Sunday, June 6, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 12(प्रथम भाग)

वहाँ से चलकर गमदूर अपने एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी वाले अड्डे पर पहुँचा। वह अकेला बैठकर अगले बड़े एक्शन की रूपरेखा तैयार करना चाहता था। अकेला बैठा गमदूर कुछ सोचने लगा-
''कहाँ से चले थे और कहाँ पहुँच गए।''
ख़यालों में बहते हुए वह बहुत पीछे जा पहुँचा। यह सन् 82-83 की बातें थीं। तब वह इसी यूनिवर्सिटी का विद्यार्थी था। उन दिनों ही वह अमृतसर आने-जाने लगा था। एक बार जाना-आना आरंभ हुआ तो वह पक्के तौर पर संगठन से जुड़ गया। वह ए.आई.एस.एस.एफ. का स्थायी सदस्य था, जिसे आम तौर पर कालेजों में फेडरेशन कहा जाता था। उन दिनों इसका प्रधान भाई अमरीक सिंह था।
उसके बाद जून 84 में ब्लूस्टार आप्रेशन हो गया। उस वक्त गमदूर अन्दर ही था। गमदूर को आज भी कल की तरह याद है जब भाई अमरीक सिंह ने संतों का सन्देशा गमदूर जैसे लोगों को सुनाया था।
''संतों का आदेश है कि तुम सभी बाहर निकल जाओ।''
''पर क्यों ? हम तो तुम्हारे संग ही रहना चाहते हैं।''
''नहीं, तुम अब बाहर जाओ और बाद में लहर को चलाना।''
''पर भाई साहब जी तुम, संत जी और बाकी दल...?'' किसी ने सवाल किया।
''हम सबने अरदास कर ली है कि आखिरी दम तक हरिमंदर साहिब की रक्षा करेंगे। हम सब यहीं पर शहीद होंगे, तुम अब जाओ।''
फिर गमदूर आदि आदेश का पालन करते हुए कम्पलैक्स के पीछे की तंग गलियों में से निकलकर इधर-उधर लुप्त हो गए। उस समय कुछ लड़के गाँवों की तरफ गए हुए थे। वे भी इनके संग मिल गए और धीरे-धीरे सभी ने मंड की तरफ रुख कर लिया। क्योंकि उन दिनों मंड का इलाका ही सुरक्षित जगह लगती थी। शेष पंजाब में तो उन दिनों मिलिट्री अपनी गाड़ियों पर मशीनगनें लिए गाँव-गाँव और गली-मुहल्लों में सिख नौजवानों का शिकार करती घूम रही थी। मंड इलाके के नौजवान धीरे-धीरे बाहर आकर खाड़कू कार्रवाइयाँ करने लगे। सिक्खों के हृदय तो ब्लू स्टार आपरेशन के कारण पहले ही छलनी हुए पड़े थे और ऊपर से इंदिरा गांधी का क़त्ल हो गया। इंदिरा के क़त्ल के बाद दिल्ली में हुए सिखों के क़त्लेआम ने सिख मानसिकता को झिंझोड़ कर रख दिया। उन्हें लगा कि वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। बागी प्रवृत्ति वाले नौजवानों ने खाड़कूवाद की ओर रुख कर लिया। दिल्ली क़त्लेआम के पीड़ित धड़ाधड़ पंजाब आ रहे थे। जिनके घरबार लूटे गए, माँ-बहनों के सामूहिक बलात्कार हुए और परिवार क़त्ल हो चुके थे, उनके अन्दर जलती बदले की भावना ने उन्हें खाड़कूवाद की ओर प्रेरित किया। इस प्रकार हुई इस खाड़कूवाद लहर की शुरूआत।
लोगों के मन का रुख बदलने के लिए केन्द्र ने राजीव-लौंगोवाल समझौता किया। इस समझौते में जिन बातों पर सहमति हई थी उनमें से कोई भी मद पूरी नहीं हुई। सिवाय एक के। वह थी बरनाला का मुख्य मंत्री बनना। जिस कुर्सी के लिए बरनाला ने उपर्युक्त समझौता करवाया था, उस कुर्सी को उसने कसकर पकड़ लिया। बरनाला-बलवंत जोड़ी ने सिख नौजवानों का दमन जारी रखा। इसी नीति के तहत उनकी सहमति से आपरेशन मंड हुआ। पुलिस और अन्य फोर्सों ने मिलकर मंड इलाके में जो तबाही मचाई, उसने हज़ारों नौजवानों को घरों से बेघर करके पाकिस्तान की ओर धकेल दिया। पाकिस्तान की एजेंसी आई.एस.आई. ने हँसकर उन लड़कों का स्वागत किया। पाकिस्तान लम्बे समय से कश्मीर में शुरू की प्रोक्सी-वार को आगे पंजाब की तरफ बढ़ाना चाहता था। अब पाकिस्तान को अपना मंतव्य पूरा होता दिखाई देता था। पाकिस्तान ने इन लड़कों को प्रशिक्षण दिया और हथियारबंद करके वापस पंजाब की ओर मोड़ दिया। साथ ही, हिदायत की कि वे एक कमेटी बनाकर आगे का संघर्ष चालू करे। वापस पहुँचकर इन खाड़कू लड़कों ने अकाल तख्त पर सरबत खालसा बुलाकर 13 अप्रैल 1986 को पाँच सदस्यीय पंथक कमेटी का गठन कर दिया। अब यह कमेटी पंथ की सर्वेसर्वा संस्था थी। इसने एस.जी.पी.सी जैसे सभी संगठनों को भंग कर दिया।
पंथक कमेटी की अगुवाई के अधीन खाड़कू दलों ने अपनी कार्रवाइयाँ तेज कर दीं। पहले आपरेशन मंड के बाद केन्द्र ने एक आपरेशन मंड और किया था। इस आपरेशन के समय उन्होंने भाखड़ा डैम के गेट खोल दिए। अकेला मंड ही नहीं, बल्कि सारा पंजाब ही जल-थल हो गया। हज़ारों लोग पानी में डूबकर जानें गवां बैठे और करोड़ों-अरबों की सम्पति नष्ट हो गई। सिख दिलों पर यह भी गहरा जख्म था।
पाकिस्तान ने सन्देश भेजा कि वह खाड़कू कार्रवाइयों की रफ्तार से खुश नहीं। उसने अपनी असली मंशा जाहिर की। इस वक्त पंथक कमेटी पाकिस्तान के दबाव में थी। पाकिस्तान की मंशा पूरी करते हुए पंथक कमेटी ने अमृतसर से 29 अप्रैल 1987 को 'खालिस्तान' का ऐलान कर दिया। फिर क्या था। केन्द्र सरकार एकदम हरकत में आ गई। सबसे पहले उसने बरनाला सरकार को भंग किया। फिर आम गुंडागर्दी को ताकत के बल पर कुचलने में माहिर दक्षिण के एक सुपर काप को पंजाब का पुलिस मुखिया बना दिया। उसने आते ही अपनी नीति का ऐलान किया- ''गोली के बदले गोली।''
खालिस्तान की घोषणा होते ही खाड़कू योजनबद्ध तरीके से लहर को चलाने लगे। जल्द ही उन्होंने खाड़कू लहर को अमृतसर शहर से शुरू करके सभी क्षेत्रों और बड़े शहरों जैसे गुरदासपुर, कादीआं, तरनतारन, खडूर साहिब, मजीठा, बटाला और मंड आदि तक फैला दिया। उनके पीछे पीछे सुपर काप गोली का जवाब गोली में देता आ रहा था। उसकी गोली सिर्फ़ खाड़कुओं पर ही नहीं चल रही थी, अपितु वह तो खाड़कुओं के रिश्तेदारों, परिवारवालों, दोस्तों-मित्रों और उन्हें आश्रय देने वालों को भून-भूनकर मार रहा था। उसकी गोली वाली नीति के कारण ही जहाँ एक मरता था, वहाँ पाँच खाड़कू पैदा होते थे। माझे में अपनी जड़ें स्थापित करने के बाद खाड़कू दल के नेताओं ने दुआबा में पैर रखा। आहिस्ता-आहिस्ता गाँव-कस्बों में से होते हुए इन्होंने नकोदर, नवां शहर, कपूरथला और जालंधर तक के बड़े शहरों में अपना कब्ज़ा जमा लिया था। सुपर काप भी इनके पीछे आ रहा था। इस अंहकारी पुलिस मुखिया को सबसे बड़ा झटका दुआबा के ऐन बीच जालंधर में दिया गया। जनरल लाभ सिंह ने जब सारी पुलिस सुरक्षा को पार करके अपने दफ्तर के अहाते में बैठे इस सुपर काप पर हमला किया तो उसके छक्के छूट गए। वह यह कहता हुआ पंजाब से विदा हुआ कि पंजाब मसले का हल गोली के बदले गोली नहीं।
इसी दौरान आग में जलते पंजाब को बचाने के लिए कुछ पंजाब के हमदर्दी भी आगे आए। जिनमें से त्रिलोचन सिंह रिआसती ( प्रसिद्ध स्वंतत्रता सैनानी) भी एक था। उसने कुछ चोटी के खाड़कुओं को संग लेकर केन्द्र से शांती वार्ता आरंभ की। लेकिन केन्द्र के एक महाभ्रष्ट और ज़ालिम मंत्री जूपा सिंह ने इस वार्ता को षड्यंत्र रचकर तबाह कर दिया। इसके एवज़ में सरदार रिआसती को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। जूपा सिंह की पंजाब के अन्दर की खाड़कू पार्टी 'रंघरेटा दल' ने सरदार रिआसती की देह पर तेल छिड़क कर उनके ड्राइवर मंगल सिंह सहित दोनों को जिन्दा ही जला दिया। केन्द्र में कोई भी सरकार आई पर हरेक ने पंजाब को घृणा की दृष्टि से देखा। नये बने प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह जो पहले बहुत बड़ी-बड़ी बातें करता था, उसने भी कुछ नहीं किया। वह कुछ करना तो चाहता था और वह स्वयं अमृतसर भी आया लेकिन अवसर आने पर पीछे हट गया।
खैर, अब तक माझा और दुआबा में खाड़कुओं की तूती बोलती थी। उन्हीं दिनों ही खाड़कुओं के खैरख्वाह मलोट एरिये के एम.पी. जगदेव सिंह खुड्डियां का क़त्ल हो गया। उसके भोग के समय निचले स्तर से लेकर ऊपर तक के सभी खाड़कू उसके भोग पर एकत्र हुए। माझा-मालवा के बहुत सारे लड़कों ने मालवा का यह खुला इलाका पहली बार देखा था। तभी बहुत से खाड़कू दलों ने अब मालवा को रणभूमि बनाने का फैसला किया। फिर केन्द्र ने पंजाब के अन्दर एक नया पुलिस मुखिया नियुक्त कर दिया जो कि खुद एक पंजाबी जट्ट था। उसने इस लहर के प्रति एक नया पैंतरा अपनाया। उसने ऐलान किया कि खाड़कू लहर तो जट्ट की जट्ट से लड़ाई है। इसी नीति के तहत उसने अपने खास पुलिसवालों से जट्ट खाड़कुओं के परिवारों को मरवाना शुरू कर दिया और ऐसे ही खाड़कू दलों में अपने व्यक्तियों के माध्यम से जट्ट पुलिसवालों के परिवारों को मरवाने लगा। आख़िर उसने वाकई इस लहर को 'जट्ट की जट्ट से लड़ाई' में तब्दील कर दिया। लहर को समर्पित बहुत से नौजवान लड़कों के मारे जाने और लहर के लम्बा खिंचने के कारण यह लहर बिखरने लगी। अब तक लहर में काफ़ी आपाधापी फैल गई थी। एक पंथक कमेटी की आगे अन्य कई पंथक कमेटियाँ बन गई थीं। खाड़कू दल भी अनेक दलों में बंट गए थे। जब खाड़कुओं ने कोड ऑफ कंडक्ट लागू किया तो लोगों की बची-खुची सहानुभूति भी लहर से खत्म होने लगी। क्योंकि कोड ऑफ कंडक्ट लागू करने वाले लोगों पर जबरदस्ती करने लगे। जैसे कि पंजाबी भाषा लागू करवाने के लिए पटियाला टी.वी. स्टेशन के एक अधिकारी का क़त्ल करना। इसी प्रकार बुद्धिजीवी वर्ग में से जो भी कोड आफ कंडक्ट के प्रति कुछ बोला, वह भी जान से हाथ धो बैठा। बेशक वह किसी भी पार्टी से संबंधित था। पुलिस भी अपना ताना-बाना बुनती आ रही थी। पुलिस के मुखबिर, बदमाश, डकैतिये, दस नंबरिये और अन्य एजेंट खाड़कुओं के भेष धारण करके लहर में दाख़िल हो गए थे। पुलिस और खाड़कुओं की सीधी लड़ाई में आम लोग पिसने लगे।
खैर, जब खाड़कुओं ने माझा-दुआबा से लहर को मालवा की तरफ ले जाने का निर्णय किया तो लहर एकदम पूरे मालवा में फैल गई। लुधियाना, पटियाला, संगरूर, बठिंडा से लेकर अबोहर, मुक्तसर और फिरोज़पुर तक के मालवे का सारा इलाका खाड़कुओं का गढ़ बन गया। गमदूर, महिंदर और नाहर तब रवनीत कादियां के दल में थे। रवनीत कादियां दल सहित अपने इंजीनियरिंग कालेज, लुधियाना की ओर बढ़ रहा था कि अचानक वह और उसका दल पुलिस के घेरे में आ गए। वहीं से मुकाबला शुरू हो गया।
''मैं मुकाबला ज़ारी रखता हूँ और तुम तीनों निकल जाओ।'' रवनीत ने आदेश दिया।
''नहीं भाई साहब, हम तुम्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकते।''
''घेरा सख्त है, सभी का निकलना कठिन है।'' रवनीत स्थिति को समझ रहा था।
''...'' पर उनमें से कोई भी न बोला और न ही वहाँ से हटा।
''मैं तुम्हें कवर फायर देता हूँ और तुम तीनों निकल जाओ। यह मेरा हुक्म है।'' फिर उन्होंने रवनीत का हुक्म माना और उठ खड़े हुए। रवनीत समझता था कि सभी के मरने से तो यही ढंग ठीक था। फिर रवनीत आख़िर तक गोलियाँ चलाता रहा और उसने अपने आप को न्योछावर करके अपने तीन साथी बचा लिए। ''धन्य था तू माँ के सपूत, तेरे जैसे कुछ सूरमें ही और हों तो मैदान तो जीता पड़ा है।'' डबडबाई आँखों से गमदूर बिछड़े हुए साथी को याद कर रहा था। फिर गमदूर, महिंदर और नाहर के साथ लुधियाना की एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में पहुँच गया। पहले उसने यहाँ अड्डा बनाया और ग्रुप तैयार किया। उसके बाद उसने इंजीनियरिंग कालेज की ओर रुख किया। यहाँ भी उसने यूनियन वालों का सफाया करके फेडरेशन धड़ा खड़ा कर लिया। उसके पश्चात् उसने मीता आदि को खाड़कू ग्रुप कमांडो फोर्स के नाम तले तैयार किया। गमदूर धीरे-धीरे खाड़कू लहर को लुधियाना में फैलाता जा रहा था।
गमदूर बहुत देर से पुरानी यादों में खोया बैठा था। उसे पता नहीं चला कि बाहर तो अँधेरा घिर आया था। दरवाजे पर हुई ठक-ठक ने उसका ध्यान भंग किया तो वह अपने आप में लौटा। इतने में दरवाजे पर पुन: दस्तक हुई तो उसने उठकर कुंडा खोल दिया। बाहर मीता, महिंदर और नाहर खड़े थे। वह एक तरफ हटा तो वे तीनों अन्दर आकर बैड पर बैठ गए। गमदूर ने आने वाले बड़े एक्शन के बारे में उन तीनों से बात साझी कर ली।
चारों ने पूरी योजना बनाई। शेष साथियों को वे एक्शन से एक दिन पहले बताना चाहते थे। इंडस्ट्रीयल एरिये में एक पुरानी लोहे की मिल थी जहाँ अब कोई छोटी-सी फैक्टरी लगी हुई थी। यह फैक्टरी लोहा मिल की बिल्डिंग के अगले हिस्से में थी। पिछला हिस्सा खाली और बेकार पड़ा था। पिछली तरफ लोहा मिल का पुराना वेअर-हाउस भी था जहाँ कि उन्होंने बिल्डिंगों के माडल बनाकर ट्रेनिंग पूरी की। जब तक उन्हें पूरी तसल्ली नहीं हो गई, तब तक उन्होंने आपरेशन के विषय में शेष साथियों को कुछ नहीं बताया। बाहर की सारी सूचना भी उन्होंने बड़ी बारीकी से एकत्र की। सभी नुक्तों पर ध्यान से विचार किया। इस फैक्टरी का मालिक लहर का हमदर्द था जिसने उनके लिए आवश्यक रिहायश और खाने-पीने का प्रबंध करवाया था। एक्शन से एक दिन पहले शेष साथियों को वहाँ लाया गया जिनमें गुरलाभ, अरजन, जीता फौजी, अजैब, तेजा पंडित और अन्य आठ-दस लड़के थे। यहाँ से किसी को बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी। यहाँ से अब सभी को एक्शन के लिए ही निकलना था। गमदूर ने अब तक सारा एक्शन गुप्त रखा हुआ था। वह इस एक्शन को सौ प्रतिशत सफल बनाना चाहता था। अन्दर की तैयारी देखकर सारे लड़के खुश हो गए। देर रात तक नये लड़कों की रिहर्सल चलती रही। सभी को इस एक्शन का अनौखा ही चाव था। सभी लड़के अलग-अलग योजनाओं पर चर्चा करते रहे।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

hmmm, mujhe lagta hai ab har kisht ek rochak mod par pahunchti ja rahi hai. is kisht se kaafi kuchh samajhne sikhne jaane ko mila, pratikshha hai ab agli kisht ki.....