Sunday, October 10, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (1)



पंजाब संताप पर एक पठनीय उपन्यास - 'बलि'
-सुभाष नीरव (हिंदी कथाकार एवं अनुवादक)

जिस समय मुझे हरमहिंदर चहिल का पहला नावल ''बलि'' डाक से मिला, उन दिनों मैं अपने घर-परिवार और आफिस के कामों में हद से ज्यादा उलझा हुआ था। आकार में बड़ी कृतियां, विशेषकर उपन्यास आदि वैसे भी पढ़ने के लिए खुले समय की मांग करती हैं। खुले समय की ही नहीं, पाठक के धैर्य की भी। सोचा, इसे फुर्सत में पढूंगा। लेकिन जब मैंने यूँ ही इसे सरसरी तौर पर पढ़ना प्रारंभ किया तो स्वयं को रोक नहीं पाया। बहुत कम पुस्तकें ऐसी होती हैं जो अपने आप को पढ़वा ले जाती हैं। 'बलि' उपन्यास में सबसे पहली खूबी तो यही है कि यह अपनी पठनीयता के गुण के चलते अपने आप को पढ़वा ले जाता है। किसी भी रचना में मैं इस गुण को अनिवार्य मानता हूँ। पंजाब संताप पर मैंने इससे पहले कोई उपन्यास नहीं पढ़ा है। हाँ, इस दुखांत को समेटती ढेरों कहानियाँ पढ़ी हैं। मुझे वे दिन याद आते हैं जब मैं इस विषय पर सन् 83 से सन् 92 के बीच लिखी गई कहानियों को मैं एकत्र करता रहा था और उनमें से 24 चुनिंदा कहानियों का हिन्दी अनुवाद मैंने किया था और जो ''काला दौर'' नाम से वर्ष 1994 में प्रकाशित हुई थी।
देश विभाजन की त्रासदी के जख्म अभी पूरी तरह सूखे भी नहीं थे कि पंजाब को एक और भयावह त्रासदी भरे दौर से गुजरना पड़ा। मुझे यहाँ पंजाबी के चर्चित कवि सुरजीत पात्तर की ये काव्य पंक्तियाँ याद आ रही हैं-''मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ /और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से/पंक्ति को काट देता हूँ/ मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ/ और डर जाता हूँ गुरिल्ले बागियों से/पंक्ति काट देता हूँ/मैंने अपनी जान की खातिर/अपनी हज़ारों पंक्तियों का/इस तरह क़त्ल किया है।'' ये पंक्तियाँ पंजाब के उस काले दौर की दहशत को व्यक्त करने के लिए काफी हैं जो आप्रेशन ब्लू-स्टार से कुछ वर्ष पूर्व से आरंभ होकर पंजाब में बेअंत सिंह की सरकार कायम होने तक बरकरार रहा। उन काले दिनों में पंजाब की धरती बेहद त्रासदीपूर्ण और भयावह स्थितियों को अपनी छाती पर झेलती रही और लहूलुहान होती रही। दिन में राजा के सिपाहियों(पुलिस) और रात में बागी गुरिल्लों(खाड़कुओं) के आतंक के काले साये में पंजाब के लोग घुट-घुट कर जीवन जीने के लिए विवश होते रहे। गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे, शहर-शहर फैले इस आतंक और निर्मम हत्याओं के सिलसिले को याद करते हुए आज भी दिल काँप उठते हैं। इस सन्दर्भ में यहाँ तक कहा गया कि ए.के. 47 ने जो ज़ख्म पंजाब को दिए हैं, वे सन् 47 में विभाजन के समय मिले ज़ख्मों से कहीं अधिक गहरे हैं।
यह भी निर्विवाद है कि गन्दी राजनीति के चलते पूरे पंजाब को इस संताप को झेलने के लिए विवश होना पड़ा। सत्ता और राजनीति के इस गंदे खेल ने जहाँ लोगों के आपसी रिश्तों में दरार पैदा की, वहीं पूरे समाज में बेगानेपन और अकेलेपन को भी प्रोत्साहित किया। यही नहीं, इस दौर में सारे मानवीय और सामाजिक मूल्यों को भी अपने अपने स्वार्थों की खातिर दरकिनार कर दिया गया। दहशत, सहम और निर्दोष लोगों की बेरहम हत्याओं का एक लम्बा सिलसिला पंजाब की धरती अपनी छाती पर झेलते हुए दर्द से चीखती रही। चीखते पंजाब के इस दर्द की अभिव्यक्ति पंजाबी साहित्य में तब से होती आ रही है जब पंजाब समस्या अपने प्रारंभिक दौर में थी। समय समय पर इस समस्या का रूप बदलता रहा। आप्रेशन ब्लू स्टार से पूर्व स्थिति कुछ और थी और इस आप्रेशन के बाद कुछ और ही रूप धारण कर गई। नवम्बर 84 के दंगों ने तो जैसे समूची मानवता को ही हिलाकर रख दिया। हिन्दू-सिक्खों के बीच सबसे गहरी और वीभत्स दरार इसी समय पैदा करने की कोशिश की गई।

इस दौर में पंजाब की जो तस्वीर सरकारी, गैर सरकारी मीडिया और अखबारों के माध्यम से पेश की जाती रही, वह तस्वीर पंजाब की सही तस्वीर नहीं बन सकी। दूसरी तरफ भय, आतंक और दहशत के बावजूद पंजाब के लेखक, कवि अपनी-अपनी रचनाओं में उस सच को पकड़ने की पुरजोर कोशिश करते रहे जिसे सरकारी, गैर सरकारी मीडिया सामने लाने से कतराता रहा। कहने का तात्पर्य यह कि इस काले समय के दौरान भी लेखक-कवि अपने समय की सचाई से ऑंखें मूंदे नहीं बैठे रहे और इसीलिए यह संताप पंजाबी साहित्य की हर विधा- कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास और लघुकथा आदि में स्पष्ट झलकता है।
परन्तु मेरा मानना है कि किसी काल विशेष में घट रही घटनाओं को केन्द्र में रखकर उस काल विशेष के दौरान लिखी गई रचनाओं और उस काल विशेष के बीत जाने के पश्चात् कुछ अन्तराल से उन्हीं घटनाओं पर लिखी गई रचनाओं में एक अन्तर होता है। घट रही घटनाओं के बीच लिखे जा रहे साहित्य में एक तात्कालिक प्रतिक्रिया जैसा जल्दीपन होता है जो रचना को अधिक विश्वसनीय और प्रभावी नहीं बनने देता। यही नहीं, रचनाओं पर एकपक्षीय और एकांगी रह जाने का खतरा भी बना रहता है। रचना में सच को पकड़ने के लिए जिस धैर्य और पड़ताल(Analysis) की ज़रूरत होती है, वह समय की मांग करते हैं। यह धैर्य और पड़ताल करने की प्रक्रिया रचना को अधिक प्रभावी और विश्वसनीय बनाती है। इस सन्दर्भ में हिन्दी में विभाजन पर भीष्म साहनी द्वारा लिखे उपन्यास ''तमस'' को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। हरमहिंदर चहिल के उपन्यास 'बलि' को भी इसी सन्दर्भ में देखा-पढ़ा जा सकता है। यह उपन्यास पंजाब के उस काले दौर की जो तस्वीर प्रस्तुत करता है, वह सत्य के अधिक करीब प्रतीत होती है और यहाँ एकपक्षीय और एकांगी दृष्टिकोण भी दिखलाई नहीं देता है। इस नावल के द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिश की गई हैं कि सभी अतवादी/खाड़कू संगठन निर्दोष लोगों के कत्लेआम का समर्थन नहीं करते थे और वे इसके खिलाफ थे। उनकी लड़ाई सिर्फ पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध थी या अंधी सरकार के। लूट और ऐशोआराम में विश्वास रखने वाले कुछ शरारती तत्व अथवा गुट ही थे जो खाड़कु जत्थेबंदियों के नाम पर बहु-बेटियों की इज्जत लूटते थे, बसों से उतार कर एक समुदाय विशेष के निर्दोष लोगों की सरेआम हत्या करते थे और निरीह लोगों को लूटकर अपनी जेबें भरते थे। उपन्यास के केन्द्रीय पात्र गुरलाभ सिंह के बहाने इसी बात को पुष्ट करने की कोशिश नावल में की गई है। नावल में पुलिस बर्बरता के जिस चेहरे को चित्रित किया गया है, उस चेहरे को इसी विषय पर लिखीं अनेकों कहानियों में हम पहले भी देख चुके हैं। महिंदर सिंह कांग की लम्बी कहानी ''जून'' में दर्शायी गई पुलिस बर्बरता पाठकों के रौंगटे खड़े कर देती है। यह उपन्यास एक चेहरा हमें गन्दी राजनीति का भी दिखलाता है। नेताओं ने कभी नहीं चाहा कि पंजाब समस्या का कोई पुख्ता हल निकले। वे वोट की गंदी राजनीति के चलते उस कुर्सी को हथियाने की कोशिश में ही संलग्न रहे जो उन्हें सत्ता और शक्ति प्रदान करती है। आम जनता की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। इस उपन्यास से एक बात फिर बडे पुख्ता ढंग से उभर कर सामने आती है कि पंजाब के काले समय में चल रही लहर को आम जनता के बहुत बड़े हिस्से का कभी समर्थन प्राप्त नहीं था। भय और दबाव के चलते भले ही कुछ लोग उसका समर्थन करते रहे हों, पर सच्चाई यही थी कि आम जनता पूरी तरह से इस लहर के विरुद्ध थी।

यह पूरा उपन्यास हमें पंजाब के उस काले समय की यात्रा कराते हुए जो तस्वीर हमारे समक्ष रखता है, वह तस्वीर भयावह ज़रूर है पर सच के बहुत करीब लगती है। लेखक अपने पहले ही उपन्यास में यह विश्वास भी जगाने में सफल हुआ है कि उसके अन्दर अपनी बात को कहने का एक रचनात्मक कौशल मौजूद है। वह अपनी भाषा, शैली और प्रस्तुति में एक मंजा हुआ लेखक प्रतीत होता है।
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