दें क्योंकि इसका अपनी माँ के बगैर जी नहीं लगता। तब बब्बू ने झट से कहा था, ''नहीं, मैं नहीं बत्ता देता।'' पर अब मैंने दुबारा पूछा तो बब्बू ने इतना ही कहा, ''मुझे नहीं पता।''
अगले दिन बब्बू बच्चे की सेवा-टहल में ही लगा रहा और शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा। बच्चे ने फिर किसी चीज़ को मुँह नहीं लगाया। उदास चुपचाप बैठा रहा। उसकी आँखों में से लगातार पानी बह रहा था। शाम को अचानक बब्बू ने देखा कि बच्चे ने कल की तरह छलांगे लगाना और आवाज़ें निकालना शुरू कर दिया था। बब्बू दौड़कर कोठे पर गया। उसने देखा कि कोठी के पिछवाड़े मृगों की डार खड़ी है। बेचारी हिरनी उसी तरह विलाप कर रही थी। बेबस, लाचार हिरनी कुछ देर पैरों से धरती खोदती रही, हाँफती रही, रोती-कुरलाती रही। पर आख़िर गिरती-ढहती डार से जा मिली।
बब्बू ने शाम को रोटी नहीं खाई। पहले अपनी माँ के बगैर बहुत दिन अकेला ही मेरे पास रह लेता था। लेकिन इस बार चौथे दिन ही वह बहुत उदास-सा दिखाई देने लगा। मैंने रोटी खिलानी चाही तो जोर-जोर से रोने लग पड़ा, ''पापा, मैंने मम्मी के पास जाना है, मेला तो जी नहीं लगता।''
आहिस्ता-आहिस्ता बब्बू सिसकियाँ भर कर रोने लग पड़ा। मैंने बमुश्किल कल का बहाना लगाकर उसे शान्त किया। वह पता नहीं किस वक्त सिसकते हुए सो गया। अगले दिन तड़के ही उसे हल्का बुखार भी हो गया। नौकर ने मुझे उसके पिछले दिन हिरनी की आवाजें सुनकर उदास होने की बात भी बताई। मैं दिन भर उसके पास ही रहा। शाम को वह बुखार से भी ठीक था, चलने फिरने भी लगा। पर लगता था जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो।
दिन छिपने के समय कोठी के पीछे से मृगों की डार फिर गुजर रही थी। डार खड़ी हो गई। हिरनी ने घुटने मोड़कर मुँह से आवाजें निकालनी शुरू कर दीं मानो विलाप कर रही हो। इधर अन्दर मृग के बच्चे ने आवाज़ सुनकर छलांगें मारना शुरू कर दिया। बब्बू ने चुपचाप जाकर कमरे का दरवाजा खोला। फिर बच्चे की टांग से बंधी रस्सी खोल दी। बच्चा छलांग मारकर आँगन में आया। फिर जिधर से आवाजें आ रही थीं, उधर छलांग मारकर ऑंगन पार कर गया। उसकी माँ हिरनी ने उसे बेतहाशा चूमना-चाटना शुरू कर दिया। सारी डार उछलने-कूदने लग पड़ी। फिर बच्चे को बीच में लेकर डार अपनी राह पर चल दी।
इधर बब्बू दौड़ता हुआ अन्दर आया। वह बहुत खुश था। खुशी में उछल-कूद रहा था। लगता ही नहीं था कि उसे बुखार होकर हटा है। उसके चेहरे पर अनौखी चमक थी। मेरे कुछ कहने से पहले ही दौड़कर वह अपने संगी-साथियों की ढाणी में जा घुसा।
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‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (2)



समय के सच को बयान करता है - 'बलि'
-(स्व.) राम सरूप अणखी (पंजाबी के प्रख्यात कथाकार/उपन्यासकार)

बीसवीं सदी के नौंवें दशक का माहौल पंजाब में एक काली-स्याह आँधी का माहौल था। लेकिन, चूँकि पंजाबी लेखक पर प्रगतिवादी दौर का भरपूर असर था, इसलिए अधिसंख्यक पंजाबी रचनाकार विचलित-भयभीत नहीं हुए और न ही इस बहाव में बहे। कुछ लेखकों ने लाभ ज़रूर लिया, जिनके लेखन ने माहौल को हवा ही दी। समय गुजर जाने के बाद यह लेखन अब रद्दी की टोकरी का श्रृंगार बन चुका है।
लेकिन जिन लेखकों ने इन काले दिनों में थपेड़े झेले और अपनी देह पर भोगा, उन्होंने इस सारी कायनात को समझा भी, और इस सारे माहौल के एक इतिहास बन चुकने के बाद जो भी लिखा, सच लिखा है। उन लेखकों की रग-रग में यह सारा ‘भाणा’ पारे की तरह जमकर बैठा है। हरमिंदर चहल उन लेखकों में से एक जबर्दस्त उदाहरण है। समय के सेक को न झेलने के कारण वह पंजाब की धरती छोड़कर सुदूर अनजानी और पराई मिट्टी में जा धंसा था। हरमहिंदर चहल कहानियाँ तो पहले ही लिखता था, उसका नावल ‘बलि’ समय के सच को बयान करता है। उसने उस काले दौर के अलग-अलग पहलुओं को अपनी रचना का हिस्सा बनाया है। वक़्ती तौर पर बने सियासी नेता कैसे मासूम लोगों के लहू के साथ खेलते हुए राजनीति के शहसवार बन बैठे। उन्होंने लाभ उठाया और धन भी कमाया। कुर्सियों का आनन्द भी उठाया। पर कई इस घमासान युद्ध में जीवन ही अर्पण कर गए। लेखक ने हर हाल में मानवीय मूल्यों का पल्लू पकड़े रखा। उसने ‘बलि’ नावल में वक़्त की सही तस्वीर पेश की है।
‘बलि’ में लुधियाने के गुरू नानक पॉलीटेकनिक कालेज को केन्द्र बनाया गया है। अतिवादी बने विद्यार्थियों के वृतांत को बहुत खूबी से बुना और निभाया गया है। नावल के पात्र सुखचैन, गुरलाभ, रंगी, सत्ती, गमदूर, अजायब, रणदीप, नाहर, जीता फ़ौजी, महिंदर, बाबा बसंत, अक्षय कुमार आदि एक ऐसी गाथा खड़ी करते हैं कि यह कथा-रचना में एक महाकाव्य का रूप धारण करती प्रतीत होती है। घटनाएँ, कल्पना की भव्यता को पेश करते हुए भी वास्तविकता के बहुत नज़दीक चली जाती हैं। लेखक की प्रस्तुति और भाषा-शैली इतनी रोचक और दिलचस्प है कि ‘बलि’ नावल ‘फिक्शन’ की एक नई परिभाषा पेश करता जाता है।
इस उपन्यास में कोई एक किरदार नायक नहीं दिखता, मानो सभी स्वार्थी और मौकापरस्त हों। लेखक ने कहानी को जिस तरफ़ मोड़ना चाहा और जो वक़्त का तकाज़ा भी था, उसमें वह बहुत सफल हुआ है।
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Sunday, October 10, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (1)



पंजाब संताप पर एक पठनीय उपन्यास - 'बलि'
-सुभाष नीरव (हिंदी कथाकार एवं अनुवादक)

जिस समय मुझे हरमहिंदर चहिल का पहला नावल ''बलि'' डाक से मिला, उन दिनों मैं अपने घर-परिवार और आफिस के कामों में हद से ज्यादा उलझा हुआ था। आकार में बड़ी कृतियां, विशेषकर उपन्यास आदि वैसे भी पढ़ने के लिए खुले समय की मांग करती हैं। खुले समय की ही नहीं, पाठक के धैर्य की भी। सोचा, इसे फुर्सत में पढूंगा। लेकिन जब मैंने यूँ ही इसे सरसरी तौर पर पढ़ना प्रारंभ किया तो स्वयं को रोक नहीं पाया। बहुत कम पुस्तकें ऐसी होती हैं जो अपने आप को पढ़वा ले जाती हैं। 'बलि' उपन्यास में सबसे पहली खूबी तो यही है कि यह अपनी पठनीयता के गुण के चलते अपने आप को पढ़वा ले जाता है। किसी भी रचना में मैं इस गुण को अनिवार्य मानता हूँ। पंजाब संताप पर मैंने इससे पहले कोई उपन्यास नहीं पढ़ा है। हाँ, इस दुखांत को समेटती ढेरों कहानियाँ पढ़ी हैं। मुझे वे दिन याद आते हैं जब मैं इस विषय पर सन् 83 से सन् 92 के बीच लिखी गई कहानियों को मैं एकत्र करता रहा था और उनमें से 24 चुनिंदा कहानियों का हिन्दी अनुवाद मैंने किया था और जो ''काला दौर'' नाम से वर्ष 1994 में प्रकाशित हुई थी।
देश विभाजन की त्रासदी के जख्म अभी पूरी तरह सूखे भी नहीं थे कि पंजाब को एक और भयावह त्रासदी भरे दौर से गुजरना पड़ा। मुझे यहाँ पंजाबी के चर्चित कवि सुरजीत पात्तर की ये काव्य पंक्तियाँ याद आ रही हैं-''मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ /और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से/पंक्ति को काट देता हूँ/ मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ/ और डर जाता हूँ गुरिल्ले बागियों से/पंक्ति काट देता हूँ/मैंने अपनी जान की खातिर/अपनी हज़ारों पंक्तियों का/इस तरह क़त्ल किया है।'' ये पंक्तियाँ पंजाब के उस काले दौर की दहशत को व्यक्त करने के लिए काफी हैं जो आप्रेशन ब्लू-स्टार से कुछ वर्ष पूर्व से आरंभ होकर पंजाब में बेअंत सिंह की सरकार कायम होने तक बरकरार रहा। उन काले दिनों में पंजाब की धरती बेहद त्रासदीपूर्ण और भयावह स्थितियों को अपनी छाती पर झेलती रही और लहूलुहान होती रही। दिन में राजा के सिपाहियों(पुलिस) और रात में बागी गुरिल्लों(खाड़कुओं) के आतंक के काले साये में पंजाब के लोग घुट-घुट कर जीवन जीने के लिए विवश होते रहे। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे, शहर-शहर फैले इस आतंक और निर्मम हत्याओं के सिलसिले को याद करते हुए आज भी दिल काँप उठते हैं। इस सन्दर्भ में यहाँ तक कहा गया कि ए.के. 47 ने जो ज़ख्म पंजाब को दिए हैं, वे सन् 47 में विभाजन के समय मिले ज़ख्मों से कहीं अधिक गहरे हैं।
यह भी निर्विवाद है कि गन्दी राजनीति के चलते पूरे पंजाब को इस संताप को झेलने के लिए विवश होना पड़ा। सत्ता और राजनीति के इस गंदे खेल ने जहाँ लोगों के आपसी रिश्तों में दरार पैदा की, वहीं पूरे समाज में बेगानेपन और अकेलेपन को भी प्रोत्साहित किया। यही नहीं, इस दौर में सारे मानवीय और सामाजिक मूल्यों को भी अपने अपने स्वार्थों की खातिर दरकिनार कर दिया गया। दहशत, सहम और निर्दोष लोगों की बेरहम हत्याओं का एक लम्बा सिलसिला पंजाब की धरती अपनी छाती पर झेलते हुए दर्द से चीखती रही। चीखते पंजाब के इस दर्द की अभिव्यक्ति पंजाबी साहित्य में तब से होती आ रही है जब पंजाब समस्या अपने प्रारंभिक दौर में थी। समय समय पर इस समस्या का रूप बदलता रहा। आप्रेशन ब्लू स्टार से पूर्व स्थिति कुछ और थी और इस आप्रेशन के बाद कुछ और ही रूप धारण कर गई। नवम्बर 84 के दंगों ने तो जैसे समूची मानवता को ही हिलाकर रख दिया। हिन्दू-सिक्खों के बीच सबसे गहरी और वीभत्स दरार इसी समय पैदा करने की कोशिश की गई।

इस दौर में पंजाब की जो तस्वीर सरकारी, गैर सरकारी मीडिया और अखबारों के माध्यम से पेश की जाती रही, वह तस्वीर पंजाब की सही तस्वीर नहीं बन सकी। दूसरी तरफ भय, आतंक और दहशत के बावजूद पंजाब के लेखक, कवि अपनी-अपनी रचनाओं में उस सच को पकड़ने की पुरजोर कोशिश करते रहे जिसे सरकारी, गैर सरकारी मीडिया सामने लाने से कतराता रहा। कहने का तात्पर्य यह कि इस काले समय के दौरान भी लेखक-कवि अपने समय की सचाई से ऑंखें मूंदे नहीं बैठे रहे और इसीलिए यह संताप पंजाबी साहित्य की हर विधा- कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास और लघुकथा आदि में स्पष्ट झलकता है।
परन्तु मेरा मानना है कि किसी काल विशेष में घट रही घटनाओं को केन्द्र में रखकर उस काल विशेष के दौरान लिखी गई रचनाओं और उस काल विशेष के बीत जाने के पश्चात् कुछ अन्तराल से उन्हीं घटनाओं पर लिखी गई रचनाओं में एक अन्तर होता है। घट रही घटनाओं के बीच लिखे जा रहे साहित्य में एक तात्कालिक प्रतिक्रिया जैसा जल्दीपन होता है जो रचना को अधिक विश्वसनीय और प्रभावी नहीं बनने देता। यही नहीं, रचनाओं पर एकपक्षीय और एकांगी रह जाने का खतरा भी बना रहता है। रचना में सच को पकड़ने के लिए जिस धैर्य और पड़ताल(Analysis) की ज़रूरत होती है, वह समय की मांग करते हैं। यह धैर्य और पड़ताल करने की प्रक्रिया रचना को अधिक प्रभावी और विश्वसनीय बनाती है। इस सन्दर्भ में हिन्दी में विभाजन पर भीष्म साहनी द्वारा लिखे उपन्यास ''तमस'' को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। हरमहिंदर चहिल के उपन्यास 'बलि' को भी इसी सन्दर्भ में देखा-पढ़ा जा सकता है। यह उपन्यास पंजाब के उस काले दौर की जो तस्वीर प्रस्तुत करता है, वह सत्य के अधिक करीब प्रतीत होती है और यहाँ एकपक्षीय और एकांगी दृष्टिकोण भी दिखलाई नहीं देता है। इस नावल के द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिश की गई हैं कि सभी अतवादी/खाड़कू संगठन निर्दोष लोगों के कत्लेआम का समर्थन नहीं करते थे और वे इसके खिलाफ थे। उनकी लड़ाई सिर्फ पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध थी या अंधी सरकार के। लूट और ऐशोआराम में विश्वास रखने वाले कुछ शरारती तत्व अथवा गुट ही थे जो खाड़कु जत्थेबंदियों के नाम पर बहु-बेटियों की इज्जत लूटते थे, बसों से उतार कर एक समुदाय विशेष के निर्दोष लोगों की सरेआम हत्या करते थे और निरीह लोगों को लूटकर अपनी जेबें भरते थे। उपन्यास के केन्द्रीय पात्र गुरलाभ सिंह के बहाने इसी बात को पुष्ट करने की कोशिश नावल में की गई है। नावल में पुलिस बर्बरता के जिस चेहरे को चित्रित किया गया है, उस चेहरे को इसी विषय पर लिखीं अनेकों कहानियों में हम पहले भी देख चुके हैं। महिंदर सिंह कांग की लम्बी कहानी ''जून'' में दर्शायी गई पुलिस बर्बरता पाठकों के रौंगटे खड़े कर देती है। यह उपन्यास एक चेहरा हमें गन्दी राजनीति का भी दिखलाता है। नेताओं ने कभी नहीं चाहा कि पंजाब समस्या का कोई पुख्ता हल निकले। वे वोट की गंदी राजनीति के चलते उस कुर्सी को हथियाने की कोशिश में ही संलग्न रहे जो उन्हें सत्ता और शक्ति प्रदान करती है। आम जनता की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। इस उपन्यास से एक बात फिर बडे पुख्ता ढंग से उभर कर सामने आती है कि पंजाब के काले समय में चल रही लहर को आम जनता के बहुत बड़े हिस्से का कभी समर्थन प्राप्त नहीं था। भय और दबाव के चलते भले ही कुछ लोग उसका समर्थन करते रहे हों, पर सच्चाई यही थी कि आम जनता पूरी तरह से इस लहर के विरुद्ध थी।

यह पूरा उपन्यास हमें पंजाब के उस काले समय की यात्रा कराते हुए जो तस्वीर हमारे समक्ष रखता है, वह तस्वीर भयावह ज़रूर है पर सच के बहुत करीब लगती है। लेखक अपने पहले ही उपन्यास में यह विश्वास भी जगाने में सफल हुआ है कि उसके अन्दर अपनी बात को कहने का एक रचनात्मक कौशल मौजूद है। वह अपनी भाषा, शैली और प्रस्तुति में एक मंजा हुआ लेखक प्रतीत होता है।
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Sunday, October 3, 2010

धारावाहिक उपन्यास(अन्तिम किस्त)



आज अपने उपन्यास ‘बलि’ की आख़िरी किस्त को ब्लॉग पर प्रकाशित करते हुए मुझे बहुत खुशी महसूस हो रही है कि पहले से सुनिश्चित किए गए समय के भीतर यह काम पूरा हो गया। साथ ही, मैं उन सभी पाठकों और मित्रों का हृदय से आभारी हूँ जो कि इस उपन्यास से जुड़ चुके हैं, लगातार इसे पढ़ते रहे हैं और अपनी अमूल्य राय से मुझे अवगत कराते रहे हैं। पाठकों की राय मेरे लिए बहुत कीमती है। यह पाठकों की ओर से मेरे इस उपन्यास को मिला सार्थक हुंगारा ही है जो कि मुझे आगे और बहुत कुछ लिखने की प्रेरणा देता है। इसके अतिरिक्त मैं हिंदी के सुपरिचित कथाकार, कवि और अनुवादक तथा अपने परम मित्र सुभाष नीरव जी का भी बहुत धन्यवाद करता हूँ जिनके प्रयत्नों से मेरे उपन्यास ‘बलि’ का हिंदी में अनुवाद संभव हो सका और आप सब तक पहुँचा। पाठकों से मेरी विनती है कि वे मेरी अन्य रचनाओं को पढ़ने के लिए इस ब्लॉग को पढ़ना जारी रखें और समय-समय पर अपनी बेबाक और अमूल्य राय देकर मेरा हौसला बढ़ाते रहें। मेरा नया लिखा उपन्यास ‘होनी’ शीघ्र ही पंजाबी में प्रकाशित होने जा रहा है जिसका हिंदी अनुवाद लेकर मैं अपने इसी ब्लॉग के माध्यम से फिर से आप लोगों के बीच हाज़िर होऊँगा।
-हरमहिंदर चहल



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 23(अन्तिम किस्त)

ज्यों ही सूरज छिपा और अँधेरा होने लगा तो हर तरफ हलचल होने लगी। नहरी कोठी रतनगढ़ में आज विवाह जैसा माहौल था। छह-सात लड़के वहाँ पहले ही थे। रसोइये, और आने वाले लड़कों के लिए खाना तैयार किए जा रहे थे। अच्छा-खासा अँधेरा होने पर एक-एक करके लड़के आने शुरू हो गए। कोई टिब्बे की तरफ से आ रहा था। कोई पगडंडी से चलकर आ रहा था। कोई किसी खाल के साथ-साथ आ रहा था। कोई खेतों में से होकर सीधा ही चला आ रहा था। जैसे जैसे लड़के आ रहे थे, कोठी में रौनक बढ़ती जा रही थी। ऊपर चौबारे में पहरे पर दो लड़के बैठे थे। ग्यारह बजे तक गुरलाभ को छोड़कर सभी लड़के हाज़िर हो गए। जो भी आता जा रहा था, साथ के साथ रोटी खाकर एक तरफ होता जा रहा था। ग्यारह बजे तक सभी लड़के रोटी खा चुके थे। सभी बीच वाले कमरे में बिछी दरियों पर बैठे आपस में बातचीत कर रहे थे। मीटिंग शुरू होने में एक घंटा शेष था। गुरलाभ की इमेज सभी के दिलों में एक हीरो की थी, जिसने आज तक पुलिस को कभी भनक तक नहीं पड़ने दी। अब दसेक दिनों से खाली बैठे लड़कों के अन्दर नया जोश उबाले ले रहा था। हर कोई आज की मीटिंग में होने वाले नये एक्शनों की रूप-रेखा सुनने के लिए उतावला था। सभी नये एक्शन को अंजाम देने के लिए बिलकुल तैयार थे। उधर मंत्री जी भाई केरे तीन कोणी पर पहुँच चुके थे। ग्यारह बजते ही पुलिस की गाड़ियों के वायरलेस सैटों पर एस.पी. रणदीप का आर्डर आया, ''मूव करो।'' गाड़ियाँ आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ने लगीं। हर पंक्ति के आगे एक बुलटप्रूफ ट्रैक्टर था। उसके पीछे अन्य गाड़ियाँ। ट्रैक्टर के शोर में गाड़ियों का पता ही नहीं चल रहा था। समय साढ़े ग्यारह से ऊपर होने जा रहा था। गुरलाभ अभी तक नहीं आया था। कुछेक लड़कों को चिंता सताने लगी। ''वह तो टाइम के टाइम ही पहुँचता है।'' किसी के इतना कहने पर लड़के फिर से बातों में मशगूल हो गए। ऊपर पहरे वालों ने रतनगढ़ की ओर से कच्चे राह पर ट्रैक्टर आता देखा। अँधेरे में दिखना तो क्या था, उसके शोर से ही पता चला कि ट्रैक्टर कच्चे रास्ते पर से होकर कोठी के बिलकुल सामने नहर की दूसरी तरफ आ खड़ा हुआ। ''शायद कोई खेत वाला है।'' पहरेवाले लड़के बेफिक्र थे। टीलों की तरफ से आए ट्रैक्टर ने टीले पर चक्कर लगाते हुए यह भ्रम पैदा किया कि कोई ज़मीन जोत रहा था। वह ट्रैक्टर और उसके पीछे की गाड़ियाँ भी शीशम के पेड़ों के दूसरी तरफ कोठी के नज़दीक आने लगीं। नहर के ऊपर से आता ट्रैक्टर झाल के पास आकर रुक गया। ''शायद कोई झाल का पानी देखने आया है।''
जब एक ट्रैक्टर डिफेंस रोड की ओर से आकर नहर की पटरी पर चढ़ा तो पहरे वाले लड़कों को लगा कि शायद गुरलाभ आ रहा था। बारह बज गए थे। अब तक तो गुरलाभ को आ जाना चाहिए था। ट्रैक्टर पीछे मोघे के पास ही खड़ा हो गया था। गाड़ियों में से उतर कर पुलिस वालों ने छोटी-छोटी पंगडंडियाँ और छोटे रास्ते कवर कर लिए थे। सवा बारह बजे के करीब लड़के विचलित होने लगे। 'गुरलाभ क्यों नहीं आया ?' हर एक के जेहन में यही सवाल था। 'शायद किसी वजह से लेट हो गया हो। शायद गाड़ी खराब हो गई हो।' 'चलो, कुछ देर और इंतज़ार करते हैं।' सबके अपने-अपने विचार थे। समय धीमे-धीमे आगे सरक रहा था। दीवार पर लगी बड़ी घड़ी की टिक-टिक सबके दिलों पर हथौड़े की तरह बज रही थी। बातचीत बन्द थी। सभी अपने अपने ख़यालों में मग्न थे। एक बजे घड़ी ने एक घंटी बजाई तो सभी चौंक कर घड़ी की ओर देखने लगे। सबसे सीनियर लड़का बख्शीश खड़ा हुआ, ''तुम लोग बैठो, मैं चौबारे पर जाकर पता लगाता हूँ।'' वह आहिस्ता-आहिस्ता अन्दर की सीढ़ियाँ चढ़ता ऊपर चौबारे पर पहुँचा। पहरेवाले लड़के भी सहमे बैठे थे।
''क्यों भाई, गुरलाभ आया नहीं अभी ?'' जानते हुए भी उन्होंने नीचे से ऊपर आए बख्शीश से पूछा।
''नहीं, वह तो अभी तक नहीं आया। आसपास सब कुछ ठीक है ?''
''पहले तो ठीक ही लगता था, पर अब शक-सा पड़ रहा है।'' एक पहरेदार बोला।
''वह कैसे ?''
''चार दिशाओं से ट्रैक्टर आकर कोठी से कुछ दूर रुक गए हैं।''
''कहीं भैण.... बुलटप्रूफ़ ट्रैक्टर तो नहीं।'' मन में सोचते बख्शीश ने आस पास अँधेरे में देखने की कोशिश की। उसे कुछ नहीं दिखा। चारों तरफ श्मशान जैसी खामोशी थी।
''तुम चारों तरफ ध्यान रखो।'' इतना कहकर वह नीचे उतर गया। उसे नीचे आया देख सभी लड़के खड़े हो गए।
''कैसे है ?''
''यार कुछ पता नहीं लगता, चारों तरफ घुप्प अँधेरा पसरा पड़ा है।''
''गुरलाभ भी अभी तक आया नहीं।'' पहरेदारों द्वारा बताई ट्रैक्टरों वाली बात वह बीच में ही दबा गया। यह सीनियर लड़का बख्शीश समझदार था। समय से पहले भगदड़ मचाना ठीक नहीं समझता था। इस वक्त कमांड उसके हाथ में थी। गुरलाभ का न आना उसे काफी चुभ रहा था। दो ही कारण हो सकते थे। या तो उसे पुलिस ने पकड़ लिया, या फिर गद्दार निकला। वैसे यह बात उसके मन को जचती नहीं थी, पर वह समझता था कि बात कोई भी हो, पर पुलिस आज यहाँ ज़रूर पहुँच सकती थी। वह सारी स्थितियों के बारे में सोचते हुए अन्दर ही अन्दर योजना बनाने लगा। अभी उसने सभी को नीचे कमरे में ही बिठा रखा था।
रेस्ट हाउस में इकट्ठा हुई इस भीड़ ने सुखचैन की नींद उड़ा रखी थी। 'ये इतने जने आज यहाँ क्या कर रहे हैं ?' ऐसी बातें सोचता वह कोठी में पड़ा करवटें बदल रहा था। नींद उससे कोसों दूर थी। उधर दिल्ली एअरपोर्ट पर खड़ा एअर कैनेडा का जहाज उड़ने के लिए तैयार खड़ा था। अभी-अभी हुई उदघोषणा के अनुसार अगले कुछ मिनटों में जहाज रवाना होने वाला था। सभी को सीट बैल्टें बाधंने की हिदायत हो चुकी थी। बख्शीश पुन: ऊपर चौबारे में गया। उसने आसपास देखा। उसे दूर उल्टी दिशाओं से कोठी की तरफ आती रोशनियाँ दिखाई दीं। शायद कई वाहन थे। कोठी से काफी पीछे ही अचानक दोनों वाहन लाइटें बुझा कर खड़े हो गए। उसका शक यकीन में बदलता जा रहा था। वह तेजी से नीचे उतरा। अधिक से अधिक असला उठवाकर चौबारे में ले गया। सभी लड़कों को पोजीशन लेने के बारे में समझाने लगा।
''क्यों ? कोई खतरा लगता है ?'' कोई फिर बोला।
''हो सकता है। नहीं भी। अभी पूरा पता नहीं। पर हमें होशियार रहना चाहिए।'' उसने पूरब दिशा वाला रास्ता निकलने के लिए चुना। चौबारे पर से इसी तरफ ज्यादा फायरिंग करने की स्कीम बनाई गई।
''देखो, अगर पुलिस का घेरा पड़ गया है तो डट कर मुकाबला करना चाहिए। तभी बच सकते हैं। नहीं तो चूहों की तरह मारे जाएँगे।'' बख्शीश हल्ला-शेरी दे रहा था।
''चौबारे वाले पूरब वाला हिस्सा कवर करेंगे। दिन चढ़ने से पहले सभी उसी फायरिंग के कवर के नीचे से पूरब दिशा से भाग निकलने की कोशिश करेंगे।'' वह हिदायतें दे ही रहा था कि तभी दीवार वाली घड़ी ने दो बार टर्न-टर्न करके दो बजने का संकेत दिया। दो बजते ही एअर कैनेडा के जहाज ने टर्मिनल छोड़ा। धीरे धीरे चलता रन-वे की ओर जाने लगा। इधर बख्शीश को शत-प्रतिशत विश्वास हो गया था कि कोठी को पुलिस ने घेर लिया है। वह बाकी लड़कों को हौसला देता एक्शन के बारे में समझा रहा था।
''हम बीस जने हैं। पुलिस की ऐसी-तैसी कर देंगे। तुम बस हौसला नहीं छोड़ना।'' इन लड़कों में से दो-चार को छोड़कर बाकी लड़कों ने किसी भी मुकाबले में हिस्सा नहीं लिया था। इसलिए लगभग सभी डरे हुए थे।
अपने क्वार्टर के अन्दर पड़ा सुखचैन भी आस पास हो रहे खड़के के कारण भयभीत हुआ पड़ा था। उसके कान बाहर होने वाले खड़के की तरफ ही लगे थे। एअर कैनेडा का जहाज पूरी स्पीड से रन-वे पर दौड़ा। फिर धीमे से अगला हिस्सा ऊपर उठाकर आकाश की ओर चढ़ गया।
कोठी को घेरे खड़ी पुलिस ने चारों दिशाओं से ट्रेसर राकेट छोड़े। सारा इलाका बिजली के चमकने की तरह रोशनी में नहा गया। ट्रेसरों की रोशनी में पीछे बैठे सियाने पुलिस अफ़सरों ने रेस्ट हाउस का पूरा जायज़ा ले लिया। चौबारे में बैठे लड़कों की पहले तो इतनी रोशनी देखकर यूँ ही आँखें चुंधिया गईं। फिर ट्रेसरों की घटती रोशनी में उन्हें आस पास के दरख्त भी पुलिस की गाड़ियाँ ही प्रतीत हुए। उन्हें लगा जैसे आस पास पुलिस ही पुलिस हो। खिड़कियों में से होकर जब इतनी रोशनी ने अन्दर प्रवेश किया तो सुखचैन ने ऊपर लिया खेस उतारकर फेंक दिया। 'जिस बात से रोज़ डरता था, वही होने वाली है।' वह भी समझ गया था कि पुलिस का घेरा पड़ चुका था। वह नीचे गद्दा बिछाकर एक कोने में सहमकर बैठ गया।
चौबारे वाले अनजान लड़कों ने ट्रेसर की रोशनी से घबरा कर फायरिंग शुरू कर दी। वे लगातार पूरब दिशा की ओर फायरिंग किए जा रहे थे। बख्शीश ने सिर पकड़ लिया, ''कर दी बेवकूफों वाली बात।'' उसने सीढ़ियों में खड़ा होकर ऊपर वाले लड़कों को फटकारा, ''फायरिंग बन्द करो।'' एक बार तो लड़कों ने गोलीबारी रोक दी। बख्शीश यह समझे खड़ा था कि ये तो सभी अनजान लड़के थे। रणदीप ने पूरब की ओर से फिर ट्रेसर चलाये। चौबारे वाले लड़कों ने फिर उधर फायरिंग शुरू कर दी। रणदीप ने अंदाजा लगा लिया कि ये पूरब की तरफ भागने की कोशिश करेंगे। चौबारे वालों ने राकेट छोड़ा जिसने ट्रैक्टर टेढ़ा कर दिया। नुकसान कुछ नहीं हुआ। ड्राइवर बाहर आ गया। उस ट्रैक्टर की जगह पीछे से आए ट्रैक्टर ने ले ली। बख्शीश ने ऊपरवालों की मूर्खता का फायदा उठाना चाहा। उसने उन्हें फायरिंग का आदेश दिया। वे पूरब की ओर अंधाधुंध गोली चलाने लगे। प्रत्युत्तर में पुलिस भी गाली चलाने लगी। बख्शीश नहर की पगडंडी से होकर पूरब वाले घेरे में से निकलने की कोशिश करने लगा। वह जैसे ही पुलिया के करीब पहुँचा, तभी कमांडो की गोली उसके माथे में बजी। पिछले लड़के लीडर रहित हो गए थे। वे बिना सोचे-समझे इधर-उधर गोली चला रहे थे। पुलिस उनकी रेंज से बाहर थी। रणदीप की योजना था कि अधिक से अधिक लड़के जीवित पकड़े जाएँ। इसलिए वह दूर एक टीले पर बैठा लड़कों की अफरा-तफरी देख रहा था। ऊपरवाले जिधर गोली चला रहे थे, रणदीप ने उनके दायीं और बायीं ओर से पुलिस को गोली चलाने के आदेश दिये। लड़के सामने तीन दिशाओं में पुलिस की ओर गोलीबारी करने में व्यस्त हो गए। पीछे टीलों की तरफ खड़े कमांडों शीशम के दरख्तों में से होते हुए रेस्ट हाउस की दीवारों तक पहुँच गए। उन्होंने एक ही हल्ले में चौबारे पर हैंड ग्रिनेड फेंके। एक बहुत बड़ा धमाका हुआ और चौबारा सभी लड़कों सहित नीचे आ गिरा। अन्दर आग लग गई। अन्दर से जान बचाकर बाहर की ओर भागते छह लड़कों को कमांडों ने दबोच लिया। शेष या तो गोलीबारी में मारे गए या फिर चौबारे की छत के नीचे दबकर मर गए। सवेरे छह बजे के करीब कमांडों ने कामयाब आपरेशन की सूचना रणदीप को दी। रणदीप ने आगे मंत्री जी को। मंत्री जी ने प्रत्युत्तर में कड़कते स्वर में आदेश दिया, ''मुकाबला जारी रखो और मेरे अगले आर्डर तक गोली चलाते रहो।''
मंत्री जी के आर्डर तेजी से घूम रहे थे। रतनगढ़ के आसपास के पन्द्रह-बीस गाँवों के स्पीकरों पर सवेरे ही इस मुकाबले की खबर प्रसारित कर दी गई थी। उधर जाने वाले सभी रास्ते पुलिस ने बन्द किए हुए थे। रणदीप मंत्री जी के कहने के अनुसार अपनी कार्रवाई किए जा रहा था। एक तरफ बैठी पुलिस पार्टी हवा में गोलियाँ चलाये जा रही थी। रणदीप का ख़ास अफ़सर रेस्ट हाउस में दाख़िल होकर अपनी कार्रवाई कर रहा था। उसके संग सिर्फ़ उसके गिने चुने आदमी थे। उन्होंने पकड़े गए लड़कों की निशानदेही पर कच्ची जगह खोदकर माया के ढेर बाहर निकाले। रणदीप तक पहुँचाए। फिर नीचे दबा असला निकाला। इधर-उधर बिखरा असला एकत्र किया।
करीब दस बजे रणदीप रेस्ट हाउस पहुँचा तो आग से जली चौदह लाशें एक तरफ पड़ी थीं। छह लड़के रस्सों से बांधकर उनके बराबर में उल्टे लिटा रखे थे। शेष लगभग पन्द्रह लड़कों को रस्सों से बांधकर दूर ओवरसियर के क्वार्टर की तरफ उल्टा लिटा रखा था। रणदीप नाक पर रूमाल रखकर इधर-उधर घूम रहा था। उसे तसल्ली थी कि बग़ैर किसी नुकसान के उसने एक सफल आपरेशन किया था। किसी भी आतंकवादी को भागने नहीं दिया था। उसने अपने खास अफ़सर को बुलाकर जिन्दा पकड़े गए छह लड़कों को उसके हवाले करके किसी खास जगह पर भेज दिया। रिपोर्ट बनाई गई कि कुल चौदह के चौदह आतंकवादी मार गिराये गए हैं।
''ये कौन हैं ?'' उसने अपने खास अफ़सर से पूछा।
''ये जी इस कोठी के मुलाज़िम हैं।''
रणदीप ने देखा कि इन सभी पर पुलिस की पिटाई हो चुकी थी। वह एक-एक को देखता हुआ कतार के आख़िरी सिरे पर पहुँचा। आख़िरी व्यक्ति की ओर उसने ध्यान से देखा। रणदीप ने नीचे झुककर उसे सीधा किया। उसके मुँह से खून बह रहा था। माथे पर भी पुलिस की बन्दूक का बट बजा हुआ था। उसे देखते ही रणदीप के अन्दर एक बिजली-सी कौंधी।
''तू सुखचैन तो नहीं ? मलकपुर वाला।''
नीचे पड़े हुए सुखचैन ने सिर हिला कर हामी भरी।
''भैण... ने तुझे भी नहीं बख्शा।'' रणदीप ने पता नहीं किसे सुना कर कहा। उसका इशारा गुरलाभ की तरफ था। सुखचैन की दयनीय हालत देखकर उसके दिल के किसी कोने में से हॉस्टल वाला रणदीप जाग उठा।
''इसे खोलो, क्वार्टर के अन्दर ले चलो। मुझे पूछताछ करनी है।''
हुक्म की पालना हुई। सुखचैन के क्वार्टर के अन्दर रणदीप कुर्सी पर बैठा था। सुखचैन गिरता-पड़ता नीचे ज़मीन पर ही बैठ गया।
''सुखचैन, प्लीज, चारपाई पर बैठ।'' पुराने दिन याद करते हुए सुखचैन को देखकर रणदीप का दिल पसीज उठा।
''नहीं सर, मैं ठीक हूँ।''
''नहीं सुखचैन तू उठ।'' आगे बढ़कर रणदीप ने सुखचैन को उठाकर चारपाई पर बिठा दिया।
''सुखचैन, अगर मुझे पता होता कि इस कोठी में तू है तो तुझे ज़रूर पहले ही बाहर निकाल लेता।'' पुराना लिहाज याद करते हुए रणदीप को अफ़सोस हो रहा था।
रणदीप उठकर आँगन में टहलने लगा। वह दिल से सुखचैन की मदद करना चाहता था। हालात के मुताबिक यह काम बहुत कठिन था। सुखचैन पर खाड़कुओं को पनाह देने का चार्ज़ लगना था। उसने टहलते हुए ही मन में कोई निर्णय लिया। वह वापस सुखचैन के पास आ गया।
''सुखचैन, तू आजकल के हालात के बारे में तो जानता ही है। मैं तुझे इस केस में से बचाना चाहता हूँ।''
सुखचैन ने आशा भरी नज़रों से रणदीप की ओर देखा।
''सुखचैन, तुझे कुछ खर्च करना पड़ेगा। फिर ही इस केस से बच सकेगा।''
''सर, जैसे भी हो करो प्लीज।'' सुखचैन को उम्मीद-सी होने लगी।
''तो सुन फिर। यहाँ से मैं तुझे निकाल देता हूँ। बाद में तू जैसे-तैसे बाहर के किसी मुल्क में निकल जा। क्योंकि यहाँ तो तुझे अब पुलिस जीने नहीं देगी।''
''ठीक है सर।''
रणदीप ने सुखचैन को अपने संग लेकर उसका कंधा दबाया। अपने ख़ास अफ़सर को आवाज़ लगाई। उसने दौड़कर अन्दर आकर सलूट मारा।
''जी सर।''
''यह मेरा पुराना दोस्त है। इसको यहाँ से निकाल दे। बेचारा बेकसूर है। जल्दी कर...।'' अफ़सर ने जीप बैक की। सुखचैन को पीछे बिठाया। सुखचैन के बताये अनुसार साथ ही लगते राजस्थान के किसी गाँव में छोड़ आया। फिर सभी मरे हुए और जिन्दा पकड़े हुए लड़कों को ट्रक में लादा और भाई केरे की तीन कोणी की तरफ ले चले। यहाँ मंत्री जी ने अपना अड्डा जमा रखा था। टी.वी. पर लगातार ख़बर चल रही थी कि मंत्री जी अपनी देख-रेख में खाड़कुओं के एक बड़े ग्रुप को घेरा लगाए बैठे हैं जिसने पिछले दो महीनों में अबोहर इलाके में आतंक मचा रखा था। मंत्री जी के आसपास पन्द्रह-बीस गाँवों की पंचायतें बैठी थीं। वह बीच में कुर्सी डाले बैठे थे।
तीन कोणी से पीछे पुलिस का ट्रक रुका। चौदह लाशें सड़क के किनारे एक कतार में रख दी गईं। कोठी के मुलाजिमों को उसी तरह बांधे हुए सामने वाले पेट्रोल पम्प पर बिठा दिया। आगे तीन कोणी पर जाकर रणदीप ने मंत्री जी को सलूट मारा।
''सर, एक्शन इज़ ओवर।''
मंत्री जी ने पुलिस वालों को शाबाशी दी। पंचायतों के सामने उनकी प्रशंसा के पुल बांधे। फिर रणदीप पंचायतों से मुखातिब हुआ, ''सभी गाँवों की पंचायतें लाशों को गौर से देखें। अगर किसी की पहचान होती है तो बताओ।'' पंचायतों के लोग नाक ढक कर जली हुई लाशों के चक्कर काटते रहे पर किसी की पहचान न हो सकी। उन्होंने लाशों को दुबारा ट्रक में फेंककर पोस्ट मार्टम के लिए शहर के अस्पताल भेज दिया। पंचायतों के कुछ बुजुर्ग लोग मंत्री जी से मुखातिब हुए।
''इन गरीबों को क्यों पकड़ा है जी ?'' उनका संकते नहरी विभाग के कर्मचारियों की ओर था।
''इन पर खाड़कुओं को पनाह देने का इल्ज़ाम है।'' कोई पुलिस वाला बोला।
''ये गरीब अपना टाइम मुश्किल से बिताते हैं। ये किसी को क्या पनाह देंगे।''
''उन्होंने तो सरकारी रेस्ट हाउस पर कब्ज़ा किया हुआ था। इसमें इन लोगों का क्या कसूर है।''
लोगों में खुसुर-फुसुर होने लगी तो मौके की नब्ज़ पकड़ते हुए मंत्री जी ने लोगों को शान्त किया और बोले, ''अगर तुम लोग इनकी गारंटी लो तो इन्हें छोड़ देते हैं।''
''गारंटी की क्या है जी, ये लोग तो हमारे बीच में ही रहते हैं।''
''हर एक गाँव का सरपंच इनकी बेगुनाही के बारे में आगे आकर इस कागज पर दस्तख़त कर दे।''
रणदीप ने नहरी विभाग के कर्मचारियों की बनाई सूची और अन्य जानकारी मंत्री जी के सामने रख दी। आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़कर सभी सरपंचों ने दस्तख़त कर दिए। पुलिस वालों ने कोठी के कर्मचारियों को रिहा कर दिया। रणदीप ने मंत्री जी के आगे से पेपर उठाकर और उन्हें फाइल में डालते हुए शीघ्रता से उन सभी कर्मचारियों के ऊपर सुखचैन सिंह चट्ठा का नाम लिख दिया और इसी प्रकार वह भी इन सबके साथ बेगुनाहों की सूची में आ गया।
मंत्री जी की हिदायत पर उनकी पार्टी के वर्कर पूरी तैयारी के साथ उनका शहर में इंतज़ार कर रहे थे। मंत्री जी खाड़कुओं का सफाया करके ज़िले की सारी पुलिस के आगे-आगे शहर में दाख़िल हुए। सारा शहर हाथों में मालाएँ लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। 'मंत्री जी ज़िन्दाबाद !' के नारों से शहर गूंज उठा। पूरे इलाके का बच्चा-बच्चा मंत्री जी का धन्यवादी था जिन्होंने विदेशी दौरे से लौटते ही खाड़कुओं का खात्मा करवा दिया था। दो दिनों में ही सारे इलाके को खाड़कुओं के भय से मुक्त कर दिया गया। हर तरफ अपनी जय-जय देखते हुए मंत्री जी मुख्यमंत्री की कुर्सी की तरफ ललचाई नज़रों से देखने लगे।
रणदीप को प्रमोट करके डी.आई.जी. बना दिया गया था। उसने नई जगह बार्डर रेंज का चार्ज संभाल लिया था।
सुखचैन गाँव में पहुँचा तो उसने घर में छाये मातम की तरफ अधिक ध्यान नहीं दिया। उसने अपने माँ-बाप को एक तरफ ले जाकर सारी बात समझा दी। सुखचैन के पिता ने हफ्ते-दस दिन में दो किल्ले ज़मीन बेचकर पैसों का प्रबंध कर दिया। कुछ पैसे सुखचैन के पास जमा थे। पैसों का प्रबंध करके वह दिल्ली चला गया। पैसे और पासपोर्ट लेकर एजेंट ने सुखचैन को अन्य लड़कों के संग किसी होटल में ठहरा दिया। उससे करीब दो सप्ताह बाद सुखचैन दिल्ली से थाईलैंड जा रहे एअर फ्रांस के हवाई जहाज में बैठा था।
-समाप्त-

Sunday, September 26, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 22
सुखचैन छुट्टी से वापस आकर रतनगढ़ पहुँचा तो उसने देखा कि अमरीक के बताये अनुसार खाड़कुओं ने रेस्ट हाउस को अड्डा बना लिया था। नीचे के तीन कमरे और ऊपर का चौबारा उनके कब्जे में था। उनकी संख्या भी आठ-दस के करीब थी। रेस्ट हाउस एक किले में तब्दील हुआ पड़ा था। दो आदमी हमेशा चौबारे में बैठे पहरा देते थे। उधर मंत्री जी के विदेश चले जाने के बाद गुरलाभ ने एक्शन आरंभ कर दिया। अगले दिन अख़बारों की मुख्य सुर्खी थी - ''कम्युनिस्ट पार्टी के पुराने नेता कामरेड दर्शन सिंह और कांग्रेस के दरवेश सियासतदान सरदार गुरबाग सिंह खाड़कुओं के हाथों हलाक।''
फिर मंत्री जी के मुख्य विरोधी भाजपा नेता राणा बहिणीवाल का दिन दिहाड़े शहर में क़त्ल हो गया।
उसके अगले दिन 'रोज़ाना बाणी अख़बार' के मालिक गिरधारी लाल को खाड़कुओं ने उसके दफ्तर में ही मार दिया। इस प्रकार अगले लगभग डेढ़ महीने तक कोई भी दिन सूखा नहीं गया था जब खाड़कुओं ने कोई न कोई लीडर न मारा हो। खाड़कुओं के आतंक से सारा इलाका त्राहि-त्राहि कर उठा।
इन दो महीनों में पुलिस के ख़ास अफ़सरों, बीच के दलालों और गुरलाभ आदि की तिजोरियाँ मुँह तक भर गई थीं। अनगिनत लोगों का गुरलाभ के दल ने सफाया कर दिया था। कितने ही मुकाबले पुलिस वालों ने बना दिए थे। मंत्री जी ने दो महीने दिए थे। गुरलाभ ने सारा काम डेढ़ महीने में ही पूरा कर लिया था। मंत्री जी ने हालांकि पूरी हिदायत दी थी लेकिन रणदीप फिर भी गुरलाभ के अड्डे खोजने की कोशिश लगातार करता रहा। उसे सफलता नहीं मिली थी। वह तो शहर में ही ख़ाक छानता रहा। बाहर की तरफ तो उसने ध्यान ही नहीं दिया था। गुरलाभ ने सारा काम समाप्त कर, जिस दिन अन्तिम एक्शन किया, उस दिन उसने रणदीप से फोन पर बात की।
''मैं अब तुझे दसेक दिन में सम्पर्क करूँगा। अब सब काम बन्द रहेंगे।''
''मेरे लायक कोई काम है तो बता या कोठी आ जा।'' रणदीप पुलिस वाले दांवपेंच खेलकर उसके अड्डों का भेद जानना चाहता था।
''कोई बात नहीं। अब तो मंत्री जी लौटने वाले हैं।'' गुरलाभ ने फोन काट दिया।
फिर वह लुक-छिपकर अपने ग्रुप के लड़कों से मिलने लगा। रतनगढ़ रेस्ट हाउस के साथ-साथ उसके आदमी दो और जगहों पर अपने ठिकाने बनाये बैठे थे। उसने सभी लड़कों को समझाया कि अगले दस दिन कोई एक्शन नहीं करना। सबको शरीफ बनकर रहना है। उसके पास अब तक बीसेक लड़के हो चुके थे। पिछले डेढ़ महीने में सभी ने खूब पैसे बनाये थे। सभी गुरलाभ के दिमाग की दाद देते थे। आज तक किसी भी लड़के का नुकसान नहीं हुआ था। सब मौज मारते थे। गुरलाभ के आदेश पर सभी लड़के अपने अड्डों के अन्दर ही दुबक कर बैठ गए। गुरलाभ ने सत्ती के घरवालों के साथ सम्पर्क बनाया हुआ था। उसका कहना था कि मंत्री जी खुश होकर गुरलाभ और सत्ती को किसी बाहरी देश में घूमने के लिए भेजना चाहते हैं। आजकल के हालातों के कारण यह बात बहुत छुपा कर रखनी थी। उसका यह भी कहना था कि बस, तुरन्त ही चल देना होगा। इसलिए अभी से तैयारी रखी जाए। सत्ती के पैर धरती पर नहीं लग रहे थे। विवाह से पहले ही विदेश की सैर, बाद में पता नहीं क्या-क्या मिलेगा। एक मुश्किल थी कि वे इकट्ठा होकर चलेंगे कहाँ से। सत्ती अमरगढ़ अभी जा नहीं सकती थी। अभी विवाह नहीं हुआ था। ऐसे ही गुरलाभ भी अभी रत्ते खेड़े नहीं जा सकता था। फिर इसका हल भी खोज लिया गया। दोनों परिवारों का साझा दोस्त-परिवार डबवाली में रहता था। प्रोग्राम बना कि उसी के घर में इकट्ठा हुआ जाए। वहीं से दिल्ली को रवाना हुआ जाए। सत्ती की माँ ने कुछ एतराज़-सा किया।
''लड़की का अभी विवाह भी नहीं हुआ। विवाह से पहले ही होने वाले पति के साथ सैर करने जाना शोभा नहीं देता।''
''बीबी, यह तो पुराने ख़यालों की बातें हैं। और फिर बाद में तो गुरलाभ एम.एल.ए. के चुनाव में बिजी हो जाएगा, फिर कब टाइम मिलेगा।'' करनबीर ने समझाया। फिर जैसे-तैसे होकर माँ भी मान गई।
गुरलाभ ने चौदह नवम्बर को डबवाली पहुँचने की हिदायत दी। उसका कहना था कि सिर्फ़ घर के सदस्य ही हों। यहाँ तक कि कोई रिश्तेदार भी न हो। न ही इस टूर की बाहर किसी को भनक लगे।
गुरलाभ उस रात सभी ठिकानों पर गया। सभी लड़कों के संग अच्छी-अच्छी बातें कीं। ''अब अगले प्रोग्राम बहुत खूंखार होंगे। तुम देखना तो सही, हम सारे पंजाब पर कब्ज़ा कर लेंगे।'' उसकी बातों को सुनकर लड़के ऐड़ी के बल बैठे थे।
''पर भाई जी, प्रोग्राम क्या है ?'' बीच में किसी ने पूछा।
''यह तय करने के लिए पन्द्रह नवम्बर की रात को रतनगढ़ नहरी कोठी में मीटिंग रखी है। मीटिंग रात के बारह बजे के करीब शुरू होगी। यही बताने के लिए मैं आज तुमसे मिलने आया हूँ।'' उसकी बात सुनते ही लड़के और अधिक हौसलापरस्त हो गए। ''किसी को सीधे रास्ते नहीं जाना। खेतों में से होकर जाना है। और उस दिन हथियार संग लेकर नहीं चलना। पुलिस जगह-जगह पर छिपी बैठी है। यदि खेतों के बीच से जाते हुए कोई रोके तो कह सकते हो कि खेत जा रहे हैं। हथियार पास में हुआ तो मुश्किल हो सकती है। उस मीटिंग के बाद रोज़ हथियार ही उठाने हैं। याद रखना, बारह बजे से लेट नहीं होना।'' उसकी बातें सुनकर हरेक सोच रहा था कि बारह तो दूर, वह तो ग्यारह बजते को पहुँच जाएगा।
तेरह नवम्बर की रात गुरलाभ घर में आ गया था। उसके बाद वह घर से बाहर नहीं निकला। चौदह नवम्बर को वह दिनभर घर में ही रहा। घर में रहने का सबसे बड़ा कारण था कि शायद मंत्री जी का कोई सन्देश न आ जाए। फिर वही बात हुई कि दोपहर के बाद मंत्री जी की कोठी से फोन आया। गुरलाभ को मंत्री जी की हिदायत पर कोठी बुलाया गया था। जैलदार ने गुरलाभ को कार में बिठाया और मंत्री जी की कोठी पहुँच गया। गुरलाभ ने जैलदार को वापस भेजते हुए कहा, ''आप मामा जी, वापस जाओ। आपको मैं अब कल डबवाली में ही मिलूँगा। आप अकेले ही आना।'' जैलदार वापस गाँव की ओर मुड़ गया। गुरलाभ को मंत्री जी के प्राइवेट कमरे में बैठे हुए कुछ ही समय बीता था कि मंत्री जी का फोन आ गया। उनके पी.ए. ने फोन पर थोड़ी-सी बात की। फिर फोन गुरलाभ को पकड़ा दिया और खुद कमरे से बाहर चला गया। रस्मी बातचीत के बाद मंत्री जी असली मुद्दे पर आए, ''शाबाश बेटे, तूने मेरे पीछे सारा काम बहुत बढ़िया ढंग से संभाला।''
''जी आपका आशीर्वाद है।''
''मैं तेरे काम से बहुत खुश हूँ। पहले तय किए गए प्रोग्राम के अनुसार तुझे कल मुझे दिल्ली वाली कोठी में मिलना है।''
''जी, ठीक है।''
''अब तुझे यहाँ कोठी से बाहर नहीं जाना। सवेरे यहीं से दिल्ली के लिए चलना है। बाकी बातें मिलकर होंगी। तुझे किसी दूसरे से कोई बात नहीं करनी।''
''जी, ठीक है।''
इसके बाद पी.ए. ने गुरलाभ को एक स्पेशल कमरे में ठहरा दिया। फिर कुछ देर बाद एस.पी. रणदीप को मंत्री जी का फोन आ गया, ''मैं कल तक शहर पहुँच जाऊँगा।''
''जी सर।''
''तुम शहर के प्रतिष्ठित लोगों की मीटिंग बुला कर यह बात बता दो कि मंत्री जी दिल्ली पहुँच गए हैं। अपने इलाके में घट रहीं आतंकवादी कार्रवाइयों के बारे में उच्च अधिकारियों से मीटिंग कर रहे हैं। उनके आते ही आतंकवादियों का नामोनिशान मिटा देंगे।''
''तुम्हें सवेरे जल्दी मेरी कोठी पर पहुँचना है। गुरलाभ के काफ़िले को पंजाब की सरहद पार कराकर ही वापस लौटना है।''
''जी, ठीक है सर।'' फोन कट गया। रणदीप, गुरलाभ और मंत्री जी दोनों को ही मन में गालियाँ दे रहा था। ''साले मुझे समझते ही कुछ नहीं। चलो कोई बात नहीं। पानी ने गुजरना तो पुल के नीचे से ही है न।'' उसे उतावली थी कि शीघ्र ही वह अपना नाम बनाये। उसके बाद उसने शहर के लीडरों की बैठक बुलाकर मंत्री जी का सन्देश सभी को सुना दिया। शाम तक सारे शहर में अफवाहें थीं कि मंत्री जी दिल्ली में बैठे अपने इलाके की सुरक्षा का ही प्रबंध कर रहे थे। एक दो दिन में वापस लौटकर वे सब कुछ ठीक कर देंगे।
पन्द्रह नवम्बर की सुबह मंत्री जी की कोठी से मंत्री जी की झंडी वाली कार निकली। सबसे आगे पायलट गाड़ी थी। आगे पीछे अन्य सिक्युरिटी की गाड़ियाँ थीं। मंत्री जी वाली गाड़ी में गुरलाभ के साथ एस.पी. रणदीप बैठा था। गाड़ियों का काफ़िला दिल्ली की ओर चल पड़ा। रणदीप, गुरलाभ के संग साधारण-सी बातें करता रहा। उसे पता था कि मंत्री जी के हुक्म के बगैर यह कुछ नहीं बताएगा। डबवाली शहर में पहुँचते ही गाड़ियों का काफ़िला रुक गया। यहाँ से रणदीप ने वापस लौटना था।
''अच्छा गुरलाभ, गुड लक।''
''चलो ठीक है, जाओ फिर।'' रणदीप के इतना कहते ही गुरलाभ की गाड़ियाँ चल पड़ीं। फाटक पार करके पायलट गाड़ी सिनेमा वाली गली मुड़कर सिनेमा के पिछवाड़े बड़ी कोठी के सामने जा खड़ी हुई। गुरलाभ की गाड़ी कोठी के बिलकुल सामने रुकी। वह तेजी से कार से उतरकर अन्दर चला गया। अन्दर उसने अधिक समय नहीं लगाया। सत्ती सामान सहित तैयार थी। गुरलाभ मामा जैलदार के पैर छूकर उन्हें जफ्फी डालकर मिला। सत्ती की माँ को माथा टेका। करनबीर से कसकर हाथ मिलाया। फिर, फटाफट सत्ती को लेकर कार में बैठ गया। नौकरों ने सामान पिछली गाड़ी में टिका दिया। जैलदार और करनबीर गुरलाभ को झंडी वाली कार में बैठा देखकर गदगद हुए बैठे थे। सत्ती को संग लेकर गाड़ियाँ हाईवे पर चढ़कर दिल्ली की ओर चल दीं। दोपहर से कुछ समय बाद गुरलाभ का काफ़िला मंत्री जी की दिल्ली वाली कोठी पर जा पहुँचा। मंत्री जी रात में ही आ गए थे। नींद पूरी करके कुछ समय पहले ही उठे थे। चाय-पानी पीने के बाद गुरलाभ मंत्री जी के प्राइवेट कमरे में उनके सम्मुख बैठा था।
''तेरे सारे कामों के बारे में मुझे रिपोर्ट मिलती रहती थी। काम तूने बहुत तसल्लीबख्श किया है। पर शहर में आतंक बहुत फैला दिया।'' मंत्री जी की टोन कुछ बदली हुई थी।
''आप जल्दी जाकर लोगों को आतंक-मुक्त करो फिर।''
''मुझे पता है कि मुझे अब क्या करना है।''
''लोग भी आपका ही इंतज़ार कर रहे हैं कि कब मंत्री जी आएँ, कब इस आतंक से मुक्ति मिले।''
''अच्छा, अब मुझे समझा सारी डिटेल।'' मंत्री जी ने पूरा ध्यान गुरलाभ की बातों की तरफ कर लिया।
उसने सब कुछ विस्तार से बता दिया।
''ये ले पासपोर्ट और टिकटें। अच्छी तरह देख-परख ले।'' मंत्री जी ने पासपोर्ट गुरलाभ के सामने रख दिए। एक पासपोर्ट पर गुरलाभ की फोटी लगी थी और नाम लिखा था - हरलाभ सिंह पुत्र श्री प्यारा सिंह, गाँव-राजपुरा, ज़िला-गंगानगर, राजस्थान। दूसरा सत्ती का पासपोर्ट था। उस पर गलत पता और सूबा राजस्थान अंकित था। दोनों पासपोर्टों पर कनेडा का वीज़ा लगा हुआ था। फ्लाइट का टाइम आज की रात सवेरे दो बजे का था। गुरलाभ ने आगे बढ़कर मंत्री जी के चरण स्पर्श किए। मंत्री जी उसे गौर से देखते रहे।
''आज से तू हरलाभ सिंह है, अच्छा अब तू जा...।'' इतना कहते हुए मंत्री जी पीछे कोठी में चले गए और गुरलाभ सत्ती के संग गाड़ी में जा बैठा।
''ये पासपोर्टों पर गाँवों के नाम और पतें गलत क्यों लिखे हुए हैं ?''
''मंत्री जी ने जल्दबाजी में यहीं दिल्ली से पासपोर्ट बनवाये हैं। जल्दबाजी के काम ऐसे ही होते हैं। अब नहा-धो कर तैयार हो, एअरपोर्ट को निकलें।'' गुरलाभ की बातों ने सत्ती के प्रश्नों को विराम लगा दिया। वह उठकर तैयार होने लगी। फ्लाइट से दो-तीन घंटे पहले वे एअरपोर्ट की ओर चल पड़े। इधर-उधर कागज-पत्र चैक करवाते और पासपोर्टों पर स्टैम्प लगवाते उन्हें दो घंटे लग गए। सभी तरफ से मुक्त होकर आखिर में सिक्युरिटी प्वाइंट पार करके वे एअर कैनेडा के जहाज में जा बैठे।
(जारी…)
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Sunday, September 19, 2010

धारावाहिक उपन्यास


बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 21
मंत्री जी के साथ मुलाकात के बाद जैलदार का गुस्सा जाता रहा था। वह भी गुरलाभ के साथ सहमत था कि पेड़ गिनकर क्या लेना। आम खाओ। वह अफीम के नशे में चुटकियाँ मार रहा था जब गुरलाभ ने आकर उसके विचारों की लड़ी को तोड़ा।
''मामा जी, इस वक्त मूड कैसा है आपका ?'' गुरलाभ ने जैलदार को चुटकियाँ मारते देख लिया था।
''बस, गाड़ी पूरी रफ्तार पर है। तू हुक्म कर।''
''मैं परसों वाली बात करना चाहता हूँ।''
''हाँ, बता।''
''मामा जी, वैसे आप मुझसे बड़े हो पर मेरे साथ हमेशा दोस्तों जैसा व्यवहार करते हो।'' गुरलाभ ने मामा को फूंक दी।
''तू यार बात तो बता। तेरे वास्ते दिल्ली-दक्खिन एक कर दूँ।'' मामा हवा में उड़ रहा था। गुरलाभ ने सकुचाते हुए सत्ती वाली सारी कहानी सुना दी।
''अब तू चाहता क्या है ?'' जैलदार अन्दर ही अन्दर खुश होता हुआ बोला।
''आप बन जाओ बिचौलिया। और मैं क्या चाहता हूँ।'' गुरलाभ चुप हो गया।
''ओए, वाह रे आशिक ! तूने तो बिलकुल ही शिखर पर लगे बेर पर हाथ डाला है। जंग सिंह तो रत्तेखेड़े का जाना-माना सरदार है।''
वे बातें कर ही रहे थे कि मंत्री जी की कारों का काफ़िला जैलदार के घर के सामने आ खड़ा हुआ। मंत्री जी अपने लोगों की भांति घर के सदस्यों से मिलने लगे। जैलदार की माँ के पैरों को हाथ लगाया। फिर आँगन में बिछे मूढ़ों पर आ बैठे।
''जैलदार, मैंने तो पहले ही देख लिया था कि अपना गुरलाभ किसी दिन सियासत के तख्त पर बैठेगा।'' मंत्री जी शुरू हो गए, ''अभी इसकी उम्र ही क्या है। एम.एल.ए. बनने जा रहा है।''
''मंत्री जी, आपकी कृपा है।''
''चल भाई साथ चल। अब ऐसे बैठने से काम नहीं चलेगा। राजनीति में तो दिन रात एक करना पड़ता है।'' मंत्री जी अधिक देर नहीं बैठे। वह गुरलाभ को अपने संग ही कार में बिठा कर ले गए।
शाम को मंत्री जी की कोठी के एक प्राइवेट कमरे में मंत्री जी और गुरलाभ बैठे थे।
''देख गुरलाभ, मैं तुझे रायपुर से सीट दिलवाना चाहता हूँ। तू तो जानता ही है कि वहाँ से अपनी विरोधी पार्टी का उम्मीदवार जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ हर बार चुनाव जीतता है।''
''जी।''
''वैसे तो इसबार हम उसे चुनाव में भी हरा देंगे। और फिर तेरे सामने वह चीज़ भी क्या है। पर सुना है कि उसके खाड़कुओं के साथ संबंध हैं। जहाँ तक चुनावों की बात है, वह मैं संभाल लूँगा। उसके दूसरे संबंधों का तो तू ही कोई...।'' इससे आगे मंत्री जी ने बात अधूरी छोड़ दी।
तीसरे दिन अख़बारों की मुख्य सुर्खी थी - विरोधी पार्टी का मैंबर अजमेर सिंह लद्धड़ खाड़कुओं द्वारा हलाक।
उस दिन मंत्री जी द्वारा इशारा करने के बाद गुरलाभ अपने ठिकाने पर पहुँचा। चार लड़कों का ग्रुप तैयार किया। रात के करीब नौ बजे जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ को हलाक करके उसके लड़के भाग निकले। उसके गनमैन द्वारा चलाई गई गोली से एक लड़का ज़ख्मी हो गया। ज़ख्मी लड़के को कार में फेंक गुरलाभ ने कार दौड़ा ली। आगे कोई नहर आई तो सड़क छोड़कर उसने कार नहर की पटरी पर चढ़ा ली। कुछ दूर जाकर बायें हाथ पर नहरी कोठी आ गई। गुरलाभ ने रेस्ट हाउस के एक तरफ कार रोक ली। रेस्ट हाउस के चौकीदार ने समझा कि शायद कोई नहर महकमे का अफ़सर आया होगा। उसने दौड़कर रेस्ट हाउस का दरवाजा खोल दिया। जैसे ही वे अपने ज़ख्मी साथी को लेकर अन्दर उजाले में आए तो चौकीदार के होश उड़ गए। सभी के गलों में लटकती राइफ़लें देखकर वह समझ गया था कि ये कौन थे।
''यहाँ ओवरसीयर कौन है ?'' गुरलाभ ने पूछा।
''जी, चट्ठा साहिब।'' चौकीदार के गले से कांपती आवाज़ में बमुश्किल से निकली।
''जा, बुलाकर ला। चन्ने, तू इसके साथ जा।'' गुरलाभ ने एक राइफ़ल वाले लड़के को इशारा किया। चौकीदार ने जाकर कोठी का दरवाजा खटखटाया। सुखचैन ने दरवाजा खोल दिया, ''हाँ, क्या बात है ?'' सुखचैन ने सिर पर कपड़ा लपेटते हुए पूछा।
''जी, बाबे बुला रहे हैं।''
''हैं ! बाबे कौन ?'' सुखचैन ने हैरान होते हुए चौकीदार की तरफ देखा। एक तरफ खड़े बंदूकधारी ने सुखचैन की कमर से राइफ़ल टिका दी, ''चुपचाप चल पड़, नहीं तो परखचे उड़ा दूँगा।''
कांपता हुआ सुखचैन आगे-आगे चलता हुआ रेस्ट हाउस की तरफ हो लिया।
जैसे ही वह रेस्ट हाउस के दरवाजे पर पहुँचा तो उजाले में खड़े व्यक्ति ने उसकी तरफ मुँह घुमाया।
''गुरलाभ ! अरे तू ! ओ माई गॉड !'' सुखचैन आगे बढ़ा।
''सुखचैन, तू यहाँ है !'' गुरलाभ भी हैरान होता हुआ बोला।
सुखचैन ने मोह के वेग में आकर आगे बढ़कर गुरलाभ को बांहों में भर लिया। गुरलाभ ने भी सुखचैन को आलिंगन में ले लिया। बाकी लड़कों ने सुखचैन की ओर तानी हुई राइफ़लें नीची कर लीं।
बांहों का घेरा ढीला करते हुए सुखचैन ने गुरलाभ को थोड़ा एक तरफ करके एकबार फिर उसे अच्छी तरह देखा।
''मैं पक्का करना चाहता हूँ कि तू गुरलाभ ही है, कहीं कोई छलावा तो नहीं।'' उस वक्त क्षणभर को सुखचैन भूल गया था कि वह किनके बीच घिरा खड़ा था।
''तूझे पता है, मैं तो आज तक यही समझता था कि तू भी उस मीटिंग के समय...'' आसपास देखता सुखचैन इससे आगे खामोश हो गया। गुरलाभ उसे अपनी बांह के घेरे में लेकर बाहर की ओर ले गया।
''हाँ, अब बता।''
''बताना क्या है गुरलाभ। मैं तो असल में... अकेला मैं ही नहीं, अपने सभी जानने वालों का ख़याल था कि जब लुधियाने में किसी मीटिंग में सभी लड़के पकड़े गए थे, तब तू भी उनमें शामिल था। मतलब सभी यही समझते हैं कि तूझे भी पुलिस ने खत्म कर दिया था।''
''सुखचैन, तू यह समझ ले कि बस बढ़ी हुई थी कि मैं बच गया। उस दिन मैं उस मीटिंग में लेट हो गया था।''
फिर, सुखचैन बाबा बसंत के विषय में बात करते करते रुक गया। वह एकाएक गुरलाभ को देखकर उभरी खुशी से बाहर आ चुका था। वह सच्चाई को समझने की कोशिश कर रहा था।
''गुरलाभ, तूने भी यह राह ?''
''बस, पूछ मत यार, यूँ ही चलते-चलते बाड़ की झाड़ियों में फंस गए।'' गुरलाभ ने एक्टिंग की। ''इस लड़के को गोली लगी है। पर तुझे ज्यादा दिन तकलीफ़ नहीं देंगे। दो-चार दिनों में इसके ठीक होते ही इसे ले जाएँगे।'' गुरलाभ ने मन में सोचा कि यह तो अड्डा ही बढ़िया मिल गया। न इधर कोई आए, न जाए।
''नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।'' सुखचैन ने ऊपरी मन से कहा।
''तेरी तो फिर इस इलाके में जान-पहचान होगी। इस लड़के का कर कोई हल।''
गुरलाभ का मतलब डॉक्टर से था।
अनमने-से सुखचैन ने मोटरसाइकिल निकाला। राजस्थान के साथ लगते शहर मटीली से अपने डॉक्टर दोस्त को ले आया। जब वह पहुँचा, वहाँ दो लड़कों के अलावा और कोई नहीं था। एक ज़ख्मी लड़का और एक अन्य। गुरलाभ बाकी लड़कों को लेकर जा चुका था। सुखचैन की दोस्ती के कारण ही डॉक्टर ने खाड़कू का इलाज किया था। गोली निकालकर उसने पट्टियाँ कर दीं, दवाइयाँ भी दे दीं। डॉक्टर समझता था कि सुखचैन और उसके सिर पर अनचाही विपदा आन पड़ी थी। डॉक्टर तब तक आता रहा, जब तक वह लड़का ठीक नहीं हो गया था। दिन चढ़ने पर जब सुखचैन ने सारी स्थिति पर विचार किया तो वह बहुत अशान्त हो गया। ''कहीं इन्होंने स्थायी अड्डा बना लिया तो फिर नहीं बच पाऊँगा।'' उसे मौसी का परिवार याद हो आया। साल भर रोटियाँ खाकर, जाते समय लाशों का ढेर लगा गए थे। सारा कुटुम्ब ही खत्म कर दिया था। फिर उसने कुछ सोचते हुए करनबीर की तरफ जाने का फैसला किया। वह सत्ती से मिलना चाहता था ताकि गुरलाभ के विषय में बता सके।
जैसे ही सुखचैन रत्ते खेड़े करनबीर के घर पहुँचा, उसने देखा कि वहाँ तो रौनकें लगी हुई थीं। ''अच्छा हुआ भाई जी तुम आ गए। वैसे मैंने अक्षय को सन्देशा भेजा था कि तुम्हें संग ले आए।'' अचानक आए सुखचैन को देखकर करनबीर शर्मिंदा-सा होता बोला। उसने सुखचैन को आमंत्रित नहीं किया था। लेकिन सुखचैन समझ नहीं पाया कि वह क्या कह रहा था। उसे लगा था कि जैसे घर में कोई फंक्शन हो।
''कैसे करनबीर ? सत्ती यहीं है या यूनिवर्सिटी लौट गई ?''
''वह तो यहीं है, तभी तो यह सब कुछ हो रहा है। तुझे उसने बताया नहीं ?''
''पर तू तो उस दिन के बाद इधर आया ही नहीं।'' अपने सवाल का करनबीर ने खुद ही जवाब दिया, ''मिलना है तो मिल आ। सत्ती अन्दर घर में ही है। वैसे तो वह लड़कियों में घिरी बैठी होगी।'' फिर करनबीर ने सत्ती को सन्देशा भेजा। सत्ती ने सन्देश भेजकर सुखचैन को अन्दर ही बुला लिया था।
सुखचैन अन्दर गया तो सत्ती लड़कियों में से निकलकर एक दूसरे कमरे में आ गई।
''कैसे बहन जी, तैयारियाँ तो ऐसी हैं जैसे...।''
''कर ले बहन से मखौल तू भी।'' सत्ती सुखचैन के करीब बैठती हुई बोली।
''ऐसा लगता है, सत्ती बहन को कोई राजकुमार मिल गया है। आज तो खूब रौनक लगी हुई है।'' सत्ती के दिपदिपाते चेहरे की ओर देखकर सुखचैन ने मीठा मजाक किया।
''मिला नहीं, गुम हुआ राजकुमार मिल गया।''
''वह कैसे ?'' सुखचैन कुछ समझा नहीं।
''इतने समय से उसे खोजती रही, उसका कोई अता पता नहीं लगा। फिर दो दिन पहले ही परिवार सहित आ गया हमारे घरवालों से बात करने। फिर झटपट मंगनी वाली बात हो गई।''
''तू किसकी बात करती है ?''
''गुरलाभ, और कौन ?''
सुखचैन को लगा मानो उसे बिच्छू ने डंक मारा हो। वह तो आया था कि गुरलाभ के बारे में बता कर वह सत्ती को उससे सावधान कर दे, पर इधर तो उनकी मंगनी हुई जाती थी।
''अच्छा बहन मेरी, गुड लक। मैं उधर करनबीर के पास बैठता हूँ।'' इतना कहकर वह बाहर निकल आया। करनबीर के पास भी वह अधिक देर बैठ न सका। काम का बहाना बनाकर वहाँ से खिसक आया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए। फिर वह बुझे हुए मन से ही शेरगढ़ कोठी की तरफ निकल गया। ''न जाने, अब क्या होगा ?'' यह चिंता उसे घुन की तरह खाये जा रही थी।
जैलदार ने गुरलाभ के बताने के बाद रत्ते खेड़े गाँव में जाकर जंग सिंह के परिवार के बारे में पता लगाया था। उसे सब कुछ जच गया। रत्ते खेड़े के ही किसी परिचित व्यक्ति को बिचौला बनाया। करनबीर के परिवार को भी गुरलाभ का घरबार पसन्द आ गया। दोनों तरफ की सहमति होने के पश्चात् जैलदार ने गुरलाभ और सत्ती की पुरानी जान-पहचान के बारे में चुप रहना ही बेहतर समझा। गुरलाभ और सत्ती को मनचाही मुराद मिल गई थी। मंगनी से पहले दिन दोनों की मुलाकात भी करवाई गई। गुरलाभ ने स्वयं को दूध का धुला साबित कर दिया। डिप्लोमा के विषय में पूछे जाने पर गुरलाभ ने समझाया कि अब उसे एम.एल.ए. की टिकट मिल ही रही थी, इसलिए अब डिप्लोमे का क्या लेना। सत्ती को राजनीति पसन्द नहीं थी। वह जानती थी कि इन सरदारों के बेटों के शौक निराले हैं। इन पर कोई रोक नहीं लगा सकता। उसे इस बात की संतुष्टि थी कि उसने अपनी मंजिल पा ली थी। उसकी मुहब्बत परवान चढ़ी थी। दोनों की मंगनी हो गई। विवाह के लिए सत्ती की परीक्षा तक रुकना था।
सुखचैन बड़े असमंजस में रहने लगा था। गुरलाभ के ग्रुप ने आकर उसकी सुख-शान्ति से चल रही ज़िन्दगी में खलल डाल दिया था। उसे लगता था मानो जाती हुई बला उसके घर में आ घुसी हो। यद्यपि उस दिन के बाद गुरलाभ दोबारा नहीं आया था, पर दो लड़के अभी रेस्ट हाउस में ही थे। उनके खाने-पकाने का काम चौकीदार करता था। जैसे ही सुखचैन को मौसी के घर की याद आती, तो उसका दिल बैठ जाता। एक दिन अच्छा-खासा अँधेरा होने पर वह रेस्ट हाउस की तरफ जा निकला। जिस लड़के को गोली लगी थी वह अब पूरी तरह ठीक था। सुखचैन को आता देखकर वह लड़का खड़ा हो गया। ''बैठ जा भाई, खड़ा क्यों है ?'' एक तरफ कुर्सी पर बैठते हुए उसने इशारा किया।
''क्या नाम है भाई तेरा ?''
''मेरा नाम भाई जी अमरीक है।''
''कौन सा इलाका ? मेरा मतलब कौन सा गाँव है ?''
''मेरा गाँव...'' वह कुछ कहते कहते रुक गया, ''अब तो भाई जी सारा पंजाब ही मेरा गाँव है।''
''अरे भाई मुझसे कैसा छिपाव। चल, जैसे तेरी मर्जी।'' सुखचैन ने दांत भींचे।
''भाई जी, मैं आपका सारी उम्र ऋण नहीं उतार सकता। आपने मुझे मरते को बचा लिया।'' वह डाक्टरी सहायता की बात कर रहा था।
''भाई मेरे यह तो अवसर पड़ने पर ही पता चलता है।''
''वैसे भाई जी, मैंने आपको पहले भी देखा है।'' सुखचैन की बात अनसुनी करता अमरीक बोला।
''क्या ? मुझे देखा है, कहाँ ?''
''मैंने काफी समय पहले आपको मल्ल सिंह वाले गाँव में जत्थेदार की ढाणी पर देखा था, उधर सादक की तरफ।''
सुखचैन को लगा जैसे किसी ने उसका कलेजा दबोच लिया हो।
''अच्छा, तू भी उनमें था जो उस ढाणी में ठहरा करते थे।''
''हाँ जी।''
''फिर मुझे एक बात का जवाब ज़रूर दे भाई मेरे।'' गुस्सा सुखचैन की अन्दर लप लप जल उठा। वह कुर्सी पर से खड़ा हो गया।
''वह मेरी मौसी का घर था। उन्होंने साल भर तुम्हारी बेटों की भाँति सेवा की। किस बात के बदले तुमने उस परिवार का नामोनिशान मिटा दिया ?''
''वह काम भाई जी, हमारे विरोधी ग्रुप वाले दलबीर ने किया था। हम तो उस परिवार के हमदर्द थे।'' उसके जवाब ने एकबारगी तो सुखचैन को खामोश कर दिया।
''तो फिर बाद में जैलदारों का परिवार तुम्हारे ग्रुप ने मारा था।''
''हाँ जी।'' अमरीक धीमे स्वर में बोला।
''उनके बारे में ही बता दे कि उनका क्या कसूर था ?''
''भाई जी, सच पूछते हो तो मैं तो बहुत छोटे लेवल का खाड़कू हूँ। हमारा जो प्रधान था बलविंदर रिजोरी, यह उसके हुक्म पर हुआ था।''
''पर कारण तो तुझे मालूम ही होगा।''
''उस वक्त बलविंदर रजोरी ने कहा था कि जत्थेदार का परिवार मरवाने में जैलदार का हाथ था। मुझे पता है, यह तो एक बहाना था। उन पर हमला करने का।''
''फिर असली कारण क्या था ?'' सुखचैन बीच की बात जानने की कोशिश कर रहा था।
''असल में, बलविंदर रजोरी कोई बड़ा कारनामा करके दलबीर को अपनी ताकत दिखाना चाहता था। इसीलिए उसने जैलदार के परिवार का खात्मा किया।'' अमरीक ने खुलासा किया।
''तुम यार लड़ किससे रहे हो ? तुम्हारे उसूल क्या हैं ?'' सुखचैन कुछ सख्ती में बोला। फिर उसे स्वयं ही अपनी ऊँची आवाज़ का अहसास हुआ। 'इन आग के गोलों से क्या पंगा लेना।'
''भाई गुस्सा न करना। वे मेरे रिश्तेदार थे, आख़िर दुख तो होता ही है।'' सुखचैन नरम पड़ गया।
''भाई जी, मैं आपकी बात समझता हूँ। मेरा परिवार भी पुलिस और खाड़कुओं की आपसी टक्कर की भेंट चढ़ गया था। अब पुलिस से डरकर इधर शामिल हुआ हूँ। किसका जी करता है घरबार छोड़कर, जंगल-बियाबानों में भटकने को।'' अमरीक उदास हो गया। सुखचैन को उस मासूम से लड़के पर तरस आया। ''चल कोई नहीं। भूल जा इन बातों को। किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बताना।''
''भाई जी, आज मैं अकेला हूँ। इसलिए एक दो बातें आपसे करना चाहता हूँ, अगर टाइम है तो।'' अमरीक ने मिन्नत-सी की।
उठता-उठता सुखचैन फिर बैठ गया।
''वैसे तो भाई जी, पार्टी के हुक्म के मुताबिक मुझे इजाज़त नहीं कि पार्टी की कोई बात किसी से करूँ। पर मैं ही जानता हूँ कि आप उस दिन मेरे लिए कैसे रब बनकर आए थे। ये तो मुझे यहाँ फेंक कर चले गए थे। अगर आप रात में डाक्टर न लाते तो मैं अब तक गल सड़ जाता। इसलिए इन्सानियत के नाम पर ही मैं आपके साथ चार बातें साझी करना चाहता हूँ।''
सुखचैन चुपचाप उसकी तरफ देखता रहा।
''एक तो यह कि आप यह न समझना कि ये लोग यहाँ से चले गए हैं। हर रोज सभी रात में इकट्ठा होते हैं। ये साथ ही खैरू वाला गाँव है न, इसके पीछे की ओर राजस्थान के खेतों में कोई ढाणी है - बिरजू प्रधान की। हर रोज़ रात में वहाँ इकट्ठा होते हैं। बिरजू प्रधान की मंडी में आढ़त की दुकान है और कोई राजसी लीडर है।''
''अच्छा।'' सुखचैन को लगा यह तो साधारण सी बात थी।
''दूसरी बात यह कि ये इस कोठी को मुख्य अड्डा बनाने लगे हैं। आप इधर से बच कर रहना। सच कहूँ तो शहर में रहने लग जाओ। आते-जाते इनके माथे न लगा करो। तीसरी बात भाई जी, जो बहुत ज़रूरी है, वह यह है कि पिछली बार मैं भी बिरजू प्रधान की ढाणी वाली मीटिंग में था। इन्होंने किसी चौधरी को मारने के लिए पैसे लिए हैं। कोई आपका लिहाजी है। कहते हैं, यहाँ कोठी में भी आता-जाता रहता है।''
''नाम क्या है ?''
''अक्षय कुमार।'' अमरीक के मुँह से अक्षय कुमार का नाम सुनते ही सुखचैन की साँसे थम गईं। ''ठीक है।'' इतना कहते ही सुखचैन उठ खड़ा हुआ। वह उसी वक्त मोटरसाइकिल उठाकर अक्षय की ढाणी की तरफ चल पड़ा। अक्षय शराबी हुआ पड़ा था। उसका मुख्तियार मिल गया। मुख्तियार अनुभवी व्यक्ति था। वह अक्षय और सुखचैन की मित्रता के बारे में जानता था। सुखचैन ने धीरे धीरे सारी बात मुख्तियार को समझाई। उसे समझाकर सुखचैन कोठी लौट आया। मुख्तियार ने अक्षय को जीप में लादा और रात में ही राजस्थान की तरफ निकल गया। अगले दिन सुखचैन को अनेक चिंताओं ने घेर रखा था। उसे लगता था मानो कोई भयानक तबाही उसकी तरफ बढ़ रही हो। वह दफ्तर गया। दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर उसी दिन गाँव चला गया।
जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ वाली घटना से कई दिन पश्चात मंत्री जी और गुरलाभ फिर उनकी कोठी के प्राइवेट कमरे में बैठे थे।
''गुरलाभ बेटे, मेरा लड़का भी इस बार चुनाव मैदान में उतर रहा है। बलासपुर सीट से। वहाँ भी उसका मुख्य विरोधी जत्थेदार अजमेर सिंह की पार्टी का ही कोई उम्मीदवार है ज्ञानी भजन सिंह। मैंने सुना है, उसने भी खाड़कुओं की फौज पाल रखी है।'' इतना कहकर मंत्री जी गुरलाभ के चेहरे की तरफ देखने लगे। गुरलाभ का चेहरा सपाट था।
''जत्थेदार अजमेर सिंह तो अपने पाले खाड़कुओं के हाथों ही मारा गया, पर यह ज्ञानी भजन सिंह बड़ा चुस्त है। इसका कोई हल सोचना पड़ेगा।''
''हो सकता है जी इसके पाले हुए खाड़कू ही इसे गाड़ी चढ़ा दें, जत्थेदार अजमेर सिंह की तरह।''
''नहीं गुरलाभ बेटा, यह आदमी बहुत चालाक है। ऊपर से एक पंगा और भी है...'' मंत्री जी चुप लगा गए।
''वह भी बता दो।'' गुरलाभ खुलकर बोला।
''यह अब भाजपा लीडर राणा बहिणीवाल जो मेरा मुख्य विरोधी है, सुना है उसने मुझे मरवाने के लिए मेरे पीछे खाड़कू लगा रखे हैं। मैं भी डरता नहीं। देश की सेवा करते हुए जान भले ही चली जाए।'' मंत्री जी में से देशभक्ति बोली।
अचानक गुरलाभ 'हा...हा... ' करके ऊँचे स्वर में हँसा।
''क्या बात, मैंने कुछ गलत कहा है ?'' मंत्री जी खीझ-से गए।
''मंत्री जी, नहीं सच मामा जी... वो कहते हैं न कि जब नाचने ही लग गई तो घूंघट किससे काढ़ना। जब पेट से हो ही गए तो दाई से क्या शरमाना।''
''क्या मतलब ?''
''मतलब यह मामा जी कि आप अपने अन्दर से इस झिझक को खत्म करो। आपको पता है, मैं कौन हूँ। मुझे भी पता है कि आप क्या चाहते हो।''
''फिर ?'' मंत्री जी को लगा जैसे वह सरे बाज़ार नंगे हो गए हों।
''यह लो पेपर। आप इस पर लिस्ट बना दो कि आपके विरोधी कौन-कौन हैं। उसके बाद मैं जानूँ और मेरा काम। एक बात और।''
''वह क्या ?''
''वह यह कि मैं बहुत कुछ कर चुका हूँ। आपकी इस लिस्ट वाला काम हो चुकने के बाद मुझे छुट्टी दो। मेरा कोई प्रबंध करो।'' गुरलाभ की आवाज़ में आत्मविश्वास था। थोड़ी छिपी हुई धमकी भी झलकती थी।
''अगले दो महीने तो मुझे विदेशी दौरे पर जाना है।'' मंत्री जी चिंतित-से बोले।
''आप बेफिक्र होकर दौरे पर जाओ। आपके लौटने तक आपका कोई विरोधी नहीं छोड़ना। आपको वापस आकर मैदान साफ़ मिलेगा। आते ही मेरा और मेरी मंगेतर का कोई प्रबंध करो। पानी मेरी गर्दन तक आ चुका है। कहीं मैं बढ़ते पानी में डूब ही न जाऊँ।''
''बाहर कहाँ ठिकाना है ?'' कुछ देर सोचते हुए मंत्री जी बोले।
''हाँ जी, कनेडा में मेरे बहुत सोर्स हैं।'' गुरलाभ ने बताया।
''अच्छा ऐसा कर।'' मंत्री जी कुछ सोचने लगे, ''कल, सवेरे दस बजे मुझे यहीं पर मिलना। तब तक मैं करता हूँ कुछ।''
मंत्री जी के साथ सीधी बात करके गुरलाभ के मन पर से बोझ उतर गया। रात में वह लेटे लेटे सोचता रहा कि अगले दो महीने जी भरकर कमाई की जाए। मंत्री जी के कामों को अंजाम दिया जाए। सवेरे गुरलाभ मंत्री जी के पास पहुँचा। मंत्री जी ने जेब में से एक लिस्ट निकाल कर गुरलाभ को थमा दी।
''अब मेरे बारे में बताओ।'' गुरलाभ ने मंत्री जी को बीच में ही टोका।
''जल्दी न कर, वह भी समझाता हूँ। तू अपनी और अपनी मंगेतर की फोटो लाकर मुझे दे, पासपोर्ट और वीज़ा के लिए। मुझे परसों विदेशी दौरे पर जाना है। उससे पहले पहले फोटो मुझे दे जाना। आगे मैंने सारा प्रबंध किया हुआ है। ध्यान से सुन।''
''हाँ जी।''
''मैं पन्द्रह नवम्बर को दौरे से वापस दिल्ली पहुँचूँगा। तू उस दिन मुझे अपनी मंगेतर के संग मेरी दिल्ली वाली कोठी में मिलना। मेरे लिए यह काम सबसे अधिक अहम है। और तू बग़ैर किसी रुकावट के पन्द्रह नवम्बर को शाम तक दिल्ली मेरे पास पहुँच जाना। मैं तेरी प्रतीक्षा कर रहा होऊँगा। इसके बाद यदि अपने बीच कोई बातचीत न हुई तो यह मेरा फाइनल आर्डर है।''
''ठीक है जी।'' गुरलाभ को मंत्री जी की योजना कुछ कुछ समझ में आ रही थी।
''दूसरी बड़ी बात। अपनी दोनों की वार्तालाप अपने बीच ही रहे। उस पुलिस वाले से बचकर रहना, क्या नाम है उस भैण... का... हाँ, रणदीप। उसे कोई भेद न देना।''
''एक बात और।''
''जी...।''
''कहीं बाहर जाने से पहले तुझे एक काम और भी करना पड़ेगा। मेरा मतलब...।'' मंत्री जी ने गुरलाभ के चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं।
''हाँ जी... मैं... मैं आपका मतलब समझ गया।'' गुरलाभ ने मंत्री जी की नज़रें पढ़ लीं।
''अच्छा जी फिर...।'' मंत्री जी का इशारा पाकर गुरलाभ बाहर निकल गया। फिर मंत्री जी ने एस.पी. रणदीप को बुलाया। अगले ही पल रणदीप मंत्री जी के सामने था।
''मिस्टर रणदीप, तू एक समझदार और जाबांज अफसर है। मेरे पीछे इलाके की हिफाजत करना। गुरलाभ को हर तरह से प्रोटेक्ट करना। तेरी डी.आई.जी. की प्रमोशन वाली फाइल तैयार है। विदेशी दौरे से लौटते ही मैं तुझे प्रमोट कर दूँगा।'' रणदीप ने खड़े होकर बड़े ज़ोर का सलूट मारा। खुशी में उछलता बाहर निकल गया।
(जारी…)
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Sunday, September 12, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)
चैप्टर- 20

सत्ती को पटियाला यूनिवर्सिटी का शुरू में बड़ा चाव था। पर नई जगह तो नई होती है न। न कोई जान, न पहचान। सभी लड़कियाँ एक-दूसरे के लिए अनजान थीं। उसे शुरू-शुरू में लुधियाना का गवर्नमेंट कालेज बहुत याद आता। कभी उसे गाँव याद आने लगता। इस सबके बीच जब उसे गुरलाभ याद आता तो उसका दिल भर आता। कई बार वह अकेले बैठकर रोती। आहिस्ता-आहिस्ता दूसरी लड़कियों से उसकी जान-पहचान होने लगी। कई लड़कियाँ उसके इलाके की भी थीं। मलोट, अबोहर, फरीदकोट, फिरोजपुर, दूर-दूर तक के सारे शहरों की लड़कियाँ उसके साथ हॉस्टल में रहती थीं। लड़कियों की आपस में मित्रता होने लगी। सत्ती की भी चार-पाँच सहेलियाँ बन गईं। उनका चार-पाँच का ग्रुप बन गया। वे कालेज खत्म होने के बाद कैंटीन में जातीं। शाम को यूनिवर्सिटी में घूमती-फिरतीं। शाम के भोजन के बाद देर रात तक बातें करती रहतीं। धीमे-धीमे सत्ती का वहाँ पूरी तरह दिल लग गया। छुट्टी वाले दिन वे शहर में घूमतीं। शाम को कोई न कोई फिल्म देख आतीं। यहाँ लुधियाना की अपेक्षा अधिक आज़ादी थी। रात के नौ बजे तक कोई जहाँ चाहे घूमे-फिरे। रात नौ बजे तक लड़कियों का हॉस्टल में लौट आना आवश्यक था। पढ़ाई की इतनी फिक्र नहीं थी। आर्ट्स की पढ़ाई थी, कोई अधिक मेहनत की ज़रूरत नहीं थी। यहाँ आकर सत्ती को पंजाबी साहित्य पढ़ने का शौक लग गया था। वह हर दूसरे-तीसरे दिन लाइब्रेरी जाती। पुरानी किताबें जमा करवा आती, नई इशु करवा लाती। रात में देर तक बैठकर वह उन्हें पढ़ती रहती। जैसे ही उसका साहित्य की ओर झुकाव हुआ तो उसे लगा कि इस ओर से तो वह बिलकुल ही कोरी थी। उसे लगने लगा कि साहित्यिक शिक्षा के बग़ैर तो इन्सान बिलकुल अनपढ़ है। उसकी रुचियाँ और आगे बढ़ने लगीं। वह साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लेने लगी। यूनिवर्सिटी के कार्यक्रमों में भी उसने प्रवेश ले लिया। यूनिवर्सिटी, हॉस्टल और दूसरे आसपास के अच्छे वातावरण में विचरते हुए उम्र की इस स्टेज पर वह ज़िन्दगी का भरपूर आनन्द ले रही थी। जब कभी गुरलाभ उसकी स्मृतियों पर भारी पड़ जाता तो उसका मन विचलित हो उठता। गुरलाभ उसके दिलोदिमाग और उसके अन्तर्मन में बसा हुआ था जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं सकती थी। ऐसी अवस्था में वह अजीब कशमकश में फंस जाती। वह सोचती कि गुरलाभ के कारण ही उसने लुधियाना छोड़ा था। अब उसके बग़ैर वह नित्य तड़पती थी शायद यही सच्चा प्यार था। कई बार वह सोचती कि काश गुरलाभ कहीं से आ जाए या वह उसे एक बार कहीं देख ही ले। ऐसे समय में वह उसके सपनों में घूमता। गुरलाभ की यादें उसकी अच्छी-भली ज़िन्दगी को अशान्त कर देतीं। फिर तभी उसे दूसरा ख़याल आता कि अगर गुरलाभ वाकई दूसरे रास्ते पर चल पड़ा तो वह क्या करेगी। यह विचार उसके मन में हलचल मचा देता।
जब कभी वह छुट्टियों में गाँव जाती तो अबोहर के अड्डे पर, अबोहर शहर में गुरलाभ को खोजती। फिर वह स्वयं ही मन को ढाढ़स देती कि गुरलाभ अब कहाँ मिलने वाला है। अगर मिला भी तो वह पहले वाला गुरलाभ कहाँ रहा होगा। क्या मालूम उसे वह याद भी है कि नहीं। वह भी उसे उसकी तरह याद भी करता होगा कि नहीं। किधर गया वह गुरलाभ जो सदैव संग मरने-जीने के वायदे किया करता था। जिसके संग ज़िन्दगी बिताने का उसने सपना देखा था। फिर उसे लगता कि सपना शायद सपना ही बनकर रह गया था। गुरलाभ अब कभी नहीं मिलने वाला। जब सत्ती गाँव में होती तो वह गुरलाभ की याद में खोई रहती। उसे लगता कि अब तो गुरलाभ की केवल यादें ही संग रह गई थीं। सत्ती को अपनी किसी सहेली से यह तो पता चलता रहता था कि गुरलाभ कभी-कभार अपने ननिहाल वाले गाँव आता रहता था। उसे यह पता नहीं लग सका था कि उसके डिप्लोमा का क्या हुआ। जब सत्ती ने लुधियाना छोड़कर पटियाला में दाख़िला लिया था, तब गुरलाभ का छठा आख़िरी सिमेस्टर चल रहा था। इस हिसाब से गुरलाभ अब कहीं नौकरी करता होना चाहिए था। उसके डिप्लोमा के बारे में या नौकरी के विषय में सत्ती को कुछ पता नहीं था। उसे तो गुरलाभ के कभी-कभार अमरगढ़ आने के अलावा अन्य किसी बात की जानकारी नहीं थी। पटियाला यूनिवर्सिटी में उसका दूसरा वर्ष चल रहा था। इस बार गर्मियों की छुट्टियों में उसने गाँव आना था। छुट्टियाँ होने में अभी तीन दिन शेष थे कि तभी उसे पता चला कि उसके भाई करनबीर का एक्सीडेंट हो गया है तो उसने उसी वक्त छुट्टी ले ली। सीधी अस्पताल पहुँची। एक्सीडेंट बहुत भयंकर हुआ था। अच्छी किस्मत थी कि जान बच गई थी। करनबीर की बायीं टांग टूट गई थी। प्रारंभिक चिकित्सा करने के बाद डाक्टर ने टांग पर पलस्तर चढ़ा दिया था। दो महीने बिस्तर पर बैठना पड़ गया। गाँव आ जाने के बाद सत्ती खोई-खोई-सी रहती थी। वह अधिकांश समय गुरलाभ के बारे में सोचती रहती थी। जब से उसने लुधियाना छोड़ा था, उसके बाद खाड़कूवाद सारे पंजाब में फैल गया था। गुरलाभ के विषय में किससे पता करे, उसे कुछ समझ में नहीं आता था।
उनके घर में लोगों का आना-जाना लगा रहता था। बड़ा घर दो हिस्सों में बंटा हुआ था। अन्दरवाला हिस्सा दीवार निकालकर बाहरवाले हिस्से से पृथक किया हुआ था। बाहरवाले हिस्से से अन्दरवाले हिस्से में घरेलू सदस्य या छोटे नौकर ही आ जा सकते थे। बाहरवाले हिस्से में एक बड़ा दरवाजा था। दरवाजे के दोनों तरफ पुराने समय की दो बड़ी बैठकें थीं। बाहरवाले हिस्से के बड़े आँगन के एक कोने में मुर्गों का एक बड़ा दड़बा था। उसके साथ ही तीतरों का खुड्डा था। कुछ कबूतर भी रखे हुए थे। एक बाड़ के अन्दर हिरणों का जोड़ा छोड़ा हुआ था। ये करनबीर के शौक थे। यह बड़े घरों का शुगल था। कई बार जब बाहरवाले हिस्से में आए-गए लोग न दिखाई देते तो सत्ती इन जानवरों के खुड्डों के पास जा खड़ी होती। उसे खेलते हुए जानवर बड़े प्यारे लगते। कई बार वह जानवरों को पानी पिलाती। कई बार दाना डालने आती।
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आज सुबह से ही घर में लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। कभी कोई जीप पर आता और कभी कोई मोटरसाइकिल पर। अधिकतर लोग इसलिए भी आते थे क्योंकि करनबीर की टांग पर पलस्तर चढ़ा होने के कारण वह कहीं आ-जा नहीं सकता था। दोपहर होने पर जब उसने देखा कि मिलने-जुलने वाले आम व्यक्ति चले गए थे तो वह घड़ी भर के लिए दिल बहलाने की खातिर इधर आकर पंछियों के संग अठखेलियाँ करने लगी। पंछियों से खेलती ने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा तो वह देखती ही रह गई। उसके पीछे सुखचैन खड़ा था। वे अचम्भित होकर आपस में बातें करने लगे, पर अक्षय कुमार के आ जाने से उनकी बातचीत बीच में ही रह गई थी। सत्ती सोच में डूब गई थी कि कोई बात अवश्य थी, जिससे वह अनभिज्ञ थी। शायद सुखचैन बात को गोल कर गया। इसका अर्थ था कि बात भी कोई गंभीर थी। दूसरी तरफ सुखचैन भी हैरान था कि सत्ती को अभी तक गुरलाभ के अन्त के विषय में कुछ पता नहीं। दूसरों की भाँति सुखचैन भी समझता था कि लुधियाना की उस मीटिंग के दौरान गुरलाभ भी पकड़ा गया था। मीटिंग में पकड़े गए सभी लड़कों की पुलिस-मुठभेड़ में मारे जाने की ख़बरें छपती रही थीं। गुरलाभ तो दूसरों के साथ ही...। फिर यह किस भ्रम में जी रही थी। सत्ती को काफी समय तक गाँव में रुकना था। किसी दिन फिर आने की सोचकर सुखचैन वापस कोठी लौट गया।
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फिरोजपुर एरिये में काम बन्द करके शेष बचे छह जनों को लेकर गुरलाभ वापस अबोहर के इलाके में लौट आया। उसने लड़कों के दो दल बनाकर अलग-अलग ठिकानों पर उन्हें ठहराया। फिलहाल उसने एक्शन रोक दिए थे। वह कुछ देर अमन-चैन से रहना चाहता था। वह हर रोज़ घर आता था। दिन में किसी न किसी से मिलने के बहाने सुबह-सवेरे ही निकल जाता था। उस दिन शाम के वक्त उसने पहले मोटर साइकिल हनुमानगढ़ रोड पर डाल लिया। लेकिन फिर नहर की पटरी पड़कर गाँव की ओर चल पड़ा। आगे नहर के अगले पुल पर साइन-बोर्ड लगा था - रत्ताखेड़ा। उसे देखकर वह वहीं खड़ा हो गया। उसने मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर दी। नहर के किनारे खड़े होकर दूर रत्तेखेड़े गाँव की ओर देखने लगा। ऐसा नहीं था कि वह सत्ती को भूल गया था या सत्ती की उसे कभी याद नहीं आई थी। सत्ती को वह कभी भुला नहीं पाया था। उसे एक ही भय था कि अगर सत्ती को उसकी असलियत का पता चल गया तो वह सत्ती की नफ़रत के काबिल भी नहीं रहेगा। जब वह सत्ती को लुधियाना में अन्तिम बार मिला था तो वह बहुत अशान्त था। सत्ती की बातें सुनकर उसका सामना करने की हिम्मत उसमें नहीं रही थी। फिर जो कुछ वह सोचता था, वैसा हो गया। सत्ती ने जब लुधियाना कालेज छोड़ दिया तो उसने सुख की साँस ली थी। वह सोचता था कि एकबार इधर से पीछा छुड़ा ले, फिर वह सत्ती को खोज लेगा। जिस लहर में वह अपने शुगल की खातिर दाख़िल हुआ था, अब वह लहर उसकी मर्जी नहीं चलने दे रही थी। दिनरात निर्दोषों के लिए मौत बांटता गुरलाभ भी अब इस सबसे ऊबा पड़ा था। वह इस सारे बखेड़े से एक तरफ होना चाहता था। लेकिन अभी कम्बल उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। फिर उसके मन में एक दिन ख़याल आया कि क्यों न मंत्री जी से सीधी बात करे। उसने उनकी इतनी मदद की थी। वह क्यों नहीं उसकी मदद करेंगे। यही कारण था कि उसने फिरोजपुर से वापस अबोहर आकर लड़कों को कुछ समय आराम करने के लिए कहा था। वह स्वयं भी रूटीन-सी ज़िन्दगी जीने लग पड़ा था। फुर्सत में होने पर ही सत्ती की यादों ने आ घेरा था। अब वह नित्य योजनाएँ बनाता था कि किसी तरह सत्ती को खोजे। इधर से पीछा छुड़ाकर कहीं निकल जाए। उसे अभी कोई राह दिखाई नहीं दे रही थी। सत्ती को तो वह खोज ही सकता था।
कुछ देर नहर के पुल पर खड़ा गुरलाभ सत्ती से मिलने के विषय में सोचता रहा। फिर उसके मन में आया कि क्यों न इस बारे में मामा जी से बात करे। यह विचार आते ही मोटर साइकिल स्टार्ट करता हुआ वह गाँव की तरफ चल पड़ा।
''मामा जी, मुझे आपसे एक बात करनी है।'' जैलदार कोठे पर बैठा शराब पी रहा था।
''मैं भी तेरे मुँह से कुछ सुनने को उतावला हुआ बैठा हूँ।'' जैलदार भी गुरलाभ के छुपा-छिपी के खेल से खीझा बैठा था।
''खीझे तो आप यूँ ही बैठे हो। पर यह बात कुछ और है।'' गुरलाभ ने सीधे तौर पर कहा।
''मैं क्यों खीझा बैठा हूँ। तू समझता है कि मैंने सारी उम्र भेड़ें ही चराई हैं ?''
''तू लुधियाने ओवरसीयर का कोर्स करने गया था। क्या हुआ फिर कोर्स का ?''
गुरलाभ चुप रहा।
''तेरे साथ के लड़के ओवरसीयर लगे घूमते हैं और तूझे कुत्तागिरी करने के सिवाय कोई काम नहीं। बहन और सरदार को मैं क्या जवाब दूँगा कि ननिहाल में रखकर इसे क्या पढ़ाया ?''
''आप मामा जी, बात को दूसरी तरफ ले गए। मुझे तो एक निजी बात करनी थी।'' गुरलाभ बोला।
''मैं तो बात को ही किसी दूसरी तरफ ले चला हूँ पर तू तो खुद ही किसी दूसरी दिशा में घूम रहा है।'' हालांकि जैलदार को सच्चाई का पता नहीं था कि गुरलाभ क्या करता फिरता था, पर जैलदार भी सात पत्तणों का तैराक था। वह गुरलाभ की चालढाल देखकर समझे बैठा था कि यह उससे छिपाकर कोई न कोई खिचड़ी अवश्य पका रहा है। पुलिसवाले भी इसके पीछे घर तक आने लग पड़े थे। गुरलाभ ढीला-सा होकर नीचे उतरने लगा।
''कल, मंत्री जी ने आना है। मुझे उनसे मिलना है। तू मेरे साथ चलना।'' जैलदार समझता था कि मंत्री जी के साथ पहले से ही सम्पर्क रखा जाए।
''हूँ'' कहता हुआ गुरलाभ सीढ़ियाँ उतर गया।
अगले दिन जैलदार ने गुरलाभ को संग बिठाया और मंत्री जी की कोठी की ओर चल पड़ा। मंत्री जी रात ही आए थे। गुरलाभ को पता था कि वहाँ रणदीप भी मिलेगा। उसने स्वयं को हर स्थिति के लिए तैयार कर लिया था। कोठी में बहुत भीड़-भड़क्का था। कोठी में दाख़िल होते हुए गुरलाभ को सबसे पहले रणदीप ही मिला। रणदीप ने बड़े अपनत्व से जैलदार को बुलाया। गुरलाभ से हाथ मिलाकर बातें करता हुआ धीरे-धीरे उसे एक तरफ ले गया।
''तू नहीं समझ सकता, तूने मेरे लिए कितना बड़ा काम किया है। तूने पूरी यारी निभाई है। मैं समझता हूँ, हम भविष्य में भी ऐसे ही एक दूसरे के लिए काम आएँ।''
''एक-दूजे के काम आने का क्या मतलब ? काम तो तेरे सिर्फ़ मैं ही आया।'' गुरलाभ अब रणदीप को अपने पर हावी नहीं होने देना चाहता था।
''ये बातें गुरलाभ बैठकर करने वाली हैं। आज शाम को मैं खाली हूँ। अगर कहे तो मेरे घर में बैठ जाते हैं।''
''वो तो ठीक है, पर मुझे लगता है कि तू मुझे एक मुख्बिर से अधिक कुछ नहीं समझता।''
''नहीं, तुझे पूरी बात का पता नहीं। तू मेरा बहुत खास दोस्त है। चल, शाम को बातें होंगी तो तुझे खुद पता चल जाएगा।''
''शाम की शाम के साथ रही। एक बात तुझे अभी करनी पड़ेगी।''
''वह क्या ?''
''मंत्री जी के सामने बताना होगा कि बाबा बसंत वाला खेल खत्म करने में मेरा अहम रोल रहा है।'' गुरलाभ मंत्री जी के सामने अपना रुतबा बनाना चाहता था। पर उसे नहीं पता था कि वह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहा था।
''चल, अभी कह देता हूँ।'' रणदीप का पुलसिया दिमाग चालों का ताना-बाना बुनता जा रहा था।
मंत्री जी के कमरे में जाते हुए एस.पी. रणदीप ने मंत्री जी के करीब होकर कुछ कहा तो मंत्री जी ने पी.ए. को इशारा किया। वह उठकर रणदीप के संग पिछले कमरे में चले गए। गुरलाभ भी आ गया। उसने मंत्री जी के पैरों को हाथ लगाया। ''हाँ भई भाणजे, क्या हाल है ?'' मंत्री जी के इतना कहने पर गुरलाभ फूल कर कुप्पा हो गया।
''सर, उस आतंकवादी बसंत को मार गिराने में गुरलाभ का बहुत बड़ा योगदान रहा है।'' गुरलाभ की ओर संकेत करता रणदीप मंत्री जी की ओर मुखातिब हुआ।
आँखों पर से ऐनक उतारकर मंत्री जी ने पल भर गुरलाभ के चेहरे पर नज़रें गड़ाकर गौर से देखा। खामोशी भरे वातावरण में उन्होंने ऐनक दुबारा लगाते हुए गुरलाभ को शाबाशी दी।
''यह लड़का मेरा भान्जा है, खास ख़याल रखना।'' इतना कहते हुए मंत्री जी ने रणदीप को बाहर भेज दिया। किसी सोच में डूबे वह कमरे में टहलने लगे। टहलते हुए एक-दो बार उन्होंने गुरलाभ की ओर भी देखा।
''वह मेरे साथ पढ़ता रहा था, इसीलिए मैं उसे पहचानता था।''
मंत्री जी के बग़ैर कुछ पूछे ही गुरलाभ ने उनके मन के अन्दर चल रहे सवाल को पढ़ लिया था।
''शाबाश बेटे, वैल डन।'' उसकी ओर देखे बिना सोच में डूबे मंत्री जी खुद-ब-खुद बोले। जैलदार भी आ गया था। उसे मंत्री जी ने ही पिछले कमरे में बुलाया था। वहाँ तक पहुँचते जैलदार का कलेजा धड़कता रहा था। उसने गुरलाभ, एस.पी. रणदीप और मंत्री जी को प्राइवेट कमरे में जाते हुए देख लिया था।
''हाँ भई जैलदार, क्या हाल है।'' मंत्री जी ने उसे गले से लगाया। ''पढ़ाई-लिखाई इस लड़के के वश का काम नहीं। मैं तो इसे अगली बार एम.एल.ए. का टिकट दिलाने को घूमता हूँ।'' एम.एल.ए. की टिकट के बारे में सुनकर जैलदार मन ही मन खुशी में नाच उठा।
''मैं एक-आध दिन में गाँव का चक्कर लगाऊँगा। साथ ही, ताई जी को मिल आऊँगा। तुम लोग गाँव में ही रहना।'' इतनी खुशियाँ को जैलदार से सम्भालना कठिन हो रहा था। उनके जाते ही मंत्री जी ने एस.पी. रणदीप को फिर अन्दर बुलाया। ''आज शाम तक मुझे गुरलाभ के बारे में पूरी रिपोर्ट चाहिए।'' इतना कहकर मंत्री जी कोठी के पिछले हिस्से में चले गए। खाना खाकर मंत्री जी सो गए। तीन-चार घंटे की नींद लेने के बाद मंत्री जी पाँच बजे उठे। नहाकर चाय उन्होंने अपने प्राइवेट कमरे में ही मंगवा ली। वह तरोताज़ा होकर चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, जब एस.पी. रणदीप सलूट मारकर उनके सामने आ खड़ा हुआ। मंत्री जी ने उसे बराबर सोफे पर बैठने का संकेत किया। उन दोनों को छोड़कर उस कमरे में दूसरा कोई नहीं था।
गुरलाभ के विषय में पूरी रिपोर्ट देकर एस.पी. रणदीप फाइल बन्द करते हुए उनके चेहरे की ओर देखने लगा। मंत्री जी आँखें बन्द किए हुए कहीं गुम थे।
''जो कुछ यह करता रहा है, इसके पीछे इसकी किसी लहर के साथ हमदर्दी की वजह तो नहीं। या कोई और कारण है ?'' आँखें मूंदे-मूंदे ही मंत्री जी ने पूछा।
''नहीं जी, इसकी किसी ग्रुप या लहर से कोई हमदर्दी नहीं। यह तो जो कर रहा है, अपने शुगल-मेले के तौर पर ही कर रहा है।''
इतना सुनते ही मंत्री जी आँखें खोलकर सावधान होकर बैठ गए और रणदीप की ओर देखते हुए बोले, ''एस.पी. यहाँ तू गलत है।''
''जी ?'' रणदीप ने हैरान होकर मंत्री जी की तरफ देखा।
''देखो, मैं होम मिनिस्टर हूँ। मेरे सहित पूरे प्रान्त की पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रही है। उन्हें पकड़ने के लिए और उन्हें खत्म करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। ठीक है न ?''
''जी हाँ।''
''गुरलाभ ने भी पहले लुधियाना में आतंकवादियों का ग्रुप पुलिस को पकड़वाया। बसंत जैसे खूंखार आतंकवादी को मरवाया। इस हिसाब से तो यह भी वही काम कर रहा है जो पुलिस कर रही है।''
''जी सर।''
''फिर यह कोई गुंडा-डकैत नहीं, यह तो एक तरह से गवर्नमेंट की मदद कर रहा है। इसे छेड़ना नहीं।'' इतना कहकर मंत्री जी ने रणदीप को वापस भेज दिया। रणदीप चलते-चलते सोच रहा था कि मंत्री जी भी गुरलाभ रूपी आम को थोड़ा चूसना चाहते थे।
शाम के वक्त गुरलाभ रणदीप के संग बैठा था। इधर-उधर की बातें करते हुए रणदीप असली मुद्दे पर आया।
''गुरलाभ जो लोग कहते हैं कि पुलिस वाले किसी के मित्र नहीं होते, यह बात पूरी तरह सही है क्योंकि अगर पुलिस वाले दोस्तियाँ निभाने लगे तो पुलिस महकमा कैसे चलेगा।''
''हमारी तो पहले से लिहाज है। फिर तेरी वजह से मैं आज इस रैंक पर बैठा हूँ। ऊपर से तेरे साथ वायदा भी किया हुआ है। इस कारण मैं तेरे संग महकमे को एक तरफ रखकर दोस्ती निभाऊँगा।'' उसकी बातें सुनता गुरलाभ थोड़ा अकड़ में बैठा था। मंत्री जी द्वारा पीठ थपथपाये जाने के कारण भी।
''तू इन सब बातों को छोड़, मैं तुझे एक ही मतलब की बात सुनाता हूँ। पुलिस अब इस लहर को कुचलने पर आ गई है। सरकार की फोर्सों के आगे ये मुट्ठीभर ए.के. सैंतालीस कुछ भी नहीं। जब पुलिस अपनी आई पर आ जाए तो अगले का चिता तक पीछा करती है। अब सुन क्या होगा। पहले ये सो काल्ड खाड़कू मारे जाएँगे। फिर इनके रिश्तेदार और घर-परिवार वाले खत्म किए जाएँगे। इनके दोस्त-यार और इनसे हमदर्दी रखने वालों का खात्मा किया जाएगा। एक अवसर ऐसा भी आएगा कि खाड़कूवाद का एक भी हमदर्द नहीं बचेगा। इस सबके साथ ही पता है क्या होगा ?''
''क्या ?''
''पुलिस अपने सोर्सों को भी साथ के साथ खत्म करती जाएगी। आख़िर में दोस्त या दुश्मन कोई नहीं बचेगा। तू मेरा दोस्त है। तुझे इसलिए ये बातें बता रहा हूँ।'' जब रणदीप अपनी बात खत्म करके चुप हो गया तो गुरलाभ ने हैरान होकर उसके मुँह की ओर देखा।
''तुझे तो यह है कि तेरे बारे में किसी को कुछ पता नहीं। पर पुलिस का जंतर-मंतर बहुत गहराई में जाता है। जो कुछ तूने किया है, हर जगह पर तेरा नाम बोलता है। बस तू मंत्री जी की बदौलत अब तक बचा हुआ है। मलोट-अबोहर की घटनाओं को तूने अंजाम दिया था न कि बसंत ने। फिर फिरोजपुर में पिरथी सिंह की मार्फ़त लाखों-करोड़ों...।''
''अगर कहे तो एक-एक वारदात गिना दूँ।''
गुरलाभ समझ गया था कि रणदीप झूठ नहीं बोल रहा था। वह चिंतित भी हुआ था। ''मैंने तो यार पहले ही बताया था कि मंत्री जी की फूंक में यूँ ही शौक के तौर पर पड़ गया इस तरफ। मेरा किसी ग्रुप से कोई संबंध नहीं।''
''इतना सब करके बचे रहना कोई खेल नहीं। अब तू मझधार में है। अगर किनारे लगना है तो मंत्री जी का पल्लू न छोड़ना। और साथ ही, मेरे कंटेक्ट में रहना।''
''वो तो मेरे पर पूरे मेहरबान हैं। एम.एल.ए. की टिकट देने को कहते हैं।''
''तू टिकट का छोड़ पीछा...जो काम मंत्री जी कहें, उसे मना मत करना। और फिर, फिरोजपुर वाले पिरथी सिंह के रिश्तेदार यहीं हैं। एक बात याद रखना कि तुझे इस भंवर में से मंत्री जी ही निकालेंगे। जब मौका आएगा, बता मैं दूँगा तुझको।''
''जब तू मेरे संग है तो मुझे किस बात का डर है यार।'' नशे के सुरूर में गुरलाभ बोला।
''बस, मेरी आज की बातों को याद रखना। अब तू घर जा।'' अच्छा-खासा अँधेरा हो चुका था जब रणदीप ने गुरलाभ को विदा किया।
घर की ओर जाते हुए गुरलाभ रणदीप की बातों के विषय में सोचता रहा था। यह तो वह भी जानता था कि उसका बेड़ा मंत्री जी ही पार लगाएँगे, पर बात इतनी खतरनाक स्थिति में पहुँच जाएगी, यह उसने कभी नहीं सोचा था। 'साले, सभी जिम्मेवार हैं।' अचानक उसने अपने आप से कहा, 'मुझे अकेले को क्या कहते हैं। न कोई मंत्री कम है, न कोई पुलिसवाला। साला नसीहत देता देता कैसे पिरथी सिंह का नाम बीच में ले गया। सीधा क्यों नहीं कहता कि यहाँ भी हमारे आगे हड्डी फेंकना जारी रखना। मंत्री जी भी यूँ ही नहीं एम.एल.ए. की टिकट देने वाले। कुछ न कुछ वह भी उम्मीद रखते होंगे।''
''आजा, आजा। पता नहीं कहाँ रह गया था। ले, पैग लगा।'' जैलदार मामा ने खुशी में गुरलाभ को पैग डालकर दिया।
''वैसे तो बड़ी खुशी की बात है भान्जे कि मंत्री जी इतने मेहरबान हैं, तुझे एम.एल.ए. की टिकट देने के लिए कह रहे हैं, पर एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि वह ऐसे एकदम मेहरबान कैसे हो गए ?''
''हमने मामा जी आम खाने हैं कि पेड़ गिनने हैं।''
''पर तब भी कुछ तो होगा ही।'' जैलदार गहरे सोचता हुआ बोला।
''सारे भैण.... एक जैसे हैं। सारा आवां ही ऊता पड़ा है।'' गुरलाभ नशे में बकता हुआ अपने कमरे में जा पड़ा।
(जारी…)
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