Sunday, April 18, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 8(प्रथम भाग)

मीता, अर्जन और गुरलाभ शाम की रोटी खाने के बाद इधर-उधर घूमकर वापस अपने कमरे में आ गपशप मार रहे थे। रात के करीब नौ बजे किसी ने आकर दरवाजे पर दस्तक दी। मीता ने दरवाजा खोला तो सामने नाहर खड़ा था। नाहर पहले दिन गमदूर के साथ मीता के कमरे पर आ चुका था। वह बाकी लोगों को भी जानता था।
''भाई, गमदूर ने सन्देशा भेजा है।'' नाहर ने मीता को कहकर दूसरों पर निगाह दौड़ाई।
''कोई बात नहीं, सब अपने ही हैं।'' मीता ने उसकी झिझक उतारी।
''तुमने कल एक एक्शन करना है।''
एकबारगी तो सबकी साँसें थम गईं। भय से कंपकंपी-सी भी आई। फिर मीता संभलता हुआ बोला, ''पर हमारे पास हथियार तो कोई है नहीं।''
''यह एक्शन हथियारों का प्रबंध करने के लिए ही करना है।''
''तू यार, एक बार में ही सब कुछ बता दे। दिल की धकधक तो दूर हो।'' अर्जन ने उतावला होते हुए कहा।
''तो फिर सुन लो। खन्ना शहर में घुसते ही एक टायरों की दुकान है। काफी बड़ी। तुम तीनों कार पर जाओ। हथियार तुम्हारे पास जेब वाले ही हों। दो तुम्हारे पास अपने हैं ही, एक मैं दे देता हूँ। टायर देखने के बहाने मालिक को अपने संग चलाते रहना दुकान के अन्दर ही। फिर मौका देखकर उसकी कमर में पिस्तौल लगाकर उसे कार में बिठा लेना। धमकाना कि हम बाबे हैं। उसे दो दिन और दो रातें तुमने कहीं छिपा कर रखना है। चौथे दिन जाते हुए कहीं भी सड़क पर उतार देना। डराना-धमकाना ज्यादा से ज्यादा है पर नुकसान कुछ नहीं करना।''
''यह क्या एक्शन हुआ भई ?'' गुरलाभ हैरानी में बोला।
''उसे छोड़ने के बाद जब तुम वापस हॉस्टल में लौटोगे तो मैं तुम्हें यहीं हॉस्टल में ही मिलूँगा। फिर तुम्हें एक्शन के बारे में खुद ही पता चल जाएगा। हाँ, तुम्हें कार भी मेरी ले जानी है। नीचे खड़ी है। ये लो चाबी। अगर कहीं मुश्किल आए तो कार कहीं भी सड़क किनारे खड़ा करके लुप्त हो जाना।'' इतना कहकर और चाबी पकड़ाकर वह चलता बना। वे रातभर माथा-पच्ची करते रहे। उन्हें इस एक्शन के बारे में कुछ समझ में नहीं आया।
''यार जैसे उसने कहा है, हम कर लेते हैं। और फिर कौन सा किसी की मारा-मराई करनी है। दो दिन लाला को कहीं छिपा कर रखना है। फिर छोड़ देंगे।'' गुरलाभ ने सभी को हौसला दिया।
''बात तो तेरी ठीक है। कार भी है। हथियार भी हैं। लाला भी होगा, पर रखेंगे कहाँ ?'' मीता गहरी सोच में गुम हुआ पड़ा था।
''इसका हल मिल गया।'' अचानक गुरलाभ हाथ पर हाथ मारता हुआ बोला।
''वह क्या ?''
''यह तुम मेरे पर छोड़ दो। बस, मेरी बात में बोलना नहीं।'' गुरलाभ शीघ्र ही कमरें में से निकल गया। मीता और अर्जन अचम्भे से उसकी तरफ देखते रहे। गुरलाभ के दिमाग में अकस्मात् तेजा पंडित आ गया था। उसका गाँव भी खन्ना के पास था। तेजे के खेत में मोटर पर वह पहले भी जा चुका था। ठहरने का बढ़िया प्रबंध था। गुरलाभ सीधा तेजा के कमरे में गया।
''बाह्मण, कल पुरजे का प्रबंध हो रहा है ओए।''
पुरजे के नाम पर तेजा उछल पड़ा, ''फिर ढील कैसी ?''
''बात यह है कि लड़की खन्ना कालेज से उठानी है पर ले जाने को जगह नहीं,'' गुरलाभ ने पंडित को चारा फेंका।
''क्यों, यारों की मोटर वाली जगह किसलिए है ? हमारे खेत में जगह ही जगह है।''
''अच्छा, तू तड़के ही निकल जाना और चार-पाँच लोगों के खाने का प्रबंध करके रखना। मैं दोपहर बाद लड़की को कार में लेकर आऊँगा।''
''अंधा क्या खोजे, दो आँखें। मैं तो अभी चल देता हूँ गाँव को।'' तेजा पंडित लड़की की बात सुनकर यूँ ही हाथों में आ गया।
अगले दिन मीता, अर्जन और गुरलाभ तीनों नाहर वाली मारूति पर खन्ना पहुँच गए। अर्जन कार चला रहा था। दुकान के आगे गाड़ी लगाकर अर्जन सीट पर ही बैठा रहा। मीता और गुरलाभ अन्दर जाकर टायरों की पूछताछ करने लगे। बातें करते करते वे मालिक लाला को एक कोने में ले गए। अचानक गुरलाभ ने पिस्तौल निकाल कर लाला की कमर से लगा दिया। ''तुझे अगवा किया जाता है। चुपचाप चला चल। अगर कोई चूँ-चाँ की तो गोली सीने में ठोक दूँगा।'' लाला के पसीने छूट गए। वह चल पड़ा। आगे मीता था, बीच में लाला और पीछे गुरलाभ। वे इस तरह चले जा रहे थे जैसे पुरानी जान-पहचान हो। पिछली सीट पर बिठाकर वे दोनों लाला के अगल-बगल बैठ गए। अर्जन ने गाड़ी दौड़ा ली। थोड़ी दूर जाकर उन्होंने लाला की आँखें बाँध कर उसे पैरों के पास टेढ़ा कर लिया। आगे, इधर-उधर सड़कों पर मुड़ते हुए वे तेजा पंडित के गाँव की ओर चल दिए। उसके खेत को कच्चा रास्ता जाता था। कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाती गाड़ी पलों में मोटर पर जा पहुँची। गुरलाभ बाहर निकलकर आगे बढ़ा। तेजा पंडित मीट बनाये बैठा था। साथ में, देसी शराब रखी हुई थी। वह अन्दर मस्ती में डूबा था। तभी मीता और अर्जन लाला की बांह पकड़े दरवाजे के सामने आए। तेजा के तो होश ही उड़ गए। उसे बात को समझते देर न लगी।
''ओए, ये क्या किया सालो... तुमने मेरे साथ धोखा किया है।''
''चुप कर ओ बाह्मण। तूने ही तो कहा था, तुझे पुरजा चाहिए।'' गुरलाभ ने मखौल किया।
तेजा पंडित थर्र-थर्र कांप रहा था, ''साले पुरजे के...।''
उन्होंने लाला को अन्दर बिठाकर बाहर से दरवाजा बन्द कर दिया।
''भाई साहब मेरी बात तो सुनो। पता तो चले, तुम्हें चाहिए क्या।'' लाला गिड़गिड़ा रहा था।
''लाला जी, डरने की ज़रूरत नहीं। जब सारा काम हो जाएगा तो तुम्हें वापस वहीं छोड़ देंगे। कोई चालाकी नहीं करनी। भागने की कोशिश नहीं करना। कहीं यूँ ही जान न गवां बैठना।'' मीता लाला को समझाते हुए दूर कमरे में चला गया जहाँ बाकी लोग बैठे थे।
''ये तुम किस राह पड़ गए यार ?'' तेजा से बोला नहीं जा रहा था।
''ओए, दो दिन की ही बात है, क्यों बकवास किए जा रहा है बाह्मण।'' गुरलाभ ने मीठी झिड़की दी। अगले दो दिन तेजा पंडित उनकी रोटियाँ ढोता रहा। चौथी रात जब वह लाला को कार में बिठाकर जाने लगे तो तेजा ने राहत की साँस ली। वे गाड़ी को इधर-उधर घुमाते लाला को चक्कर में डालते रहे। हालांकि उसकी आँखें बंधी हुई थीं, फिर भी वे कोई खतरा नहीं लेना चाहते थे। समराला शहर के बाहर एकांत-सी जगह में लाला को उतार कर वे घूम-घुमाकर हॉस्टल पहुँच गए। दिन अभी चढ़ा नहीं था। कार पॉर्क में लगाकर वे कमरे में जाकर गहरी नींद में सो गए। दोपहर बाद नाहर आ गया। सभी आँखें फाड़ें उसकी ओर देख रहे थे कि अब पता नहीं कौन-सा मूसल निकाल कर मारेगा। उसने कमरे की अन्दर से कुंडी लगाई और झोला बैड पर उलटा दिया।
''यह पूरा पाँच लाख है। यह सब तुम्हारा है।'' सभी की आँखें फटी की फटी रह गईं।
''अब बताओ, हथियार कितने चाहिएँ ?''
''तीन हम। चौथा अब तेजा को भी साथ लेंगे। चलो, एक ज्यादा ले लेते हैं। हमें कुल पाँच ए.के. 47 चाहिएँ।'' गुरलाभ ने हिसाब लगाते हुए कहा, ''इतने सामान और गोली-सिक्के के लिए तो तीन डिब्बे चाहिएँ। वह मैं ले जाता हैं। आज रात तुम्हारा असला तुम्हारे पास पहुँच जाएगा। बाकी तुम रखो और मौजें लूटो।''
नाहर के जाने के बाद तीनों ने पैसे उलट-पुलट कर देखे। इतना रुपया देखकर उसकी बांछें फैल गईं।
''देखो भाई, चार हिस्से करेंगे। चौथा हिस्सा पंडित का भी रखेंगे।'' अर्जन बोला।
''यार, हिस्से करने की क्या ज़रूरत है। मीता की अल्मारी में रख दो, जब ज़रूरत होगी, इससे ले लिया करेंगे।'' गुरलाभ ने हल बताया।
''चलो, खजांची मीता हुआ और प्रार्टी प्रधान गुरलाभ।'' किसी ने कहा।
''न भाइयो, मुझे कुछ न बनाओ। मैं हर वक्त तुम्हारे आगे रहूँगा। पर मेरा तो यूँ ही गधी वाला हाल है। फिर कल को खोजते फिरोगे।'' गुरलाभ ने हाथ खड़े कर दिए।
''मेरी मानो तो ग्रुप-प्रधान मीता को बना दो। यह सीधा-साधा और उसूल-परस्त बंदा है। कोई नशा-पानी नहीं, कोई गलत काम नहीं। यह हमें संभाल सकता है।''
गुरलाभ ने फूंक देकर पहले ही मीता को आगे लगा दिया। वह खेला-खाया था। वह जानता था कि पीछे गुमसुम-सा रहना ही ठीक होता है। फिर वह तेजा को बुला लाया। उसने बहुत शोर-शराबा किया। उन्होंने मिन्नत-याचना करके उसे मना लिया। गुरलाभ दूर की सोच रहा था। उसके दिमाग में यह बात चल रही थी कि पाँच तो उन्हें दिए, पता नहीं इस एक्शन में गमदूर आदि ने कितने लिए होंगे। वैसे वह सोच रहा था कि न हींग लगे, न फिटकरी, यह तो तरीका ही बहुत बढ़िया है पैसे कमाने का। वह आसपास हो रही घटनाओं को बड़ी गौर से देख रहा था। 'चलो, तेल देखो, तेल की धार देखो' मन ही मन सोचते हुए गुरलाभ बाकी साथियों के संग खर्राटे भरने लगा।
उधर गमदूर अपनी योजना को बड़े ध्यान से देख रहा था। ऊपर से आदेश आने के बाद ही उसने यह स्कीम अपने ढंग से बनाई थी। पहले उसने यूनियन वालों को इंजीनियरिंग कालेज में से बाहर निकालकर यहाँ फेडरेशन के पक्के पैर जमाये। फिर वह एक एक करके जोशीले लड़कों को धीरे-धीरे इस तरफ चलाने लगा। आरंभ में हल्की-फुल्की वारदातें करवाकर वह लड़कों को तैयार करता था। फिर किसी बड़े एक्शन में उन्हें संग रखकर उन सबको इस वन-वे स्ट्रीट पर उतारे जाता था। एक बार एक्शन करके कोई पीछे लौटने लायक नहीं रहता था। उसी रात ही दोबारा महिंदर उनके कमरे में आया था। उसने फौजी वर्दी पहन रखी थी। उसने सिर पर बिस्तरा उठा रखा था। हाथ में काला फौजी ट्रंक। दोनों चीजे क़मरे में रखकर और कपड़े बदलकर वह चलता बना। अगले दिन वे सवेरे ही उठ खड़े हुए। अन्दर से वे उतावले हुए पड़े थे। जैसे ही गुरलाभ ने बिस्तरबंद खोला तो उसमें से काले नाग की तरह चमचमाती पाँच ए.के. 47 निकलीं। नई-नकोर राइफ़लें देखकर गुरलाभ को नशा-सा चढ़े जाता था। ''ये हैं माँ की धीएँ... जिन्होंने सारे पंजाब में खलबली मचा रखी है। इनका तो नाम ही बंदे की जान निकाल देता है।'' फिर उसने ट्रंक खोला। वह मैगज़ीनों और गोलियों से भरा पड़ा था। उसमें बैल्टें भी थीं जिन्हें कमर में बाँधकर उनमें मैगज़ीन टांगे जाते थे। गुरलाभ सभी मैगजीन भरने लगा। उसने बैल्ट कमर में लटका ली। मैगजीन बीच में टांग ली। फिर एक राइफ़ल उसने कंधे में लटका ली। दूसरी, उधर मुँह किए खड़े अर्जन की ओर सीधी करते हुए बोला, ''ओए, तेरा क्या होगा अरजनिआ !''
''देखना ओए कंजर के, कहीं गोली पार न कर देना। और इतना हवा में न उड़। पता लग जाएगा जब कांटों में कभी सींग फंसे।''
''जब प्यार किया तो डरना क्या।'' गुरलाभ नई खुशी में मस्त हुआ पड़ा था।
''लो मित्रो, हथियार भी आ गए। योद्धे भी बिलकुल तैयार हैं। अब संत राम को चढ़ाएँ गाड़ी जल्दी से जल्दी।''
''मेरे ख़याल में यह काम तू और अर्जन ही करना। उसकी सी.आई.डी. करके प्लैन मैं बनाता हूँ।'' गुरलाभ ने बात अपने हाथ में लेते हुए अपने आप को पहले ही आपरेशन से अलग कर दिया।
''तू क्या करेगा ?''
''मैं अगले दो दिन में तुम्हें सारी रिपोर्ट लाकर दूँगा। सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक वह कहाँ जाता है, कहाँ-कहाँ ठहरता है। मतलब हर किस्म की रिपोर्ट तुम्हारे सामने होगी।''
''चल ठीक है, तू अपना काम शुरू कर। हम अपनी क्लासों में जाएँगे। आज तो अर्जन तू कमरे में ही रहना। ये सारा सामान अल्मारी में संभाल दे।'' यह कहकर मीता आदि अपनी कक्षाओं में चले गए। गुरलाभ संत राम की खोज में लग गया।
ऐसे कामों का गुरलाभ भेदी था। वे तीसरे दिन शाम की रोटी के बाद कमरे में बैठ कर योजना बना रहे थे। गुरलाभ संत राम की पल-पल की गतिविधि की रिपोर्ट लेकर आया था। वह दोराहे रहता था। हर रोज़ वहीं से चौकी आता था। वह रहता भी लापरवाह था क्योंकि अभी तक उसे कभी धमकी नहीं मिली थी। वह सुबह सात बजे घर से चलता था। पाँचेक मिनट में दोराहे अड्डे के पास से लुधियाना की ओर जी.टी. रोड पर चढ़ जाता था। हमेशा पुलिस जीप में ही आता-जाता था। एक वह स्वयं होता था, दूसरा उसका ड्राइवर। रात में प्लैन बनाकर अर्जन और मीता सुबह जल्दी ही चलने की तैयारी करने लगे। मारूति उनके पास नाहर वाली ही थी। अर्जन का निशाना ज्यादा पक्का था। लेकिन मीता यह नहीं माना था। उसकी जिद्द थी कि संत राम को गोली वही मारेगा।
''चल, निशाने की तो कोई बात नहीं। सामने करके घोड़ा दबा देना। यह तो यूँ ही छलनी कर देगी। पर गोली ड्राइवर के भी मारनी पड़ेगी।'' गुरलाभ ने उसे पक्का किया।
''पर उसका क्या कसूर है ?'' मीता का दिल नहीं माना।
''यहाँ मतलब कसूर का नहीं। अगर वह जीवित रह गया तो तुम्हें पहचान लेगा। अगर तेरा मन नहीं मानता तो गोली अर्जन को चलाने दे।''
''चलो, ठीक है। उसे भी साथ ही गाड़ी चढ़ा दूँगा। पर एक्शन मैं ही करूँगा।''
करीब पौने सात बजे उन्होंने मारूति दोराहे अड्डे से थोड़ा पीछे चायवाली दुकान पर रोक ली। चाय पीते हुए वे संतराम की पुलिस जीप का इंतज़ार करने लगे। चाय पीकर उन्होंने गिलास उठवाये ही थे कि दायें हाथ वाली गली में से जीप निकल कर मेन रोड की तरफ आ गई। मेन रोड पर चढ़ने से पहले ड्राइवर ने जीप अख़बार वाले के सामने रोक ली। उसने अख़बार खरीदकर संत राम को पकड़ाया। फिर जूस वाली दुकान की ओर चला गया। जूस का बड़ा गिलास भरवा कर उसने संत राम को थमा दिया। रात में अधिक पी लेने के कारण अब सिर घूम रहा था। जूस की तलब हो रही थी। जूस का खाली गिलास वापस लौटाते हुए ड्राइवर ने पैसे दिए। वापस लौटकर उसने जीप स्टार्ट की। ज्यों ही उसने जीप को जी.टी.रोड पर चढ़ाया, अर्जन ने मारूति बढ़ा ली। मीता पहले ही पिछली सीट पर बैठ गया था। उसने पिछला शीशा ऊपर उठाकर स्टैपनी के ऊपर थोड़ी-सी जगह बना ली थी। ड्राइवर जीप दौड़ाए लिए जा रहा था। संत राम अख़बार पढ़ने में मग्न था। साहनेवाल से कुछ पहले मीता ने आगे-पीछे नज़र घुमाई। कोई वाहन नहीं दिख रहा था। उसने इशारा किया। अर्जन ने एकदम रेस देकर जीप ओवरटेक कर दी। अब मारूति आगे थी। जीप उसके पीछे। तौलिये में लिपटी राइफ़ल मीता ने स्टैपनी पर टिकाई हुई थी। उसने पिछली सीट पर टेढ़ा होकर राइफ़ल की नली पिछले शीशे की खाली जगह पर लगाकर निशाना साध लिया। ''आ गया निशाने पर...'' उसके इतना कहने की देर थी कि अर्जन ने मारूति एकदम धीमी कर ली। जीप को धीमा होना पड़ा। धीरे होती जीप एकदम नज़दीक आ गई। मीता ने घोड़ा दबाकर गोलियों की बौछार की। जीप का बायां हिस्सा हवा में ही उड़ गया। संत राम के सिर के चीथड़े उड़ गए। फिर मीता ने दाँत पीसते हुए ड्राइवर की ओर घुमाकर राइफ़ल का घोड़ा दबा दिया। वही हाल ड्राइवर का हुआ। आगे-पीछे कोई वाहन नहीं था। जीप बग़ैर ड्राइवर के दायें उतरते हुए गहरे खतान में उलटी जा गिरी। अर्जन ने रेस पर पैर देते हुए मारूति हवा की तरह दौड़ा ली। आगे मोड़ मुड़कर उन्होंने संगीत सिनेमा के पास मारूति रोक दी। ओढ़ी हुई लम्बी खेसियों के नीचे राइफ़लें छिपा ली। मेन सड़क पर आकर उन्होंने रिक्शा लिया और प्रीत पैलेस सिनेमा के सामने उतर गए। वहाँ से एक और रिक्शा लेकर माडल टाउन में से होते हुए धक्का कालोनी चले गए। फिर पैदल चलकर हॉस्टल में घुस गए। जब उन्होंने दरवाजा खटखटाया तो गुरलाभ दोनों हाथों की उंगलियाँ आपस में रगड़ता हुआ कमरे में बेचैन-सा टहल रहा था।
''क्या हुआ ?'' उन्हें देखकर उसने तुरन्त पूछा।
''मोर्चा फतह ! सुबूत गायब। बल्ले-बल्ले करा दी भाई मीते ने।''
''गोली चलती रहेगी और दुश्मन सोधे जाते रहेंगे।'' चिंगारी छोड़ती आँखों से छत की ओर देखते हुए मीता ने मुँह चबाकर कहा।
गुरलाभ का अपना सोचना था। सियासत के धुर अन्दर तक उसकी पहुँच थी। सियासी दांव-पेचों की उसे जानकारी थी। और चाहे कुछ भी हो पर उसे इतना अवश्य पता था कि इतने बड़े देश की इतनी शक्तिशाली फौज़ के सामने कुछेक हज़ार ए.के. 47 की क्या जुर्रत थी। संयोग से यदि कोई दूसरा देश बन भी जाता तो भी राज तो हम अमीर लोगों ने ही करना था। पहले अंग्रेजों के राज में हम लोग ही जैलदार और सफ़ेदपोश बनकर लोगों पर राज करते थे और अब वोटों के जादू से भी लोगों को नकेल उन लोगों ने ही डाली हुई थी। आगे जो कुछ भी हो, डंडा तो उन्हीं का रहना था। राज किसी का भी आ जाए, शासन तो उन्हीं सरमायेदारों ने ही करना था। जिस किस्म का उसका स्वभाव था, उसको यह ठाँय-ठाँय बहुत पसंद थी। जब कहीं बड़े एक्शन होते तो उसे नशा-सा चढ़ जाता। जब कहीं बड़े-बड़े डाकों के समाचार छपते तो उसके दिल में हौल से उठते कि वह भी दिखाये कोई जौहर। कई बार उसके दिल में आता कि कोई बहुत बड़ा एक्शन करके उसकी जिम्मेदारी लेते हुए नीचे लिखे - मेज़र जनरल गुरलाभ सिंह बुर्ज़कलां ''कमांडो फोर्स''। फिर उसे कई बार डर-सा भी लगता कि वह कहीं इतना अन्दर तक न घुस जाए कि सब कुछ गवां ही न बैठे। फिर उसे अपने आप पर ही गर्व-सा होने लगता कि उसका राजनैतिक दिमाग तो हज़ारों को उंगलियों पर नचा सकता था। मीता आदि जब धर्म की, पुलिस अत्याचारों की और पृथक देश की बातें किया करते तो वह 'हाँ-हूँ' किए जाता। उसे इन बातों से कोई वास्ता नहीं था। उसने तो इस लहर में शामिल होना था तो सिर्फ़ शौक की ख़ातिर और मौज-मस्ती लूटने के वास्ते। उसकी ओर से कोई मरे या जिये, उसे कोई परवाह नहीं थी। काफी समय से उसने इस लहर पर नज़र रख रखी थी। हर तरफ लहर चक्रवात की तरह फैली हुई थी। आख़िर अपने शौक और मौज-मस्ती के लिए गुरलाभ ने लहर में उतरने का फैसला कर लिया।
रात के करीब दस बजे सभी से बचता हुआ चुपचाप खेस की बुक्कल मारकर हॉस्टल से बाहर निकला। उसकी बगल में ए.के. 47 और जेब में पिस्तौल थी। उसने लड़ाइयाँ बहुत लड़ी थीं। लोगों की हाथ-पैर भी बहुत तोड़े थे। लेकिन उसके हाथ से कभी आदमी नही मरा था। वह हाथ खोलना चाहता था। बुलारे वाला पुल पार करके वह शिमलापुरी की तरफ मुड़ गया। सामने उजाड़ से में उसे दो भइये आते दिखाई दिए।
''कहाँ से आ रहे हो ओए ?'' उसने रौब मारा।
''साहब, काम से आवत।'' ढीली सी धोती और फटी बनियान पहने दुर्बल से भइये ने जवाब दिया।
''इधर किधर जा रहे हो ?''
''साहब, इधर हमारा डेरा है।''
''सालो, इधर पंजाब में क्या करने आते हो।''
''साहब, पेट के लिए। उधर काम नहीं मिलता। पीछे बीवी-बच्चा है। कुछ कमाई होगा तो लौट जाएगा।''
''दोनों हाथ ऊपर उठाकर खड़े हो जाओ।'' गुरलाभ ने खेसी उतार दी।
राइफ़ल देखकर भइयों की घिग्घी बंध गई। वे गिड़गिड़ाने लगे, ''हम गरीबों को मत मारिये साहब...।''
गुरलाभ ने गोलियों की बौछार की। भइये टूटे टहनों की भांति सड़क पर गिर पड़े।
उस रात उसे नींद न आई। भइयों के धुआंखे चेहरे बार-बार उसके मन में घूमते रहे। अगले दिन अख़बार की बड़ी ख़बर थी कि किसी बड़े खाड़कू दल ने चालीस भइयों को मौत के घाट उतार दिया। धमकी दी थी कि सारे भइये पंजाब छोड़कर चले जाएँ, नहीं तो सभी को उड़ा दिया जाएगा। यह ख़बर पढ़कर गुरलाभ का दिल स्थिर हो गया, ''उनके मुकाबले तो मेरा एक्शन कुछ भी नहीं।'' उसने मन कड़ा किया। उसने किसी से भी यह बात साझी नहीं की।
अगले रोज़ शाम को मीता ने बताया कि गमदूर की ओर से एक एक्शन का आर्डर आया था। गाँव दुगरी के दो-तीन मुखबिरों को कुटापा चढ़ाना था। आदमी मारने से सभी डरते थे। इस काम के लिए सभी तैयार हो गए। मीता, अर्जन, गुरलाभ और तेजा पंडित आधी रात को गाँव में जा घुसे। दो मुखबिरों के घर गाँव में थे। पहले उन्हें सोते से जगा कर उनकी कुटाई की गई, फिर नाक से ज़मीन पर लकीरें खिंचवाईं। एक मुखबिर का घर गाँव से बाहर खेत में था। उसका भी वही हाल किया गया। जब बाकी लोग मुखबिर की मार-पिटाई कर रहे थे तो गुरलाभ ने देखा कि एक नौजवान खूबसूरत लड़की कंधोली(छोटी कच्ची दीवार) के पीछे छिपी खड़ी थी। वह उसके और करीब गया तो लड़की की देह थर्र-थर्र कांपने लगी। बिना कुछ कहे गुरलाभ पीछे हट गया। मुखबिर ने भविष्य में मुखबिरी के काम से तौबा कर ली। एक्शन खत्म करके वे चुपचाप हॉस्टल लौट आए।
अगले दिन रात में जब सभी सो गए तो गुरलाभ ने अपने हथियार उठाये। कस्सी की पटरी से होता हुआ वह दुगरी कलां पहुँच गया। वह सीधा खेत वाले मुखबिर के घर में गया। उसे देखते ही पूरे परिवार के होश उड़ गए। ''खालसा जी, मैंने तो रात ही तौबा कर ली थी।'' कल रात की पिटाई से टूटा हुआ घरवाला बोला।
''कोई आवाज़ नहीं। सारे लाइन में खड़े हो जाओ।'' गुरलाभ ने राइफ़ल बाहर निकाल ली। वे पैर पकड़ने लगे। ''अच्छा, यूँ करो, '' वह पीछे हटता हुआ बोला, ''सभी इस कमरे में चले जाओ। जिस ने भी चूँ-चाँ की तो यह देखलो, छलनी कर दूँगा।'' वह सभी एक कमरे में घुसने लगे। आख़िर में अन्दर घुसती कल वाली लड़की की उसने बांह पकड़ ली। ''तू मेरे लिए चाय बना।'' लड़की रसोई की तरफ मुड़ गई। बाकी सभी को अन्दर बन्द करके कुंडा लगा दिया।
''चाय को छोड़, उधर बैठक में चल।''
''भाई जी, रहम करो,'' लड़की ने पैरों पर चुन्नी रखी।
''चल, कपड़े उतार सारे।''
''रब के वास्ते बख्श दो। धर्म के नाम पर ही बख्श दो।'' लड़की गिड़गिड़ाकर विनती कर रही थी।
''चल पड़ जा मंजे पर। साली धर्म की...''
''गुरू के सिंह तो पराई लड़कियों की इज्ज़त बचाने के लिए अपनी जानें न्योछावर करते रहे हैं। तुम बाबे होकर...।''
''अच्छा फिर हो जा मरने को तैयार...।'' लड़की की मिन्नतें मौत के डर में गुम हो गईं। दो घंटे बाद गुरलाभ बाहर निकला, 'खाड़कू बनकर ये नज़ारे लूटेंगे, यह तो सोचा ही नहीं था।' बाहर खड़े गुरलाभ ने यह सोचते हुए ऊपर आकाश की तरफ देखा। चारों तरफ काली घनघोर रात छाई हुई थी। कपड़े पहनकर लड़की बाहर आई तो पता नहीं गुरलाभ के मन में क्या आया कि उसने कुंडा खोलकर परिवार के बाकी लोगों को भी बाहर निकाल लिया। सभी को फिर दीवार से लगने का हुक्म दिया। गोलियों की बौछार से सारे भून दिए। चलने से पहले उसे अचानक ख़याल आया था कि कहीं मीता आदि तक यह बात न पहुँच जाए। उसने मुद्दा ही खत्म कर दिया। रोज़ की तरह चुपचाप लौटकर वह हॉस्टल में सो गया।
(जारी…)
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