Saturday, November 13, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (5)



'बलि' का सच
-तलविंदर सिंह(पंजाबी कथाकार)

पंजाब संकट धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं में से पैदा हुआ एक बहु-पेचीदा मसला था। इसे किसी एक रचना में रेखांकित करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। इसकी अनगिनत तहें हैं जिन्हें एक समाजशास्त्री दूसरी नज़र से खंगालने की कोशिश करेगा, एक राजनीतिज्ञ दूसरी तरह से, धार्मिक व्यक्ति अन्य तरह से और एक लेखक किसी और तरह से। अन्य पक्ष अपने विचारधारात्मक पैंतड़े में किसी न किसी एक वर्ग विशेष के साथ सहानुभूति या अनुकूल भावना की शिकार होती दिखाई देंगे, परन्तु लेखक की दृष्टि में हमेशा मानववादी सुर गूँजता सुनाई देगा। बेशक यह लेखक की सामर्थ्य, अध्ययन, ज्ञान और हुनर पर निर्भर करता है कि वह किसी मसले को कितनी प्रवीणता से स्पर्श करता है। पंजाब की संकटमयी गाथा को जितना कुछ गिने-चुने लेखकों ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के गहराई से समझा, जाना और पेश किया है, उनमें हमारा प्रवासी लेखक हरमहिंदर चहल एक है।
इसमें कोई शक नहीं कि लगभग डेढ़ दशक में पसरे इस संकट की जड़ें इतिहास के कई पृष्ठों में गहरी धंसी हुई नज़र आती हैं। इस समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को कई खोज पत्रों और गद्य के अन्य रूपों में पेश करने के सार्थक यत्न हुए है, पर एक रचना में इसके कुछ हिस्सों पर ही प्रकाश डाला जा सकता है। समय बीतने के साथ-साथ और विभिन्न प्रकार की प्रस्तुतियों को देखते, विचार करते हुए इस समस्या के कई पहलुओं को अधिक शिद्दत से प्रस्तुत करने की गुंजाइश बन गई है। हरमहिंदर चहल भी अपने उपन्यास ‘बलि’ में इस संकट को नये कोणों से देखने का यत्न करता है। यह उपन्यास पंजाब में व्याप्त अतिवाद की समस्या को न तो आदर्शित करने की कोई कोशिश करता है और न ही किसी एक पक्ष की सरदारी(प्रभुता) स्थापित करने में कोई रुचि दिखाता है। घटनाओं, स्थितियों और पात्रों को कलात्मक रंग चढ़ाकर पेश करने की जगह तर्कालीन क्रूरता को ज्यों-का-त्यों दर्शाता है। पाठक के लिए रोचकता परोसने की बजाय उसे सोचने के लिए विवश करता है और समय के सच से मिलाता है। नि:संदेह इस उपन्यास के कथानक में से गुजरते हुए कई खलनायकों के चेहरे और साफ़ हो कर दिखाई देने लगते है। मज़लूमों की पीड़ा और अधिक महसूस होने लगती है।
‘बलि’ पंजाबी उपन्यास जगत में किसी नायक को लेकर आने वाली कृति नहीं है। मुख्य पात्र गुरलाभ सिरे की खलनायकी से ओतप्रोत है और कदम-कदम पर संकट को गहराने में भूमिका निभाता चला जाता है। लूट-खसोट, क़त्ल, बलात्कार, वायदा-ख़िलाफ़ियाँ, गद्दारियाँ और मौका-परस्तियाँ उसके सहज व्यवहार के हिस्से हैं। वह वामपंथी दलों को लताड़ता धर्मयुद्ध के नाम तले खून का दरिया बहाता चला जाता है। उसे पालने वाले राजसी खिलाड़ी और अफ़सर मदारी हैं। मज़हब उसकी पीठ पर सवार है। उसका भविष्य रौशन है। ज़िन्दगी के कई द्वार खुले हैं। विशाल अम्बर और अनदेखे रस्ते उसे पनाह देने के लिए बुलाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिसके हाथ मज़लूमों के रक्त से सने हैं, माथा कालिख़ से पुता पड़ा है और रूह गुनाहों से दागदार हुई पड़ी है, वही साफ़ बरी कर दिया जाता है। हमारे फ़लसफ़ों में पड़ी ‘अन्त बुरे का बुरा’ वाली धारणा सामाजिक व्यवहारों में सच नहीं है। अमन-चैन से जीने वाले, नेकी करने वाले और सीधेसादे लोग ही बलि के बकरे बनते हैं। पंजाब संकट का यही सार-तत्व था। जिसने किया, उसने भोगा नहीं और जिसने कुछ नहीं किया, उसने नंगे बदन सबकुछ सहा।
यह कठोर हकीकत उपन्यास ‘बलि’ का सच भी है और हमारे आम जीवन का भी। सच कड़वा होता है, पर पंजाब के राजनैतिक, धार्मिक और प्रबंधकीय मंचों पर इसका बोलबाला देखा जा सकता है। अकेला गुरलाभ खलनायक नहीं, पंजाब में ज़हर के बूटे को पालने वाला हर दल खलनायकी किरदार वाला है। पंजाबियों ने इस डेढ़-दशक के अंधे युद्ध में बहुत कुछ गंवाया, लेकिन खलनायकी दलों ने बहुत कुछ कमाया, यही ‘बलि’ उपन्यास लिखने का प्रयोजन है। इस प्रयोजन को सोच-विचार कर लिखना बेहद जोख़िम भरा कार्य था। लेखक द्वारा रचना को ‘काल्पनिक’ घोषित करने के बावजूद न तो सच की क्रूरता छिपती है, न अतिवाद को हवा देने वाले खलनायक पहचाने जाने से वंचित रहते हैं। हरमहिंदर चहल ने लेखकीय धर्म को निभाया है जिसके लिए वह बधाई का हकदार है।
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Sunday, November 7, 2010

कहानी


एक और बलि
हरमहिंदर चहल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

बलराज ने मेन डैस्क से कार्ड बनवाया। फिर कैश काउंटर पर जाकर पैसे जमा करवाये। वापस जाकर मेन डैस्क पर रसीद दिखाई तो उसने शीशे वाले दरवाजे की ओर जाने का इशारा कर दिया। शीशे का दरवाजा खोलकर जैसे ही वह अन्दर घुसा तो उसका सामना सरू जैसी लम्बी नर्स से हुआ जो सिर से पैरों तक हुस्न की मूरत बनी खड़ी थी। भरपूर जवानी, सुन्दर मुखड़ा, प्यार भरे शब्दों से वह बलराज से मुखातिब हुई। उसने बताया कि वह ही है जिसने बलराज को अंटैंड करना है। बीमारी तो उसे कोई खास नहीं थी। बस, कुछ मामूली मसल पेन होने के कारण उसने पीठ की मसाज-सी करवानी थी।
बलराज की उम्र हालांकि चालीस के आसपास थी पर उसके गठे हुए शरीर और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण वह मुश्किल से तीस के करीब लगता था। नर्स ने अपनी ड्यूटी निभाई। मशीनों से करीब आधा घंटा मसाज की। कुछ और एक्सर्साइज करवाईं और कल पुन: आने को कहा। वैसे तो नर्सों और डाक्टरों का रोज़ ही हर प्रकार के लोगों से वास्ता पड़ता है, पर पता नहीं नर्स को वह कुछ अपना-अपना-सा लगा। उधर बलराज के भी उसकी शरबती आँखें अन्दर गहरे तक उतर गई थीं। वह कोई न कोई बातचीत करना चाहता था पर झिझक-सी में चुप ही रहा।
बलराज कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका से आया था। उसके भाई का एक्सीडेंट हो गया था। वह तुरन्त टिकट लेकर इंडिया पहुँचा था। दिल्ली से सीधा दयानंद अस्पताल, लुधियाना आया था। कुछेक दिन तो खूब दौड़धूप रही। उसका भाई भी बहुत मुश्किल में से गुजरा। हफ्ते भर बाद सारे खतरे टल गए और उसके भाई को कॉमन वार्ड में भेज दिया गया। अब बलराज खाली था। वह दिन भर इधर-उधर घूमता फिरता रहता। फिर उसे ख़याल आया कि अब अस्पताल में तो रहना ही है क्यों न खुद को भी डॉक्टर से चैकअप करवा ले। पिछले कई महीनों से उसकी पीठ में दर्द रहता था। पर अमेरिका की भागदौड़ की ज़िन्दगी में वह यूँ ही चैकअप को टालता आ रहा था। डॉक्टर ने एक्सरे करके उसे फिजोथरैपी विभाग में भेज दिया। आगे उसकी इस नर्स से मुलाकात हो गई।
दूसरे दिन दोनों एक-दूसरे को हँस कर मिले। नर्स ने अपने बारे में बताते हुए कहा कि उसका नाम डिम्पल है। वे तीन बहनें और एक भाई हैं। भाई छोटा है और कमाने वाला अकेला पिता है। वह नौकरी करती है और साथ ही साथ पढ़ाई भी कर रही है। घरवालों के ज़ोर देने के बावजूद वह चाहती है कि कोई अच्छी डिग्री हासिल करके ही अपनी ज़िन्दगी शुरू करे। मतलब वह अभी तक अकेली थी। माँ-बाप के संग रह रही थी। उधर बलराज ने भी अपने विषय में काफी कुछ बताया कि वह अमेरिका में सैटिल है और उसका अपना बिज़नेस है। ऐसी बातें करते हुए दूसरा दिन भी गुजर गया। डिम्पल उसकी घरेलू ज़िन्दगी के बारे में चाहते हुए भी कुछ न पूछ सकी। वैसे पता नहीं क्यों वह बलराज की तरफ खिंचती जा रही थी। शायद बलराज का भी यही हाल था। उसके चले जाने के बाद भी डिम्पल उसी के बारे में सोचती रही।
तीसरे दिन डिम्पल उसकी पहले से ही प्रतीक्षा कर रही थी। वह बार-बार हॉल की तरफ देखती। बलराज आज कुछ लेट हो गया था। आखिर उसने कोने वाली खिड़की में से बलराज को अन्दर आते हुए देखा। वह टकटकी लगाकर सजे-संवरे बलराज को सिर से लेकर पैरों तक निहारती रही। डिम्पल की देह में झनझनाहट-सी छिड़ी और दिल में कोई मिठास-सी घुल गई। बलराज ने भी करीब आकर ‘हैलो’ करते हुए डिम्पल के चेहरे की खुशी पढ़ ली। उसने बलराज को ऊँचे बैड पर उलटा लिटा दिया और मशीन चालू कर दी। डिम्पल मशीन से मसाज कर रही थी और साथ ही, दोनों छोटी-छोटी बातें किए जा रहे थे। इन दो-तीन दिनों में ही बलराज ने भांप लिया था कि मछली तो फुदकती फिरती है, बस जाल फेंकने की देर है। वह अपनी तीन हफ्ते की शेष बची छुट्टियों को रंगीन बनाना चाहता था। यही कारण था कि वह आज विशेष तौर पर बन-ठन कर आया था। वह चल रही बातों के बीच सोच रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए। यही हाल डिम्पल का था। बलराज की मुश्किल आसान हो गई जब डिम्पल ने मन कड़ा करके उसके विषय में पूछा, ''बलराज, तुम्हारे परिवार में कौन कौन है ?''
बलराज उलटा लेटे-लेटे एक कुटिल हँसी हँसा, पर बोला कुछ नहीं।
''तुमने तो हँसकर बात टाल दी। प्लीज़, बताओ न अपने परिवार के बारे में।'' डिम्पल ने पुन: पूछा।
''वो मैडम जी, हमारी तो वो बात है कि लंडा चिड़ा पहाड़ों का साथी। बस, अकेले-इकहरे हैं। न शादी, न मंगनी, परिवार कहाँ से होना था।'' बलराज ने बड़ी चतुराई से जाल फेंक दिया।
इतना सुनते ही डिम्पल का दिल बागोबाग हो उठा। शायद, वह यही सुनना चाहती थी।
''पर तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं करवाया ?'' डिम्पल कोई भ्रम नहीं छोड़ना चाहती थी।
''आज तक लड़की मिली ही नहीं। बस, करवा लेंगे जब तुम्हारे जैसी कोई हुस्नपरी मिल गई।'' इतना कहते हुए बलराज मन ही मन सोच गया कि आ फंसी मछली जाल में। इतना सुनते ही डिम्पल के दिल में गुदगुदाहट हुई और उसने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए मशीन बन्द कर दी।
कमीज पहनते हुए बलराज बोला, ''डिम्पल जी, क्यों न तुम्हारी ड्यूटी के बाद किसी नज़दीक के रेस्ट्रोरेंट में बैठकर कुछ खुलकर बातें करें। सच पूछो तो पहली बार मुझे तुम्हारे जैसी नेकदिल लड़की मिली है।''
डिम्पल ने तुरन्त हामी भर दी। उसके कोमल और साफ़ दिल में शायद बलराज के लिए प्यार अंकुरित होना शुरू हो गया था।
उसी शाम वह नज़दीक के रेस्ट्रोरेंट में मिले। बलराज शराफत का चोगा पहने डिम्पल की नज़रों में एक शरीफ़ और अच्छा इन्सान होने का ढोंग कर रहा था। उधर डिम्पल के दिल में पल-पल बलराज के लिए बढ़ रहा प्यार इस ढोंग को पहचानने के काबिल ही नहीं रहा था। भरी जवान उम्र, पहला प्यार और फिर ऊपर से अमेरिका की चमक, इन बातों ने डिम्पल की विचार शक्ति को ताले लगा दिए। अगले दिन वे किसी पॉर्क में मिले। इस प्रकार बढ़ती मुलाकातों ने चारेक दिनों में दोनों को एक-दूजे के निकट ला दिया। डिम्पल को तो लगता था कि जैसे कोई वर्षों का साथ हो। बलराज ने तो साफ़ ही कह दिया था कि वह तो बहुत दिनों से उस जैसी जीवन-साथी की तलाश में था।
फिर, बलराज ने अगला पत्ता फेंका, ''डिम्पल, हम किसी होटल में इकट्ठे रात बितायें।''
''न न बलराज, विवाह से पहले यह कैसे हो सकता है ?'' डिम्पल ने कानों को हाथ लगाया।
''देख डिम्पल, बस महीने भर की बात है, फिर तूने मेरे संग अमेरिका चले जाना है। वहाँ अपना विवाह भी हो जाएगा। और फिर, अमेरिका में तो विवाह से पहले रात इकट्ठे गुजारना कोई खास बात नहीं।''
''नहीं बलराज, मैं तो इस तरह सोच भी नहीं सकती।'' डिम्पल के दिल के किसी कोने से भारतीय नारी बोली।
''फिर अब ?'' इतना कहकर बलराज चुप हो गया।
उसकी चुप ने डिम्पल को दुविधा में डाल दिया। न वह आगे बढ़ सकती है और न ही पीछे हटना चाहती है। यदि वह बलराज की इच्छानुसार नहीं चलती तो उसे लगता है कि कहीं उसका प्यार और अमेरिका ही न हाथ से निकल जाए। बलराज की मर्जी के मुताबिक उसको उसका नारीमन नहीं चलने देता। आखिर उसे एक उपाय सूझा।
''बलराज, हम पहले विवाह क्यों न करवा लें ?''
बलराज ऐसे चौंका जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। अपनी घबराहट को नियंत्रित करता वह बोला, ''वह तो ठीक है पर...'' उसने फिर लम्बी चुप धारण कर ली। मन ही मन वह सोचने लगा कि अब कौन-सा पत्ता खेला जाए। उसे अगला राह भी डिम्पल ने ही दिखाया।
''बलराज, हम मेरे घरवालों के पास चलते हैं और इस विवाह की बात तुम उनसे कर लो।''
बलराज सहमत हो गया।
डिम्पल के घर जाते हुए वह कोई न कोई रास्ता खोजता रहा। डिम्पल ने ही अपने माँ-बाप को इस मुलाकात के बारे में बताया और आगे विवाह वाली समस्या भी बताई। सयाने माँ-बाप ने बलराज से उसके परिवार के विषय में पूछा तो वह सोचे-समझे ढंग से उनकी तसल्ली करवाता गया।
''आंटी, परिवार तो हमारा सारा बाहर है। सब रिश्तेदार भी बाहर ही हैं। मैं तो पंजाब आया ही इसलिए हूँ क्योंकि मैं इधर की जन्मी-पली किसी लड़की से शादी करवाना चाहता था। बस, डिम्पल तो मुझे ऐसे मिली जैसे पिछले जन्म का कोई मेल हो।''
''फिर बेटा, तुम डिम्पल का वीज़ा लगवा लो और उधर जाकर शादी कर लो।''
''नहीं जी, इधर शादी करे बिना वीज़ा नहीं मिलेगा। मेरी छुट्टी भी कम ही रहती है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि इधर विवाह की आम-सी रस्म कर लें और फिर वीज़ा लगवाकर डिम्पल को मैं साथ ही ले जाऊँ।'' इतना कहकर वह डिम्पल की ओर देखने लगा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह डिम्पल की पहले विवाह वाली बात कैसे पूरी करे।
''बेटा, आम रस्म से तुम्हारा मतलब ?'' डिम्पल की माँ ने फिर पूछा।
''देखो जी, असली तरीके से विवाह तो उधर मेरे परिवार में सारी रस्मों के मुताबिक ही होगा। इधर हम यहीं अपने घर ही एक-दूसरे को हार डालकर विवाह कर लेते हैं। फिर इसे कचहरी में दर्ज़ कराकर मैं डिम्पल के वीज़े के लिए अप्लाई कर दूँगा।''
डिम्पल के माँ-बाप ने एकतरफ होकर विचार-विमर्श किया। उन्हें इस बात का भय था कि कोई जान-पहचान नहीं है। कोई इसका इधर रिश्तेदार भी नहीं था। दूसरी ओर वे सोचते थे कि लड़की अगर अमेरिका चली गई तो सारे परिवार का उधर जाने का रास्ता आसान हो जाएगा। उन्हें डिम्पल की बलराज के सामने रखी पहले विवाह वाली शर्त का कोई इल्म नहीं था। आखिर, वे मान गए।
वैसे बलराज ने घरवालों का मुँह भी बन्द कर दिया, ''आंटी, जब तक मैं डिम्पल को लेकर अमेरिका नहीं पहुँचता, आप इस विवाह के बारे में किसी को न बताना। यूँ ही कोई एम्बेसी पहुँचकर किसी किस्म का कोई अड़ंगा लगा दे। ज़माना खराब है। कौन किसी को सुखी देखना सहन करता है।''
डिम्पल के माँ-बाप ने मन ही मन में उसकी समझदारी की दाद दी।
बलराज की सारी योजनाएँ अपने आप ही पूरी हो गईं। वह डिम्पल को लेकर दिल्ली एम्बेसी का चक्कर लगा आया। वापस आकर वह डिम्पल के घर ही रहने लगा। घरवालों ने बलराज को होटल में रहने से मना करते हुए उसे घर में ही एक अलग कमरा रहने के लिए दे दिया। तीनेक हफ्ते वह वहीं रहा। दिन में मसाज करवाने हर रोज़ जाता। फिर वे घूमते-फिरते और नये विवाहित युगल की भाँति मौज-मस्ती करते।
फिर वह एक दिन दिल्ली एम्बेसी डिम्पल के वीज़े का पता करने चल दिया। अकेला ही गया क्योंकि शाम को तो लौट आना था। सभी देर तक उसकी प्रतीक्षा करते रहे। फिर सोचने लगे, शायद लेट हो जाने के कारण वहाँ रुकना पड़ गया होगा। लेकिन वह अगले रोज़ भी न आया। डिम्पल उसका कहाँ पता करे। न कोई फोन नंबर और न ही अन्य कोई पहुँच का साधन। तीन दिन गुजर गए। उसका कोई अता-पता नहीं था। डिम्पल का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। वह सोचती कि कहीं एक्सीडेंट या अन्य कोई बुरी घटना न घट गई हो। वह सारा दिन बुझे मन से फिजोथरैपी डिपार्टमेंट में काम करती थी। उसका ध्यान बार-बार गेट की तरफ जाता था। उसकी नज़रें हर तरफ़ बलराज को तलाशती रहती थीं। चौथे दिन जब दो जने एक मरीज़ को व्हील-स्ट्रेचर पर लेकर उसके केबिन की ओर आए तो वह खुशी और हैरानी-सी में उस तरफ लपकी। उसे लगा जैसे यह बलराज हो। पर यह बलराज नहीं था। वैसे शक्ल हू-ब-हू उससे मिलती थी।
''आप बलराज को जानते हैं ?'' उसने करीब होकर पूछा।
''हाँ मैडम, वह मेरा भाई है। महीनाभर पहले वह मेरा एक्सीडेंट होने के कारण अमेरिका से मेरा पता करने आया था।''
''पर अब वह है कहाँ ?'' डिम्पल ने काँपते स्वर में पूछा।
''उसकी पत्नी का फोन आया था कि उसकी बेटी बीमार है और वह खड़े पाँव ही वापस अमेरिका लौट गया।''
''वह तो कहता था कि मेरा कोई परिवार नहीं। फिर यह पत्नी-बेटी ?'' डिम्पल गिरती-ढहती हाथों में सिर थामकर वहीं बैठ गई और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, ''हाय री माँ... मैं लुट गई री !''
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