Saturday, August 28, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 19(प्रथम भाग)

गाँव मल्लसिंह वाला से बाहर एक ढाणी में मीटिंग चल रही थी। यह ढाणी थी सुखचैन की मौसी के लड़के दीपे की। मीटिंग की अगवाई कर रहा था बाबा बसंत। बाबा बसंत की लाख कोशिश के बावजूद कमांडो फोर्स का यह ग्रुप दो हिस्सों में बंट चुका था। एक ग्रुप तो बाबा बसंत के साथ था। दूसरे आठ-दस लोगों ने अपना लीडर बलविंदर रजोरी को चुन लिया था। बलविंदर रजोरी भी पुराना ईमानदार लीडर था। लेकिन अब वह भी बाबा के आदमियों को टेढ़ी नज़र से देखने लग पड़ा था। लगता था कि यदि दोनों ग्रुप अलग-अलग न हुए तो आपस में ही लड़ मरेंगे। आज का मुद्दा था आसपास की ढाणियों में हो रही वहशी कार्रवाइयों का। औरतों की लुटती इज्ज़त का।
''बाबा, वैसे तो तू कहता है कि माँ-बहनों की इज्ज़त बर्बाद करने वाले तेरे नम्बर एक दुश्मन हैं, पर अब तूने अपने आदमियों की लगामें खुली छोड़ रखी हैं।''
रजोरी ग्रुप में से किसी ने खड़े होकर बाबा से प्रश्न किया।
''ओए, करते यह काम तुम हो, सिर हमारे लगाते हो।'' बाबा के ग्रुप का एक व्यक्ति खड़ा होकर पूरे जोश में बोला।
''हमारे सिर लगाने से पहले तुम अपने आदमियों की लगाम कसो।'' दोनों ग्रुपों के लड़के 'तू-तू, मैं-मैं' करते एक दूसरे की ओर राइफ़लें सीधी करके खड़े हो गए। बाबा बसंत दौड़कर दोनों के बीच खड़ा हो गया, ''ओए, रब का वास्ता। क्यों आपस में ढह-ढह कर मरते हो।''
''बाबा, तू एक तरफ हो जा। हमें जिन पर शक है, उनका निपटारा कर लेने दे।'' तभी दीपे की माँ और भाभी दौड़कर बीच में आ गईं- ''रे ना रे बेटो, आपस में ना लड़ो।'' दीपे के पिता ने भी बीच में पड़कर उन्हें शान्त करने की कोशिश की।
''माता, तुम हमेशा इनकी मदद करते हो।''
''हमेशा हमारे में ही दोष निकालते हो।''
''इन्हें कुछ नहीं कहते क्योंकि ये तुम्हारे गाँवों की तरफ के हैं।
बाबा ग्रुप के कुछ लड़के दीपे के घरवालों पर गुस्सा निकालने लगे। उन्हें लगता था कि घरवाले उन्हें अच्छा समझते थे और उनको बुरा।
''रे बेटो, मेरे लिए तो तुम सब एक जैसे हो। मैं क्यों फ़र्क़ करूँगी।''
''आज तुम्हारी लड़ाई किस बात की है।'' दीपे के पिता ने रजोरी दल वालों से पूछा। वह बाद में आया था। उसे लड़ाई-झगड़े का कारण नहीं पता था।
''इनके कुछ लोग रात में लोगों के घर जाते हैं। घर के आदमियों को कमरों में बन्द करके औरतों के संग मुँह काला करते हैं।''
''यह काम हम नहीं, इनके लड़के करते हैं।'' बाबा के ग्रुप का कोई लड़का बीच में बोला।
''मेरी मिन्नत मानो तो पहले सब बैठ जाओ। हम बातचीत के रास्ते हल निकालते हैं।'' दीपे के पिता ने विनती करके सभी को बिठाया। फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''मैं तुम्हें एक राय देता हूँ।''
''क्या ?''
''तुम ऐसा करो। दोनों दलों के दो-दो लड़के चुनकर एक कमेटी बना लो। फिर वो कमेटी इन एक्शनों के बारे में पूछताछ करके असलियत का पता लगाये।''
उसकी कमेटी वाली बात सुनकर बाबा बसंत के दिमाग में एक बिजली-सी कौंधी। उसे वह बात स्मरण हो आई जब लुधियाना में उन्होंने ऐसी घटनाओं के जिम्मेदार गुरलाभ को खोज निकाला था।
''मेरी दोनों धड़ों से एक विनती है। मुझे लगता है कि यह काम कोई बाहरी बन्दा कर रहा है।'' बाबा बसंत अचानक खड़ा हो गया।
''बाबा यह बात किस आधार पर कह रहे हो।'' रजोरी दल में से ही कोई बोला।
''मैं ऐसे केस से पहले भी निपट चुका हूँ। मुझे तुम चार दिन का समय दो। बन्दे तुम्हारे सामने ला दूँगा। अगर फिर भी न कुछ बना तो मैं अपना ग्रुप लेकर यहाँ से चला जाऊँगा। यह मेरा वायदा रहा।'' उसकी दलील के सम्मुख कोई नहीं बोला।
सभी उठकर अपने-अपने कमरों की तरफ चले गए।
बाबा ने अपने संग दो व्यक्ति और लिए और खेतों की तरफ निकल गया। वे चले भी जा रहे थे और आपस में सलाह-मशवरा भी कर रहे थे। अचानक उन्होंने दायें हाथ एक ढाणी देखी। दरवाजा खुलवाकर वे अन्दर चले गए। उनके चोले और लम्बी दाढ़ियाँ देखकर घर के मालिक के मन में पता नहीं क्या आया कि उसने पगड़ी उतार कर बाबा बसंत के पैरों में रख दी। उसके पैर पकड़ते हुए मिन्नत की, ''खालसा जी, पहले मेरे गोली मार दो। फिर जो चाहे करना। इतनी जिल्लत बर्दाश्त से बाहर है।''
''बात क्या है ?'' बाबा ने पैर पीछे हटाते हुए पूछा।
''बात अब खालसा जी आपसे कहाँ छिपी है ?''
''नहीं, मुझे कुछ नहीं पता। हम तीनों तो तुम्हारे घर पहली बार आए हैं।''
''मैं अपने मुँह से कैसे कहूँ। आपके ही बन्दे आते हैं। नित्य। कभी दो होते हैं, कभी तीन। मुझे और मेरे बेटों को कमरों में बन्द करके मेरी बेटियों...।'' इससे आगे उससे बोला न गया।
''खालसा जी, मेरी एक बात सुन लो ध्यान से। वे हमारे आदमी नहीं। सच पूछो तो हम भी उन्हें ही तलाश रहे हैं। हमें उनके बारे में कुछ बताओ, कोई निशानी, कोई नाम। कुछ भी।'' बाबा को लगा कि अब तो वे आदमी पकड़े ही गए।
''तीन चार तो जी साधारण-से लगते हैं। एक जो उनका लीडर है, वो सरदार सा लगता है। सामने तो वे काका जी कहते हैं। बाद में कई बार उसका नाम भी लेते हैं।''
''क्या नाम है ?''
''गुरलाभ।''
बाबा बसंत के कानों में सांय-सांय होने लगी। शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। गुस्सा ज्वाला बन उठा। 'जिसे कब से खोजता फिरता था, वो तो बिलकुल सामने ही बैठा है।' बाबा ने मन में सोचा।
''अच्छा, हम छिपकर बैठते हैं। शायद आज आएँ।''
''इंतज़ार करना है तो कर लो। मुझे तो लगता है, उनका अड्डा भी करीब ही है।''
''अड्डा करीब ही है। करीब कहाँ ?''
''ये सामने वाली नहरी कोठी- सोहणके।''
''हैं ! यह कोठी ?'' बाबा को अपने आप पर अफ़सोस हुआ कि सामने नज़दीक ही खाली पड़ी कोठी की तरफ उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया।
''अच्छा, हम फिर लौट कर आते हैं।'' इतना कहकर बाबा साथियों को लेकर नहरी कोठी सोहणके की ओर चल पड़ा। गोरा, जीवन और गणेश शराबी हुए खुर्राटे भर रहे थे। बाबा और उसके साथियों ने पहले उनके पास पड़े हथियार अपने कब्ज़े में लिए। फिर उन्हें काबू में कर लिया। उनकी खूब मार-पिटाई की गई। उन्हें गुरलाभ के एक ही अड्डे का पता था। वह था नवदीप का कमरा। बाबा ने उन तीनों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया। फिर वे गुरलाभ को लेकर सोचने लगे।
''हम यहीं उसका इंतज़ार करते हैं। अपने अड्डे पर तो आएगा ही।'' एक जन का विचार था।
''नहीं, वह काला कौआ है। यहाँ नहीं अब वह आएगा। जितना शीघ्र हो सके हमें उसे फिरोजपुर जाकर दबोचना चाहिए।'' बाबा बसंत ने सुझाव दिया।
''इस वक्त जाने का क्या बंदोबस्त करें ?''
''वक्त को क्या है। दिन चढ़ने वाला ही है। दीपे को मंडी में भैंसों को लेकर जाना है, बेचने के लिए। उसी ट्राली में चलते हैं।''
''ठीक है। हो सका तो उसे जिन्दा ही पकड़कर ढाणी पर लेकर आना है। बड़ा नुकसान किया है उसने लहर का।'' बाबा के मन में दुख की लहर-सी उठी। आज गुरलाभ नवदीप के पास शहर में ही रुक गया था।
जब तक बाबा और उसके साथी ढाणी पहुँचे तब तक दीपे का सीरी भैंसें ट्राली पर चढ़ा कर फिरोजपुर जाने के लिए तैयार खड़ा था। यह बात बाबा बसंत ने अपने साथियों को पहले ही समझा दी कि जब तक गुरलाभ पकड़ा या मारा नहीं जाता, तब तक किसी भी बात का शेष साथियों से जिक्र नहीं करना। अब तक सोहणके कोठी में क्या हुआ, किसी को भी पता नहीं था। बाबा और उसके साथियों ने ढाणी पहुँचकर हथियार संभाल कर रख दिए। खेत-कामगरों वाले कपड़े पहनकर ट्राली में चढ़ गए। हथियार उन्होंने अपने फिरोजपुर वाले ठिकाने से उठाने थे। अलग-अलग ठिकानों पर हथियार पड़े रहते थे। जहाँ ज़रूरत होती, वहीं इस्तेमाल कर लिए जाते थे। दिन चढ़ते को ट्रैक्टर सादिक पहुँच गया। आगे, थाने के पास पुलिस ने नाका लगा रखा था। अन्य लोग भी शहर की तरफ पशु खरीदने-बेचने जा रहे थे। नाके पर बाबा और उसके साथियों को नीचे उतार कर तलाशी ली गई।
''किधर जा रहे हो ?''
''जी, भैंसें बेचने मंडी जा रहे हैं।''
वहाँ से क्लीअर होकर वह आगे चल पड़े। वे कुछ ही दूर गए होंगे जब उनके पास से गुरलाभ कार लेकर गुजरा। उसने ठाठा बांधकर मुँह-सिर लपेट रखा था। ट्राली में खड़े बाबा बसंत को लेकर उसे शक-सा पड़ा। थोड़ा आगे जाकर उसने कार रोक ली। उसने अपना चेहरा और अच्छी तरह से ढक लिया। कार मोड़कर वह फिर फिरोजपुर की तरफ चल दिया। ट्राली में दो भैंसें खड़ी थीं। एक तरफ ट्राली की सपोर्ट को पकड़े बाबा बसंत और दो अन्य जन खड़े थे। ट्रैक्टर के खड़के में उन्होंने पीछे आती कार नहीं देखी। गुरलाभ ने ट्राली के बिलकुल करीब कार को लाकर बाबा बसंत को पहचान लिया। 'बगल में लड़की, गाँव में ढिंढ़ोरा' उसकी बांछे खिल उठीं। उसे ट्राली को क्रास नहीं करना पड़ा। आगे किसी गाँव का बस-अड्डा आ गया था। उसने कार को एक तरफ लगा दिया। ट्राली आगे जा चुकी थी। कुछ पल उसने बैठकर सोचा कि क्या किया जाए। अब अवसर रणदीप के ऊपर होने का था। वह पी.सी.ओ. पर गया। अबोहर एस.पी. के दफ्तर में फोन मिलाया। पता चला कि एस.पी. रणदीप तो फिरोजपुर ही था। उसने अबोहर के दफ्तर से रणदीप का फिरोजपुर वाला कंटेक्ट नंबर पूछा।
''नहीं जी, वह नहीं दे सकते।'' उधर से जवाब मिला।
''देखो मैं उसका खास सोर्स हूँ। उनसे बात होनी बहुत ज़रूरी है।''
''अपना नाम या कोई कोर्ड वर्ड बताओ, फिर हम साहब से पूछकर ही उनका नंबर दे सकते हैं।''
''कोड नंबर... कोड नंबर… नंबर है- रेड हाउस, लुधियाना।''
''अच्छा, एक मिनट होल्ड करो।''
गुरलाभ ने फोन होल्ड कर लिया। उधर कोई दूसरे फोन पर रणदीप से बात कर रहा था। गुरलाभ का दिल धक-धक किए जाता था। बाबा बसंत कहीं खिसक न जाए। ''एक मिनट रुको जी, साहब सीधे ही लाइन पर आते हैं।'' रणदीप रेड हाउस सुनते ही समझ गया कि फोन गुरलाभ का था। उसने आगे से आगे लाइन मिलाने के लिए कहा।
''हैलो।''
''हैलो गुरलाभ, तू दुबारा मिला ही नहीं।'' रणदीप अपनेपन की एक्टिंग करने लगा।
''तू तो बहुत खोजता रहा।'' गुरलाभ ने व्यंग्य में चोट की।
''एक मिनट होल्ड कर।'' रणदीप ने गुरलाभ को बोलने से रोका। फिर बोला, ''रास्ते के रसीवर बन्द करो। कोई बातचीत न सुने।'' रणदीप की डांट सुनते ही दोनों तरफ के आपरेटरों ने फोन रख दिए।
''हाँ, अब बता गुरलाभ क्या कह रहा था।''
''मैं कहता था कि तू तो मेरे पीछे चोर की तरह पड़ गया। पहले पुलिसवाले को सी.आई.डी. बनाकर मेरी ननिहाल भेजा, फिर आप भी...।'' इसके आगे गुरलाभ चुप्पी लगा गया। वह बातचीत में रणदीप के ऊपर होना चाहता था।
''वे बातें तो मिलकर भी कर सकते हैं। अब की इमरजैंसी के बारे में बता।'' रणदीप मधुर आवाज़ में बोल रहा था।
''जिसने मलोट-अबोहर में आतंक मचा रखा है, जिस खातिर तुझे मंत्री जी स्पेशयली अबोहर में लाए हैं, अगर उससे मिलवा दूँ तो ?''
''तेरा मतलब बाबा बसंत से ?'' रणदीप के अन्दर भी खुशी नृत्य करने लगी।
''हाँ, बाबा बसंत। सारा इनाम तेरा। बल्ले-बल्ले तेरी। प्रोमोशन तेरी। पर मुझे क्या मिलेगा ?'' गुरलाभ गंभीर हो गया था।
''तुझे मैं खाली चैक देता हूँ, जो चाहे भर लेना।'' रणदीप ने सोचा कि मलोट-अबोहर के एरिये में बाबा बसंत, बाबा बसंत हुई पड़ी थी, अगर उसे वह मिल गया तो लोगों और खास तौर पर मंत्री जी की नज़रों में हीरो बन जाएगा।
''पुलिसवाले झूठे वायदे करके मुकर जाया करते हैं।'' गुरलाभ सुनिश्चित कर लेना चाहता था।
''बच्चे की सौगंध है गुरलाभ। मैं वायदे से नहीं फिरता।''
''एक बात और। वे जा रही ट्राली रोक पर चढ़े हैं। मेरा मतलब ट्राली वाले का कोई कसूर नहीं। उसे नहीं छेड़ना।'' गुरलाभ लम्बे झमेले में पड़ने से डरता था।
''यह भी वायदा रहा।''
''अच्छा, सुन फिर...।'' इसके बाद गुरलाभ ने सारी सूचना रणदीप को दे दी। रणदीप ने तुरन्त कमांडो तैयार किए। फिरोजपुर सादिक रोड के ऊपर नाका लगा लिया। बाबा बसंत और उसके साथी निश्चिंत होकर आ रहे थे। आजकल जगह-जगह नाके लगे रहते थे। पुलिसवाले तलाशी लेकर चलता कर देते थे। रणदीप नाके वाली झोपड़ी के अन्दर बैठा था। कई वर्ष पहले देखे बाबा बसंत को वह अब भी पहचान सकता था। दूर से आती ट्राली में लम्बे ऊँचे बाबा बसंत को खड़े उसने दूर से ही देख लिया। उसने अपने आदमियों को इशारा किया। नाकेवालों ने हाथ देकर ट्राली को रोका। काफी लोग ट्राली की ओर भाग कर आते देख बाबा बसंत और उसके साथियों को शक हो गया। वे छलांगे लगाते भाग निकले। कमांडो पुलिस वाले भी पीछे दौड़ पड़े। ट्राली वाला ट्राली चलाकर निकल गया। बाबा बसंत और उसके साथी निहत्थे पुलिस के जाल में से भागने में सफल न हो सके। भागते जाते बाबा बसंत ने सायनाइड का कैपसूल निगल लिया। उसे ऐसा करते देख उसके साथ भाग रहे दूसरे साथी ने भी सायनाइड का कैपसूल खा लिया। तीसरे के पुलिस वालों ने गोली मारी। तीनों मारे गए। जब रणदीप करीब पहुँचा तो बाबा बसंत के मुँह से झाग निकल रही थी।
''इन्हें जल्दी उठाओ, ट्रक में फेंको।'' रणदीप फुर्ती से दिमाग लड़ा रहा था।
तीनों को ट्रक में फेंक रणदीप स्वयं भी आगे ड्राइवर के साथ बैठ गया। जल्दी से जल्दी उसने ट्रक को अबोहर वाली अपनी सरकारी कोठी पर जा लगाया। वह शाम होने की प्रतीक्षा करने लगा। अच्छा-खासा अँधेरा होने पर उसने वही ट्रक मलोट रोड पर डाल लिया। बिजली बोर्ड के बड़े दफ्तर से पहले ही दायें हाथ ट्रक को खेतों में जा खड़ा किया। तीनों की लाशों को दूर-दूर फेंक दिया। उनके हाथों में राइफ़लें पकड़ा दीं। फिर नौ बजे के करीब उसने अपने आदमियों को इशारा किया। उसके पुलिसवालों ने लाशों के आसपास बैठकर ऊपर की ओर गोलाबारी शुरू कर दी। उधर रणदीप ने सभी स्थानीय अख़बार वालों को फोन पर खबर देना शुरू कर दिया। रणदीप ने अपने पूरे सोर्स लड़ाते हुए यह खबर टी.वी. पर प्रसारित करवा दी। साढ़े नौ बजे के करीब टी.वी. यह खबर दे रहा था, ''पिछले दो महीनों से मलोट-अबोहर के इलाके में आतंक मचाने वाले कमांडो-फोर्स के खूंखार आतंकवादी बाबा बसंत को पुलिस के जांबाज अफ़सर एस.पी. रणदीप ने घेर लिया है। दोनों तरफ से ज़बर्दस्त गोली चल रही है। पुलिस को पूरा भरोसा है कि आतंकवादियों को पकड़ लिया जाएगा।
(जारी…)

Sunday, August 22, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 18(शेष भाग)

अगले दिन अबोहर गंगानगर रोड पर शहर से बाहर आठ भइये मारे जा चुके थे। उनकी जिम्मेदारी ली थी - जीवन सिंह रंगरेटा ने।
पुलिस को अभी तक पिछले एक्शन के बारे में कुछ पता नहीं चला था और ऊपर से यह नया ग्रुप पैदा हो गया था।
पुलिस ने दिनरात एक कर रखा था। लेकिन खाड़कू ग्रुपों का अभी तक कोई अता-पता नहीं मिला था। ''चौबीस घंटों के अन्दर-अन्दर मुज़रिमों को पकड़ लिया जाएगा''- मंत्री जी का ऐलान। सवेरे-सवेरे ऊँची आवाज़ में अख़बार की सुर्खियाँ पढ़ता जैलदार सीढ़ियाँ चढ़कर चौबारे की ओर जा रहा था। उसने देखा कि गुरलाभ अभी भी सोया पड़ा था। जैलदार ने गुरलाभ को उठाते हुए अख़बार की सुर्खियों के बारे में बताया।
''तू उठकर खड़ा हो। ऐसे नहीं चलेगा। जल्दी तैयार हो कर नीचे आ जा। आज मंत्री जी ने अबोहर में आना है।'' जैलदार ने बांह पकड़कर गुरलाभ को खड़ा किया।
अबोहर के सभी जाने-माने लीडर रैस्ट हाउस में एकत्र हुए बैठे थे। पुलिस के अलावा बाकी अन्य सभी महकमों के अफ़सर मंत्री जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। होम मिनिस्टर के अपने शहर में यह सब हो रहा था। मंत्री जी के लिए बड़ी शर्मिन्दगी की बात थी। मंत्री जी समय से ही आ गए थे। दिनभर लोगों की शिकायतें सुनते रहे। नेताओं से विचार-विमर्श करते रहे। पुलिस विभाग के अफ़सरों से बैठकें होती रहीं। मुख्य विषय था इस इलाके को खाड़कूवाद की आँधी से बचाना। पुलिस के बड़े अफ़सरों से विचार-विमर्श के बाद उन्होंने पुलिस महकमे में कुछ फेर-बदल भी किया। जैलदार और गुरलाभ मंत्री जी को उनकी कोठी में मिले। मंत्री जी ने बड़े गौर से गुरलाभ के चेहरे की तरफ देखा। फिर 'मिलते रहना' कहकर उन्हें विदा किया। पुलिस के फेर-बदल में जो सबसे खास नियुक्ति की गई थी, वह थी तेज-तर्रार एस.पी. रणदीप को अबोहर में लाना। पुलिस फाइलों में खाड़कूवाद से लड़ने वाले अफ़सरों में उसका नाम सबसे ऊपर था।
रणदीप की अबोहर में पोस्टिंग होने का पता गुरलाभ को घर पहुँचने के बाद लगा। उसके मामा जैलदार को उन दोनों की पुरानी दोस्ती की कोई जानकारी नहीं थी। गुरलाभ रात में चौबारे में अकेला पड़ा था। उसे नींद नहीं आ रही थी। पहली बार वह अपने बारे में सोच रहा था। कहाँ से चला था और कहाँ पहुँच गया। अब तक उसने जो कुछ भी किया, शुगल के तौर पर ही किया था। वह लुधियाना के कालेज में दाख़िल होने से लेकर बाद के दिनों को याद करता विचारों में गुम हुआ पड़ा था। कितने मारे, कितने लूटे, कितने अगवा किए, कोई गिनती नहीं थी। जब तक लुधियाना में रहा, वह पूरी अति किए रहा। इसमें से हासिल क्या किया, कुछ नहीं। जो रुपया-पैसा लूटा, सब उड़ा दिया। अब यहाँ आकर भी वही सबकुछ शुरू कर लिया, पर इसमें से मिलता क्या था ? कुछ भी नहीं। खाड़कू बनकर लोगों को लूटने के, लोगों को मारने के और अन्य शौक तो पूरे कर लिए, पर खटा-कमाया कुछ भी नहीं। अपने संगी-साथियों को पकड़वा कर लुधियाने का चैप्टर तो बन्द कर दिया, पर उसका सारा लाभ उठा गया रणदीप। उसी की वजह से आज रणदीप इंस्पैक्टर से एस.पी. के पद पर पहुँच गया था। गुरलाभ देख रहा था कि लहर समाप्ति की ओर जा रही थी। ऐसे समय में पुलिस वालों का क्या भरोसा कि दूसरों के साथ-साथ उसे भी गाड़ी चढ़ा दें। फिर रणदीप तो गुरलाभ के सभी भेद जानता था। अब उसे अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहिए। अपने भविष्य को लेकर उसने कई योजनाएँ बनाईं। इसके लिए उसे मंत्री जी की मदद की ज़रूरत पड़नी थी। सो, एक काम तो यह था कि वह मंत्री जी के सम्पर्क में रहे। दूसरी बात, रणदीप को अपने ऊपर हावी न होने दे। और अन्तिम बात सोची उसने अपने रुपये-पैसे के बारे में। उसका बड़ा बहनोई कैनेडा में रहता था।
कैनेडा बहनोई से फोन पर बात की। उससे कहा कि वह उसके लिए वहाँ एक अलग खाता खुलवा दे। फिर जैसे जैसे वह हवाले के माध्यम से रुपया-पैसा एक्सचेंज करे, वह उसे उधर डालर के रूप में उसके खाते में जमा करवाता रहे। बहनोई ने उसे इस काम को करने का भरोसा दे दिया। उसका यह बहनोई और उसकी बहन दोनों गुरलाभ के स्वभाव से परिचित थे। डरते थे कि कहीं वह गलत राह ही न पड़ जाए। इसलिए अच्छा ही है अगर वह कैनेडा आ जाए। पैसों का प्रबंध होने के बाद उसने अगली योजनाओं के विषय में सोचा। सबसे पहले तो यह एरिया छोड़ दे। अपने पुख्ता प्रबंध करने के बाद ही रणदीप के सामने जाए। उसका विचार था कि दो-एक और बड़े एक्शन करके रणदीप को उलझा दे। फिर स्वयं किसी दूसरे इलाके में निकल जाए। ऐसी योजनाएँ बनाते बनाते वह देर रात सो पाया। सवेरे दिन चढ़ते तक सोया रहा। सुबह भी उसके मामा ने ही जगाया। उसके मुँह की तरफ देखकर मामा हैरान हो रहा था।
''कैसे ? तू रात में सोया नहीं ?''
''नहीं, सोया तो था। बस, यूँ ही शरीर कुछ ढीला-सा है।''
''ऐसी क्या बात हो गई ?''
''बात तो कोई नहीं मामा जी। एक आपको बात बतानी है। जिस नये एस.पी. रणदीप का कल मंत्री जी जिक्र कर रहे थे, वह मेरा परिचित है।'' गुरलाभ ने बात बदली।
''अच्छा फिर ?''
''फिर क्या। पुलिस में जाने के बाद वह बड़ा ही कमीना बन गया। सब-इंस्पैक्टर भर्ती हुआ था। थोड़े से समय में देख लो, एस.पी. बना बैठा है। मेरा मतलब है, अब वह लिहाज-विहाज कुछ नहीं करता। बस, हर किसी को इस्तेमाल करना चाहता है।''
जैलदार चुपचाप सुनता रहा।
''मैं नहीं चाहता, मुझे वह यहाँ हर वक्त अपने संग खींचता घूमे। और फिर, पुलिस के संग घूमता आदमी तो यूँ ही बुरा लगता है। मुझे तो वैसे भी गाँव की तरफ जाना ही है। बस, मेरे बाद यदि वह यहाँ आए तो कह देना कि गुरलाभ तो कोई साल भर से इधर आया ही नहीं।''
''वह तो कोई बात नहीं। मैं टाल दूँगा उसको। अगर कोई बात है तो बता, हम अभी चलते हैं मंत्री जी के पास।'' उसके मामा को उसे लेकर हस समय धुकधुक लगी रहती थी।
''नहीं, बात कोई नहीं। बस मैं इस पुलिस वाले को पसन्द नहीं करता।''
वे बातें कर ही रहे थे कि नीचे से नौकर ने आकर सूचना दी कि बाहर पुलिस आई है। गुरलाभ ने तुरन्त जैलदार को नीचे भेज दिया। जब वह नीचे पहुँचा, पुलिस अफ़सर बैठक में विराजमान था। जैलदार के करीब आते ही पुलिस अफ़सर ने बड़े अदब से नमस्कार किया।
''मैं नया एस.पी. ओपरेशन रणदीप सिंह हूँ जी। गुरलाभ मेरा जिगरी दोस्त है। मैंने सोचा, उसे मिल ही आऊँ।'' रणदीप मासूस-सा बनकर जैलदार से मुखातिब हुआ।
''वह तो जब से लुधियाना में रहने लगा है, इधर कम ही आता है।''
''यहाँ बिलकुल ही नहीं आया।'' रणदीप का पुलिसिया दिमाग बोला।
''नहीं, यहाँ तो पिछले छह-सात महीनों से बिलकुल ही नहीं आया। अगर कहते हो तो गाँव से बुला लेते हैं या फिर मैं गाँव का पता दे देता हूँ, वहाँ आदमी भेजकर बुला लो।'' जैलदार का सियासी दिमाग बोला।
''नहीं, काम तो कुछ नहीं। मैंने सोचा, पुराने दोस्त से मिल आऊँ।'' उठता हुआ रणदीप बोला।
''तुम काका जी, कोई चाय-पानी तो पीते।''
''नहीं जी, अभी जल्दी है। फिर कभी सही। अच्छा, गुरलाभ आया तो उसे मेरे बारे में बता देना।'' रणदीप की गाड़ियों का काफ़िला चला गया।
जैलदार गहरी सोच-विचार में डूबा धीरे-धीरे चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। एस.पी. आपरेशन का खुद चलकर आना और गुरलाभ का उससे न मिलना, कोई बात तो अवश्य थी, पर यह साला कपूत कहाँ कुछ बताता है। कहीं कोई और ही चाँद न चढ़ा दे। चौबारे में जाकर जैलदार ने बताया कि तेरा वो एस.पी. आया था। आगे जैलदार कुछ पूछना चाहता था। लेकिन यह सोचकर खामोश रह गया कि यह कहाँ कोई भेद देने वाला है।
अँधेरा होने पर गुरलाभ कार लेकर दूर वाले खेत की ओर निकला। गणेश उसका इंतज़ार कर रहा था। नये लड़के - गोरा और जीवन भी उनके रंग में ढल चुके थे। अपने अड्डे पर बैठे वे भी प्रतीक्षा कर रहे थे।
''आज मैं किसी कारण आ नहीं सका। कल देखेंगे। आ जा, उसके बाद का प्लैन समझ ले।'' चबूतरे पर कुर्सी डाल कर बैठा गुरलाभ धीरे-धीरे शराब के घूंट भर रहा था। अगले दिन दोपहर ढलने के बाद गुरलाभ ने कार निकाली। वह दूसरे राह से होता हुआ रसूलपुर कोठी पहुँचा। उसकी हिदायत के अनुसार एक काम तो गणेश ने सवेरे ही कर लिया था। वह पंजाब के बार्डर से पार पड़ते राजस्थान के छोटे-से शहर मटीली से जीप चोरी करके ले आया था। राजस्थान से चोरी करने का कारण था कि उधर की पुलिस इतनी जल्दी इधर नहीं आने वाली थी। जीप उसने एक खाली पड़े क्वार्टर में खड़ी की हुई थी। यहाँ लाने के बाद उसने उसकी नंबर प्लेटों के साथ-साथ अन्य कई चीज़ें बदलकर उस जीप को नहरी विभाग की जीप बना दिया था। नंबर प्लेटों के ऊपर लिखा हुआ था - नहरी विभाग, पंजाब, फिरोजपुर सर्किल। गुरलाभ उसका काम देखकर खुश हो गया।
लक्खेवाली मंडी में मारे पाँच दुकानदारों वाली वारदात के कारण अगले दिन हरतरफ हाहाकार मची हुई थी। एस.पी. रणदीप को कमांडो फोर्स के लैटर पैड पर चिट्ठी मिली जिस पर लिखा हुआ था, ''तुम्हारा स्वागत है एस.पी. रणदीप। यह तो शुरूआत है। तूने मेरे साथियों को धोखे से पकड़ा था। याद है न, लुधियाना के रेड हाउस का कारनामा। मैं तेरे साथ सरेआम मुकाबला करूँगा।- लेफ्टिनेंट जनरल 'बाबा बसंत'।'' रणदीप जानता था कि रेड हाउस में से बाबा बसंत नाम का एक लड़का बच निकला था। रणदीप को यकीन हो गया कि ये सारी कार्रवाइयाँ बाबा बसंत ही कर रहा था। वह अपने ढंग से बाबा बसंत के पुराने तौर-तरीके देखते हुए उसे खोजने लगा। उधर रात में गुरलाभ घर पहुँचा। उसने मामा को बताया कि वह सवेरे ही लुधियाना की तरफ निकल जाएगा। आधी रात के बाद ही वह पैदल खेत की ओर चल पड़ा। उधर गणेश और उसके दो साथी बिलकुल तैयार बैठे थे। जीप में गुप्त स्थान बनाकर हथियार छिपा दिए थे। गणेश ने ड्राइवर की वर्दी पहन रखी थी। गोरा और जीवन वेलदारों की वर्दी पहने बैठे थे। जीप में लेवल करने का सारा सामान रखा हुआ था। गुरलाभ देखने में एस.डी.ओ. लगता था। नई जगह गणेश के बताने पर चुनी गई थी। चौकीदार लगने से पहले वह उस कोठी में कच्चा वेलदार रहा था। बियाबान के बीच यह नहरी कोठी गंग कैनाल के किनारे पर थी। सादिक से आगे एक लिंक रोड पर आठेक किलोमीटर जाकर एक गाँव आता था- सोहणके। इसी गाँव के नाम पर कोठी का नाम था- 'नहरी कोठी, सोहणके।' गाँव से कच्चे रास्ते दो किलोमीटर जाना पड़ता था।
दिन चढ़ते ही गणेश ने जीप नहर की पटरी पर चढ़ा ली। गुरलाभ उसके बराबर बैठा था। गोरा और जीवन नहर महकमे का कुछ सामान बीच में रखकर पीछे बैठे हुए थे। थोड़ी दूर आगे की तरफ जाकर डिफेंस रोड पर से होते हुए जीप लम्बी डिस्ट्रीब्यूटरी की तरफ हो गई। आगे चलकर लम्बी डिस्ट्रीब्यूटरी का हैड आ गया। राजस्थान कनाल और सरहिंद फीडर सामने थे। दोनों नहरें हरीके हैडवर्क्स से निकलती थीं। पंजाब में से साथ-साथ चलती ये आगे चलकर हरियाणा की ओर चली जाती थीं। दोनों नहरों के बीचवाली पटरी सिर्फ़ नहर विभाग के अफ़सरों के वाहनों के लिए थी। लम्बी हैड के पास बीचवाली पटरी पर जाने के लिए तथा पुल के ऊपर हमेशा एक गेट लगा रहता था। जैसे ही गणेश ने पुल के ऊपर ले जाकर जीप रोकी तो साथ वाली कोठरी में से हैड वर्क्स का चौकीदार दौड़ा हुआ आया। आते ही उसने गुरलाभ को सलूट ठोका। उसने दूर से ही फिरोजपुर सर्किल की जीप देख ली थी। गणेश को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। चौकीदार ने गेट का ताला खोला, जीप बीचवाली पटरी पर होकर ऊपर की ओर चल पड़ी। ''अब कहीं कोई रुकावट नहीं जी।'' गणेश ने गुरलाभ को सुनाते हुए कहा। गुरलाभ ठाठा बांधे चुपचाप बैठा रहा। दोपहर होते तक जीप सोहणके गाँव पहुँच गई। आगे कच्ची राह थी। लगभग डेढ़ किलोमीटर कच्चे राह पर चलकर आगे नहर का पुल आ गया और दूसरी तरफ 'सोहणके नहरी रेस्ट हाउस' था। शाम तक उन्होंने वहाँ पक्का अड्डा जमा लिया। यहाँ रहने का हर प्रबंध कर लिया।
अगले दिन गुरलाभ फिरोजपुर चला गया। बाकियों को वह हिदायत देकर गया था कि एक आदमी हर वक्त पहरे पर रहे। यह भी कि कोठी में से कोई बाहर न निकले। गुरलाभ दिन भर फिरोजपुर के कालेजों में घूमता रहा। जो कुछ वह तलाश रहा था, वह उसे एक कालेज में मिल ही गया। वह था उसका कोई पुराना दोस्त। नवदीप उसका अबोहर कालेज के समय का मित्र था जो अब फिरोजपुर में पढ़ रहा था। बाहर किराये पर कमरा लेकर रहता था। नवदीप भी गुरलाभ की भाँति दबंग स्वभाव का ऐशी आदमी था। दो दिन के साथ में गुरलाभ ने उसे अच्छी तरह टोह लिया। तीसरे दिन गुरलाभ नवदीप को संग लेकर रात के अँधेरे में सोहणके कोठी लौटा।
''काका जी, हम तो फिक्र में मरे पड़े थे। आपने इतने दिन लगा दिए।'' गणेश दौड़कर गुरलाभ के पास आया।
''तुम अपने काम से मतलब रखा करो। तुम्हें जो हुक्म दिया जाता है, उसी के मुताबिक अमल किया करो। आलतू-फालतू चिंताओं को छोड़ दो।'' गुरलाभ ने गणेश को डांट दिया।
उसके पश्चात् गुरलाभ और नवदीप ने रैस्ट हाउस में अपनी महफिल लगा ली। गणेश और उसके साथियों ने किसी क्वार्टर में खाने-पीने का प्रोग्राम चला लिया। नवदीप वहाँ बैठा गुरलाभ के विषय में काफी कुछ समझ गया था। उसके कालेज के कई लड़के भी इसी राह पर निकल गए थे। नवदीप तो ऐश करने वाला लड़का था। फिरोजपुर से चलते हुए उसने नहीं सोचा था कि गुरलाभ किसी बियाबान जगह पर अड्डा लगाये बैठा होगा। वह तो इधर-उधर घूमने की मंशा से ही गुरलाभ के मोटरसाइकिल के पीछे बैठ गया था। पर गुरलाभ को फिरोजपुर शहर में रहते दोस्तों की ज़रूरत थी। इधर-उधर की बातें करते हुए थोड़ी देर बाद ही गुरलाभ असली मुद्दे पर आ गया।
बातचीत करते और पैग लगाते हुए वे दो घंटे बैठे रहे। नशे की लोर में नवदीप के दिल में से भी डर उड़ चुका था। काफी देर बाद रोटी खाकर वे रेस्ट हाउस की छत पर सो गए। अगले दिन सवेरे ही गुरलाभ ने नवदीप से उसके कमरे की चाबी ली। उसे बस अड्डे से बस चढ़ा आया। वापस लौट कर उसने नहरी मकहमे वाली जीप निकाली। साथियों को संग बिठाकर फिरोजपुर शहर में आ गया। नवदीप के कमरे पर जाकर उसने आसपास के हालात का जायजा लिया। एक कार का प्रबंध उसने पहले ही किया हुआ था। शाम होने तक वह इधर-उधर घूमते हुए योजनाएँ बनाता रहा। फिर शाम हो जाने पर उसने साथियों को कार में बिठाया और दानामंडी की ओर निकल गया। धीरे-धीरे कार चलाते हुए उसने एक दुकान के आगे कार रोक ली। दुकान का मालिक आढ़तिया दुकान से बाहर ही आ रहा था जब गणेश कार से उतर कर उसके नज़दीक पहुँचा।
''सेठ साहिब, आपसे इंस्पेक्टर साहिब मिलना चाहते हैं।''
''हैं ! कहाँ ?'' हैरान सा होता सेठ कार की तरफ चल पड़ा। उसने सोचा शायद मार्कफैड का इंस्पेक्टर था। जैसे ही वह कार के करीब आया, पीछे से गणेश ने उसकी बगल में पिस्तौल लगा दिया। थर्र-थर्र कांपता सेठ पिछली सीट पर गिर पड़ा। उसके दोनों तरफ दो जने बैठ गए। गणेश अगली सीट पर आ गया। सिर पर मौत देखकर सेठ की जबान का लकवा मार गया। शहर से थोड़ा बाहर निकलकर सेठ की आँखों पर पट्टी बांध दी गई। एक स्थान पर कार रोककर गुरलाभ ने गणेश को एक तरफ बुलाया।
''देखो, सेठ को कुछ नहीं होना चाहिए। इसकी पूरी सेवा करना। कमरे से बाहर नहीं निकलने देना। जब तक मैं न आऊँ, छोड़ना नहीं।'' इतना कह कर गुरलाभ शहर को लौट गया। गणेश ने कार का स्टेयरिंग संभाल लिया। रात के अँधेरे में सेठ को कुछ पता नहीं लग रहा था कि वे उसे किधर ले जा रहे हैं। घंटे भर बाद, कच्चे-पक्के राहों से होती हुई कार सोहणके रेस्ट हाउस पहुँच गई। दो जनों ने सेठ को बांहों से पकड़कर बाहर निकाला। फिर पहले से तैयार किए कमरे में ले जाकर उसकी आँखों पर से पट्टी उतार दी।
''सेठ साहिब, आप हमें अपना नौकर समझो। जिस चीज की ज़रूरत हो, हमें बता दो। यहाँ से भागने की या ऐसी कोई बात न करना। बस, दो दिन की बात है और उसके बाद आपको ठीकठाक आपके घर छोड़ आएँगे।'' गणेश नम्रता के साथ बोला।
''पर यह तो पता लगे कि मुझे उठाया क्यों गया है। मेरा कोई कसूर...'' सेठ का चेहरा सफेद हुआ पड़ा था।
''यह तो जी हमारे बाबा जी को मालूम है। हम तो सेवादार हैं।'' इतना कहते हुए गणेश ने कमरा बन्द कर दिया। एक व्यक्ति बाहर पहरे पर बैठ गया।
उधर सेठ के बेटे ने दुकान में बैठे हुए अन्दर से सेठ को कार में बैठते देख लिया था। उसे कुछ गड़बड़ लगी। वह शीघ्रता से जूता पहनते हुए बाहर की ओर भागा तो कार जा चुकी थी। शाम के घुसमुसे में उसे सिर्फ़ कार की पिछली लाल बत्तियाँ ही दिखाई दी थीं। पीछे मुड़ते समय उसे सड़क पर गिरा पड़ा रुक्का दिखाई दिया। उसने उसे उठा कर जेब में डाल लिया। अन्दर जाकर एक तरफ खड़े होकर उसने आहिस्ता से रुक्का खोला - ''सेठ को अगवा किया जाता है। पुलिस को बताओगे तो सेठ की लाश मिलेगी। तुमसे कल कंटेक्ट किया जाएगा... कमांडो फोर्स।'' लड़के के होश उड़ गए। पुलिस के पास तो जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। लड़के ने अभी किसी को भी बताना उचित न समझा। वह ऊपर चौबारे में जाकर बैठ गया। अँधेरे में बैठा वह कोई न कोई रास्ता खोजने की कोशिश कर रहा था। फिर उसे याद आया कि पिछले महीने उसके मुहल्ले में खाड़कुओं द्वारा की गई अगवा की घटना, उसके इलाके के एक नेता पिरथी सिंह ने सुलझाई थी। सेठ का लड़का पिरथी सिंह के पास जा पहुँचा। उसको कमांडो फोर्स द्वारा फेंकी गई चिट्ठी और सेठ के अगवा होने के बारे में सब कुछ बताते हुए मदद की मांग की। पिरथी सिंह चिट्ठी को ध्यान से देखता रहा। वह समझ गया था कि यह कोई नया ग्रुप था।
पिरथी सिंह ने लड़के को कुछ समय इंतज़ार करने को कहकर लौटा दिया।
पिरथी सिंह फोन की प्रतीक्षा करने लगा। इस काम का वह मशहूर दलाल था। वह जानता था कि ग्रुप बेशक नया ही प्रतीत होता था, पर कंटेक्ट वह उसी को करेगा।
उधर गुरलाभ ने भी पूरा होमवर्क करके ही एक्शन किया था। रात के ग्यारह बजे के करीब उसने पिरथी सिंह के घर फोन किया। फोन उठाते ही जत्थेदार पिरथी सिंह समझ गया कि फोन उसी का ही था।
''अपना कोड वर्ड बताओ।'' पिरथी सिंह तुरन्त बोला।
''हैं जी ! कोड वर्ड !''
''हाँ, कोड वर्ड।''
''कोर्ड वर्ड तो... जी नये ही हैं।''
''चल, ठीक है। पर कितने डिब्बे ?''
''जी पचास।''
''बहुत ज्यादा हैं। तुम्हारी फसल के मुताबिक बीस मिलेंगे।''
''ये तो बहुत कम हैं।''
''मैं तो एक ही बात किया करता हूँ, आर या पार। अगर मंजूर है तो बताओ, नहीं तो फोन काटो।''
''ठीक है।''
''कल को तीन बजे मेरे शैलर पर मिलना। तुम्हारा काम वहाँ हो जाएगा। मेरा काम दिन छिपने से पहले होना चाहिए।''
''ठीक है जी।''
करीब बारह बजे सेठ का लड़का हताश चेहरा लिए पिरथी सिंह के शैलर पर पैसे पहुँचा आया। पिरथी सिंह ने उसे यकीन दिलाया कि दिन छिपते सेठ घर पहुँच जाएगा। ठीक तीन बजे गुरलाभ पिरथी सिंह के शैलर पर पहुँच गया। पिरथी सिंह ने उसे सिर से लेकर पांव तक तोला। गुरलाभ उसे इस काम में अनुभवी लगा। वह पिछला दरवाजा खोलकर गुरलाभ को अपने प्राइवेट कमरे में ले गया।
''वो सामने पड़े हैं बीस लाख। इसमें चौथा हिस्सा मेरा। चौथा पुलिस का। आधा तेरा। किसी का डर नहीं, लूटो मौजें।''
''जी, पुलिस का भी ?''
''इसकी तुम्हें फिक्र करने की ज़रूरत नहीं। तुम्हें हर तरफ से बचाकर रखना भी मेरा काम है। मेरे होते पुलिस तुम्हें नहीं बुलाने वाली।''
''अब हम बिजनेस पार्टनर बन गए हैं, चाय का कप पीकर जाना।''
उसके बाद दोनों चाय की चुस्कियाँ भरते छोटी-छोटी बातें करते रहे।
पिरथी सिंह ने चौथा हिस्सा अपनी तिजौरी में रख लिया। चौथा हिस्सा लिफाफे में डालकर एस.पी. के घर भेज दिया। उधर गुरलाभ ने मोटरसाइकिल निकाला और सीधा सोहणके की ओर हो लिया। वहाँ पहुँचकर उसने सेठ को कार में बिठाते हुए गणेश को शहर की तरफ भेज दिया। सेठ की आँखें बांधी हुई थीं। वह पिछली सीट पर पड़ा था। शहर से बाहर एक उजाड़-सी जगह पर गणेश ने कार रोकी। फिर उसने गोरे की मदद से सेठ को बाहर निकालकर सड़क से नीचे खतानों में बिठा दिया।
गुरलाभ खुश था। नई जगह पर उसका पहला एक्शन कामयाब रहा था। उसे आगे के लिए पिरथी सिंह जैसे बढ़िया चैनल मिल गये थे। उसने तीनों लड़कों को बुलाया। पचास-पचास हजार हरेक को दिया। गणेश, गोरा और जीवन, तीनों बहुत खुश थे। इस तरह बैठे-बिठाये पैसे मिलते रहें, यही कुछ तो वह चाहते थे।
(जारी…)
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