'बलि' – रेखांकित किया जाने वाला उपन्यास
-रघबीर सिंह
(सृजना-157 में प्रकाशित)
बहुत कम लेखकों के हिस्से में आता है कि उनकी पहली पुस्तक ही पाठक जगत का विशेष ध्यान आकर्षित कर ले। ऐसे खुशकिस्मत लेखक या तो असाधारण प्रतिभा के मालिक होते हैं और या फिर उनकी पुस्तक में ही कोई ऐसी खास बात होती है जो निश्चित समय, स्थान के प्रसंग में उसे गौर करने लायक बना देती है। अमेरिका में बसते लेखक हरमहिंदर चहल के प्रथम उपन्यास ‘बलि’ (शिव प्रकाशन, जालंधर, पृष्ठ 240, मूल्य- 205 रुपये) के संबंध में दूसरी वाली बात अधिक सही है। हरमहिंदर चहल पंजाबी सृजनात्मक साहित्य जगत के लिए बिलकुल नया नाम है और यदि उसका उपन्यास प्रकाशित होने के तुरन्त बाद गंभीर साहित्यिक हलकों का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है तो इसका कारण यह नहीं कि इसके माध्यम से कोई असाधारण तौर पर अनौखी प्रतिभा वाला लेखक नमूदार हुआ है, वरन यह है कि इसमें जिस विषय-वस्तु की प्रस्तुति हुई है, उसकी पंजाबी साहित्य जगत को प्रतीक्षा बनी हुई थी।
माना जाता है कि किसी भी देश या समूह के जन-जीवन में घटित बड़ी घटनाओं अथवा हादसों में से समय की एक दूरी से ही अच्छा साहित्य-सृजन संभव होता है। जबकि तात्कालिक प्रतिक्रिया में बहुत कुछ ऐसा घुलमिल जाता है जो अक्सर रचना को चिर-स्थायी महत्व से वंचित कर देता है। सन् 47 के देश विभाजन के बारे में भारतीय भाषाओं में अधिक उल्लेखनीय रचनाएँ दुखांत के घटित होने से कई दशक बाद आई हैं। यही बात पंजाब संताप के दौर से संबंधित रचनाओं के विषय में सोची जा सकती है। नीला तारा के आगे-पीछे के वर्षों में अतिवाद, पृथकतावाद या खाड़कूपन के हवाले से जो सरकारी, गैर-सरकारी आँधी चली, उस बारे में हमारी जुबान में तत्काल में ही अवश्य कई महत्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई थीं और उन पर चर्चा भी हुई थी। तब भी इस दुखांत पर एक फ़ासले रखकर सृजनात्मक दृष्टि डालने की आवश्यकता बनी हुई है। शायद इसीलिए पंजाब संताप के बारे में रचनाएँ लिखने वाले प्रामाणिक हस्ताक्षर माने जाने वाले पंजाबी लेखक वरियाम संधू ने वर्षों बाद प्रकाशित अपनी ताज़ा कथा-रचना ‘रिम झिम परवत’ में इसी विषय को पुन: स्पर्श करना उचित समझा है। हरमहिंदर चहल के उपन्यास ने भी क्योंकि समय की दूरी से इस दुखांत पर बात छेड़ी है और समकालीन साहित्य में इस विषय को छूने वाला यह पहला उपन्यास है, इसीलिए अपने विषय-वस्तु के कारण ही यह एक गौर किए जाने वाली रचना बन जाता है।
अमेरिका जैसे देश में समय, स्थान की दूरी ने वहाँ बसते बहुत से पंजाबियों को तो पंजाब के अस्सी के दशक के संताप के संबंध में वह निरपेक्ष विचार प्रदान ही नहीं किया जिसकी कि आशा की जानी चाहिए थी। पर लेखक हरमहिंदर चहल ने अवश्य अमेरिका में रहते हुए अपने अनुभव को समय की सान पर लाकर, निजी दु:ख-सुख में से उभरते आक्रोश या रुदन की भावुकता, उपभावुकता से दूर रहकर जो उपन्यास लिखा है, वह उसकी निरपेक्ष यथार्थपरक सूझबूझ का भरपूर प्रमाण पेश करता है। इस उपन्यास के गौर किए जाने वाली रचना बनने में इसके विषय-वस्तु का ही नहीं, एक हद तक इसकी प्रस्तुति की जुगत का भी योगदान है।
एक सघन कथा के माध्यम से तथाकथित खाड़कूवाद की लहर के उत्थान, इसकी चढ़त, आम लोगों के जीवन पर इसके प्रभाव, सरकारी मशीनरी की कारगुजारी, नेताओं के किरदार आदि की दृष्टिगोचर और छिपी परतों को लेखक ने उपन्यास में ऐसे समोया है जैसे कि वह इस विषय पर कोई योजनाबद्ध खोज के परिणाम पेश कर रहा हो। इतिहास, राजनीति या समाज विज्ञान के विषय से जुड़ी इस तरह की खोज के भीतरी तथ्यात्मक परिणामों को किसी स्कॉलर की ओर से रोचक गद्यात्मक संगठन में ढाल सकना संभव नहीं। इस मंतव्य के लिए किसी सृजक की दरकार होती है, जो प्राप्त तथ्यों को मानवीय संवेदना के स्पर्श भी दे सकता हो। हरमहिंदर चहल ने ऐतिहासिक वृतांत को मानवीय स्पर्श देने वाला यह कार्य बखूबी निभाया है। एक गल्पकार की तरफ़ से पंजाब संताप के तथ्यात्मक विवरणों को जो मानवीय स्पर्श लेखक ने दिये हैं, उनके कारण उपन्यास ऐसी रचना बन गया है जिसका पाठ संवेदनशील पाठक को बेचैन करने में समर्थ है।
उपन्यास की कहानी का बड़ा भाग गुरलाभ नाम के तथाकथित खाड़कू की कारगुजारियों और उसके संपर्क में आने वाले पात्रों की होनी को दर्शाता है। उसके माध्यम से अच्छे-बुरे चरित्र वाले साधारण और गैरमामूली कई तरह के अन्य पात्र भी सामने आते हैं जो खाड़कूवाद के मसले को उभारते हैं। लेखक ने तथाकथित खाड़कुओं की भिन्न-भिन्न टोलियों के उद्देश्यों और उनकी कारगुजारियों में साफ़ तौर पर विभाजक रेखा खींची है। गुरलाभ हालांकि बड़े-बड़े एक्शनों को अंजाम देने वाला खाड़कू है पर हकीक़त में वह बदमाशों की उस ढाणी का प्रतिनिधि पात्र है जिसकी खाड़कू लहर के शुरुआत से ही कोई हमदर्दी नहीं, जिसका मनोरथ महज लूटमार और अय्याशी करना ही है। गुरलाभ के आरंभिक कालेज समय के साथियों अर्जनम निम्मे, हरी आदि का मनोरध भी गुंड या बदमाशों के रूप में हीरो बनना था, जबकि बाद में जुड़ने वाले गणेश, गोरा, जीवन जैसे साधारण लोगों को गुरलाभ ने पैसे के लालच में भरमा कर मारधाड़ वाली राह पर चलाया है। क़त्लों और मारधाड़ के एक्शनों में इस तरह के लोगों को एक बार फंसाकर गुरलाभ जैसे बदमाशों ने उन्हें ऐसी अंधी गली में ला फेंका है कि उनके लिए पीछे मुड़ने का कोई रास्ता नहीं रहता। वे अपने एकांत के पलों में अपनी स्थिति पर पछताते तो हैं पर इससे छुटकारा पाने के लिए कर कुछ नहीं सकते। अगली श्रेणी में वो लोग आते हैं जिन्हें खुद या जिनके निकट संबंधियों को अपनी विशेष धार्मिक पहचान के कारण किसी स्तर पर पीड़ित अथवा अपमानित होने का सामना करना पड़ा और जिनके गुस्से की आग को खाड़कुओं ने हवा दी है। मीता, अजायब, जीता फ़ौजी और बाबा बसंत ऐसे ही लोग है जिनकी सिक्खी भावनाओं को सन् 1984 में आहत पहुँची है। आखिरी श्रेणी के खाड़कुओं में कुछ वे लोग हैं जिन्हें सचमुच वक़्त की राजनीति में पृथकतावादी सिक्खी संकीर्ण सोच ने प्रभावित किया है और जो इस मंतव्य के लिए एक लहर बनाने के लिए नौजवानों को लामबंद करने हेतु यत्नशील हैं। ग़मदूर और उसके साथी महिंदर, नाहर इनके पीछे चैतन्य खाड़कुओं का प्रतिनिधित्व करते है। इस प्रकार सिख जगत में खाड़कूवाद में हक़ीकी विश्वास रखने वाला थोड़ा-सा हिस्सा ही है जबकि इसके नाम पर काम करने वाला बड़ा भाग या तो किसी एक्सीडेंट के कारण इसमें शामिल होकर मजबूरी पाल रहा है और या उन स्वार्थों के लिए सरगरम है जिनका लहर के ठीक या गलत उद्देश्यों से कोई लेना-देना नहीं।
अपनी लहर के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हथियार खरीदने के प्रयोजन से धन जुटाने के वास्ते भ्रमित समझ के तहत ‘सचमुच’ का खाड़कू अनसर भी ड्कैतियों, लूटों, अगवा आदि के केस करता है, भिन्न पहचान वाले लोगों में आतंक फैलाने के लिए उनके क़त्ल करता है। इसलिए आम लोग उनके आतंक के कारण भयभीत हैं। पर इन सचमुच के खाड़कुओं से पृथक ग्रुप जिनकी कारगुजारियों का उपन्यास में विस्तृत ब्यौरा प्राप्त है, का तो काम ही लूटपाट, क़त्ल और बलात्कार करना है। इन बेईमान तत्वों को कई बार सीधी ही और बहुत बार परोक्ष रूप में सरकारी मशीनरी और राज्य के उच्च सियासतदानों की भी सरपरस्ती हासिल है। पुलिस अधिकारी रणदीप और गुरलाभ के मामा के निकटवर्ती राज्य सरकार के मंत्री के किरदार इस संबंध में महत्वपूर्ण हैं जो अपने तुच्छ और गलत हितों की खातिर पर्दे के पीछे रहकर तथाकथित खाड़कुओं की पुश्तपनाही करते हैं। ऐतिहासिक सच के अनुसार आठवे और नवें दहाके में एक तरफ़ खाड़कुओं और दूसरी तरफ़ पुलिस की ज्यादतियों के कारण आम लोगों की त्रासद स्थिति सामने आती है।
उपन्यास की कहानी नहरी विभाग में ओवरसियर लगे सुखचैन नाम के पात्र की ‘होनी’ को केन्द्र में रखकर गूंथी गई है। इस प्रकार सुखचैन को उपन्यास का प्रवक्ता माना जा सकता है जो लहर के शिखर के समय तथाकथित खाड़कुओं के आसपास घूमती हुई भी इससे अप्रभावित रहने में एक प्रकार से खुशकिस्मत रहा है। नहीं तो जो कोई भी है, चाहे या अनचाहे, तथाकथित खाड़कुओं के संपर्क में आया, समूचे परिवार सहित दुखांत अन्त का भागी बना। सुखचैन और उपन्यास की स्त्री पात्र – सतबीर और रमनदीप के अस्तित्व के साथ कहानी में औपन्यासिक लिखत वाले गुण आए हैं। इन दो स्त्रियों के क्रमवार गुरलाभ और सुखचैन के संग प्रेम-संबंधों का विवरण उपन्यास में रोमांश का अंश तो लाता ही है, रिश्तों के बनने-बिगड़ने में आर्थिकता और सामाजिक रुतबे के फ़ैसलाकुन दख़ल का तत्व भी उभरता है। इसी कारण रमनदीप और सुखचैन के प्रेम का तो शुरू में गला दबाया जाता है, जबकि सतबीर और गुरलाभ अन्त में मिल जाते हैं। वैसे यह भ्रम बना रहता है कि गुरलाभ के खलनायक वाले हक़ीकी चरित्र के सामने आ जाने पर सतबीर उसके संग-साथ में कैसे सुखी रह सकेगी। उपन्यास की कथा में बड़े ज़मींदारों के सामन्तवादी तरज़ के जीवन-व्यवहार और सरकारी मशीनरी से उनके संबंधों की उघड़ती तस्वीर इसे एक विशेष काल का राजनीतिक दृश्य उभारने को आगे आगे आम रूप में समाज की झलक दिखाने के भी समर्थ बनाती है। वातावरण और दृश्य-चित्रण के तौर पर भी उपन्यासकार ने चोखी कुशलता दिखाई है जिसके परिणामस्वरूप अबोहर के दूर दराज के इलाके का ज़मीनी दृश्य बखूबी उभरता है।
प्रथम गद्य रचना होने के तथ्य के बावजूद अवश्य ही ‘बलि’ एक रेखांकित किए जाने वाला उपन्यास है जिसे लिखने पर लेखक को भी बधाई देना उचित प्रतीत होता है।
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-रघबीर सिंह
(सृजना-157 में प्रकाशित)
बहुत कम लेखकों के हिस्से में आता है कि उनकी पहली पुस्तक ही पाठक जगत का विशेष ध्यान आकर्षित कर ले। ऐसे खुशकिस्मत लेखक या तो असाधारण प्रतिभा के मालिक होते हैं और या फिर उनकी पुस्तक में ही कोई ऐसी खास बात होती है जो निश्चित समय, स्थान के प्रसंग में उसे गौर करने लायक बना देती है। अमेरिका में बसते लेखक हरमहिंदर चहल के प्रथम उपन्यास ‘बलि’ (शिव प्रकाशन, जालंधर, पृष्ठ 240, मूल्य- 205 रुपये) के संबंध में दूसरी वाली बात अधिक सही है। हरमहिंदर चहल पंजाबी सृजनात्मक साहित्य जगत के लिए बिलकुल नया नाम है और यदि उसका उपन्यास प्रकाशित होने के तुरन्त बाद गंभीर साहित्यिक हलकों का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है तो इसका कारण यह नहीं कि इसके माध्यम से कोई असाधारण तौर पर अनौखी प्रतिभा वाला लेखक नमूदार हुआ है, वरन यह है कि इसमें जिस विषय-वस्तु की प्रस्तुति हुई है, उसकी पंजाबी साहित्य जगत को प्रतीक्षा बनी हुई थी।
माना जाता है कि किसी भी देश या समूह के जन-जीवन में घटित बड़ी घटनाओं अथवा हादसों में से समय की एक दूरी से ही अच्छा साहित्य-सृजन संभव होता है। जबकि तात्कालिक प्रतिक्रिया में बहुत कुछ ऐसा घुलमिल जाता है जो अक्सर रचना को चिर-स्थायी महत्व से वंचित कर देता है। सन् 47 के देश विभाजन के बारे में भारतीय भाषाओं में अधिक उल्लेखनीय रचनाएँ दुखांत के घटित होने से कई दशक बाद आई हैं। यही बात पंजाब संताप के दौर से संबंधित रचनाओं के विषय में सोची जा सकती है। नीला तारा के आगे-पीछे के वर्षों में अतिवाद, पृथकतावाद या खाड़कूपन के हवाले से जो सरकारी, गैर-सरकारी आँधी चली, उस बारे में हमारी जुबान में तत्काल में ही अवश्य कई महत्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई थीं और उन पर चर्चा भी हुई थी। तब भी इस दुखांत पर एक फ़ासले रखकर सृजनात्मक दृष्टि डालने की आवश्यकता बनी हुई है। शायद इसीलिए पंजाब संताप के बारे में रचनाएँ लिखने वाले प्रामाणिक हस्ताक्षर माने जाने वाले पंजाबी लेखक वरियाम संधू ने वर्षों बाद प्रकाशित अपनी ताज़ा कथा-रचना ‘रिम झिम परवत’ में इसी विषय को पुन: स्पर्श करना उचित समझा है। हरमहिंदर चहल के उपन्यास ने भी क्योंकि समय की दूरी से इस दुखांत पर बात छेड़ी है और समकालीन साहित्य में इस विषय को छूने वाला यह पहला उपन्यास है, इसीलिए अपने विषय-वस्तु के कारण ही यह एक गौर किए जाने वाली रचना बन जाता है।
अमेरिका जैसे देश में समय, स्थान की दूरी ने वहाँ बसते बहुत से पंजाबियों को तो पंजाब के अस्सी के दशक के संताप के संबंध में वह निरपेक्ष विचार प्रदान ही नहीं किया जिसकी कि आशा की जानी चाहिए थी। पर लेखक हरमहिंदर चहल ने अवश्य अमेरिका में रहते हुए अपने अनुभव को समय की सान पर लाकर, निजी दु:ख-सुख में से उभरते आक्रोश या रुदन की भावुकता, उपभावुकता से दूर रहकर जो उपन्यास लिखा है, वह उसकी निरपेक्ष यथार्थपरक सूझबूझ का भरपूर प्रमाण पेश करता है। इस उपन्यास के गौर किए जाने वाली रचना बनने में इसके विषय-वस्तु का ही नहीं, एक हद तक इसकी प्रस्तुति की जुगत का भी योगदान है।
एक सघन कथा के माध्यम से तथाकथित खाड़कूवाद की लहर के उत्थान, इसकी चढ़त, आम लोगों के जीवन पर इसके प्रभाव, सरकारी मशीनरी की कारगुजारी, नेताओं के किरदार आदि की दृष्टिगोचर और छिपी परतों को लेखक ने उपन्यास में ऐसे समोया है जैसे कि वह इस विषय पर कोई योजनाबद्ध खोज के परिणाम पेश कर रहा हो। इतिहास, राजनीति या समाज विज्ञान के विषय से जुड़ी इस तरह की खोज के भीतरी तथ्यात्मक परिणामों को किसी स्कॉलर की ओर से रोचक गद्यात्मक संगठन में ढाल सकना संभव नहीं। इस मंतव्य के लिए किसी सृजक की दरकार होती है, जो प्राप्त तथ्यों को मानवीय संवेदना के स्पर्श भी दे सकता हो। हरमहिंदर चहल ने ऐतिहासिक वृतांत को मानवीय स्पर्श देने वाला यह कार्य बखूबी निभाया है। एक गल्पकार की तरफ़ से पंजाब संताप के तथ्यात्मक विवरणों को जो मानवीय स्पर्श लेखक ने दिये हैं, उनके कारण उपन्यास ऐसी रचना बन गया है जिसका पाठ संवेदनशील पाठक को बेचैन करने में समर्थ है।
उपन्यास की कहानी का बड़ा भाग गुरलाभ नाम के तथाकथित खाड़कू की कारगुजारियों और उसके संपर्क में आने वाले पात्रों की होनी को दर्शाता है। उसके माध्यम से अच्छे-बुरे चरित्र वाले साधारण और गैरमामूली कई तरह के अन्य पात्र भी सामने आते हैं जो खाड़कूवाद के मसले को उभारते हैं। लेखक ने तथाकथित खाड़कुओं की भिन्न-भिन्न टोलियों के उद्देश्यों और उनकी कारगुजारियों में साफ़ तौर पर विभाजक रेखा खींची है। गुरलाभ हालांकि बड़े-बड़े एक्शनों को अंजाम देने वाला खाड़कू है पर हकीक़त में वह बदमाशों की उस ढाणी का प्रतिनिधि पात्र है जिसकी खाड़कू लहर के शुरुआत से ही कोई हमदर्दी नहीं, जिसका मनोरथ महज लूटमार और अय्याशी करना ही है। गुरलाभ के आरंभिक कालेज समय के साथियों अर्जनम निम्मे, हरी आदि का मनोरध भी गुंड या बदमाशों के रूप में हीरो बनना था, जबकि बाद में जुड़ने वाले गणेश, गोरा, जीवन जैसे साधारण लोगों को गुरलाभ ने पैसे के लालच में भरमा कर मारधाड़ वाली राह पर चलाया है। क़त्लों और मारधाड़ के एक्शनों में इस तरह के लोगों को एक बार फंसाकर गुरलाभ जैसे बदमाशों ने उन्हें ऐसी अंधी गली में ला फेंका है कि उनके लिए पीछे मुड़ने का कोई रास्ता नहीं रहता। वे अपने एकांत के पलों में अपनी स्थिति पर पछताते तो हैं पर इससे छुटकारा पाने के लिए कर कुछ नहीं सकते। अगली श्रेणी में वो लोग आते हैं जिन्हें खुद या जिनके निकट संबंधियों को अपनी विशेष धार्मिक पहचान के कारण किसी स्तर पर पीड़ित अथवा अपमानित होने का सामना करना पड़ा और जिनके गुस्से की आग को खाड़कुओं ने हवा दी है। मीता, अजायब, जीता फ़ौजी और बाबा बसंत ऐसे ही लोग है जिनकी सिक्खी भावनाओं को सन् 1984 में आहत पहुँची है। आखिरी श्रेणी के खाड़कुओं में कुछ वे लोग हैं जिन्हें सचमुच वक़्त की राजनीति में पृथकतावादी सिक्खी संकीर्ण सोच ने प्रभावित किया है और जो इस मंतव्य के लिए एक लहर बनाने के लिए नौजवानों को लामबंद करने हेतु यत्नशील हैं। ग़मदूर और उसके साथी महिंदर, नाहर इनके पीछे चैतन्य खाड़कुओं का प्रतिनिधित्व करते है। इस प्रकार सिख जगत में खाड़कूवाद में हक़ीकी विश्वास रखने वाला थोड़ा-सा हिस्सा ही है जबकि इसके नाम पर काम करने वाला बड़ा भाग या तो किसी एक्सीडेंट के कारण इसमें शामिल होकर मजबूरी पाल रहा है और या उन स्वार्थों के लिए सरगरम है जिनका लहर के ठीक या गलत उद्देश्यों से कोई लेना-देना नहीं।
अपनी लहर के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हथियार खरीदने के प्रयोजन से धन जुटाने के वास्ते भ्रमित समझ के तहत ‘सचमुच’ का खाड़कू अनसर भी ड्कैतियों, लूटों, अगवा आदि के केस करता है, भिन्न पहचान वाले लोगों में आतंक फैलाने के लिए उनके क़त्ल करता है। इसलिए आम लोग उनके आतंक के कारण भयभीत हैं। पर इन सचमुच के खाड़कुओं से पृथक ग्रुप जिनकी कारगुजारियों का उपन्यास में विस्तृत ब्यौरा प्राप्त है, का तो काम ही लूटपाट, क़त्ल और बलात्कार करना है। इन बेईमान तत्वों को कई बार सीधी ही और बहुत बार परोक्ष रूप में सरकारी मशीनरी और राज्य के उच्च सियासतदानों की भी सरपरस्ती हासिल है। पुलिस अधिकारी रणदीप और गुरलाभ के मामा के निकटवर्ती राज्य सरकार के मंत्री के किरदार इस संबंध में महत्वपूर्ण हैं जो अपने तुच्छ और गलत हितों की खातिर पर्दे के पीछे रहकर तथाकथित खाड़कुओं की पुश्तपनाही करते हैं। ऐतिहासिक सच के अनुसार आठवे और नवें दहाके में एक तरफ़ खाड़कुओं और दूसरी तरफ़ पुलिस की ज्यादतियों के कारण आम लोगों की त्रासद स्थिति सामने आती है।
उपन्यास की कहानी नहरी विभाग में ओवरसियर लगे सुखचैन नाम के पात्र की ‘होनी’ को केन्द्र में रखकर गूंथी गई है। इस प्रकार सुखचैन को उपन्यास का प्रवक्ता माना जा सकता है जो लहर के शिखर के समय तथाकथित खाड़कुओं के आसपास घूमती हुई भी इससे अप्रभावित रहने में एक प्रकार से खुशकिस्मत रहा है। नहीं तो जो कोई भी है, चाहे या अनचाहे, तथाकथित खाड़कुओं के संपर्क में आया, समूचे परिवार सहित दुखांत अन्त का भागी बना। सुखचैन और उपन्यास की स्त्री पात्र – सतबीर और रमनदीप के अस्तित्व के साथ कहानी में औपन्यासिक लिखत वाले गुण आए हैं। इन दो स्त्रियों के क्रमवार गुरलाभ और सुखचैन के संग प्रेम-संबंधों का विवरण उपन्यास में रोमांश का अंश तो लाता ही है, रिश्तों के बनने-बिगड़ने में आर्थिकता और सामाजिक रुतबे के फ़ैसलाकुन दख़ल का तत्व भी उभरता है। इसी कारण रमनदीप और सुखचैन के प्रेम का तो शुरू में गला दबाया जाता है, जबकि सतबीर और गुरलाभ अन्त में मिल जाते हैं। वैसे यह भ्रम बना रहता है कि गुरलाभ के खलनायक वाले हक़ीकी चरित्र के सामने आ जाने पर सतबीर उसके संग-साथ में कैसे सुखी रह सकेगी। उपन्यास की कथा में बड़े ज़मींदारों के सामन्तवादी तरज़ के जीवन-व्यवहार और सरकारी मशीनरी से उनके संबंधों की उघड़ती तस्वीर इसे एक विशेष काल का राजनीतिक दृश्य उभारने को आगे आगे आम रूप में समाज की झलक दिखाने के भी समर्थ बनाती है। वातावरण और दृश्य-चित्रण के तौर पर भी उपन्यासकार ने चोखी कुशलता दिखाई है जिसके परिणामस्वरूप अबोहर के दूर दराज के इलाके का ज़मीनी दृश्य बखूबी उभरता है।
प्रथम गद्य रचना होने के तथ्य के बावजूद अवश्य ही ‘बलि’ एक रेखांकित किए जाने वाला उपन्यास है जिसे लिखने पर लेखक को भी बधाई देना उचित प्रतीत होता है।
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