Thursday, December 31, 2009

धारावाहिक उपन्यास



नेट की दुनिया के प्रिय दोस्तो… ब्लॉग की दुनिया में यह मेरा पहला कदम है। मैं अपनी इस यात्रा को नव वर्ष 2010 के आगमन से आरंभ कर रहा हूँ। इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने पहले उपन्यास “बलि” को धारावाहिक रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उपन्यास पंजाब त्रासदी पर आधारित है और वर्ष 2009 में पंजाबी में प्रकाशित होते ही चर्चा का केन्द्र बना है। यही कारण है कि मैं इसे हिन्दी के विशाल पाठकों के सम्मुख रखने का साहस कर पा रहा हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि आपका स्नेह और प्यार मुझे अवश्य मिलेगा और आप इसे पढ़कर अपनी अमूल्य राय से मुझे अवगत कराते रहा करेंगे। आप सबको नव वर्ष 2010 की बहुत बहुत शुभकामनाएं !

बलि
हरमहिंदर चहल

1
रात के लगभग दो बजे का समय था जब अचानक उसकी आँख खुल गई। आम तौर पर इतनी जल्दी उसकी नीद नहीं खुलती थी, पर लगता था कि तेज गूंज ने उसे गहरी नींद से जगा दिया था। कोठी से पश्चिम की ओर करीब आधे मील के फासले पर बड़ी सड़क गुजरती है। वैसे तो यह सड़क बहुत बढ़िया और बड़ी है पर दिन में इस पर बहुत कम आवाजाही रहती है। यह सड़क डिफेंस रोड के नाम से प्रसिद्ध है। क्योंकि यह सड़क मिलिट्री की आवाजाही के लिए बनी हुई है। इसलिए यह छोटे-मोटे शहरों में से गुजरने के बजाय सीधी बार्डर की तरफ निकल जाती है। दिन के समय आम तौर पर यह सड़क सूनी ही पड़ी रहती है। पर रात के समय यहाँ ट्रकों की आवाजाही शुरू हो जाती है। बड़ी सड़क पर आवाजाही कम होने के कारण ट्रक वालों की यह मनपसंद सड़क है। ट्रक वाले तो वैसे ही गाड़ियाँ रात के वक्त ही चलाते हैं। जैसे ही सड़क नहर का पुल पार करती है तो आगे बहुत बड़ा टीला आ जाता है जो कि एक लम्बी चढ़ाई है। टीले के शिखर पर पहुँचने के लिए कम से कम आधा मील का फासला पड़ ही जाता है। सो, यह आधा मील का फासला भरे हुए ट्रकों के लिए पहाड़ से माथा लगाने के बराबर है। चढ़ाई चढ़ते सामान से लदे फदे ट्रक चीखते चले जाते हैं। कई खराब ट्रक तो गेयर बदल बदल कर बमुश्किल चढ़ाई चढ़ते हैं।
आज भी शायद कोई ज्यादा ही भरा हुआ ट्रक था जिसके ड्राइवर ने नहर का पुल गुजरते समय सामने ऊँची चढ़ाई देखकर गाड़ी पहले गेयर में डाल ली थी, क्लच छोड़ कर रेस देने की देर थी कि ट्रक के शोर ने धरती कंपा दी जिसकी गूंज सुनसान रात में मीलों तक सुनाई देती थी। इसी गूंज ने उसे गहरी नींद से जगा दिया। उसे कुछ बेचैनी-सी हुई। उसने उठ कर पानी पिया और बाहर आँगन में आ गया। बाहर चाँदनी रात अपने पूरे जोबन पर थी। झिलझिल झिलमिल करते तारों से आसमान भरा पड़ा था। उसने आँगन में खड़े खड़े ही ऊपर आसमान की तरफ देखा। तारामंडल अभी थोड़ा ही ढला था। दिन चढ़ने में अभी काफी समय था। पहले वह फिर से लेटने लगा पर फिर उसने सोचा कि नींद तो खुल ही चुकी है, क्यों न बाहर का चक्कर लगा आए। उसने बदन को कम्बल से ढका और गेट खोलकर कोठी से बाहर निकल आया। बाहर कोई आवाज़ नहीं थी। न ही कोई कुत्ता भौंका। आधी रात के बाद कुत्ते भी शायद कहीं दुबक गए थे। उसने दायें हाथ की तरफ देखा। वेलदारों के क्वार्टरों की तरफ सन्नाटा था। बायीं ओर तार बाबू का क्वार्टर था और उसके साथ ही मेट का। उधर भी कोई आवाज़ नहीं थी। वह धीरे धीरे चलता आगे रेस्ट हाउस के पास आ गया। रेस्ट हाउस के इर्दगिर्द ख़ामोशी पसरी हुई थी। आसपास की घास पर ओस की हल्की बूँदें गिरने लग पड़ी थीं। कोठी के इर्द गिर्द लम्बे लम्बे शीशम के पेड़ तथा अन्य दरख्त चुपचाप खड़े थे। न तो कोई पत्तों की खड़खड़ाहट थी, न ही हवा का कोई शोर। लगता था जैसे नहरी कोठी नींद के गहरे आगोश में डूबी हुई हो। नहर की पटरी चढ़ते हुए उसने सामने गेज पर टॉर्च की लाइट फेंकी। पानी का लेवल पूरे तीन फुट को छू रहा था। इसका मतलब, पानी की सप्लाई सही है। पैर को मलता हुआ वह ऊपर की तरफ चल पड़ा। ऊपर थोड़ी ही दूरी पर छोटी-सी झाल थी। झाल पर पानी का लगातार हो रहा शोर एक संगीत सा उत्पन्न कर रहा था। चाँदनी रात में नहर में बहता चाँदी रंगा पानी साफ दिखाई दे रहा था। वह खड़े होकर एकटक बहते पानी की ओर देखने लगा। ''इसकी किस्मत में बहते जाना ही लिखा है। पहाड़ों से चला है, नदियों, नालों, नहरों और सूओं में से होकर बहता आगे मोघों में से निकलता खेतों में जा पहुँचेगा। फिर कुछ धरती के अन्दर रिस जाएगा। शेष हवा के संग मिलकर समुन्दरों की ओर उड़ जाएगा। जहाँ से चला है, वहीं पहुँच जाएगा।'' वापस लौटते हुए वह जैसे जैसे कोठी की तरफ आता गया, झाल का संगीत पीछे छूटता चला गया। जैसे ही वह कोठी के अहाते में दाखिल हुआ तो एक लम्बी शीशम के शिखर पर से कोई परिन्दा फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। उसकी फड़फड़ाहट ने रात की खामोशी तोड़ दी। इस शोर को सुनकर दरख्तों के घोंसलों में आराम कर रहे पंछी घबरा उठे। सबसे पहले मोरों ने घिआको-घिआको करके धरती सिर पर उठा ली। फिर साथ ही अन्य पक्षी, जानवर बोलने लग पड़े। सब ओर पंछियों के शोर का भूचाल सा आ गया। काफी देर तक शोर होता रहा। फिर धीमे धीमे पंछियों का शोर कम होने लगा। पंछी निश्चिंत होकर फिर से घोंसलों में दुबकने लगे। कहीं कहीं सुदूर बोलते तीतरों की आवाज़ अभी आ रही थी। धीरे धीरे उन्होंने भी बोलना बन्द कर दिया। पंछियों की चहचहाट तो बन्द हो गई थी, पर रेस्ट हाउस के ऊपर चौबारे में अच्छी हलचल हुई। दो जनों ने चौबारे में से आहिस्ता से बाहर आकर आस पास देखा। चौबारे की तरफ से किसी ने उसकी तरफ करके टॉर्च दो बार जलाई-बुझाई। उसने अपनी टॉर्च ऊपर की ओर करते हुए जला कर बुझा दी। चौबारे वाला वापस आराम से अन्दर चला गया। क्वार्टर के करीब आते ही उसे वेलदारों के क्वार्टरों से किसी छोटे बच्चे की 'रीं-रीं' सुनाई दी। शायद कोई भूखा बच्चा माँ को जगा रहा था। वह दबे पांव रखता आँगन के अन्दर आ गया। बाहरवाला दरवाजा बन्द कर दिया। तारामंडल काफी नीचे की ओर सरक आया था, पर पूरब की तरफ लाली का कोई नामोनिशान भी नहीं था। वह ठण्ड में ठिठुर चुका था। बिस्तरे में घुसते ही उसने एकदम से रजाई दबा ली। लेटे लेटे उसके मन में कल करने वाले काम आने लगे। कल एस.डी.ओ. ने आना है। पुलों के बीच वाला लेवल का काम खत्म करना है। ऐसी बातें सोचते सोचते पता नहीं किस वक्त वह गहरी नींद में सो गया।
नहरी कोठी, रतनगढ़ गाँव - रतनगढ़ से तीन कोस के फासले पर थी। शहर से पूरे तीस मील दूर। और कोई गाँव आसपास नहीं था। गाँव रतनगढ़ को कोठी से कच्चा रास्ता जाता था। इसी गाँव के नाम पर ही नहरी कोठी का नाम पड़ा था। कोठी थी भी ऐसी जगह पर जहाँ चारों ओर टीले ही टीले थे। वैसी भी कोठी पंजाब के बार्डर पर पड़ती थी। उससे आगे राजस्थान शुरू हो जाता था। कोठी का रकबा कोई चारेक किले का था। यह एक चौकोर शक्ल में थी जिसका एक हिस्सा नहर की तरफ लगता था। मध्य में पुराने जमाने का बना हुआ रेस्ट हाउस था। उससे आगे ओवरसियर का क्वार्टर था। साथ ही दफ्तर था। बाकी दोनों तरफ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के क्वार्टर थे। खाली पड़ी जगह पर फूलों के बूटे और सब्जियाँ लगाई जहाती थीं। फूल-सब्जियों की देखभाल करने के लिए माली था। कुल मिलाकर इस कोठी में बीस के करीब कर्मचारी अपने परिवारों सहित रहते थे। ओवरसियर के अलावा एक मेट, एक तार बाबू, दस के लगभग वेलदार, माली, रसोइया और चौकीदार वगैरह थे। ओवरसियर को इस इलाके में नहरी बाबू के तौर पर जाना जाता था। बाहर से देखने पर लगता था जैसे यह नहरी कोठी कोई छोटा-सा गाँव हो। उस कोठी की अपनी ही दुनिया थी। आस पास के गाँव या खेतों के लोग जो यहाँ आते-जाते भी थे तो कोठी वाले उनके साथ घुलते-मिलते नहीं थे। इस कोठी से ऊपर और नीचे नहर का पचास मील का एरिया, दो रजबाहे और सैकड़ों मोघे इस कोठी के अधिकार क्षेत्र में थे। इस सब कुछ का इंचार्ज था नहरी बाबू। आम लोग इस सारे एरिये को नहरी बाबू की सम्पति समझते थे। इस इलाके में खेतीबाड़ी के लिए पानी का साधन सिर्फ़ यही नहर थी। कोई टयूबवैल अथवा अन्य कोई साधन नहीं था। वैसे तो नहरों कमें पानी किसी निश्चित हिसाब से चलता है। कभी एक नहर को बन्द करके पानी को दूसरी में छोड़ना पड़ता है। कभी एक में बढ़ाना पड़ता है तो दूसरी में घटाना। पर इलाके के लोगों की समझ के मुताबिक यह सब कुछ नहरी बाबू के हाथ में होता है। लोग तो ऊँचे अफ़सरों से ज्यादा अहमियत नहरी बाबू को ही देते थे। तात्पर्य यह कि नहरी बाबू इस इलाके का बादशाह कहलाता था। कुछेक बड़े घरों को छोड़ कर बाबू का किसी से लिहाज नहीं था। इस इलाके में बड़ी खुली ज़मीनें थीं। सौ सौ किले के मालिक तो हर गाँव में कई कई थे। बड़े जमींदारों की खेतों में ढाणियाँ थीं। यह कोठी तो बिलकुल उजाड़ में थी। कुछ पानी की कमी के कारण और कुछेक खुली ज़मीनें होने के कारण आसपास वीरानगी सी छाई थी। ऊँचे रेतीले टीले दूर दूर तक फैले हुए थें इस खुली बीयाबान रेतीली धरती में जंगली जानवर उधम मचाते घूमते थे। सूर्यास्त के समय टीलों पर नील गायों और मृगों के समूह धमाचौकड़ी मचाये रखते थे। गर्मियों में शाम के समय जब किसी तरफ से आंधी चलती थी तो आंधी के आगे आगे मृगों का समूह छलांगे मारता दौड़ता। गर्मियों में दोपहर को बेहद गर्मी पड़ती पर रात में रेते के ठण्डे हो जाने से ठण्ड हो जाती थी। वैसे तो कोठी के पास से कोई बड़ा रास्ता नहीं था। बस, यही डिफेंस रोड था जिस पर आम ट्रैफिक कम ही चलता था। डिफेंस रोड से नहर की पटरी पड़कर कोठी पहुँचा जा सकता था। आम लोग इधर से नहीं गुजरते थे। गर्मियों में माली कोठी की सफाई करवा कर पानी का छिड़काव कर देता। दरख्तों की छांव और बहते ठण्डे पानी के कारण वातावरण कुछ ठण्डा रहता। ज्यों ज्यों दिन बीतने के बाद शाम होने लगती तो चारों तरफ का वातावरण शान्त होने लगता। सूरज डूबने के वक्त आस पास पंछी चहकते, मोर नृत्य करते, दूर मृग चूंघे भरते, स्वानी तीतर बोलते, छोटी छोटी उड़ाने भरते तो माहौल और भी मनमोहन हो उठता।
बहुत से शहरी बाबुओं का यहाँ दिल नहीं लगता। उनके लिए तो यह उजाड़ जगह थी। पर सुखचैन जैसे ही यहाँ स्थानांतरित होकर आया तो उसे लगा मानो उसकी ज़िन्दगी ही बदल गई हो। उसके मन में किसी ऐसी ही जगह नौकरी करने की ख्वाहिश थी। वह गाँव का जमा-पला था और ऐसी जगह पर रह कर खुश था। उसने बहुत जल्द यहाँ के माहौल को अपना लिया। बड़ी जल्दी आस पास के लोगों से ताअल्लुक बना लिए। बड़े बड़े जमींदार कोठी पर आने लगे। उसका मिलनसार स्वभाव और काम करने का ढंग जल्द ही लोगों में मशहूर हो गया। यह नहरी कोठी शायद नहर निकलने के समय की बनी हुई थी। उन ज़मानों में अंग्रेज अफ़सर दौरों पर निकलते तो इन रेस्ट हाउसों में ही ठहरते थे। समय के साथ साथ माहौल बदल गए थे। आज कल इस रतनगढ़ रेस्ट हाउस में कोई नहीं ठहरता था। इधर तो कई नए अफ़सर आते आते ही राह में गुम हो जाते थे। बहुत से उजाड़ बियाबान होने के कारण पल भर भी नहीं रुकते थे। महकमे वालों के लिए नहरी कोठी, रतनगढ़ रेतीली धरती के कुएं की भांति भूली-बिसरी जगह थी। बाहरवालों या नए लोगों के लिए यह बेशक उजाड़ जगह थी पर यहाँ की शान्त ज़िन्दगी के बारे में तो यहाँ रहने वाले ही जानते थे। सुखचैन के लिए तो यह धरती पर किसी स्वर्ग से कम नहीं थी।
ये बातें बहुत पुरानी हैं। उन दिनों सुखचैन की उम्र तेरह-चौदह बरस की थी। वह गाँव के स्कूल में पढ़ता था। स्कूल बन्द होने के बाद वह अपने हमउम्र लड़कों के समूह के साथ नहर के पुल पर नहाने जाता था। यह नहर उनके गाँव के पास से गुजरती थी। पुल के पास पक्के घाट पर नहाना सुगम था। वे सारे बच्चे इकट्ठा होकर दोपहर के समय नहर में धमाचौकड़ी मचाते। वे खेल खेलते नहर के पुल पर से पानी में छलांगे लगाते। जब सारे बच्चे नहर में एकसाथ छलांग लगाते तो नहर का पानी उछल-उछल जाता। ऐसे अवसर पर जब कभी नहरी बाबू आ जाता तो सबकी शामत आ जाती। उसके आदमी छलांगें लगाते बच्चों को पकड़ने के लिए दौड़ते। बहुत से बच्चे भाग जाते पर कुछ पकड़े भी जाते। पकड़े गए बच्चों को नहर में ऊधम मचाने से रोकने के लिए बाबू उनकी डंडों से पिटाई करता। सुखचैन हमेशा पकड़े जाने वाले बच्चों में होता। उसे उस वक्त बहुत गुस्सा आता। वह मन ही मन बाबू को गालियाँ बकता। जैसे ही बाबू चला जाता तो वह बाबू की नौकरी पर रश्क करता। वह सोचता कि बाबू की कितनी शान है। नीचे बुलट मोटर साइकिल है। साथ में दो कारिन्दे हैं। जिसे चाहे पकड़ कर गिरा लेते हैं। कई बार वह खेत में घूम रहा होता। बाबू नहर की पटरी पर मोटर साइकिल पर गुजरता तो वह फिर बाबू के बारे में सोचने लग जाता कि कितनी बढ़िया नौकरी है। उस वक्त वह सोचता कि बाबू का काम बस नहर पर मोटर साइकिल दौड़ाते घूमना फिरना ही है। कई बार वह मन में सोचता कि काश वह भी बड़ा होकर नहरी बाबू बन सके। कई बार दो-चार महीनों बाद सुखचैन साइकिल पर अपने ननिहाल जाता। ननिहाल वाला गाँव नहर की पटरी पर साइकिल से घंटे भर का रास्ता था। रास्ते में नहरी कोठी जोधां आती थी। कोठी को दूर से देखते ही उसके मन में उत्साह सा जाग उठता। वह देखता कि नहर की पटरी से टेढ़े ढंग से काट कर बनाया गया रास्ता कोठी को जाता था। रास्ते के दोनों ओर फूल वाले पौधे चमक रहे होते। बाहर गेट पर बोर्ड लगा होता- 'नहरी विश्राम घर, जोधां।' पास से गुजरते हुए उसे अन्दर बड़ा सा रेस्ट हाउस दिखाई देता। आस पास दूसरे क्वार्टर दिखाई देते। रेस्ट हाउस के सामने बड़े चबूतरे पर कुर्सियाँ बिछी होतीं। दो चार लोग वहाँ बैठ कर बातें कर रहे होते। एक तरफ मोटर साइकिल और नहर विभाग की जीपें खड़ी होतीं। कहीं माली और वेलदार खाकी वर्दियाँ डाले सफाई कर रहे होते और पानी का छिड़काव कर रहे होते। उसे लगता कि सामने बैठे सभी लोग नहरी बाबू ही हैं। इस कोठी के सामने से गुजरते हुए उसके मन के अन्दर नहरी बाबू बने की ख्वाहिश अंगड़ाइयाँ लेने लगती। उसे लगता कि यह सबसे बढ़िया नौकरी है। जैसे जैसे वह बड़ा होता गया, उसकी यह ख्वाहिश तेज होती गई। फिर यह भी इत्तेफाक ही था कि उसे ओवरसियर के कोर्स में दाख़िला मिल गया। तीन साल का कोर्स करके वह ओवरसियर बन गया। पहले तो वह कुछ समय नहर के कंस्ट्रक्शन विभाग में काम करता रहा। फिर उस वक्त उसका नहरी बाबू बनने का सपना पूरा हो गया जब कंस्ट्रक्शन विभाग से उसकी बदली नहर के रनिंग विभाग में हो गई। वह नहरी कोठी, रतनगढ़ में ओवरसियर लग गया। हालांकि यह कोठी शहर से दूर उजाड़ और वीरान इलाके में पड़ती थी पर कुछ ही समय में वह यहाँ सैट हो गया। यह शान्त जगह उसे बहुत पसंद आई थी। उसकी रिहाइश इसी कोठी में थी। सारा समय वह अपने सेक्शन में ही रहता था। सेक्शन में भी बस चलती नहरों और रजबाहों की देखभाल करनी होती थी। अन्य कोई काम नहीं था। वहाँ आने के कुछ समय बाद ही नहर के आस पास की ढाणियों वाले जमींदारों से उसकी जान पहचान बनने लग पड़ी थी। कइयों से अच्छे दोस्ती वाले ताअल्लुकात भी बन गए थे। इस इलाके में अधिकांश आबादी चौधरी जाटों की थी। नहर के पास पड़ते एक गाँव कलेर का चौधरी अक्षय कुमार उसका अच्छा दोस्त बन गया था। चौधरी अक्षय कुमार की ढाणी नहर के ऊपर ही पड़ती थी। वह अपने इलाके की देखभाल करता। या फिर चौधरी अक्षय कुमार के साथ घूमता रहता। इस तरह नहरी कोठी, रतनगढ़ आने के बाद ज़िन्दगी की नई शुरूआत हो गई थी।
(जारी…)
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