Sunday, July 25, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 15(शेष भाग)

गुरलाभ दो दिनों से नाहर का पीछा कर रहा था। वह इस ताक में था कि कब वह अकेला हो। आज जब नाहर गमदूर को भेज कर अकेला ही रोटे खाने ग्रीन ढाबे में घुसा तो गुरलाभ ने उचित अवसर समझ कर रणदीप को कॉल कर दी। फिर दस मिनट बाद रणदीप की सिविल पार्टी ने नाहर को ग्रीन ढाबे में से उठा लिया। पाँच सात मिनट में हुए इस ऐक्शन का किसी को पता तक न चला। सिवाय गुरलाभ के।
गुरलाभ कमांडो फोर्स में रहते हुए अब तक बड़े गलत काम करता आया था। यह पहली बार हुआ था कि उसने अपना कोई साथी धोखे से पुलिस को पकड़वा दिया था। उधर थाने में बैठा रणदीप सोच में डूबा था। उसका सारा ध्यान गुरलाभ की गतिविधियों पर ही था। कैसे उस दिन कुछ ही घंटों में उसके भाई की रिहाई हो गई। किस तरह नाहर को दुबारा पकड़ने की स्कीम गुरलाभ ने ही बताई। फिर स्वयं ही आवाज़ बदलकर नाहर को पकड़वा दिया। कहीं गुरलाभ ही तो नहीं....।
इतना सोचते ही रणदीप ने मुख्बिरों का जाल बिछा दिया। शाम को गुरलाभ की सारी रिपोर्ट उसके सामने थी। गुरलाभ कमांडो फोर्स का पहली कतार का लीडर था। कमांडो फोर्स का लीडर होते हुए उसके गलत कारनामों की रिपोर्ट भी उसके सामने थी। सारी स्थिति परखते हुए रणदीप की बांछें खिल उठीं। उसने अपने आप को डी.एस.पी., फिर एस.एस.पी. और आगे डी.आई.जी. बना हुआ देखा।
उधर नाहर को पकड़वा कर गुरलाभ अपने आप को हल्का महसूस कर रहा था। 'गए सारे भेद उसके साथ ही, अब नहीं कोई मेरी हवा की तरफ झांक सकता।' वह अपने आप से बातें कर रहा था। पर वह नहीं जानता था कि वह अपने बुने मकड़जाल में स्वयं ही फंस गया था। इंस्पेक्टर रणदीप के आदमी ने उसे खोजकर, उसे अपने संग लेकर रणदीप की कोठी में जा बिठाया। अब तक रणदीप से अच्छी तरह खुल चुका गुरलाभ घबराया नहीं था। शाम के समय रणदीप ने गहरा प्यार दिखाते हुए उसे संग बिठाकर दो-दो पैग लगाये। कुछ देर पुरानी बातें होती रहीं। फिर जब रणदीप ने देखा कि गुरलाभ भी सुरूर में हो गया था तो उसने बात का रुख एकदम बदल दिया।
''गुरलाभ, सच सच बता भाई, आजकल तू क्या करता है ?'' रणदीप ने एकाएक चोट की।
''मैं ! मैंने क्या करना है। बस, यूँ ही इधर-उधर फिरता नौकरी तलाश रहा हूँ।'' थुथलाता हुआ सा गुरलाभ पहली चोट में ही धराशायी हो गया।
''हम गहरे यार-दोस्त हैं। मुझसे कुछ छिपाना नहीं।'' रणदीप ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं।
''ले, मैंने क्या छिपाना है।'' नज़रें बचाता हुआ गुरलाभ बोला।
''भाई मेरे, अगर मैं यहाँ न होता तो तेरा तो कब का भोग पड़ गया होता। तुझे पता नहीं कि लुधियाने की पूरी सी.आई.डी. तेरे पीछे घूमती है। ये देख रिपोर्टें...'' रणदीप ने सी.आई.डी. की दबिश मारते हुए पेपरों के बंडल उसके सामने फेंक दिए।
गुरलाभ खोई हुई गाय की भाँति पेपरों पर दृष्टि घूमाते हुए मरी-सी आवाज़ में बोला, ''किसकी रिपोर्ट है ये ?''
रणदीप ने कागज उठा कर वे सारे किस्से सुना दिए जिनमें गुरलाभ द्वारा बसों में से उतारकर लोगों का क़त्ल करना, माणसपुर क़त्ले आम और बलात्कारों के साथ-साथ लोगों को अगवा कर लेने के किस्से शामिल थे। ये सब कुछ सुनकर गुरलाभ को पसीना आ गया। उससे बोला नहीं जा रहा था। उसने जेब में से रूमाल निकालकर पसीना पोंछा। फिर पानी का गिलास पीते हुए धीरे-धीरे बोला, ''मैंने तो आगे बढ़कर रणदीप तेरे भाई की रिहाई करवाई, तू तो मेरे पीछे ही लग गया।''
''ओ नहीं भाई मेरे, सी.आई.डी. तो कब से तेरे पीछे लगी है। यह तो तू शुक्र मना भाई कि सी.आई.डी. से यह रिपोर्ट मेरे पास आई है। वैसे तू फिक्र न कर। अगर तूने यारी निबाही है तो मैं भी यारी निभाऊँगा। मैंने तो तुझे यही दिखाया है कि पुलिस को सब पता है।'' रणदीप ने पूरी तरह गुरलाभ को जाल में फंसा लिया।
कुछ देर दोनों चुप बैठे रहे। फिर रणदीप ही बोला, ''अच्छा, अब एक बात साफ़ बता दे कि तुझे इस लहर से हमदर्दी है ?''
''ना, ऐसी कोई बात नहीं। ना मुझे लहर से और ना ही इन तथाकथित खाड़कुओं से कोई हमदर्दी है। शुरू शुरू में शुगल के तौर पर साथ चलते रहे। फिर गरम-ठंडा खाने का स्वाद पड़ गया। पुलिस के बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था। मैं तो हमेशा सोचा करता था कि अगर कोई बात हो भी गई तो चंडीगढ़ में मंत्री जी बैठे हैं। खुद संभाल लेंगे।''
''संभालने वाली तो कोई बात नहीं। इस बात को तो तेरा यार रणदीप ही संभाल लेगा। मंत्री जी तक जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।'' रणदीप ने आगे बढ़कर गुरलाभ को आलिंगन में भर लिया। डरे हुए गुरलाभ को कुछ सुकून-सा मिला।
''तुझे लहर से हमदर्दी नहीं। ना ही इसके लीडरों से। तो फिर इन काग़ज़ों को मैं यहीं जला देता हूँ। तू चुपचाप अबोहर चला जा।'' काग़ज़ फाड़ता रणदीप उसे दिलासा देता हुआ बोला।
''मैं तो पहले ही जाने के लिए तैयार बैठा हूँ। तू कहे तो अभी चला जाता हूँ।'' गुरलाभ भी निश्चिंत होता हुआ बोला।
''ऐसी तो कोई बात नहीं। कुछ दिन ठहर। मैं तुझे बताऊँगा भी कि आगे क्या करना है।'' रणदीप उस पर हर तरफ से शिकंजा कसना चाहता था।
''जैसा तू कहे। चल, घूंट भर डाल अब। पहले वाला नशा तो उड़ गया।'' दो दो पैग और पीकर वे फिर झूमने-से लग पड़े।
''देख गुरलाभ, हमारी लड़ाई इन आतंकवादियों से है। हम जानें हथेली पर रखकर, अपने परिवारों का नुकसान करवाकर इनके साथ लड़ाई लड़ रहे हैं। हम कौन हैं ? किसके कहे पर कर रहे हैं यह सब ? हम गवर्नमेंट का एक हिस्सा हैं। गवर्नमेंट के आर्डर पर ही सब कुछ कर रहे हैं, यह तो ठीक है न।''
''हाँ, यह तो मैं भी मानता हूँ।'' गुरलाभ ने सहमति प्रकट की।
''फिर यह गवर्नमेंट कौन है ? गवर्नमेंट है तेरे मंत्री जी। हमारा तो महकमा भी उनके अंडर ही है। एक किस्म का यह सारा आपरेशन मंत्री जी के हुक्म से हो रहा है। तू भी मंत्री जी की पार्टी का आदमी है। बल्कि तू तो मंत्री जी का खास आदमी है। फिर यह लड़ाई तेरी भी हुई न।''
''हाँ, यह भी ठीक है।'' गुरलाभ सिर हिलाता बोला।
''मेरे दोस्त तुझे पुलिस के साथ होना चाहिए न कि मंत्री जी के दुश्मनों के साथ।'' रणजीत ने गुरलाभ की दुखती रग पर हाथ रखा।
गुरलाभ खामोश होकर कुछ सोचने लगा। ''चल आ, भोजन करते हैं। बाकी बातें अगली मुलाकात के वक्त करेंगे। आसपास बच कर रहना।''
दोनों भोजन करके विदा हो गए।
रणदीप ने तो गुरलाभ को आसमान के बीच उल्टा लटका दिया था। उससे वह अब कहीं नहीं भाग सकता था। यद्यपि उसे लहर से कोई हमदर्दी नहीं थी, पर इतना तो वह भी देखता ही आ रहा था कि ये मीते जैसे लोग घरबार छोड़कर पौह-माघ की रातों में खेतों में साँपों के फन कुचलते फिरते थे। ये किसलिए करते थे सब कुछ। यद्यपि इनका कोई ठोस लक्ष्य नहीं, पर ये अपने काम के प्रति वफ़ादार तो थे ही। उनमें से अधिकांश को वह बेशक पसंद नहीं करता था, फिर भी मीते जैसे कुछ लोगों के साथ उसे सहानुभूति थी। वह लहर के नाम पर बुल्ले ही उड़ाता आ रहा था, पर फिर भी जिनके साथ वह चला आ रहा था, उनके साथ उसे कुछ लगाव ज़रूर था। उसने सोचा था कि कुछ हथियार साथ लेकर वह अबोहर चलता बनेगा, पीछे ये जानें और इनका काम जाने। लेकिन पुलिस इंस्पेक्टर रणदीप के बीच में आ जाने से सब कुछ गड़बड़ हो गया।
पिछले कुछ दिनों से नाहर फिर लापता था। गमदूर उसे खोजता परेशान हो चुका था। आखिर उसने नाहर को खोजने के लिए गुरलाभ की ही डयूटी लगाई। गुरलाभ सारा दिन इधर-उधर घूमता रहा। फिर शाम को उसने गमदूर से सम्पर्क किया।
''गमदूर, नाहर के बारे में रिपोर्ट तो बुरी ही है।''
''वह कैसे ?'' गमदूर ने फोन कसकर कान से लगा लिया।
''उसे पुलिस ने पकड़ कर खत्म कर दिया है।''
गमदूर सुनकर सुन्न हो गया। नाहर उसका लम्बे समय से साथी था। उसे लगा जैसे उसकी एक बांह ही न रही हो। 'पिछले हफ्ते उसे काउंटर ऐक्शन करके बड़ी मुश्किल से छुड़वाया था। ऐसा कौन है जो उसके पीछे लगा हुआ था। पहले रायकोट के पास पकड़वाया, अब शहर के अन्दर ही।' गमदूर सोच के घोड़े दौड़ा रहा था, पर उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
''गमदूर, जो हो गया, सो हो गया। पर मैंने बदला लेना है।'' गुरलाभ पुन: बोला।
''वह कैसे ?'' गमदूर की मद्धम-सी आवाज़ आई।
''उसको मारने वाले इंस्पेक्टर का मैंने पता लगा लिया है। आज शाम पाँच बजे उसे उड़ा देना है।'' इतना कहकर गुरलाभ ने फोन काट दिया।
''गुरलाभ, मीटिंग तक कोई ऐक्शन नहीं करना।'' गमदूर बोलकर हटा तो उधर से कोई जवाब नहीं आया।
''हैलो गुरलाभ... हैलो... हैलो...।'' गमदूर को खीझ चढ़ी कि उससे आर्डर लिए बिना ही फोन काट दिया। 'यह भी यार कुछ ज्यादा ही गरम है। ऐक्शन करते समय कुछ नहीं सोचता।' उसे गुरलाभ पर गुस्सा आया। फिर नाहर को याद करते हुए उसका गुस्सा ढीला पड़ने लगा।
'चलो, जाने दो इंस्पेक्टर को भी साथ ही। मेरा भाइयों जैसा साथी निहत्था मार दिया।''
शाम के घुसमुसे -से में जीप पर राउंड लेते एक इंस्पेक्टर पर गुरलाभ के बन्दों - निम्मे और हरी ने ग्रिनेडों से हमला किया। इंस्पेक्टर सहित चार अन्य पुलिस वाले मारे गए। गुरलाभ ने यह हमला इंस्पेक्टर रणदीप के कहने पर किया था। ऐक्शन के बाद गुरलाभ गमदूर के पास जा पहुँचा। गमदूर ने कहा भी कि पार्टी मीटिंग से पहले ऐसा ऐक्शन करना ठीक नहीं था। पर गुरलाभ के ड्रामे ने गमदूर का मन जीत लिया। गुरलाभ का कहना था कि वह नाहर जैसे साथी के हत्यारे को एक पल के लिए भी माफ़ नहीं कर सकता बेशक उसकी जान क्यों न चली जाए।
''चलो, ठीक है। मीटिंग तक बच कर रहो। अब पुलिस का ज़ोर बढ़ेगा और हम मीटिंग के बाद इस इलाके को ही छोड़ देंगे।'' गमदूर ने दुखी- सा होकर गुरलाभ को हिदायत दी थी।
वह शाम गुरलाभ ने शिमलापुरी में कहीं गुजारी। रात पड़ने पर करीब दस बजे वह मीता के अड्डे पर जा पहुँचा। मीता पहरे की ड्यूटी भुगता कर अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहा था।
गुरलाभ के आने का किसी को पता नहीं चला था। वह मुँह-सिर लपेटकर पड़ गया था। थोड़ी देर बाद ही महिंदर, जीता फौजी और बाबा बसंत भी आ गए। इन्हें भी नाहर के विषय में राह में ही पता चला था। तीनों आँगन में बैठकर रोटी खाते हुए बातें करने लगे। उनकी बातों का विषय नाहर ही था। फिर जीते फौजी ने बताया कि पिछले हफ्ते ही जब महिंदर, नाहर और वह खुद इकट्ठे हुए थे तो नाहर ने बताया था कि उसने ब्लाइंड ऐक्शनों वाली गुत्थी सुलझा ली थी। उसने तो ये ऐक्शन करने वाले व्यक्ति का नाम भी बताया था। ''कौन है वो बन्दा ?'' बाबा बसंत की रोटी की बुरकी हाथ में ही रह गई।
''वह बन्दा गुरलाभ है।'' जीते ने भी बात का खुलासा कर दिया। ''गुरलाभ ! ओ मेरे रब्बा !... इसने तो बेड़ा ही गर्क कर दिया।'' बाबा ने माथा पीटा। उन्हें नहीं पता था कि गुरलाभ तो अन्दर लेटा उनकी बातें सुन रहा था। ''अब ऐसा है...'' बाबा कुछ सोचने लगा।
''एक बात है। अब वह समझता है कि नाहर को खत्म करके उसने बात ही खत्म कर दी। उसे यह नहीं पता होगा कि तुम दोनों भी इस भेद को जानते हो। हमें बड़े सोच-विचार से प्लैनिंग करनी होगी।'' बाबा बसंत ने अपना विचार रखा।
''वह कैसे ?''
''अब हम तीनों के अलावा यह बात किसी को नहीं मालूम। मैं कहता हूँ, हम ऐसा करें। मीटिंग तक यह बात हम अपने तक ही रखें। बिलकुल भेद बाहर न निकलने दें। फिर मीटिंग में जीता बात का खुलासा कर देगा। उसके माथे में गोली मैं मारूँगा।'' बाबा बसंत बहुत गुस्से में था।
''यह बात तो बिलकुल सही है कि अगर इस बात की ज़रा-सी भनक भी किसी को लग गई तो गुरलाभ साफ़ बच निकलेगा। बहुत चुस्त है वो। यह बात अब यहीं बन्द। मीटिंग तक फिर से यह बात नहीं करनी।''
बाबा बसंत ने दोनों को सावधान किया।
उनकी बातें सुनकर गुरलाभ को पसीना आ गया था। उसे इस बात की चिंता थी कि उनमें से कोई अन्दर आकर उसे देख ही न ले। फिर तो यहीं राम नाम सत्य हो जाएगा। लेकिन जैसे ही वे रोटी खाकर बाहर निकले, गुरलाभ ने राहत की साँस ली। उसने देख लिया था कि उसकी मौत उसके सिर पर मंडराती घूम रही थी। वह वहाँ से चुपके से छिपकर निकल गया।
अगले दिन उसने मामा के ड्राइवर की मदद से कंबाइन को ट्रैक्टर के पीछे लगाकर तीन नंबर कोठी में ले गया। अगली रात उसने कंबाइन के एक तरफ से प्लेटें उतार कर बेसमेंट वाली सारी राइफ़लें, बाकी असला और कैश कंबाइन के अन्दर रखा और फिर से प्लेटें जड़ दीं। बाहर से देखने पर पता ही नहीं लगता था कि कंबाइन के अन्दर कितनी मौतों का सामान भरा पड़ा है। उसने कंबाइन ट्रैक्टर के साथ जोड़कर उसे किसी नये गुप्त ठिकाने पर जा खड़ा किया।
'अब सवेरे ही निकल पड़ूँगा। पीछे खोजते रहना गुरलाभ को।' वह निश्चिंत हो गया।
फिर रात में लेटे हुए उसे तरह-तरह के ख़याल आने लगे। उसके अन्दर का शैतान करवटें लेने लगा। धीरे धीरे शैतानियत ने गुरलाभ के ख़याल बदल दिए। उसने सुबह चलने का ख़याल बदल दिया। 'जब जाना ही है तो इन्हें सबक सिखा कर ही जाऊँ। और फिर मेरे भेद भी अन्दर ही दबकर रह जाएँगे। नहीं तो फिर ये मेरे पीछे लगे रहेंगे।' रातोंरात गुरलाभ ने दूसरी ही योजना बना ली। दिन चढ़ते ही वह रणदीप के पास पहुँच गया।
''ओए यार इतना बड़ा खजाना हाथ लग गया।'' गुरलाभ की बातें सुनकर रणदीप ने गुरलाभ को बांहों में कस लिया।
''तू यारी निबाहने का वायदा कर, खजाने तुझे बहुत मिलेंगे।'' गुरलाभ ने हाथ आगे बढ़ाया। रणदीप ने अपने दोनों हाथों में गुरलाभ का हाथ कस लिया। एक पुलिस अफ़सर और एक तथाकथित खाड़कू लीडर की गहरी यारी और भी मजबूत हो गई। उसके बाद 'रेड हाउस' के बारे में, मीटिंग के बारे में और वहाँ किसी फैमिली को ठहरा कर अखंडपाठ शुरू करने के बारे में गमदूर की सारी स्कीम गुरलाभ ने इंस्पेक्टर रणदीप को बता दी। आस पास से बचता हुआ गुरलाभ फिर शहर की भीड़ में गुम हो गया।
'रेड हाउस' में दूसरी मंजिल के हाल में अखंडपाठ शुरू था। दंगा पीड़ित कालोनी में से गुरलाभ ने एक बड़े परिवार को लाकर इस कोठी में रहने के लिए जगह दे दी थी। नये घर में मूव होने की खुशी में उन्होंने यह अखंडपाठ रखवाया था। गमदूर ने सभी को इस दिल्ली के दंगा पीड़ित परिवार को यहाँ ठहराने के बारे में और अखंडपाठ की प्लैनिंग के बारे में बता दिया था। वैसे भी अधिकतर लड़कों ने भोग वाले दिन ही आना था। इस परिवार में दो-तीन बूढ़ी स्त्रियाँ, एक बुजुर्ग जोड़ा और तीन जवान लड़के थे। भोग वाले दिन इस परिवार के और भी रिश्तेदार आ गए। भोग का समय होने तक अन्य लड़के भी पहुँचना शुरू हो गए। जीता फौजी और महिंदर गुरलाभ के साथ आम साधारण व्यवहार कर रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि उनके किसी व्यवहार से गुरलाभ को उनके बारे में शक पैदा हो। उधर गुरलाभ भी सभी से यूँ हँस-हँस कर मिल रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो। बाबा बसंत ने अपनी कार से आना था। उसे छोड़कर सभी लड़के आ गए थे। वह शायद कहीं ट्रैफिक में फंस गया था। गुरलाभ सहित सभी खाड़कू लड़के नीचे चाय पी रहे थे। उन्हें ऊपर से सन्देशा मिला, ''अरदास शुरू होने वाली है, ऊपर आ जाओ।'' सबसे पहले गुरलाभ ने खेसी के नीचे से ए.के. 47 निकाल कर सामने दीवार के साथ लगा दी। उसने अरजन वगैरह को भी हथियार यहीं रखने का इशारा करते हुए कहा, ''महाराज की हजूरी में हथियार नहीं ले जाने। हथियार यहाँ दीवार के साथ लगा दो।'' उनकी देखादेखी सभी लड़कों ने अपने अपने हथियार यहीं अन्दर रख दिए। सबसे पीछे गमदूर था। ''चलो, मीटिंग भी भोग के बाद ऊपर ही कर लेंगे।'' इतना कहकर सभी के बाहर निकल जाने के बाद गमदूर ने हाल का दरवाजा बन्द कर दिया। उसने देखा था कि मीटिंग के दौरान यदि लड़कों के पास हथियार हों तो कार्रवाई में विघ्न पड़ता था। ज़रा-ज़रा भी बात पर एक दूसरे की तरफ बन्दूकें तान लेते थे। दूसरा, महाराज की हजूरी में हर कोई झूठ बोलने से थोड़ा परहेज ही करता था। इस कारण हथियार इसी हाल में छोड़ जाने का ख़याल गमदूर को दुरस्त लगा। लेकिन महिंदर और जीते फौजी ने जेबों में से पिस्तौल नहीं निकाले। उन्होंने गुरलाभ को सजा जो देनी थी। उनकी योजना को उनके अलावा सिर्फ बाबा बसंत जानता था। वह अभी तक आया नहीं था। पहले वह पीछे ट्रैफिक में फंस गया। बाद में यह कोठी के नज़दीक वाला रेलवे फाटक बन्द था। फाटक के दूसरी ओर कार में बैठा बाबा बसंत सामने कोठी में अखंडपाठ की चहल-पहल देख रहा था। गमदूर के बताये अनुसार इस कोठी में रहने वाला परिवार कोई दिल्ली का दंगा पीड़ित परिवार था। बाकी लोग उनके रिश्तेदार थे। वे अखंडपाठ के कारण आए थे। सिर्फ़ गुरलाभ को ही पता था कि ये सभी लोग पुलिस के कमांडो थे। इंस्पेक्टर रणदीप ने गुरलाभ की मदद से इन्हें इस घर में फिट कर दिया था। गमदूर खुश था कि इस तरह भीड़ भाड़ में उनके इकट्ठा होने पर किसी को शक नहीं होगा। यह मीटिंग बहुत ज़रूरी थी। आगे का प्रोग्राम बनाकर उन्होंने आज लुधियाना शहर छोड़ देना था। उधर गुरलाभ खुश था कि सारा कार्यक्रम इंस्पेक्टर रणदीप की हिदायतों के मुताबिक चल रहा था। यह सफल ऐक्शन करवाकर गुरलाभ ने भी लुधियाना शहर को अलविदा कह देना था। अरदास होने के बाद देग बरताई गई। उसके बाद एक बुजुर्ग उम्र का सेवादार आगे बढ़कर बोला, ''मेरा ख़याल है, लंगर भी यहीं छक लेते हैं।''
''हाँ जी, यह भी ठीक है।'' कोई दूसरा बोला।
''फिर इन जवानों को पहले लंगर छकाएँ। लंगर छक कर ये अपने काम धंधे लगें।'' वह गमदूर वगैरह की तरफ देखता हुआ बोला।
''बिलकुल ठीक है बुजुर्गो।'' गमदूर भी यही चाहता था।
सेवादार नीचे की ओर जाते हुए गुरलाभ से संबोधित हुआ, ''आ काका, नीचे से सामान उठवा कर ला।'' गुरलाभ उनके पीछे नीचे उतर गया।
नीचे आते ही गुरलाभ ने किचन के साथ लगते स्टोर में घुसकर अन्दर से दरवाजा बन्द किया। पिछली खिड़की में से कूद कर गली में उतर गया। नीचे खड़ा स्कूटर स्टार्ट कर वह अपने नये गुप्त ठिकाने की ओर निकल पड़ा। बाकी दोनों सेवादार देगचे लेकर ऊपर पहुँचे। देगचे रखकर वे फिर नीचे चले गए। गुरलाभ नहीं लौटा, यह तो किसी के ख़याल में ही नहीं आया। सभी खाड़कू लड़के पंक्ति में बैठ गए। उसके साथ साथ घर के कुछ अन्य रिश्तेदार भी बैठ गए। इतने में लंगर बरताया जाने लगा। फिर किसी ने जैकारा बुलाया। सभी ने जैकारे के जवाब में 'सतिश्री अकाल' कहकर लंगर छकना शुरू कर दिया। किसी किसी ने ही बुरकी मुँह में डाली थी कि कमांडो ऐक्शन शुरू हो गया। दस सेकेंड में सभी लड़के काबू में कर लिए गए। फिर कुछ ही क्षणों में सभी के हाथ पीछे की ओर बांध कर टांगें-बांहें बांध दीं। बकरियों की भांति बंधे लड़कों की बेबस नज़रें गुरलाभ को ढूँढ़ रही थीं। अकेले गुरलाभ को छोड़कर सभी वहाँ बंधे पड़े थे। इसी भागम भाग में जीता ने जेब में से पिस्तौल निकाल कर गोली चलाई। एक कमांडो ने फुर्ती के साथ उससे पिस्तौल छीन लिया, पर चली हुई गोली ऊपर छत में लगी। सिवाय इस गोली के वहाँ और कोई फायर नहीं हुआ। नीचे फाटक पार करके कार पॉर्क करते हुए बाबा बसंत ने ऊपर हुए फायर की आवाज़ सुन ली थी। किसी खतरे को भांपते हुए बाबा बसंत ने कार पीछे लौटा ली। अड़ोस-पड़ोस वालों को पुलिस की मौजूदगी का कुछ पता नहीं था। सारी पुलिस फोर्स सिविल कपड़ों में थी। ट्रक बैक करके कोठी के गेट के साथ लगाया गया। इंस्पेक्टर रणदीप अन्दर आया। लड़कों को बंधा देखकर उसने इंचार्ज कमांडों की ओर गुस्से में देखा। ''मैं किसी के भागने का खतरा मोल नहीं ले सकता। इन्हें डिसएबल करो। ट्रक में फेंको।'' इंचार्ज के इशारे पर कुछ कमांडो आगे आए। बंधे हुए लड़कों की घुटनों के पास से टांगे तोड़ तोड़कर उन सभी लड़कों को ट्रक में फेंकने लगे। न किसी ने 'चूँ' की, न ही उन पर किसी को तरस आया। गुरलाभ को याद करते हुए अरजन की ज़रूर आँखें भर आईं। जिसे जान से प्यारा दोस्त समझता था, उसने इतना बड़ा धोखा किया। आपरेशन खत्म करके रणदीप ने चंडीगढ़ पुलिस मुखिया को रिपोर्ट दी।
पकड़े गए आदमी सी.आई.डी. वालों को सौंपने का आदेश हुआ। इतना बड़ा सफल आपरेशन करके रणदीप पुलिस मुखिया का चहेता बन गया था।
(जारी…)
00

1 comment:

रूपसिंह चन्देल said...

चहल जी,

वास्तविकता के धरातल पर यह एक उल्लेखनीय कृति है. अनुवाद ऎसा कि पता ही नहीं चलता कि हम हिन्दी उपन्यास पढ़ रहे हैं या कि पंजाबी .

बधाई,

चन्देल