Sunday, April 25, 2010

धारावाहिक उपन्यास




बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 8(शेष भाग)

मीता की हिदायत थी कि अब हफ्ताभर चुपचाप कालेज में जाया जाए। सभी कालेज जाने लगे, सिवाय अर्जन के। वह तो बाहर निकल ही नहीं सकता था। दो दिन बाद गुरलाभ अड्डे की ओर से लोकल बस में आ रहा था। बस के मध्य में उसने एक खूबसूरत लड़की को बैठा देखा। वह कालेज नहीं उतरा। लड़की के पीछे ही गया। लड़की गिलां से अगले गाँव पर उतरकर अपने घर को चली गई। गुरलाभ ने घर की निशानदेही कर ली। रात में फिर वह चुपचाप-सा उठा। साइकिल उठाकर गिलां की तरफ चल पड़ा। साइकिल को उसने लड़की के घर के बाहर छिपा दिया। यहाँ भी उसने दुगरी कलां वाला कर्म ही दोहराया। यहाँ मौत का तांडव नृत्य नहीं किया। हवस पूरी करके किसी को भनक दिए बगैर वह वापस हॉस्टल में आ घुसा। अब गुरलाभ की झिझक खुल चुकी थी। खून उसके मुँह लग चुका था। बन्दूक की नोक पर बलात्कार करना उसका रोज का शौक बन गया था। उसको लगता था कि हॉस्टल में रहते हुए वह खुलकर अय्यासी नहीं कर सकता। इस काम के लिए वह बाहर कहीं कोई मकान किराये पर लेने की योजना बनाने लगा। कालेज के पूर्व की ओर खेतों में बहुत-सी कोठियाँ थीं। उसने देखनी भी आरंभ कर दीं। वह इस बात से भी डरता था कि बाहर पूरी सिक्युरिटी नहीं होगी। हॉस्टल तो अभी तक पर्दे के पीछे ही था। फिर भी इसके बगैर अब गुजारा नहीं था। सरकारी हलकों में अभी यह बात नहीं पहुँची थी कि डिप्लोमा वाले हॉस्टल में खाड़कू ग्रुप रह रहा था। और भी तैयार हुए जाते थे। गुरलाभ ने चलते-फिरते एक तरफ पड़ने वाली दो कोठियों का चुनाव कर लिया। मीता आदि को भी कोठियाँ पसंद थीं। मुश्किल यह थी कि ये किसके नाम पर ली जाएँ। इसका हल भी गुरलाभ ने निकाल लिया। नहर के पुल के पार दिल्ली दंगा पीड़ितों के कैम्प में वह अक्सर घूमता रहता था। थोड़ी-बहुत पहचानवाले एक परिवार को उसने बताया कि उन्होंने एक कमेटी बनाई हुई है जो किसी न किसी तरीके से दंगा पीड़ितों की मदद करती रहती है। उसके द्वारा समझाये जाने पर उस परिवार ने उसके संग एजेंट के दफ्तर में जाकर वे दोनों कोठियाँ अपने नाम किराये पर ले लीं। गुरलाभ ने दोनों कोठियों का सालभर का किराया इकट्ठा ही भर दिया। एक नंबर कोठी गुरलाभ ने अपने लिए रख ली और दो नंबर इन दिल्ली वालों को दे दी। अब जब कभी बाहर से लड़के आते या कोई बड़ी मीटिंग करनी होती तो वे इसी कोठी में करते। दिनभर कोठी में ताला लगा रहता। हॉस्टल से एक तरफ इस ठिकाने का उन्हें बहुत फायदा था। ऊपर से सिमेस्टर भी खत्म होने वाला था। छुट्टियों में हॉस्टल खाली हो जाना था। छुट्टियों के दौरान उनका हॉस्टल में रहना कठिन था। इस कारण यह कोठी ले लेने से उनका यह मसला भी हल हो गया।
गुरमीत को दो-तीन दिन के लिए गाँव जाना था। जाते समय वह ग्रुप की कमांड गुरलाभ को सौंप गया। गुरलाभ ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में था। वह कुछ ऐसा करना चाहता था कि चारों ओर उथल-पुथल मच जाए। वह सोच ही रहा था कि बहाना क्या बनाया जाए कि बहाना चलकर उसके पास आ गया। उस दिन एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के लड़के शहर में से दिल्ली दंगा पीड़ितों के लिए चंदा एकत्र कर रहे थे। लुधियाना एक बड़ा और औद्योगिक शहर था, इसलिए यहाँ दंगा पीडित बहुत पहुँच रहे थे। सरकार अपने तौर पर कैम्प बना रही थी। और भी बहुत कुछ कर रही थी। कुछ समाजसेवी संस्थाएँ भी अपने अपने ढंग से इनकी मदद कर रही थीं। छुट्टी वाले दिन यूनिवर्सिटी के लड़के चंदा एकत्र करने के लिए शहर में निकल पड़े। इस बारे में किसी को भी एतराज नहीं था। परन्तु जब विचार न मिलें तो एतराज अपने आप खड़े हो जाते हैं। कुम्हार मंडी का इलाका कामरेड शीतल त्यागी का एरिया था। उसके वर्कर आजकल के हालातों पर फूस में आग लगाने को तैयार रहते थे। जब लड़के कुम्हार मंडी पहुँचे तो उनकी त्यागी के वर्करों के संग तकरार हो गई। झगड़ा बढ़ने लगा। स्थानीय दुकानदार भी लड़कों के खिलाफ़ हो गए। झगड़ा बढ़कर मार पिटाई पर आ गया। इकट्ठा हुए लोगों ने लड़कों को मार-पीट कर वहाँ से भगा दिया। सभी लड़के यूनिवर्सिटी के थे लेकिन चार-पाँच डिप्लोमा वाले लड़के संयोगवश बीच में जा फंसे। उनकी भी खूब कुटाई हुई। शाम को मैस के बाहर खड़े लड़के मैस खुलने का इंतज़ार कर रहे थे जब ये लड़के फटे कपड़े, गिरी पगड़ियाँ लिए जख्मी हालत में हॉस्टल पहुँचे। बात सुनते ही गुरलाभ ने ऊँचे स्वर में गाली निकाली लेकिन अर्जन ने उसका हाथ दबाकर उसे ऊँची आवाज़ में बोलने से रोक लिया। रोटी खाकर वे कमरे में चले गए। वहाँ भी गुरलाभ गरम था। उसके अंहकार को चोट लगी थी कि उसके होते हुए उनके हॉस्टल के लड़कों पर किसी ने हाथ उठाने का साहस किया। ''चलो, एक्शन की तैयारी करो। सारे मुहल्ले को आग लगा दो।'' गुरलाभ लाल-पीला हुआ बैठा था।
''जल्दी न करो, मीता का इंतज़ार कर लो।'' अर्जन ने सुझाव दिया।
''मीता कमांड मुझे देकर गया है। मैं एक्शन करने का हुक्म देता हूँ।''
''ओए, यह तो ठीक है। उस्ताद, हुक्म को मानने से हम कहाँ इन्कार करते हैं। पर काम किसी प्लैन से ही होगा। हम तो बन्दे भी तीन ही हैं। क्यों पंडित, क्या राय है तेरी?''
''यह तो सरेआम ज्यादती है। और अब, पंडित बाह्मण की बात बार बार न किया करो। अब तो इकट्ठे जीना-मरना है।'' बारी-बारी से उसकी सहमति पूछने पर तेजा भी दुखी हुआ पड़ा था।
''तुम ऐसा करो। यहीं बैठो मैं आया।'' इतना कहकर गुरलाभ उन लड़कों के कमरों की ओर चल दिया जिन्हें चोटें लगी थीं। उनमें से एक लड़का अजैब भी आग की तरह भड़क रहा था। उससे अपना अपमान बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। गुरलाभ उसे एक तरफ ले गया और दस-पंद्रह मिनट बाद ही उसने उसे तैयार कर लिया। लोहा तो पहले ही गरम था। बस, चोट करने की देर थी। वैसे अजैब को इतना ही पता था कि यह फेडरेशन वाले गुरलाभ की बड़ी ही खुरांट पार्टी है। मार-पीट करने में आगे थे। इसके अलावा उसे इनके बारे में कुछ भी पता नहीं था। ''प्रबंध सारा हो गया। कल शाम को सभी एक्शन के लिए तैयार रहना।'' अर्जन और अन्य साथियों को हुक्म सुनाता गुरलाभ बाहर निकल गया।
अगले दिन शाम के समय गुरलाभ कार पर लौटा। थोड़ा अँधेरा होने पर उसने अर्जन, तेजा और अजैब को संग बिठाया और कार नहर की पटरी से यूनिवर्सिटी की ओर मोड़ ली। हथियार उसने पहले ही डिग्गी में रख लिए थे। अगला पुल मुड़कर वह माडल टाउन की तरफ चल दिया। आगे एक कैंटर खड़ा था। करीब ले जाकर उसने कार रोकी। तेजा को एक तरफ ले जाकर कुछ समझाता रहा। फिर तेजा कार की सीट पर आ बैठा। गुरलाभ कैंटर चलाने लगा। कुम्हार मंडी में घुसने से पहले ट्रक को एक तरफ खड़ा करके उसने एक बिस्तरबंद खोला। एक राइफ़ल अर्जन को और दूसरी अजैब को पकड़ाने लगा।
''भाजी, यह क्या ? यह तो ए.के. 47 है।'' अजैब के हाथ कांपने लगे।
''और तेरा क्या ख़याल है कि तेरे मुँह में बेबे का मम्मा दूंगा।'' गुरलाभ ने आँखें दिखलाईं।
''पर भाजी... मैं तो.... और तुम.... यह तो खाड़कुओं वाला काम...।'' वह हकला-सा रहा था। उससे ठीक से बोला नहीं जा रहा था।
''ओए, कुछ नहीं होता। क्यों मूते जा रहा है। हम डरावा देकर ही लौट आएँगे। पर अगर हमारे पास से भागने की कोशिश की तो पहली गोली मैं तेरे चुत्तड़ों पर मारूँगा।'' अजैब के मुँह में छिपकली आ गई थी। बेवजह ही फंस गया। उसने कांपते हुए राइफ़ल पकड़ ली। कुम्हार मंडी की मेन सड़क पर ट्रक को मोड़ते हुए उसने अजैब से उन दुकानों के बारे में पूछा जहाँ कल झगड़ा हुआ था। उसने सामने इशारा किया। दुकानों के सामने गुरलाभ ने ट्रक रोक दिया। पीछे तेजा ने कार रोक ली। ये कैंटर और कार आज ही गुरलाभ ने चोरी करवाये थे। बाद में उनकी नंबर प्लेटें बदल दी थीं। गुरलाभ में अथाह हौसला था। उसे कोई भय-डर नहीं था। बड़ी तसल्ली से वह अपना एक्शन कर रहा था। चारों ने मुँह ढंक रखे थे। जैसे ही उन्होंने खेसियों के नीचे से ए.के. 47 बाहर निकालीं, देखने वालों के साँसें रुक गईं। उन्होंने राइफ़लों से धकियाते हुए बारह दुकानदार कैंटर में पीछे चढ़ा लिए। फिर ऊँची आवाज़ में कहा, ''हम इन्हें आज रात रखकर तड़के छोड़ देंगे, पर अगर किसी ने पुलिस को बताया तो तड़के इनमें से कोई भी जिंदा नहीं मिलेगा।'' उसने सभी को ट्रक के फर्श पर मुँह के बल लेटने का हुक्म दिया। अर्जन को वहाँ निगरानी के लिए खड़ा कर दिया कि जो भी हिले, गोलियों से परखच्चे उड़ा दे। अजैब को उसने आगे अपने पास बिठा लिया और ट्रक को फुल स्पीड पर भगाने लगा। पीछे पीछे तेजा की कार थी। वे नहर की पटरी पकड़कर काफी दूर निकल गए। आगे पुल से मुड़कर कच्ची राह में उतर कर काफी दूरी पर जाकर ट्रक रोक लिया। यह जगह वह दिन में ही देख गया था। इतने में तेजा भी आ गया। फिर सभी को ट्रक में से बाहर निकाला। सभी भयभीत से कांपे जा रहे थे। ''लाओ अपने शीतल त्यागी को जो तुम्हें बचाये अब। इधर आकर सारे के सारे दूसरी तरफ मुँह करके एक लाइन में बैठ जाओ।'' अर्जन और तेजा पंडित के भी दिल पसीज उठे- 'ये बेकसूर हैं और बेजुबान हुए बैठे हैं। इनसे कैसा बदला लेना।' लेकिन उनमें गुरलाभ के सामने बोलने की हिम्मत नहीं थी। उन्हें लगता था कि गुरलाभ शायद डरा-धमका ही रहा था। पर उनकी आँखें फैल गईं जब गुरलाभ ने राइफ़ल का घोड़ा दबा दिया। उसने अर्जन और तेजा को गोलियों की बौछार करने को कहा। उन्होंने हुक्म का पालन किया। अजैब के हाथ कांप रहे थे। गुरलाभ ने अपनी राइफ़ल अजैब की कमर से लगा दी, ''चला गोली, नहीं तो फिर मैं चलाऊँ।'' अजैब ने आँखें बन्द करके घोड़ा दबा दिया। वह पछता रहा था उस समय को जब वह गुरलाभ की बातों में आ गया था।
''अब तो नहीं डर लगता छोटे भाई। तू भी खाड़कू बन गया।'' गुरलाभ ने अजैब का कंधा दबाकर उसे सामान्य करने की कोशिश की। सामने लाशों का ढेर लगा पड़ा था। गुरलाभ जेब में से कोई कागज ढूँढ़ रहा था। उसने जेब में से तीन चार पर्चे निकाल कर वहाँ फेंक दिए। सभी को कार में चढ़ाया। सीधे किसी अन्य रास्ते से होते हुए कार को जी.टी. रोड पर चढ़ा लिया। नहर का पुल पार करके उसने कार यूनिवर्सिटी के सामने खाली से स्थान पर खड़ी कर दी। दो रिक्शा लेकर वे भारत नगर चौक चले गए। वहाँ से ऑटो पकड़कर गिल्ल चौक जा उतरे। आगे किसी ट्रक पर चढ़कर नहर के पुल की चुंगी पर जा उतरे। वहाँ से छोटे गेट के रास्ते कालेज में दाख़िल हुए। पैदल चलकर हॉस्टल पहुँच गए। उन्होंने अजैब को अपने कमरे में रख लिया। इधर-उधर की बातें करते हुए गुरलाभ सभी की मन:स्थिति को बदलने में लगा हुआ था। उसे छोड़कर बाकी सभी के चेहरों के रंग उतरे हुए थे। ''हे रब्बा ! इतना बड़ा क़त्लेआम !'' सभी एक ही बात सोच रहे थे। ''ओए, यह तो कुछ भी नहीं, क्यों यूँ ही ढीले हुए बैठे हो। भूल गए, दिल्ली में कैसे तेल डालकर लोग जलाये गए थे।''
''उनसे इन बेचारों का क्या लेना-देना था।'' तेजा उदास-सा बोला। अर्जन भी अन्दर ही अन्दर दुखी था। अजैब की तो हालत ही खराब थी।
''यहाँ अपनी पार्टी के कुछ उसूल हैं। लीडर का हुक्म मानना। मैंने कुछ भी अपने लिए नहीं किया। जो कुछ भी किया है, पार्टी के लिए किया है। बस, अब शोक मनाना बन्द करो, चुपचाप सो जाओ।''
अगले दिन अर्जन अजैब और तेजा बातें कर रहे थे।
''यह यूँ ही यार किस राह पड़ गए।''
''ओए, तुम तो रोज लड़ते-भिड़ते रहते थे। मैं बाह्मण पता नहीं किस बुरी किस्मत के चलते तुम्हारे में फंस गया।''
''भाजी, मैं तो यूँ ही बर्बाद हो गया।'' अजैब बैठा हाथ मले जा रहा था।
''देखो भाइयो, जो हो गया, सो हो गया। बस, अब सीधे होकर चले चलो। यहाँ से पीछे लौटने का कोई राह नहीं। छोड़ो पीछा इन बातों का, अब कोई दूसरी बात करो।''
उधर शहर में हाहाकार मचा हुआ था। सारा शहर रोष में बन्द था। हर तरफ खौफ़ फैला हुआ था। खाड़कू सरेआम दुकानदारों को उठाकर ले गए थे। आगे जाकर इतना बड़ा क़त्लेआम कर मारा। लोगों को पता था कि दो दिन पहले यहाँ लोगों ने यूनिवर्सिटी के लड़कों को पीटा था। यह काम किसी खाड़कू ग्रुप ने ही किया था। एक्शन में इस्तेमाल की गई कार भी यूनिवर्सिटी के सामने मिल गई थी। ट्रक तो वहाँ खेतों में ही खड़ा था। पुलिस की थ्यौरी थी कि जिस किसी खाड़कू ग्रुप ने यह काम किया था, वह ज़रूर यूनिवर्सिटी से संबंधित था। जो पर्चा उन्हें क़त्लवाली जगह से मिला था, वह सभी को शशोपंज में डाल रहा था। उस पर क़त्लों की जिम्मेदारी लेते हुए नीचे लिखा था - जनरल गुरमीत सिंह मीता कमांडो फोर्स। इस नाम का आदमी पुलिस के रिकार्ड में कोई नहीं था। फिर भी पुलिस ने शक के आधार पर यूनिवर्सिटी के कैंपस में से दस-बारह लड़के उठा लिए। उन्हें इंट्रोगेशन के लिए सी.आई.ए. के स्पेशल केन्द्र में ले गए। गुरलाभ ने बहुत चतुराई बरती थी। पहली बात कि एक नया आदमी अजैब तैयार कर लिया था। दूसरा यह कि इतना बड़ा एक्शन करके खाड़कुओं की चढ़ाई कर दी थी। तीसरी बात- गुरमीत का नाम बाहर निकाल दिया था। गुरमीत जब लौटा तो उसने बहुत बुरा मनाया। पहली बात तो उसने इस एक्शन को ही गलत बताया। उसने गुरलाभ को डांटा-फटकारा भी।
''भाई मीते, और क्या करते यार। इतनी बड़ी जिल्लत वाली बात थी।''
''तू अकेला जो मन में आएगा, करता रहेगा ? ऊपर से मंजूरी लेनी भी ज़रूरी थी। और फिर, मेरे नाम का कागज फेंकने की क्या ज़रूरत थी।''
''यह भाई गलती ज़रूर हो गई। हमने तो तुम्हारा नाम पार्टी लीडर होने के कारण ही लिखा था।''
''जिस राह अब पड़ गए हो, उधर तो पल पल छिप कर रहना पड़ता है। तुम तो खुद ही लोगों को अपने नाम बताये जाते हो।''
''चलो भाई, गलती हो गई। भविष्य में तुझसे बगैर पूछे कोई काम नहीं करेंगे।'' छल-प्रपंची बातों से गुरलाभ ने सबको शान्त कर दिया।
अगली रात मीता ने सभी की एक मीटिंग बुलाई। उसे गाँवों की तरफ का एक लड़का और मिल गया था। जीता फौज़ी का गाँव कच्ची भुच्चो था। वह नया नया ही फौज़ में भर्ती हुआ था। ब्लू-स्टार की घटना के बाद अन्य लोगों के साथ वह भी अपनी यूनिट में से भगोड़ा हो गया था। उसके साथ के कुछ फौज़ी पकड़े गए। शेष मारे गए। वह तभी से छिपता-छिपाता समय गुजार रहा था। उसे पता था कि लुधियाना के कुछ कालेजों में खाड़कू सरगर्मियाँ चलती हैं। उन्हीं दिनों आगे चलकर उसका किसी की मार्फत मीता से मेल हो गया। सारी बात खुलने के पश्चात वह मीता के संग ही आ गया था। इस मीटिंग में अर्जन, गुरलाभ, तेजा पंडित, अजैब और जीता फौज़ी थे। मीता ने सबसे पहले सभी को संभल कर रहने की सलाह दी। दूसरी बात यह थी कि सिमेस्टर के पेपर आ गए थे। उसका कहना था कि बाकी सब काम छोड़कर चुपचाप पेपर दिए जाएँ। फिर उसने कहा ''पेपरों के बाद जो गाँव जा सकता है, गाँव चला जाए। बाकी एक नंबर कोठी में ही ठहर सकते थे। अर्जन और जीता मेरा ख़याल है, हॉस्टल में ही रहें।'' मीता को लगा कि उनके लिए सुरक्षित जगह हॉस्टल ही था।
''ठीक है भाई। हम यहीं रहेंगे।'' अर्जन भी यही चाहता था।
''मैं देखूँगा। शायद, एक नंबर कोठी में ही टिक जाऊँ।'' गुरलाभ ने भी मन की बात बता दी।
''चलो ठीक है। बाकी लोग बेशक गाँवों को जाएँ, पर एतिहात बहुत रखना।''
''अच्छा, आज की मीटिंग का आख़िरी और सबसे बड़ा फैसला यह है कि अगला सिमेस्टर शुरू होने तक सारे एक्शन बन्द रहेंगे। अगला सिमेस्टर पन्द्रह जनवरी को शुरू होगा। अगली मीटिंग सोलह जनवरी को होगी। उस मीटिंग में अगली कार्रवाई के विषय में विचार किया जाएगा।'' मीटिंग समाप्त होने के बाद सभी अपने अपने कमरों में चले गए। उसके बाद सभी ने पेपर दिए। पेपरों के उपरांत छुट्टियाँ हो गईं। सब लड़के घरों को चले गए। कालेज बन्द हो गया। हॉस्टल खाली हो गया। सब ओर चुप-सी छा गई। गुरलाभ का गाँव जाने को भी मन नहीं करता था। एक नंबर कोठी उसने इस तरह सजा ली थी मानो वह उसका मालिक हो। पहली रात उसने उदास-सा होकर गुजारी। अगले दिन खाली घूमते उसे सत्ती का ख़याल हो आया।
'क्यों न, सत्ती से मिला जाए।' अच्छी तरह तैयार होकर उसने ऑटो लिया। गवर्नमेंट कालेज पहुँच गया। उसने हॉस्टल में सन्देशा भेजा। उसे कुछ घबराहट-सी हो रही थी। एक तो वह आया बहुत दिन बाद था। दूसरा जब से उसने यह नई राह पकड़ी थी, तब से सत्ती के सामने आते ही उसके अन्दर डर-सा उठ खड़ा होता था कि कहीं उसे पता न चल जाए। कई बार तो चोरों की भांति उसके चेहरे का रंग ही बदलने लगता था।
सामने से सत्ती को आता देख, वह दोनों हाथों की उंगलियाँ आपस में मसलने लगा, जैसे काफी समय बाद आने का पछतावा हो रहा हो। उसने सत्ती को बुलाया। वह अच्छी तरह नहीं बोली। आगे-पीछे चलते हुए वे अपने मनपसंद रेस्तरां में आ गए। एक तरफ से बने कैबिन में बैठ गए।
''और क्या हाल है सत्ती ?'' गुरलाभ ने बात शुरू की।
''बहुत जल्दी याद आई सत्ती की।'' सत्ती की नाराजगी बोली।
''अभी पेपर खत्म हुए हैं। पेपरों के कारण बिजी था। बस, इसी कारण जल्दी नहीं आ सका।'' गुरलाभ ने सफाई दी।
''पेपरों के कारण बिजी था या...'' आगे की बात अधूरी छोड़ते हुए सत्ती ने गुरलाभ के चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उसे गुरलाभ का चेहरा-मोहरा और देखना-झांकना कुछ और ही तरह का लगा।
गुरलाभ सत्ती की तेज नज़रों की ताब झेल नहीं सका। उसने नज़रें दूसरी ओर घुमा लीं। सत्ती और भी उलझन में फंस गई। 'पता नहीं क्या बात है। यह दिन प्रतिदिन बदलता क्यों जा रहा है। इसके अन्दर कोई चोर है तभी तो मेरे से आँख नहीं मिलाता।' सत्ती गुरलाभ की तरफ देखती परेशान हो उठी। सत्ती गुरलाभ से बहुत ज्यादा प्यार करती थी। गुरलाभ के बगैर उसे ज़िन्दगी बेमानी लगती थी। उनका प्यार तो छोटी उम्र से ही शुरू हो गया था। बीच में बिछड़ने का समय भी आया। लेकिन वह लुधियाना में दुबारा फिर आ मिले। बिछोड़े के बाद हुए मिलन ने उनके प्यार की गाँठ को और अधिक पक्का कर दिया। सत्ती गुरलाभ की बदमाशियों और सरदारों के बिगड़ैल काकों की सारी ज्यादतियों को जानती थी, पर फिर भी गुरलाभ के लिए उसके प्यार में कोई कमी नहीं आई थी।
गुरलाभ के लिए भी सत्ती अनमोल हीरा थी। उसका पहला प्यार, उसकी बचपन की मोहब्बत। वह सत्ती को अपनी जान से भी अधिक प्यार करता था। बिगड़ैल सरदारों की आदतें उसके रक्त में थीं। ऊपर से उसका बचपन ननिहाल में बीता था। जहाँ उस पर कोई अंकुश नहीं था, कोई पाबंदी नहीं थी। ननिहाल में तो उसे कभी किसी ने झिड़का तक नहीं था। यही कारण था कि अपनी मनमर्जी करने की आदत उसे बचपन से ही पड़ गई थी। उसके नाना का परिवार राजनीति से जुड़ा होने के कारण राजनीति के दावपेंच उसने शुरू में ही सीख लिए थे। सत्ती उसे बदमाशियों से और लड़ाई-झगड़ों से लाख रोकती, पर वह रुकता नहीं था। न ही सत्ती की झिड़कियों का उस पर कोई असर होता था। अन्य उल्टे-सीधे काम वह जितने चाहे किए जाता, पर सत्ती से उसे बेइंतहा मुहब्बत थी। इस सच्ची मुहब्बत के कारण ही वह शायद गलत राह पर पड़ जाने के बावजूद सत्ती से जुड़ा हुआ था। वह न गलत राह को छोड़ सकता था, न ही सत्ती को।
नज़रें तो उसने चुरा लीं पर अगले ही पल उसे अहसास हुआ कि कहीं उसकी इस कमजोरी के कारण सत्ती को उस पर शक ही न हो जाए।
''पेपरों के अलावा मैं और किसमें बिजी हो सकता था।'' उसने सामान्य-सा होने की कोशिश की। सत्ती उसकी ओर देखती रही। सत्ती की चुप फिर उसे डराने लगी।
''चल, जल्दी नहीं आ सका, माफी दे बाबा। अब गुस्सा थूक भी दे।'' कानों को हाथ लगाते हुए गुरलाभ ने जबरन मुस्कराने की कोशिश की। सत्ती फिर भी कुछ न बोली। उसकी आँखें भर आईं। गुरलाभ का मन भी पसीज गया।
''न, सत्ती ऐसा मत कर।'' उसने बेचारा-सा बनते हुए सत्ती के हाथ पर हाथ रख दिया।
''तुझे कुछ अंदाजा भी है कि तू कितने दिनों बाद आया है।'' सत्ती ने लम्बी चुप तोड़ी।
''अब तो माफ़ी भी मांग ली।'' गुरलाभ ने कानों को फिर हाथ लगाए।
''बात माफ़ी की नहीं। मैंने इतने दिन कैसे गुजारे हैं, मैं ही जानती हूँ। मैं तो यह सोचती हूँ कि जैसे मैं तेरे बग़ैर तड़पती हूँ, तुझे भी ऐसे ही मेरी याद नहीं सताती।'' सत्ती की आवाज़ आह में गुम हो गई।
''नहीं सत्ती, ऐसा न सोच। तुझे नहीं पता कि तू मेरे लिए क्या है। तू सोच भी नहीं सकती कि मैं तुझे कितनी मुहब्बत करता हूँ।''
''मैं तो कहती हूँ, छोड़ ये पढ़ाई। चल, वापस अबोहर चलें।''
''वहाँ जाकर क्या करेंगे ?''
''करना क्या है ? मेरा नहीं ख़याल कि घरवाले हमारी बात से इन्कार करेंगे।''
''क्यों विवाह करवाने को जी करता है ?'' गुरलाभ ने मीठा मजाक किया।
''एक न एक दिन तो करना ही है।'' सत्ती शरमाती हुई बोली।
''मेरा डिप्लोमा बीच में रह जाएगा। अब तो छह महीने ही रहते हैं। कर लेने दे पूरा। फिर जैसा कहेगी, कर लेंगे।''
''तुझे नहीं पता गुरलाभ कि मुझे कितना डर लगता है।''
''किस चीज़ से डर लगता है तुझे ?''
''यह देख, आसपास क्या कुछ हुए जा रहा है। यह नई चली खाड़कू लहर दिनोंदिन फैलती जाती है।'' सत्ती को हर पल यही भय रहता था कि कहीं गुरलाभ न इस लहर में फंस जाए। वह जानती थी कि उल्टी दिशा में उसका दिमाग बहुत चलता है।
''पर लहर हमें क्या कहेगी ?''
''मैं तो इसलिए डरती हूँ कि कहीं...।'' आगे उसने बात अधूरी छोड़ दी।
''यूँ ही न डर, हमें कुछ नहीं होने वाला।''
''होनी कौन सा पूछ कर आएगी। पिछले दिनों मेरी एक सहेली के साथ पता है क्या हुआ ?''
''क्या हुआ ?''
''मेरी एक सहेली थी। यही साथ वाले गाँव से। हर रोज़ गाँव से बस में आती थी। घरवाले अति शरीफ और गरीब। किसी ने रंजिश में शिकायत कर दी कि ये पुलिस के मुखबिर हैं।''
''फिर...।''
''फिर क्या। एक दिन आ गए जो अपने आप को खाड़कू और बाबे कहलवाते हैं। उसके बाप बेचारे को बहुत मारा पीटा। उस दिन तो मार-पीट कर चले गए। फिर पता क्या किया ?''
''क्या ?'' गुरलाभ के गले से मरी-सी आवाज़ निकली।
''अगले दिन वे फिर आ गए। उन्होंने सारे परिवार को एक कमरे में बन्द कर दिया। मेरी सहेली के साथ मुँह काला किया। इससे भी उनका मन नहीं भरा। जाते समय पूरे परिवार को गोलियों से भून दिया।''
''कौन-सा गाँव ?'' गुरलाभ डरता हुआ बोला।
''यही नहर के पार है। दुगरी कलां।''
गुरलाभ का चेहरे का रंग सफ़ेद हो गया मानो किसी ने सारा रक्त निचोड़ लिया हो। जीभ तालू से जा लगी।
''तुझे क्या हुआ ?'' उसकी हालत देख कर सत्ती हैरान हो गई।
''इतने बेदर्द!'' गुरलाभ ने धीमे से कहा। सत्ती भी यही समझी कि ऐसी भयानक बात ने उसे भी हिलाकर रख दिया है। अब गुरलाभ से बैठना कठिन हो गया। वह तो पहले ही सत्ती से नज़रें चुराता था, पर अब तो चोर जैसे सेंध में पकड़ लिया गया हो।
''चलें सत्ती।'' वह अचानक खड़ा हो गया।
''अभी से।''
''हाँ, अब चलें।'' वह काउंटर पर जाकर पैसे देने लगा। पीछे पीछे सत्ती भी आ गई।
''रोज़ गार्डन चलें।'' सत्ती बाहर निकलती हुई बोली।
''नहीं, फिर कभी सही। आज मुझे कहीं और भी जाना है।''
''जैसी तेरी मर्जी। तू छुट्टियों में गाँव नहीं जाएगा ?''
''पक्का नहीं मालूम।'' उसकी आवाज़ उखड़ी हुई थी।
''तुझे तो छुट्टियाँ ही हैं। इस हफ्ते मुझे पाँच छुट्टियाँ इकट्ठी आ गई हैं। एक साथ अबोहर को चलें।'' वे कालेज के गेट पर पहुँच गए थे। सत्ती उसके संग बातें करना चाहती थी। वह वहाँ से भागने को उतावला था।
''अच्छा, मैं जल्दी ही आऊँगा।'' कालेज के गेट से वापस लौटता गुरलाभ बोला। सत्ती खड़ी हैरानी से उसे जाते हुए देखती रही। पहले तो इसने कभी ऐसा नहीं किया। उसके संग अबोहर जाने को तो वह बहाना ढूँढ़ता रहता था, फिर अब क्या हो गया। यूँ ही उखड़ा हुआ फिरता है। बात तो कोई ज़रूर थी, पर पता कैसे चले। दुबारा सुखचैन भी नहीं आया कभी। सत्ती ने अपने आप को अकेला महसूस किया। उसके करीब से लड़कियों की एक टोली हँसती हुई गुजर गई। उसे पता ही न चला। बेचारी सी बनी सत्ती गेट के एक ओर होकर खड़ी हो गई।
'अगर ऐसा है तो ऐसा ही सही। अगर इसे मेरी परवाह नहीं तो मैं क्यों करूँ।' सत्ती को एकदम गुरलाभ पर गुस्सा आया। उसने अगले दिन ही गाँव जाने का कार्यक्रम बना लिया। बाद में इस कालेज में ही नहीं, उसने तो लौटकर लुधियाने में भी नहीं आना था। अगले साल से उसने पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में पढ़ने का मन बना लिया था। पटियाला जाने के बारे में उसने यहाँ किसी को नहीं बताया था।
(जारी…)
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