Sunday, May 23, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 11(प्रथम भाग)

एस.एस.पी. जमना दास वाले एक्शन ने खाड़कुओं का हाथ फिर ऊपर कर दिया था। जमना दास के नित्य के झूठे मुकाबलों ने खाड़कुओं को निराश कर दिया था। इतने बड़े अफसर को उसके ही दफ्तर में खत्म करके खाड़कुओं ने अपनी धाक जमा दी थी। अब खाड़कुओं के एक्शन फिर बढ़ने लगे थे। गमदूर के संगठन 'कमांडो फोर्स' में नए लड़के धड़ाधड़ आ रहे थे। सब चढ़ती कला में थे। अब किसी चीज़ की फिक्र नहीं थी, पर हथियारों की कमी बहुत महसूस हो रही थी। पिछले चक्कर में कमांडो फोर्स हथियार नहीं खरीद सकी थी। कमांडो फोर्स के पास पूरे पैसे नहीं थे। लेकिन अगले चक्कर में गमदूर हर हालत में हथियार खरीदना चाहता था। पैसों के प्रबंध के लिए एक अलग किस्म का एक्शन उसके दिमाग में आ चुका था। उसे अभी तक यह पक्के तौर पर पता नहीं लग सका था कि अगली सप्लाई कब तक आ रही थी। वह उसी हिसाब से अपना एक्शन करना चाहता था। गमदूर ने महिंदर को किसी गुप्त स्थान पर भेज रखा था जहाँ उसने आने वाली हथियारों की सप्लाई के बारे में बात करनी थी। बाहर पदचाप सुनकर गमदूर सावधान हो गया। महिंदर आहिस्ता से दरवाजा खोल कर पास रखी कुर्सी पर आ बैठा। गमदूर महिंदर के मुँह से कुछ सुनने को उतावला था।
''कैसे ? कोई बात बनी ?'' गमदूर ने स्वयं ही पूछ लिया।
''हाँ, बात तो हो गई, पर साला रौब यूँ झाड़ता है जैसे कि हम उसके गुलाम हों।''
''किसकी बात करता है तू ?'' गमदूर थोड़ा हैरान हुआ।
''अरे, उसी साले कर्नल महिताब अली की...।''
''क्यों, क्या कहता है ?''
''कहता है, तुमने पिछली बार हथियार नहीं खरीदे। अब आगे मैं तुम्हारा एतबार कैसे करूँ।''
''एतबार तो उसका बाप भी करेगा।'' गमदूर का चेहरा थोड़ा सख्त हो गया।
''वह क्यों भई ?'' महिंदर हल्का-सा मुस्कराया।
''जैसे हथियार खरीदना हमारी ज़रूरत है, वैसे ही हथियार बेचना उनकी भी ज़रूरत है।''
''तेरा मतलब है पैसे कमाने के लिए ?''
''अरे नहीं, पैसा इतने बड़े पाकिस्तान के लिए क्या चीज़ है।''
''और फिर उनकी कौन सी ज़रूरत हुई ?'' महिंदर के चेहरे पर सवाल उतरा।
''दरअसल उनका भी एक एजेंडा है। अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वह हमारी लहर को इस्तेमाल करना चाहते हैं।''
''तेरा मतलब है, वे हमारे सच्चे हमदर्द नहीं हैं ?''
''नहीं, दरअसल वह तो हिंदुस्तान की चीरफाड़ करके बंगलादेश वाला हिसाब चुकता करना चाहता है।''
''फिर...?''
''फिर क्या ! हमें इस वक्त किसी भी बाहरी शक्ति की बहुत ज्यादा ज़रूरत है। किसी के मन में जो चाहे हो, पर हमें हर किस्म की बाहरी मदद को अपनी लहर के लिए इस्तेमाल करना है। दूसरा कोई राह भी तो नहीं।''
''यह तो वह बात हो गई कि खरगोश अपने दाव को और कुत्ता अपने दाव को।'' महिंदर हँसा।
''इससे बड़ी सच्चाई क्या हो सकती है कि जिनके साथ अपना जन्म-जन्मांतरों का वैर है, वही आज दरियादिली दिखाते हुए हमें यह जता रहे हैं कि हम ही तुम्हारे सबसे बड़े हमदर्द हैं।'' गमदूर अपनी ही रौ में बोला।
''चल, वे जो चाहे समझें, पर हम तो सबकुछ जानते ही हैं न।'' महिंदर ने तसल्ली-सी में सिर हिलाया।
''यह कहा तो बहुत कहा, हम तो सवेर-शाम ऐलान करते हैं कि कोई किसी को राज नहीं देता या दिलाता, राज तो अपने हाथों लेना पड़ता है।''
''मैं कहता हूँ, बात ही कोई नहीं, राज तो हम छाती के ज़ोर पर ले लेंगे।'' महिंदर जोश में उठ खड़ा हुआ।
''ले, बात तो वहीं रह गई। फिर फैसला क्या हुआ ?'' गमदूर कर्नल महिताब अली की हथियार सप्लाई वाली बात पर लौट आया।
''उसने भाई अब टाइम दिया है तीन हफ्तों का। कहता है, पैसे जल्दी भेजो क्योंकि अगली सप्लाई तीन हफ्तों बाद आनी है।''
''तीन हफ्ते...।'' गमदूर ने मन में हिसाब-किताब-सा लगाया। उसे ख़याल आया कि तब तक तो उसका सोचा हुआ एक्शन पूरा हो जाएगा और उसे पैसे पहुँचा दिए जाएँगे।
''वह साला बौना है बड़ा तेज।'' महिंदर फिर बोला।
''कौन ?''
''अरे, वही कर्नल महिताब अली और कौन ।''
''तूने उसे कब देखा ?'' गमदूर अभी भी महिंदर की ओर हैरानी से देखे जा रहा था।
''वो लाहौर के पश्चिम की तरफ एक ट्रेनिंग कैम्प नहीं, क्या नाम है उसका। हाँ सच, कोटली कैम्प। मैं भी रहा हूँ वहाँ कुछ समय।'' इसके बाद दोनों में से कोई भी इस मसले पर नहीं बोला।
''अरे हाँ, आज तो मीटिंग है।'' गमदूर ने बात का रुख बदला।
''कहाँ ?''
''डिप्लोमा वाले हॉस्टल में।''
''चल फिर चलें। देर किस बात की।'' गमदूर और महिंदर ने बाहर आकर ऑटो लिया और डिप्लोमा वाले हॉस्टल की तरफ चल पड़े।
सभी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछेक इधर-उधर की बातों के बाद मीटिंग की कार्रवाई शुरू हो गई। मीटिंग आरंभ हुए बमुश्किल दसेक मिनट हुए होंगे कि नाहर बाहर से तेजी से अन्दर आया और उसने गमदूर के कान में कुछ कहा। गमदूर के चेहरे पर घबराहट आ गई।
''सभी ध्यान से सुनो।'' गमदूर ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा।
''अन्दर से ख़बर मिली है कि जानकी दास के केस के समय जो बसवाला एक्शन किया था, उसमें कुछ गड़बड़ हो गई। बस एक्शन वाली जगह से पुलिस को डिप्लोमा वाले इस हॉस्टल के बारे में कोई कागज-पत्र मिला है। अब समझो, पुलिस इस हॉस्टल को घेरेगी। तुम सब यहाँ से तितर-बितर हो जाओ। तीन दिन बाद एक नंबर कोठी में मिलूँगा।''
गमदूर की बात सुनते ही सभी लड़के पलछिन में हॉस्टल से निकल गए। दो-चार मिनट में ही सभी खाड़कू लड़के वहाँ से जा चुके थे।
सवेरे चार बजे हॉस्टलों पर पुलिस ने छापा मारा। डिप्लोमा वाला हॉस्टल और डिग्री के हॉस्टलों को पुलिस ने अच्छी तरह से घेर लिया। दिन चढ़े कालेज अथॉरिटी को संग लेकर हॉस्टलों की तलाशी शुरू हुई। किसी भी हॉस्टल में से कोई असला या हथियार नहीं मिला। जो लड़के हॉस्टलों में से गैर-हाज़िर थे, उनका क्या किया जाए। कमरों के अलॉटमेंट वाली लिस्ट लाई गई। उसके अनुसार जिस जिस कमरों के लड़के गैर हाज़िर मिले, पुलिस ने उनकी सूची बना ली। अधिक केस डिप्लोमा वाले हॉस्टल के ही थे। पुलिस ने कालेज अथॉरिटी से बात की तो कालेज अथॉरिटी ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया। फिर पुलिस ने अपने ढंग से इन्कुआरी की तो हॉस्टल में से गुरमीत, मीता, गुरलाभ, तेजा पंडित और अजैब पुलिस के शक के घेरे में आ गए। इसके अलावा पुलिस ने शक के आधार पर अन्य कई लड़कों को उठा लिया जिनमें बाबा बसंत भी था। उनका कई दिन तक टार्चर होता रहा। पर उनमें से कोई भी खाड़कुओं से संबंधित नहीं था। धीरे-धीरे वे सभी छूट गए पर बाबा बसंत का पंगा पड़ गया। उसकी सचाई और उसका मुँहफट होना ही उसकी दुश्मन बन गई।
''तेरी तो शक्ल ही खाड़कुओं जैसी है। बता, एक्शन कैसे किया था।'' उसे टार्चर करने वाला कोई गैरसिख अफ़सर था।
''देखो, मैं अपने गुरू का पक्का अमृतधारी सिक्ख हूँ। न मैं झूठ बोलता हूँ, न मुझे झूठ बोलने की ज़रूरत है। एक अमृतधारी सिक्ख न किसी को तकलीफ देता है, न चोरियां-डाके और कत्लेआम करता है। मुझे तुम्हारी बातों की कोई जानकारी नहीं।''
उस पर बहुत जुल्मोसितम हुआ। लेकिन न तो उसका किसी गलत काम से वास्ता था, न ही वह गलत व्यक्तियों को जानता था। उसका पूर्ण सिक्खी स्वरूप ही अफ़सर को उसका खाड़कु होना लगता था। आठ-दस दिन के टार्चर से वह तो मर ही चला था यदि उसके घरवाले बड़ी सिफारिशें लगाकर उसे न छुड़वाते। पुलिस की मार ने उसे चारपाई से लगा दिया।
उधर कमांडो फोर्स ने अपने पहले एक्शन को अंजाम दिया। एक ही रात में इलाके के पंद्रह-बीस डाकखानों को आग लगा दी। पुलिस हलकों में खलबली मच गई। उससे अगले हफ्ते ज़िले के अनेक रेलवे स्टेशनों को आग लगा दी। अगले दिनों में किसी न किसी बस को अगवा करके एक ही सम्प्रदाय के लोगों को गोलियों से भून दिया गया। पुलिस ने दिन रात एक कर दिया लेकिन पल्ले कुछ नहीं पड़ा। इन एक्शनों के बाद फिर नई कोठी में बैठक हुई। हॉस्टल में जाने का तो अब प्रश्न ही नहीं रहा था। यह कोठी भी पिछले दिनों गुरलाभ ने किराये पर ली थी। जिन लड़कों को पुलिस ने हॉस्टल से उठाकर टार्चर किया था, उनमें से आधे लड़कों को समझा-बुझा कर कमांडो फोर्स में ले आया गया था। बाबा बसंत को भी सन्देश भेजा गया था पर उसने कोई जवाब नहीं दिया था। लड़कों की संख्या तो बढ़ रही थी पर हथियार अभी भी कम थे।
''अपने दोनों एक्शन बहुत कामयाब रहे हैं। एक काम खराब हो गया।''
''वह क्या ?''
''यह जो बसों में से उतारकर यात्रियों को मारा गया है, यह एक्शन गलत है। मुश्किल यह है कि यह पता नहीं चल रहा कि यह काम कौन सी जत्थेबन्दी कर रही है।'' गमदूर ने सभी की ओर देखा। सभी एक दूसरे का मुँह देखते रहे पर गुरलाभ की तरफ किसी ने नहीं देखा। वह अन्दर ही अन्दर संतुष्ट-सा हो गया।
''एक और ख़बर है जिसे मैं तुम्हारे संग साझा करना चाहता हूँ कि अपनी जो सुपर बाडी है, वह दो-फाड़ हो गई है। कोई उसूलों के मतभेद थे। चलो, हमें इस बात से क्या लेना है। हम अब मत्तेवाला ग्रुप के साथ हैं। अपनी हैड अथॉरिटी मत्तेवाला कमेटी है।''
''फिर तो हो सकता है, दूसरी पार्टी वाले हमें बदनाम करने के लिए ये कत्लेआम कर रहे हों।'' गुरलाभ को नुक्ता मिल गया था।
''अभी कुछ कह नहीं सकते। खोजबीन कर रहे हैं। बाकी, बड़ा एक्शन नज़दीक आ रहा है। तैयारियाँ मुकम्मल हैं। उस एक्शन के बाद अपनी पावर बढ़ जाएगी। फिर मंजिल दूर नहीं रहेगी।''
बाबा बसंत ने अपने तौर पर ही हथियारों का प्रबंध किया। दो लड़के भी साथ मिला लिए। पहले हल्ले में ही उसने उस थाने पर हमला किया जहाँ उसे उत्पीड़ित किया गया था। थाने के गेट में से निकलते चार जने -एक इंस्पेक्टर, दो सिपाही और एक हवलदार वहीं ढेरी हो गए। हमला इतना जबरदस्त था कि जवाब देने के बजाय पुलिस वाले थाने का गेट बन्द करके अन्दर जा छिपे। जिसके लिए वह आया था, वह इंस्पेक्टर मुंकदी लाल उस दिन छुट्टी पर था। बाबा बसंत को बहुत अफ़सोस हुआ कि उसका हमला बेकार गया। उसे पता चला कि वह दो-तीन दिन की छुट्टी पर था। उसने एक योजना और बनाई। रात के अंधेरे में उसने उसके घर पर जाकर हमला बोला। यहाँ भी बाजी मिस हो गई। मुकंदी की जगह उसका भाई मारा गया। बाबा बसंत का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने तो सोचा था कि चुपचाप मुकंदी का मामला खत्म करके फिर से कालेज जाना आरंभ कर देगा। आसपास खाड़कुओं के एक्शन हुए जाते थे, उसका एक्शन भी बीच में मिल जाएगा। किसी को क्या पता चलेगा कि मुकंदी को बाबा बसंत ने मारा है। पहली बार उससे गलत स्थान पर गोली चल गई। दूसरी बार गलत आदमी मारा गया। तीसरे हमले तक तो उसका ग्रुप भी बन चुका था। उसे खुद को पता नहीं चल रहा था कि वह किधर किस दिशा में जा रहा था। एक्शन करते समय उसे गुस्सा घेर लेता था। उस दिन थाने के बाहर वह और उसके साथी घात लगाकर मुकंदी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे भ्रम हुआ और बग़ैर कुछ सोचे-विचारे दूसरे ही चार पुलिस वाले मार गिराये। मुकंदी के गाँव गया। गलती से उसका भाई मारा गया। मुकंदी तो हत्थे नहीं चढ़ा था पर बाबा बसंत को हालात ने पूरी तरह खाड़कू बना दिया था।
मुकंदी भी भाई के क़त्ल के बाद पागल हाथी की तरह घूमता-फिरता था। उसने बसंत के घर छापा मारा। और कोई नहीं मिला तो उसने बसंत की माँ और बहन को ही उठा लिया।
''डाल लो ओए बूढ़ी को लम्बा।'' मुकंदी लाल चिंघाड़ा पर सिपाही बुजुर्ग़ औरत को कुछ कहने से झिझक रहे थे। वह दीवार का आसरा लेकर नीचे जमीन पर बैठ गई। फिर मुकंदी का ध्यान लड़की की ओर गया। जवान लड़की थर्र-थर्र काँप रही थी।
''इसे ले आओ ओए यहाँ।'' वह गरजा।
''इसे नंगा करो हराम की जायी को...।'' कोई आगे न बढ़ा।
मुकंदी लाल यहाँ भी नहीं रुका। उसने आगे बढ़कर लड़की की कमर के पास से सलवार पकड़कर खींची। नाड़ा टूट गया। सलवार लड़की के पैरों में आ गिरी। लड़की ने झुककर सलवार ऊपर उठाकर दोनों हाथों से कसकर पकड़ ली। फिर मुकंदी ने लड़की की कमीज पकड़कर खींची। बायीं बगल से उधड़ती कमीज कंधे से जा लगी। अन्दर से मुंशी देसराज शर्मा दौड़ता हुआ आया। उसने मुकंदी लाल के घुटने पकड़ लिए।
''साहब जी, रब का वास्ता। आपकी मैं मिन्नत करता हूँ। रहम करो।'' देसराज से निर्दोष जवान लड़की की बेइज्ज़ती सहन न हुई। मुकंदी ने जलती आँखों से देसराज शर्मा की तरफ देखा। हाथवाला डंडा दीवार पर दे मारा। ''कह दो बाबा बसंत को, आज रात उसकी बहन के साथ मुकंदी सुहागरात मनाएगा।'' पता नहीं उसने यह किसे सुना कर कहा। मुंशी ने अन्दर से चादर लाकर धीरे से लड़की के ऊपर डाल दी। उधर बाबे ने मुकंदी लाल के रिश्तेदार उठा लिए। दबाव में आकर मुकंदी को बाबा बसंत की माँ और बहन को छोड़ना पड़ा। मुकंदी बाबा को खोज रहा था और बाबा मुकंदी को। दोनों एक दूजे के खून के प्यासे थे। दोनों के दिलों में नफरत की लपटें उठ रही थीं। पर उनकी नफ़रत का खामयाजा भुगत रहे थे - दोनों के रिश्तेदार। इन्हीं दिनों में मुकंदी से डरते-छिपते बाबा बसंत के भाई और पिता मुकंदी लाल के हाथ लग गए। कई दिनों के अत्याचार के बाद उन दोनों को एक मुकाबला बनाकर खत्म कर दिया। बाबा का गुस्सा शिखरों को छूने लगा। उसे पकड़ने के लिए पुलिस ने जगह-जगह जाल बिछा रखे थे। लेकिन बाबा किसी के हाथ नहीं आ रहा था। बाबे का परिवार मुकंदी ने खत्म कर दिया था। उसकी माँ और बहन ही बाकी बची थीं। उनकी थाने में हुई बेइज्ज़ती का भी बाबा बसंत को पता था। वह यह भी जानता था कि मुकंदी अवसर मिलते ही फिर उन्हें उठा लेगा। उनकी इज्जत पर हाथ डालेगा। बाबा जल्द से जल्द मुकंदी का अन्त करना चाहता था। अगर पुलिस ने बाबा के लिए जगह-जगह जाल बिछा रखा था तो बाबा ने भी मुकंदी को उड़ाने के लिए पूरा ज़ोर लगा रखा था। अहमदगढ़ मंडी के थाने में से पुलिस की सुरक्षा टुकड़ी निकली। मुकंदी लाल के साथ सिक्युरिटी बहुत ज्यादा रहती थी। बेगुनाह या गुनाहगारों के झूठे पुलिस मुकाबले बनाने वालों में उसका नंबर सबसे ऊपर था। पुलिस की भरी एक गाड़ी उसके आगे थी और एक पीछे। बीच की गाड़ी में मुकंदी सबके बीचोबीच बैठा था। अगली गाड़ी सायरन बजाती हवा से बातें करती जा रही थी। जैसे ही गाड़ियाँ अड्डे से बाहर निकलीं तो पीछे किसी चौबारे पर से दो हवाई फायर हुए। बाबा बसंत और उसके साथियों ने हथियार उठा लिए। अड्डे से कुछ दूर वे ईख के खेत में बैठे थे। यहाँ चारों तरफ सुनसान था। सड़क के दोनों तरफ ईख के खेत थे। एक ओर के ईख के खेत में बाबा अपने साथियों के संग बहुत देर से बैठा था। दो फायरों की आवाज़ सुनते ही बाबा और उसके साथी समझ गए कि मुकंदी दूसरी गाड़ी में था। वे भागते हुए सड़क के बिलकुल साथ आ बैठे। दूर से आती गाड़ियाँ उन्होंने देख लीं। बाबा की हिदायत थी कि हमला दूसरी गाड़ी पर ही किया जाए। दूसरी गाड़ी सामने आई तो सभी ने हाथों में पकड़े हथगोले गाड़ी पर फेंके और पीछे की ओर दौड़ पड़े। अगले पल धमाकों ने धरती हिला दी। पिछली गाड़ी रुकने में कामयाब हो गई। उन्होंने गाड़ी को बैक किया और थाने की तरफ दौड़ा ली। अगली गाड़ी तेज होने के कारण आगे निकल गई थी। मुकंदी वाली गाड़ी के परखचे उड़ गए। भरी गाड़ी में से एक भी न बचा। मुकंदी का खातमा करके बाबा बसंत नाचता-कूदता अपने अड्डे की ओर लौट गया।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

muaafi chahunga thoda late aaya padhne ke liye lekin maine socha aaram se padha jaye tabhi accha hai.
vaise is kisht se ye bhi samajh me aaya ki kaise ek saccha amrutpan kiya hua sikh bhi is sare jhamele me kaisa lapeta gaya aur khud vo hi aakhirkar khadku ban gaya....

agli kisht ki pratikshha me...