Sunday, September 12, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)
चैप्टर- 20

सत्ती को पटियाला यूनिवर्सिटी का शुरू में बड़ा चाव था। पर नई जगह तो नई होती है न। न कोई जान, न पहचान। सभी लड़कियाँ एक-दूसरे के लिए अनजान थीं। उसे शुरू-शुरू में लुधियाना का गवर्नमेंट कालेज बहुत याद आता। कभी उसे गाँव याद आने लगता। इस सबके बीच जब उसे गुरलाभ याद आता तो उसका दिल भर आता। कई बार वह अकेले बैठकर रोती। आहिस्ता-आहिस्ता दूसरी लड़कियों से उसकी जान-पहचान होने लगी। कई लड़कियाँ उसके इलाके की भी थीं। मलोट, अबोहर, फरीदकोट, फिरोजपुर, दूर-दूर तक के सारे शहरों की लड़कियाँ उसके साथ हॉस्टल में रहती थीं। लड़कियों की आपस में मित्रता होने लगी। सत्ती की भी चार-पाँच सहेलियाँ बन गईं। उनका चार-पाँच का ग्रुप बन गया। वे कालेज खत्म होने के बाद कैंटीन में जातीं। शाम को यूनिवर्सिटी में घूमती-फिरतीं। शाम के भोजन के बाद देर रात तक बातें करती रहतीं। धीमे-धीमे सत्ती का वहाँ पूरी तरह दिल लग गया। छुट्टी वाले दिन वे शहर में घूमतीं। शाम को कोई न कोई फिल्म देख आतीं। यहाँ लुधियाना की अपेक्षा अधिक आज़ादी थी। रात के नौ बजे तक कोई जहाँ चाहे घूमे-फिरे। रात नौ बजे तक लड़कियों का हॉस्टल में लौट आना आवश्यक था। पढ़ाई की इतनी फिक्र नहीं थी। आर्ट्स की पढ़ाई थी, कोई अधिक मेहनत की ज़रूरत नहीं थी। यहाँ आकर सत्ती को पंजाबी साहित्य पढ़ने का शौक लग गया था। वह हर दूसरे-तीसरे दिन लाइब्रेरी जाती। पुरानी किताबें जमा करवा आती, नई इशु करवा लाती। रात में देर तक बैठकर वह उन्हें पढ़ती रहती। जैसे ही उसका साहित्य की ओर झुकाव हुआ तो उसे लगा कि इस ओर से तो वह बिलकुल ही कोरी थी। उसे लगने लगा कि साहित्यिक शिक्षा के बग़ैर तो इन्सान बिलकुल अनपढ़ है। उसकी रुचियाँ और आगे बढ़ने लगीं। वह साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लेने लगी। यूनिवर्सिटी के कार्यक्रमों में भी उसने प्रवेश ले लिया। यूनिवर्सिटी, हॉस्टल और दूसरे आसपास के अच्छे वातावरण में विचरते हुए उम्र की इस स्टेज पर वह ज़िन्दगी का भरपूर आनन्द ले रही थी। जब कभी गुरलाभ उसकी स्मृतियों पर भारी पड़ जाता तो उसका मन विचलित हो उठता। गुरलाभ उसके दिलोदिमाग और उसके अन्तर्मन में बसा हुआ था जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं सकती थी। ऐसी अवस्था में वह अजीब कशमकश में फंस जाती। वह सोचती कि गुरलाभ के कारण ही उसने लुधियाना छोड़ा था। अब उसके बग़ैर वह नित्य तड़पती थी शायद यही सच्चा प्यार था। कई बार वह सोचती कि काश गुरलाभ कहीं से आ जाए या वह उसे एक बार कहीं देख ही ले। ऐसे समय में वह उसके सपनों में घूमता। गुरलाभ की यादें उसकी अच्छी-भली ज़िन्दगी को अशान्त कर देतीं। फिर तभी उसे दूसरा ख़याल आता कि अगर गुरलाभ वाकई दूसरे रास्ते पर चल पड़ा तो वह क्या करेगी। यह विचार उसके मन में हलचल मचा देता।
जब कभी वह छुट्टियों में गाँव जाती तो अबोहर के अड्डे पर, अबोहर शहर में गुरलाभ को खोजती। फिर वह स्वयं ही मन को ढाढ़स देती कि गुरलाभ अब कहाँ मिलने वाला है। अगर मिला भी तो वह पहले वाला गुरलाभ कहाँ रहा होगा। क्या मालूम उसे वह याद भी है कि नहीं। वह भी उसे उसकी तरह याद भी करता होगा कि नहीं। किधर गया वह गुरलाभ जो सदैव संग मरने-जीने के वायदे किया करता था। जिसके संग ज़िन्दगी बिताने का उसने सपना देखा था। फिर उसे लगता कि सपना शायद सपना ही बनकर रह गया था। गुरलाभ अब कभी नहीं मिलने वाला। जब सत्ती गाँव में होती तो वह गुरलाभ की याद में खोई रहती। उसे लगता कि अब तो गुरलाभ की केवल यादें ही संग रह गई थीं। सत्ती को अपनी किसी सहेली से यह तो पता चलता रहता था कि गुरलाभ कभी-कभार अपने ननिहाल वाले गाँव आता रहता था। उसे यह पता नहीं लग सका था कि उसके डिप्लोमा का क्या हुआ। जब सत्ती ने लुधियाना छोड़कर पटियाला में दाख़िला लिया था, तब गुरलाभ का छठा आख़िरी सिमेस्टर चल रहा था। इस हिसाब से गुरलाभ अब कहीं नौकरी करता होना चाहिए था। उसके डिप्लोमा के बारे में या नौकरी के विषय में सत्ती को कुछ पता नहीं था। उसे तो गुरलाभ के कभी-कभार अमरगढ़ आने के अलावा अन्य किसी बात की जानकारी नहीं थी। पटियाला यूनिवर्सिटी में उसका दूसरा वर्ष चल रहा था। इस बार गर्मियों की छुट्टियों में उसने गाँव आना था। छुट्टियाँ होने में अभी तीन दिन शेष थे कि तभी उसे पता चला कि उसके भाई करनबीर का एक्सीडेंट हो गया है तो उसने उसी वक्त छुट्टी ले ली। सीधी अस्पताल पहुँची। एक्सीडेंट बहुत भयंकर हुआ था। अच्छी किस्मत थी कि जान बच गई थी। करनबीर की बायीं टांग टूट गई थी। प्रारंभिक चिकित्सा करने के बाद डाक्टर ने टांग पर पलस्तर चढ़ा दिया था। दो महीने बिस्तर पर बैठना पड़ गया। गाँव आ जाने के बाद सत्ती खोई-खोई-सी रहती थी। वह अधिकांश समय गुरलाभ के बारे में सोचती रहती थी। जब से उसने लुधियाना छोड़ा था, उसके बाद खाड़कूवाद सारे पंजाब में फैल गया था। गुरलाभ के विषय में किससे पता करे, उसे कुछ समझ में नहीं आता था।
उनके घर में लोगों का आना-जाना लगा रहता था। बड़ा घर दो हिस्सों में बंटा हुआ था। अन्दरवाला हिस्सा दीवार निकालकर बाहरवाले हिस्से से पृथक किया हुआ था। बाहरवाले हिस्से से अन्दरवाले हिस्से में घरेलू सदस्य या छोटे नौकर ही आ जा सकते थे। बाहरवाले हिस्से में एक बड़ा दरवाजा था। दरवाजे के दोनों तरफ पुराने समय की दो बड़ी बैठकें थीं। बाहरवाले हिस्से के बड़े आँगन के एक कोने में मुर्गों का एक बड़ा दड़बा था। उसके साथ ही तीतरों का खुड्डा था। कुछ कबूतर भी रखे हुए थे। एक बाड़ के अन्दर हिरणों का जोड़ा छोड़ा हुआ था। ये करनबीर के शौक थे। यह बड़े घरों का शुगल था। कई बार जब बाहरवाले हिस्से में आए-गए लोग न दिखाई देते तो सत्ती इन जानवरों के खुड्डों के पास जा खड़ी होती। उसे खेलते हुए जानवर बड़े प्यारे लगते। कई बार वह जानवरों को पानी पिलाती। कई बार दाना डालने आती।
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आज सुबह से ही घर में लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। कभी कोई जीप पर आता और कभी कोई मोटरसाइकिल पर। अधिकतर लोग इसलिए भी आते थे क्योंकि करनबीर की टांग पर पलस्तर चढ़ा होने के कारण वह कहीं आ-जा नहीं सकता था। दोपहर होने पर जब उसने देखा कि मिलने-जुलने वाले आम व्यक्ति चले गए थे तो वह घड़ी भर के लिए दिल बहलाने की खातिर इधर आकर पंछियों के संग अठखेलियाँ करने लगी। पंछियों से खेलती ने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा तो वह देखती ही रह गई। उसके पीछे सुखचैन खड़ा था। वे अचम्भित होकर आपस में बातें करने लगे, पर अक्षय कुमार के आ जाने से उनकी बातचीत बीच में ही रह गई थी। सत्ती सोच में डूब गई थी कि कोई बात अवश्य थी, जिससे वह अनभिज्ञ थी। शायद सुखचैन बात को गोल कर गया। इसका अर्थ था कि बात भी कोई गंभीर थी। दूसरी तरफ सुखचैन भी हैरान था कि सत्ती को अभी तक गुरलाभ के अन्त के विषय में कुछ पता नहीं। दूसरों की भाँति सुखचैन भी समझता था कि लुधियाना की उस मीटिंग के दौरान गुरलाभ भी पकड़ा गया था। मीटिंग में पकड़े गए सभी लड़कों की पुलिस-मुठभेड़ में मारे जाने की ख़बरें छपती रही थीं। गुरलाभ तो दूसरों के साथ ही...। फिर यह किस भ्रम में जी रही थी। सत्ती को काफी समय तक गाँव में रुकना था। किसी दिन फिर आने की सोचकर सुखचैन वापस कोठी लौट गया।
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फिरोजपुर एरिये में काम बन्द करके शेष बचे छह जनों को लेकर गुरलाभ वापस अबोहर के इलाके में लौट आया। उसने लड़कों के दो दल बनाकर अलग-अलग ठिकानों पर उन्हें ठहराया। फिलहाल उसने एक्शन रोक दिए थे। वह कुछ देर अमन-चैन से रहना चाहता था। वह हर रोज़ घर आता था। दिन में किसी न किसी से मिलने के बहाने सुबह-सवेरे ही निकल जाता था। उस दिन शाम के वक्त उसने पहले मोटर साइकिल हनुमानगढ़ रोड पर डाल लिया। लेकिन फिर नहर की पटरी पड़कर गाँव की ओर चल पड़ा। आगे नहर के अगले पुल पर साइन-बोर्ड लगा था - रत्ताखेड़ा। उसे देखकर वह वहीं खड़ा हो गया। उसने मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर दी। नहर के किनारे खड़े होकर दूर रत्तेखेड़े गाँव की ओर देखने लगा। ऐसा नहीं था कि वह सत्ती को भूल गया था या सत्ती की उसे कभी याद नहीं आई थी। सत्ती को वह कभी भुला नहीं पाया था। उसे एक ही भय था कि अगर सत्ती को उसकी असलियत का पता चल गया तो वह सत्ती की नफ़रत के काबिल भी नहीं रहेगा। जब वह सत्ती को लुधियाना में अन्तिम बार मिला था तो वह बहुत अशान्त था। सत्ती की बातें सुनकर उसका सामना करने की हिम्मत उसमें नहीं रही थी। फिर जो कुछ वह सोचता था, वैसा हो गया। सत्ती ने जब लुधियाना कालेज छोड़ दिया तो उसने सुख की साँस ली थी। वह सोचता था कि एकबार इधर से पीछा छुड़ा ले, फिर वह सत्ती को खोज लेगा। जिस लहर में वह अपने शुगल की खातिर दाख़िल हुआ था, अब वह लहर उसकी मर्जी नहीं चलने दे रही थी। दिनरात निर्दोषों के लिए मौत बांटता गुरलाभ भी अब इस सबसे ऊबा पड़ा था। वह इस सारे बखेड़े से एक तरफ होना चाहता था। लेकिन अभी कम्बल उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। फिर उसके मन में एक दिन ख़याल आया कि क्यों न मंत्री जी से सीधी बात करे। उसने उनकी इतनी मदद की थी। वह क्यों नहीं उसकी मदद करेंगे। यही कारण था कि उसने फिरोजपुर से वापस अबोहर आकर लड़कों को कुछ समय आराम करने के लिए कहा था। वह स्वयं भी रूटीन-सी ज़िन्दगी जीने लग पड़ा था। फुर्सत में होने पर ही सत्ती की यादों ने आ घेरा था। अब वह नित्य योजनाएँ बनाता था कि किसी तरह सत्ती को खोजे। इधर से पीछा छुड़ाकर कहीं निकल जाए। उसे अभी कोई राह दिखाई नहीं दे रही थी। सत्ती को तो वह खोज ही सकता था।
कुछ देर नहर के पुल पर खड़ा गुरलाभ सत्ती से मिलने के विषय में सोचता रहा। फिर उसके मन में आया कि क्यों न इस बारे में मामा जी से बात करे। यह विचार आते ही मोटर साइकिल स्टार्ट करता हुआ वह गाँव की तरफ चल पड़ा।
''मामा जी, मुझे आपसे एक बात करनी है।'' जैलदार कोठे पर बैठा शराब पी रहा था।
''मैं भी तेरे मुँह से कुछ सुनने को उतावला हुआ बैठा हूँ।'' जैलदार भी गुरलाभ के छुपा-छिपी के खेल से खीझा बैठा था।
''खीझे तो आप यूँ ही बैठे हो। पर यह बात कुछ और है।'' गुरलाभ ने सीधे तौर पर कहा।
''मैं क्यों खीझा बैठा हूँ। तू समझता है कि मैंने सारी उम्र भेड़ें ही चराई हैं ?''
''तू लुधियाने ओवरसीयर का कोर्स करने गया था। क्या हुआ फिर कोर्स का ?''
गुरलाभ चुप रहा।
''तेरे साथ के लड़के ओवरसीयर लगे घूमते हैं और तूझे कुत्तागिरी करने के सिवाय कोई काम नहीं। बहन और सरदार को मैं क्या जवाब दूँगा कि ननिहाल में रखकर इसे क्या पढ़ाया ?''
''आप मामा जी, बात को दूसरी तरफ ले गए। मुझे तो एक निजी बात करनी थी।'' गुरलाभ बोला।
''मैं तो बात को ही किसी दूसरी तरफ ले चला हूँ पर तू तो खुद ही किसी दूसरी दिशा में घूम रहा है।'' हालांकि जैलदार को सच्चाई का पता नहीं था कि गुरलाभ क्या करता फिरता था, पर जैलदार भी सात पत्तणों का तैराक था। वह गुरलाभ की चालढाल देखकर समझे बैठा था कि यह उससे छिपाकर कोई न कोई खिचड़ी अवश्य पका रहा है। पुलिसवाले भी इसके पीछे घर तक आने लग पड़े थे। गुरलाभ ढीला-सा होकर नीचे उतरने लगा।
''कल, मंत्री जी ने आना है। मुझे उनसे मिलना है। तू मेरे साथ चलना।'' जैलदार समझता था कि मंत्री जी के साथ पहले से ही सम्पर्क रखा जाए।
''हूँ'' कहता हुआ गुरलाभ सीढ़ियाँ उतर गया।
अगले दिन जैलदार ने गुरलाभ को संग बिठाया और मंत्री जी की कोठी की ओर चल पड़ा। मंत्री जी रात ही आए थे। गुरलाभ को पता था कि वहाँ रणदीप भी मिलेगा। उसने स्वयं को हर स्थिति के लिए तैयार कर लिया था। कोठी में बहुत भीड़-भड़क्का था। कोठी में दाख़िल होते हुए गुरलाभ को सबसे पहले रणदीप ही मिला। रणदीप ने बड़े अपनत्व से जैलदार को बुलाया। गुरलाभ से हाथ मिलाकर बातें करता हुआ धीरे-धीरे उसे एक तरफ ले गया।
''तू नहीं समझ सकता, तूने मेरे लिए कितना बड़ा काम किया है। तूने पूरी यारी निभाई है। मैं समझता हूँ, हम भविष्य में भी ऐसे ही एक दूसरे के लिए काम आएँ।''
''एक-दूजे के काम आने का क्या मतलब ? काम तो तेरे सिर्फ़ मैं ही आया।'' गुरलाभ अब रणदीप को अपने पर हावी नहीं होने देना चाहता था।
''ये बातें गुरलाभ बैठकर करने वाली हैं। आज शाम को मैं खाली हूँ। अगर कहे तो मेरे घर में बैठ जाते हैं।''
''वो तो ठीक है, पर मुझे लगता है कि तू मुझे एक मुख्बिर से अधिक कुछ नहीं समझता।''
''नहीं, तुझे पूरी बात का पता नहीं। तू मेरा बहुत खास दोस्त है। चल, शाम को बातें होंगी तो तुझे खुद पता चल जाएगा।''
''शाम की शाम के साथ रही। एक बात तुझे अभी करनी पड़ेगी।''
''वह क्या ?''
''मंत्री जी के सामने बताना होगा कि बाबा बसंत वाला खेल खत्म करने में मेरा अहम रोल रहा है।'' गुरलाभ मंत्री जी के सामने अपना रुतबा बनाना चाहता था। पर उसे नहीं पता था कि वह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहा था।
''चल, अभी कह देता हूँ।'' रणदीप का पुलसिया दिमाग चालों का ताना-बाना बुनता जा रहा था।
मंत्री जी के कमरे में जाते हुए एस.पी. रणदीप ने मंत्री जी के करीब होकर कुछ कहा तो मंत्री जी ने पी.ए. को इशारा किया। वह उठकर रणदीप के संग पिछले कमरे में चले गए। गुरलाभ भी आ गया। उसने मंत्री जी के पैरों को हाथ लगाया। ''हाँ भई भाणजे, क्या हाल है ?'' मंत्री जी के इतना कहने पर गुरलाभ फूल कर कुप्पा हो गया।
''सर, उस आतंकवादी बसंत को मार गिराने में गुरलाभ का बहुत बड़ा योगदान रहा है।'' गुरलाभ की ओर संकेत करता रणदीप मंत्री जी की ओर मुखातिब हुआ।
आँखों पर से ऐनक उतारकर मंत्री जी ने पल भर गुरलाभ के चेहरे पर नज़रें गड़ाकर गौर से देखा। खामोशी भरे वातावरण में उन्होंने ऐनक दुबारा लगाते हुए गुरलाभ को शाबाशी दी।
''यह लड़का मेरा भान्जा है, खास ख़याल रखना।'' इतना कहते हुए मंत्री जी ने रणदीप को बाहर भेज दिया। किसी सोच में डूबे वह कमरे में टहलने लगे। टहलते हुए एक-दो बार उन्होंने गुरलाभ की ओर भी देखा।
''वह मेरे साथ पढ़ता रहा था, इसीलिए मैं उसे पहचानता था।''
मंत्री जी के बग़ैर कुछ पूछे ही गुरलाभ ने उनके मन के अन्दर चल रहे सवाल को पढ़ लिया था।
''शाबाश बेटे, वैल डन।'' उसकी ओर देखे बिना सोच में डूबे मंत्री जी खुद-ब-खुद बोले। जैलदार भी आ गया था। उसे मंत्री जी ने ही पिछले कमरे में बुलाया था। वहाँ तक पहुँचते जैलदार का कलेजा धड़कता रहा था। उसने गुरलाभ, एस.पी. रणदीप और मंत्री जी को प्राइवेट कमरे में जाते हुए देख लिया था।
''हाँ भई जैलदार, क्या हाल है।'' मंत्री जी ने उसे गले से लगाया। ''पढ़ाई-लिखाई इस लड़के के वश का काम नहीं। मैं तो इसे अगली बार एम.एल.ए. का टिकट दिलाने को घूमता हूँ।'' एम.एल.ए. की टिकट के बारे में सुनकर जैलदार मन ही मन खुशी में नाच उठा।
''मैं एक-आध दिन में गाँव का चक्कर लगाऊँगा। साथ ही, ताई जी को मिल आऊँगा। तुम लोग गाँव में ही रहना।'' इतनी खुशियाँ को जैलदार से सम्भालना कठिन हो रहा था। उनके जाते ही मंत्री जी ने एस.पी. रणदीप को फिर अन्दर बुलाया। ''आज शाम तक मुझे गुरलाभ के बारे में पूरी रिपोर्ट चाहिए।'' इतना कहकर मंत्री जी कोठी के पिछले हिस्से में चले गए। खाना खाकर मंत्री जी सो गए। तीन-चार घंटे की नींद लेने के बाद मंत्री जी पाँच बजे उठे। नहाकर चाय उन्होंने अपने प्राइवेट कमरे में ही मंगवा ली। वह तरोताज़ा होकर चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, जब एस.पी. रणदीप सलूट मारकर उनके सामने आ खड़ा हुआ। मंत्री जी ने उसे बराबर सोफे पर बैठने का संकेत किया। उन दोनों को छोड़कर उस कमरे में दूसरा कोई नहीं था।
गुरलाभ के विषय में पूरी रिपोर्ट देकर एस.पी. रणदीप फाइल बन्द करते हुए उनके चेहरे की ओर देखने लगा। मंत्री जी आँखें बन्द किए हुए कहीं गुम थे।
''जो कुछ यह करता रहा है, इसके पीछे इसकी किसी लहर के साथ हमदर्दी की वजह तो नहीं। या कोई और कारण है ?'' आँखें मूंदे-मूंदे ही मंत्री जी ने पूछा।
''नहीं जी, इसकी किसी ग्रुप या लहर से कोई हमदर्दी नहीं। यह तो जो कर रहा है, अपने शुगल-मेले के तौर पर ही कर रहा है।''
इतना सुनते ही मंत्री जी आँखें खोलकर सावधान होकर बैठ गए और रणदीप की ओर देखते हुए बोले, ''एस.पी. यहाँ तू गलत है।''
''जी ?'' रणदीप ने हैरान होकर मंत्री जी की तरफ देखा।
''देखो, मैं होम मिनिस्टर हूँ। मेरे सहित पूरे प्रान्त की पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रही है। उन्हें पकड़ने के लिए और उन्हें खत्म करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। ठीक है न ?''
''जी हाँ।''
''गुरलाभ ने भी पहले लुधियाना में आतंकवादियों का ग्रुप पुलिस को पकड़वाया। बसंत जैसे खूंखार आतंकवादी को मरवाया। इस हिसाब से तो यह भी वही काम कर रहा है जो पुलिस कर रही है।''
''जी सर।''
''फिर यह कोई गुंडा-डकैत नहीं, यह तो एक तरह से गवर्नमेंट की मदद कर रहा है। इसे छेड़ना नहीं।'' इतना कहकर मंत्री जी ने रणदीप को वापस भेज दिया। रणदीप चलते-चलते सोच रहा था कि मंत्री जी भी गुरलाभ रूपी आम को थोड़ा चूसना चाहते थे।
शाम के वक्त गुरलाभ रणदीप के संग बैठा था। इधर-उधर की बातें करते हुए रणदीप असली मुद्दे पर आया।
''गुरलाभ जो लोग कहते हैं कि पुलिस वाले किसी के मित्र नहीं होते, यह बात पूरी तरह सही है क्योंकि अगर पुलिस वाले दोस्तियाँ निभाने लगे तो पुलिस महकमा कैसे चलेगा।''
''हमारी तो पहले से लिहाज है। फिर तेरी वजह से मैं आज इस रैंक पर बैठा हूँ। ऊपर से तेरे साथ वायदा भी किया हुआ है। इस कारण मैं तेरे संग महकमे को एक तरफ रखकर दोस्ती निभाऊँगा।'' उसकी बातें सुनता गुरलाभ थोड़ा अकड़ में बैठा था। मंत्री जी द्वारा पीठ थपथपाये जाने के कारण भी।
''तू इन सब बातों को छोड़, मैं तुझे एक ही मतलब की बात सुनाता हूँ। पुलिस अब इस लहर को कुचलने पर आ गई है। सरकार की फोर्सों के आगे ये मुट्ठीभर ए.के. सैंतालीस कुछ भी नहीं। जब पुलिस अपनी आई पर आ जाए तो अगले का चिता तक पीछा करती है। अब सुन क्या होगा। पहले ये सो काल्ड खाड़कू मारे जाएँगे। फिर इनके रिश्तेदार और घर-परिवार वाले खत्म किए जाएँगे। इनके दोस्त-यार और इनसे हमदर्दी रखने वालों का खात्मा किया जाएगा। एक अवसर ऐसा भी आएगा कि खाड़कूवाद का एक भी हमदर्द नहीं बचेगा। इस सबके साथ ही पता है क्या होगा ?''
''क्या ?''
''पुलिस अपने सोर्सों को भी साथ के साथ खत्म करती जाएगी। आख़िर में दोस्त या दुश्मन कोई नहीं बचेगा। तू मेरा दोस्त है। तुझे इसलिए ये बातें बता रहा हूँ।'' जब रणदीप अपनी बात खत्म करके चुप हो गया तो गुरलाभ ने हैरान होकर उसके मुँह की ओर देखा।
''तुझे तो यह है कि तेरे बारे में किसी को कुछ पता नहीं। पर पुलिस का जंतर-मंतर बहुत गहराई में जाता है। जो कुछ तूने किया है, हर जगह पर तेरा नाम बोलता है। बस तू मंत्री जी की बदौलत अब तक बचा हुआ है। मलोट-अबोहर की घटनाओं को तूने अंजाम दिया था न कि बसंत ने। फिर फिरोजपुर में पिरथी सिंह की मार्फ़त लाखों-करोड़ों...।''
''अगर कहे तो एक-एक वारदात गिना दूँ।''
गुरलाभ समझ गया था कि रणदीप झूठ नहीं बोल रहा था। वह चिंतित भी हुआ था। ''मैंने तो यार पहले ही बताया था कि मंत्री जी की फूंक में यूँ ही शौक के तौर पर पड़ गया इस तरफ। मेरा किसी ग्रुप से कोई संबंध नहीं।''
''इतना सब करके बचे रहना कोई खेल नहीं। अब तू मझधार में है। अगर किनारे लगना है तो मंत्री जी का पल्लू न छोड़ना। और साथ ही, मेरे कंटेक्ट में रहना।''
''वो तो मेरे पर पूरे मेहरबान हैं। एम.एल.ए. की टिकट देने को कहते हैं।''
''तू टिकट का छोड़ पीछा...जो काम मंत्री जी कहें, उसे मना मत करना। और फिर, फिरोजपुर वाले पिरथी सिंह के रिश्तेदार यहीं हैं। एक बात याद रखना कि तुझे इस भंवर में से मंत्री जी ही निकालेंगे। जब मौका आएगा, बता मैं दूँगा तुझको।''
''जब तू मेरे संग है तो मुझे किस बात का डर है यार।'' नशे के सुरूर में गुरलाभ बोला।
''बस, मेरी आज की बातों को याद रखना। अब तू घर जा।'' अच्छा-खासा अँधेरा हो चुका था जब रणदीप ने गुरलाभ को विदा किया।
घर की ओर जाते हुए गुरलाभ रणदीप की बातों के विषय में सोचता रहा था। यह तो वह भी जानता था कि उसका बेड़ा मंत्री जी ही पार लगाएँगे, पर बात इतनी खतरनाक स्थिति में पहुँच जाएगी, यह उसने कभी नहीं सोचा था। 'साले, सभी जिम्मेवार हैं।' अचानक उसने अपने आप से कहा, 'मुझे अकेले को क्या कहते हैं। न कोई मंत्री कम है, न कोई पुलिसवाला। साला नसीहत देता देता कैसे पिरथी सिंह का नाम बीच में ले गया। सीधा क्यों नहीं कहता कि यहाँ भी हमारे आगे हड्डी फेंकना जारी रखना। मंत्री जी भी यूँ ही नहीं एम.एल.ए. की टिकट देने वाले। कुछ न कुछ वह भी उम्मीद रखते होंगे।''
''आजा, आजा। पता नहीं कहाँ रह गया था। ले, पैग लगा।'' जैलदार मामा ने खुशी में गुरलाभ को पैग डालकर दिया।
''वैसे तो बड़ी खुशी की बात है भान्जे कि मंत्री जी इतने मेहरबान हैं, तुझे एम.एल.ए. की टिकट देने के लिए कह रहे हैं, पर एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि वह ऐसे एकदम मेहरबान कैसे हो गए ?''
''हमने मामा जी आम खाने हैं कि पेड़ गिनने हैं।''
''पर तब भी कुछ तो होगा ही।'' जैलदार गहरे सोचता हुआ बोला।
''सारे भैण.... एक जैसे हैं। सारा आवां ही ऊता पड़ा है।'' गुरलाभ नशे में बकता हुआ अपने कमरे में जा पड़ा।
(जारी…)
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