Sunday, September 5, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 19(शेष भाग)
अगली सुबह सड़क के किनारे तीन लाशें खून से लथपथ पड़ी थीं। उनके निकट हथियार पड़े थे। तीन आतंकवादियों का सफाया कर दिया था। इलाके के लोगों ने राहत की साँस ली। नेता जी की तो बल्ले-बल्ले हुई पड़ी थी। वह अपने इलाके को आतंकवादियों के पंजे से छुड़ाने के लिए स्वयं चंडीगढ़ से चलकर आए थे।
उधर जैसे ही ड्राइवर पशुओं वाली ट्राली लेकर फिरोजपुर पहुँचा, उसने तुरन्त अपनी ढाणी पर फोन मिलाया। रास्ते में हुए हादसे के बारे में सूचित किया। बाबा बसंत और उसके साथियों का पुलिस घेरे में आ जाने के बारे में सुनकर सभी में हफरा-तफरी मच गई। अपना सामान और हथियार उठाते हुए सभी भागने की तैयारी करने लगे। बाबा की पार्टी का दो नंबर का लीडर दलबीर भी यहीं ढाणी में ही था। वह रजोरी ग्रुप के आदमियों के सामने आते हुए चीखा, ''तुम्हारे अलावा किसी को नहीं पता था कि बाबा फिरोजपुर जा रहा है।''
''हम सब तेरे सामने यहीं बैठे हैं। हमारे में से कोई बाहर नहीं गया। ऐसा गिरा हुआ काम हम नहीं कर सकते। आपस में सौ मतभेद सही, पर कोई भी खाड़कू साथी यह काम नहीं कर सकता।'' बलविंदर रजोरी ने दृढ़ता से कहा। बाबा ग्रुप का लड़का दलबीर निरुत्तर हो गया। वह घरवालों की ओर बढ़ा।
''माता, तेरा छोटा बेटा कहाँ है ?'' दलबीर आग-बबूला हुआ पड़ा था।
''वह तो ट्राली के पीछे ही गया है। गाँव से बस पकड़ी होगी।''
''तुम लोग तो हमें पहले ही देखकर राजी नहीं थे, अब तो खुश हो। बसंत समेत तीनों जनें पुलिस ने ट्राली में से उतार कर मार दिए।''
दीपे की माँ और भाभी तो पहले ही चौके में बैठीं रोये जा रही थीं।
''अब नाटक न करो। हमारा मुज़रिम तुम्हारे घर में ही है। जिन्दा रहे तो बाबा बसंत का बदला ज़रूर लेंगे।'' इतना कहते हुए दलबीर अपने आदमियों को संग लेकर ड्रेन की पटरी पड़ गया।
''माता, फिक्र न करो। हमारे होते ये तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकते। चलो भाई, निकल चलो जल्दी।'' बलविंदर रजोरी भी अपने आदमियों को लेकर निकल गया।
दीपे को भी मंड़ी में घूमते हुए अपने ड्राइवर से ही पता चला था। उसे घर की चिंता थी। वह उल्टे पैर गाँव लौट आया। गाँव पहुँच कर उसने इधर-उधर से पता लगा लिया। उसे कोई हलचल न दिखाई दी। फिर वह किसी दूसरे राह से खेत में पहुँचा। आगे घर भांय-भांय कर रहा था। खाड़कुओं की फौज तो कब का घर खाली कर गई थी।
''काम तो बहुत बुरा हुआ। चलो, पीछा छूटा अब नहीं इधर आएँगे।''
''अपना पीछा कहाँ छूटा ! बाबा के ग्रुप का दलबीर तो अपने पर इल्ज़ाम लगाता है।'' रोती हुई माँ बोली।
''वह क्यों ?''
''वह तो तेरे पर शक करता है कि तू पीछे-पीछे गया था। तेरे पर ही मुख़बरी का इल्ज़ाम लगाता है।''
''बदला लेने की धमकी देकर गया है।'' समीप खड़ी उसकी भाभी बोली।
''मुझे तो पहले ही पता था कि यह कुएँ में गिरी ईंट सूखी नहीं निकलेगी।'' दीपा चिंतित हो उठा।
घर में एकदम चुप छा गई थी। दीपा को लगा था मानो कोई भयानक आँधी आने वाली हो। उसे घर में घूमते-फिरते हर समय भय सताता। उसे लगता जैसे आसमान में उड़ती गिद्धें उसके घर के ऊपर ही मंडरा रही हों। चार-पाँच दिनों में थोड़ा तनाव घटा तो उसके पिता ने नई ही ख़बर सुनाई कि बाबा के ग्रुप के शेष बचे लड़कों ने जैलदारों की मोटर पर पनाह ले ली थी। उसका कहना था कि उन्होंने जैलदारों की मोटर शायद इसलिए चुनी थी क्योंकि वे समझते थे, इनकी जैलदारों के संग लाग-डाट थी। दीपा ने कुछ सोचते हुए अपने पिता को तुरन्त जैलदारों की तरफ भेजा।
''आओ जत्थेदार जी।'' जैलदार, जत्थेदार को अपने घर देखकर हैरान होता हुआ बोला।
''आ जाओ, एक तरफ बैठकर बात करते हैं।'' जत्थेदार को जैलदार बैठक में ले गया। जत्थेदार ने जैलदार को सारी बात बता दी।
''अब दलबीर का ग्रुप रात में तुम्हारी मोटर पर ठहरता है ?''
''ऐं !'' जैलदार हैरान हुआ।
''मुझे लगता है, वह अपने छोटे-मोटे मन-मुटाव का फायदा उठा रहा है।''
''जत्थेदार, हम तो यार चक्की के पाटों के बीच फंस गए।'' चिंतित जैलदार बोला।
''देख जैलदार, कर तो हम कुछ नहीं सकते। पर इनसे सावधान रहना है। इनकी बातों में न आना।'' जैलदार को सूचित करके जत्थेदार घर लौट आया। लगता था कि जत्थेदार के घर पर मंडराता मौत का ख़तरा जैलदार के घर की तरफ भी चल पड़ा था।
बलविंदर रजोरी के ग्रुप ने भी नज़दीक ही नया अड्डा बना लिया था। जिस तरह दलबीर दीपा के परिवार को लेकर ज़हर उगल गया था, उससे बलविंदर रजोरी को लगता था कि वह दीपा के परिवार को नुकसान पहुँचा सकता था। बलविंदर यह भी जानता था कि दलबीर ने दीपे के विरोधी जैलदारों की मोटर पर ठिकाना बना लिया था। बाबा बसंत वाली घटना होने पर कुछ दिन तो दोनों दल कहीं छिप गए थे, इस बात से डरकर कि बाबा बसंत और उसके साथियों ने पुलिस को कोई भेद न उगल दिया हो। जैसे ही उन्हें पता चला कि बसंत और उसके साथी जीवित पुलिस के हाथ में नहीं आए थे तो वे निश्चिंत हो गए। उन्होंने पुन: मल्ल सिंह वाला गाँव के खेतों में अपना ठिकाना बना लिया था।
जत्थेदार करतार सिंह के घर उसकी बड़ी बेटी अपने बच्चों सहित मिलने आई हुई थी। दीपा शहर के हॉस्टल से छोटी बहन जीती को भी ले आया था। उसकी परीक्षाएँ खत्म हो गई थीं। आगे छुट्टियाँ थीं। शाम का अँधेरा हो चला था। घर के बुजुर्ग़ रसोई के पास बैठकर बातों में लगे हुए थे। बच्चे अन्दर-बाहर भागते लुका-छिपी खेल रहे थे। दीपा की बड़ी बहन की लड़की दसेक साल की थी जो कि कमरे के अन्दरवाले नरमे के ढेर में छिपी हुई थी। शेष बच्चे उसे खोजते हुए आँगन में दौड़े फिरते थे। तभी, खाड़कू दीवारें फांद कर आँगन में उतरने शुरू हो गए। दरवाजा अन्दर से बन्द था। गिनती के चार आदमी आँगन में आ गए और बाकियों ने इधर-उधर मोर्चे संभाल लिए। दीपे की माँ ने दलबीर को देखते ही आगे बढ़कर उसे प्यार से बुलाया-
''दलबीर पुत्त, तुमने दुबारा चक्कर ही नहीं लगाया।''
''कोई बात नहीं माता, आज सभी चक्करों का हिसाब बराबर करके जाएँगे।''
''चलो, सारे आँगन में आ जाओ।'' सारा परिवार इकट्ठा हुआ चूल्हे के आगे बैठा था। सबकी साँसें थम गईं। बच्चे जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े रह गए।
''भाई दलबीर, हम लोग बैठकर बात कर लेते हैं। ऐसी क्या बात है।'' दीपे का बड़ा भाई बोला।
''तुम पंथ के दुश्मन हो। पंथ के दुश्मनों से हमें कोई बात नहीं करनी।'' दलबीर गरजा।
''भाई दलबीर सिंह, तुम्हें गलतफ़हमी हुई है।'' दीपे के भाई की आवाज़ में और अधिक नम्रता आ गई।
''तुम्हारे भाई दीपे की मुखबरी पर पुलिस ने बाबा बसंत समेत हमारे तीन जुझारू साथी मार दिए। न ही हमें कोई गलतफ़हमी है, न ही हम यहाँ कोई दलीलें सुनने आए हैं।'' दलबीर गुस्से में भरा पड़ा था।
''जल्दी करो, सभी आँगन में आ जाओ।'' दलबीर जल्दी मचा रहा था।
''खालसा जी, आँगन में तो आ जाते हैं। तुम बिना ठोस सुबूत के हमारे ऊपर इल्ज़ाम न लगाओ।'' दीपे का पिता जत्थेदार बोला। पूरा परिवार आँगन में उनके सामने आ खड़ा हुआ। सभी को लग रहा था कि दलबीर बाचतीत करना चाहता था।
''सारे एक लाइन में खड़े हो जाओ।'' दलबीर ने अगला आदेश दिया।
''हैं !'' उसकी बात सुनते ही सभी की साँसें रुक गईं।
''तुम भी जानते हो, हमारा उसूल है- मुखबिरों के परिवारों का खात्मा।''
''रे बेटा, मैं इन हाथों से तुम्हें रोटियाँ पका-पका कर खिलाती रही। आज तुम ये इनाम देने आए हो।'' माँ ने वास्ता दिया।
''भाजी, हमने तुम्हारी अपने भाइयों जैसी सेवा की। सिर्फ़ यह दिन देखने के लिए।'' भाभी ने हाथ जोड़े।
''खालसा जी, पुलिस के क़हर को आँख से ओझल करके हमने तुम्हें अपने बेटों की तरह संभाला। गरम हवा नहीं लगने दी। आज यह शाबासी देने लगे हो।''
सभी को लगा था कि जो कुछ दलबीर कह रहा था, वह सिर्फ एक दबका ही था।
''जाब्ता सभी के लिए बराबर है। तुम मुखबिर हो। तुम्हें मुखबिरों वाली सजा मिलेगी।'' जब दलबीर बच्चों को धकेल कर लाइन के पास करने लगा तो सभी के दिलों की धड़कने रुक गईं।
''बाबा बसंत जैसे योद्धे मरवाकर तुम लोग जिन्दा नहीं रह सकते।''
''तुम्हें बाबा बसंत ने यही सिखलाया कि जहाँ रहो, वहीं घाण कर दो।'' जत्थेदार फिर बोला।
''अब दूर हो जाओ। हमारे करीब कोई न आए।'' दलबीर तैयार होने लगा।
''अगर तुम समझते हो कि मैंने मुखबिरी की है तो तुम्हारी मान लेते हैं। मैं तुम्हारा मुज़रिम हूँ। मेरे मारो गोली। बाकी परिवार का क्या कसूर है ?'' दीपा सामने आ गया। दलबीर ने दीपा को धक्का देकर पीछे कर दिया।
''रे बेटा, मैं ही तुम्हें खिलाती-पिलाती रही हूँ। बाकियों को छोड़ दो, मेरे गोली मार दो।''
''बुढ़िया, पीछे हट।'' दलबीर माता से बुढ़िया पर आ गया।
''हम तुम्हें गुरू के सिंह समझकर तुम्हारी सेवा करते रहे। यह है तुम्हारी सिक्खी ?'' जत्थेदार ने धिक्कारा।
''भाई जी, मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ। मेरी मिन्नत मान लो। हमें बख्श दो।'' जीती ने हाथ जोड़े।
''रे बेटा, यह तो मेरी बेटी मिलने आई है। इसका कोई कसूर नहीं।'' माता ने बडी बेटी को बचाने की आख़िरी कोशिश की। दीपा, दीपे का बड़ा भाई, भाई के दोनों बच्चे, भाभी, माता-पिता, बहन जीती, मिलने आई बड़ी बहन और उसका बड़ा बेटा सभी लाइन में खड़े थे। लुकाछिपी खेलती बड़ी बहन की दसेक साल की बेटी नरमे के अन्दर छिपी रोशनदान में से सब कुछ देखती हुई कांप रही थी।
किसी की गिड़गिड़ाहट ने, बच्चों की मासूमियत या किसी की मिन्नतों ने दलबीर पर कोई असर न किया। उसने पीछे हटकर गोलियों की बौछार करके सभी को खरबूजों की भाँति उड़ा दिया।
अकेले मल्लसिंह वाला में ही नहीं बल्कि सारे इलाके में मातम छा गया। जब लोगों को यह पता चला कि वे जिस घर में साल भर रोटियाँ खाते रहे थे, बाद में उन्हीं ने उस घर के पूरे परिवार का खात्मा कर दिया। लोगों के दिलों में गुस्से की लपटें उठने लगीं। लेकिन विवशता के चलते सभी खामोश रहे। पुलिस तो गाँव में भी नही आई। पुलिस का कहना था कि इस परिवार ने पहले उन्हें खुद ही पाला था, इसमें पुलिस क्या करे। इतने बड़े नरसंहार पर किसी ने 'हाय' नहीं की। गाँववालों ने मिलकर पूरे परिवार का दाह-संस्कार किया। सभी की आत्मा की शान्ति के लिए गुरूद्वारे में ही पाठ रखवाया गया। खाड़कूवाद और पुलिस की दहशत इतनी थी कि गुरूद्वारे के भाईजी के अलावा दीपे के परिवार की ओर से सिर्फ़ उसका मौसा यानी सुखचैन का पिता अरदास में शामिल हुआ या फिर गाँव में से सिर्फ़ जैलदार आया। वह भी यही भाव प्रकट करने के लिए कि उसका इस कांड से कोई वास्ता नहीं। मारे गए परिवार के लिए अफ़सोस प्रकट करते हुए जैलदार को दीपे के मौसा ने बड़ी तसल्ली दी कि उनका इसमें कोई कसूर नहीं। लेकिन बुजुर्ग़ जैलदार आने वाली किसी होनी के बारे में सोचकर थर्र-थर्र कांप रहा था।
सूने घर को ताला लगाकर जब दीपे का मौसा अपने गाँव लौटने लगा तो बलविंदर रजोरी उसके सम्मुख हाथ जोड़ता हुआ मिला, ''खालसा जी, धिक्कार है ऐसे खाड़कुओं पर जिन्होंने साल भर की सेवा का यह मूल्य दिया।''
''चलो जी, जो वाहेगुरू को मंजूर।'' बुजुर्ग़ चलना चाहता था। बलविंदर रजोरी ने फिर उसे रोक लिया, ''हम भी उस घर में साल भर रहे हैं जी। जिसकी शह पर इतना बड़ा काम हुआ, उनसे बदला हम लेंगे।''
बलविंदर की बात सुनकर बुजुर्ग़ ने हाथ जोड़े, ''हमारा या हमारे रिश्तेदारों का गाँव में किसी से कोई वैर-विरोध नहीं था। रब के वास्ते इस कहानी को यहीं बन्द कर दो।''
''यह कहानी ऐसे ही बन्द नहीं होगी जी। अच्छा, अब इजाज़त दो।'' बगैर कोई जवाब सुने बलविंदर रजोरी अपनी राह पर चल दिया।
हफ्ता भी नहीं बीता था जब बलविंदर रजोरी का परिवार जैलदार के घर पहुँचा। जो कुछ जत्थेदार की ढाणी में हुआ था, वही कुछ वहाँ दोहराया गया। जैलदार पर जत्थेदार के परिवार को मरवाने का दोष लगाया गया।
(जारी…)
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2 comments:

रचना दीक्षित said...

आज पहली बार आपके ब्लॉग तक आ पाई हूँ अच्छा लगा और देर से आने का अहसास हुआ

Sanjeet Tripathi said...

bataiye kahani kya se kya mod leti hai bhalaa.