'बलि' का सच
-तलविंदर सिंह(पंजाबी कथाकार)
पंजाब संकट धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं में से पैदा हुआ एक बहु-पेचीदा मसला था। इसे किसी एक रचना में रेखांकित करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। इसकी अनगिनत तहें हैं जिन्हें एक समाजशास्त्री दूसरी नज़र से खंगालने की कोशिश करेगा, एक राजनीतिज्ञ दूसरी तरह से, धार्मिक व्यक्ति अन्य तरह से और एक लेखक किसी और तरह से। अन्य पक्ष अपने विचारधारात्मक पैंतड़े में किसी न किसी एक वर्ग विशेष के साथ सहानुभूति या अनुकूल भावना की शिकार होती दिखाई देंगे, परन्तु लेखक की दृष्टि में हमेशा मानववादी सुर गूँजता सुनाई देगा। बेशक यह लेखक की सामर्थ्य, अध्ययन, ज्ञान और हुनर पर निर्भर करता है कि वह किसी मसले को कितनी प्रवीणता से स्पर्श करता है। पंजाब की संकटमयी गाथा को जितना कुछ गिने-चुने लेखकों ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के गहराई से समझा, जाना और पेश किया है, उनमें हमारा प्रवासी लेखक हरमहिंदर चहल एक है।
इसमें कोई शक नहीं कि लगभग डेढ़ दशक में पसरे इस संकट की जड़ें इतिहास के कई पृष्ठों में गहरी धंसी हुई नज़र आती हैं। इस समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को कई खोज पत्रों और गद्य के अन्य रूपों में पेश करने के सार्थक यत्न हुए है, पर एक रचना में इसके कुछ हिस्सों पर ही प्रकाश डाला जा सकता है। समय बीतने के साथ-साथ और विभिन्न प्रकार की प्रस्तुतियों को देखते, विचार करते हुए इस समस्या के कई पहलुओं को अधिक शिद्दत से प्रस्तुत करने की गुंजाइश बन गई है। हरमहिंदर चहल भी अपने उपन्यास ‘बलि’ में इस संकट को नये कोणों से देखने का यत्न करता है। यह उपन्यास पंजाब में व्याप्त अतिवाद की समस्या को न तो आदर्शित करने की कोई कोशिश करता है और न ही किसी एक पक्ष की सरदारी(प्रभुता) स्थापित करने में कोई रुचि दिखाता है। घटनाओं, स्थितियों और पात्रों को कलात्मक रंग चढ़ाकर पेश करने की जगह तर्कालीन क्रूरता को ज्यों-का-त्यों दर्शाता है। पाठक के लिए रोचकता परोसने की बजाय उसे सोचने के लिए विवश करता है और समय के सच से मिलाता है। नि:संदेह इस उपन्यास के कथानक में से गुजरते हुए कई खलनायकों के चेहरे और साफ़ हो कर दिखाई देने लगते है। मज़लूमों की पीड़ा और अधिक महसूस होने लगती है।
‘बलि’ पंजाबी उपन्यास जगत में किसी नायक को लेकर आने वाली कृति नहीं है। मुख्य पात्र गुरलाभ सिरे की खलनायकी से ओतप्रोत है और कदम-कदम पर संकट को गहराने में भूमिका निभाता चला जाता है। लूट-खसोट, क़त्ल, बलात्कार, वायदा-ख़िलाफ़ियाँ, गद्दारियाँ और मौका-परस्तियाँ उसके सहज व्यवहार के हिस्से हैं। वह वामपंथी दलों को लताड़ता धर्मयुद्ध के नाम तले खून का दरिया बहाता चला जाता है। उसे पालने वाले राजसी खिलाड़ी और अफ़सर मदारी हैं। मज़हब उसकी पीठ पर सवार है। उसका भविष्य रौशन है। ज़िन्दगी के कई द्वार खुले हैं। विशाल अम्बर और अनदेखे रस्ते उसे पनाह देने के लिए बुलाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिसके हाथ मज़लूमों के रक्त से सने हैं, माथा कालिख़ से पुता पड़ा है और रूह गुनाहों से दागदार हुई पड़ी है, वही साफ़ बरी कर दिया जाता है। हमारे फ़लसफ़ों में पड़ी ‘अन्त बुरे का बुरा’ वाली धारणा सामाजिक व्यवहारों में सच नहीं है। अमन-चैन से जीने वाले, नेकी करने वाले और सीधेसादे लोग ही बलि के बकरे बनते हैं। पंजाब संकट का यही सार-तत्व था। जिसने किया, उसने भोगा नहीं और जिसने कुछ नहीं किया, उसने नंगे बदन सबकुछ सहा।
यह कठोर हकीकत उपन्यास ‘बलि’ का सच भी है और हमारे आम जीवन का भी। सच कड़वा होता है, पर पंजाब के राजनैतिक, धार्मिक और प्रबंधकीय मंचों पर इसका बोलबाला देखा जा सकता है। अकेला गुरलाभ खलनायक नहीं, पंजाब में ज़हर के बूटे को पालने वाला हर दल खलनायकी किरदार वाला है। पंजाबियों ने इस डेढ़-दशक के अंधे युद्ध में बहुत कुछ गंवाया, लेकिन खलनायकी दलों ने बहुत कुछ कमाया, यही ‘बलि’ उपन्यास लिखने का प्रयोजन है। इस प्रयोजन को सोच-विचार कर लिखना बेहद जोख़िम भरा कार्य था। लेखक द्वारा रचना को ‘काल्पनिक’ घोषित करने के बावजूद न तो सच की क्रूरता छिपती है, न अतिवाद को हवा देने वाले खलनायक पहचाने जाने से वंचित रहते हैं। हरमहिंदर चहल ने लेखकीय धर्म को निभाया है जिसके लिए वह बधाई का हकदार है।
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-तलविंदर सिंह(पंजाबी कथाकार)
पंजाब संकट धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं में से पैदा हुआ एक बहु-पेचीदा मसला था। इसे किसी एक रचना में रेखांकित करना बहुत चुनौतीपूर्ण है। इसकी अनगिनत तहें हैं जिन्हें एक समाजशास्त्री दूसरी नज़र से खंगालने की कोशिश करेगा, एक राजनीतिज्ञ दूसरी तरह से, धार्मिक व्यक्ति अन्य तरह से और एक लेखक किसी और तरह से। अन्य पक्ष अपने विचारधारात्मक पैंतड़े में किसी न किसी एक वर्ग विशेष के साथ सहानुभूति या अनुकूल भावना की शिकार होती दिखाई देंगे, परन्तु लेखक की दृष्टि में हमेशा मानववादी सुर गूँजता सुनाई देगा। बेशक यह लेखक की सामर्थ्य, अध्ययन, ज्ञान और हुनर पर निर्भर करता है कि वह किसी मसले को कितनी प्रवीणता से स्पर्श करता है। पंजाब की संकटमयी गाथा को जितना कुछ गिने-चुने लेखकों ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के गहराई से समझा, जाना और पेश किया है, उनमें हमारा प्रवासी लेखक हरमहिंदर चहल एक है।
इसमें कोई शक नहीं कि लगभग डेढ़ दशक में पसरे इस संकट की जड़ें इतिहास के कई पृष्ठों में गहरी धंसी हुई नज़र आती हैं। इस समस्या के भिन्न-भिन्न पहलुओं को कई खोज पत्रों और गद्य के अन्य रूपों में पेश करने के सार्थक यत्न हुए है, पर एक रचना में इसके कुछ हिस्सों पर ही प्रकाश डाला जा सकता है। समय बीतने के साथ-साथ और विभिन्न प्रकार की प्रस्तुतियों को देखते, विचार करते हुए इस समस्या के कई पहलुओं को अधिक शिद्दत से प्रस्तुत करने की गुंजाइश बन गई है। हरमहिंदर चहल भी अपने उपन्यास ‘बलि’ में इस संकट को नये कोणों से देखने का यत्न करता है। यह उपन्यास पंजाब में व्याप्त अतिवाद की समस्या को न तो आदर्शित करने की कोई कोशिश करता है और न ही किसी एक पक्ष की सरदारी(प्रभुता) स्थापित करने में कोई रुचि दिखाता है। घटनाओं, स्थितियों और पात्रों को कलात्मक रंग चढ़ाकर पेश करने की जगह तर्कालीन क्रूरता को ज्यों-का-त्यों दर्शाता है। पाठक के लिए रोचकता परोसने की बजाय उसे सोचने के लिए विवश करता है और समय के सच से मिलाता है। नि:संदेह इस उपन्यास के कथानक में से गुजरते हुए कई खलनायकों के चेहरे और साफ़ हो कर दिखाई देने लगते है। मज़लूमों की पीड़ा और अधिक महसूस होने लगती है।
‘बलि’ पंजाबी उपन्यास जगत में किसी नायक को लेकर आने वाली कृति नहीं है। मुख्य पात्र गुरलाभ सिरे की खलनायकी से ओतप्रोत है और कदम-कदम पर संकट को गहराने में भूमिका निभाता चला जाता है। लूट-खसोट, क़त्ल, बलात्कार, वायदा-ख़िलाफ़ियाँ, गद्दारियाँ और मौका-परस्तियाँ उसके सहज व्यवहार के हिस्से हैं। वह वामपंथी दलों को लताड़ता धर्मयुद्ध के नाम तले खून का दरिया बहाता चला जाता है। उसे पालने वाले राजसी खिलाड़ी और अफ़सर मदारी हैं। मज़हब उसकी पीठ पर सवार है। उसका भविष्य रौशन है। ज़िन्दगी के कई द्वार खुले हैं। विशाल अम्बर और अनदेखे रस्ते उसे पनाह देने के लिए बुलाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि जिसके हाथ मज़लूमों के रक्त से सने हैं, माथा कालिख़ से पुता पड़ा है और रूह गुनाहों से दागदार हुई पड़ी है, वही साफ़ बरी कर दिया जाता है। हमारे फ़लसफ़ों में पड़ी ‘अन्त बुरे का बुरा’ वाली धारणा सामाजिक व्यवहारों में सच नहीं है। अमन-चैन से जीने वाले, नेकी करने वाले और सीधेसादे लोग ही बलि के बकरे बनते हैं। पंजाब संकट का यही सार-तत्व था। जिसने किया, उसने भोगा नहीं और जिसने कुछ नहीं किया, उसने नंगे बदन सबकुछ सहा।
यह कठोर हकीकत उपन्यास ‘बलि’ का सच भी है और हमारे आम जीवन का भी। सच कड़वा होता है, पर पंजाब के राजनैतिक, धार्मिक और प्रबंधकीय मंचों पर इसका बोलबाला देखा जा सकता है। अकेला गुरलाभ खलनायक नहीं, पंजाब में ज़हर के बूटे को पालने वाला हर दल खलनायकी किरदार वाला है। पंजाबियों ने इस डेढ़-दशक के अंधे युद्ध में बहुत कुछ गंवाया, लेकिन खलनायकी दलों ने बहुत कुछ कमाया, यही ‘बलि’ उपन्यास लिखने का प्रयोजन है। इस प्रयोजन को सोच-विचार कर लिखना बेहद जोख़िम भरा कार्य था। लेखक द्वारा रचना को ‘काल्पनिक’ घोषित करने के बावजूद न तो सच की क्रूरता छिपती है, न अतिवाद को हवा देने वाले खलनायक पहचाने जाने से वंचित रहते हैं। हरमहिंदर चहल ने लेखकीय धर्म को निभाया है जिसके लिए वह बधाई का हकदार है।
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