समय के सच को बयान करता है - 'बलि'
-(स्व.) राम सरूप अणखी (पंजाबी के प्रख्यात कथाकार/उपन्यासकार)
बीसवीं सदी के नौंवें दशक का माहौल पंजाब में एक काली-स्याह आँधी का माहौल था। लेकिन, चूँकि पंजाबी लेखक पर प्रगतिवादी दौर का भरपूर असर था, इसलिए अधिसंख्यक पंजाबी रचनाकार विचलित-भयभीत नहीं हुए और न ही इस बहाव में बहे। कुछ लेखकों ने लाभ ज़रूर लिया, जिनके लेखन ने माहौल को हवा ही दी। समय गुजर जाने के बाद यह लेखन अब रद्दी की टोकरी का श्रृंगार बन चुका है।
लेकिन जिन लेखकों ने इन काले दिनों में थपेड़े झेले और अपनी देह पर भोगा, उन्होंने इस सारी कायनात को समझा भी, और इस सारे माहौल के एक इतिहास बन चुकने के बाद जो भी लिखा, सच लिखा है। उन लेखकों की रग-रग में यह सारा ‘भाणा’ पारे की तरह जमकर बैठा है। हरमिंदर चहल उन लेखकों में से एक जबर्दस्त उदाहरण है। समय के सेक को न झेलने के कारण वह पंजाब की धरती छोड़कर सुदूर अनजानी और पराई मिट्टी में जा धंसा था। हरमहिंदर चहल कहानियाँ तो पहले ही लिखता था, उसका नावल ‘बलि’ समय के सच को बयान करता है। उसने उस काले दौर के अलग-अलग पहलुओं को अपनी रचना का हिस्सा बनाया है। वक़्ती तौर पर बने सियासी नेता कैसे मासूम लोगों के लहू के साथ खेलते हुए राजनीति के शहसवार बन बैठे। उन्होंने लाभ उठाया और धन भी कमाया। कुर्सियों का आनन्द भी उठाया। पर कई इस घमासान युद्ध में जीवन ही अर्पण कर गए। लेखक ने हर हाल में मानवीय मूल्यों का पल्लू पकड़े रखा। उसने ‘बलि’ नावल में वक़्त की सही तस्वीर पेश की है।
‘बलि’ में लुधियाने के गुरू नानक पॉलीटेकनिक कालेज को केन्द्र बनाया गया है। अतिवादी बने विद्यार्थियों के वृतांत को बहुत खूबी से बुना और निभाया गया है। नावल के पात्र सुखचैन, गुरलाभ, रंगी, सत्ती, गमदूर, अजायब, रणदीप, नाहर, जीता फ़ौजी, महिंदर, बाबा बसंत, अक्षय कुमार आदि एक ऐसी गाथा खड़ी करते हैं कि यह कथा-रचना में एक महाकाव्य का रूप धारण करती प्रतीत होती है। घटनाएँ, कल्पना की भव्यता को पेश करते हुए भी वास्तविकता के बहुत नज़दीक चली जाती हैं। लेखक की प्रस्तुति और भाषा-शैली इतनी रोचक और दिलचस्प है कि ‘बलि’ नावल ‘फिक्शन’ की एक नई परिभाषा पेश करता जाता है।
इस उपन्यास में कोई एक किरदार नायक नहीं दिखता, मानो सभी स्वार्थी और मौकापरस्त हों। लेखक ने कहानी को जिस तरफ़ मोड़ना चाहा और जो वक़्त का तकाज़ा भी था, उसमें वह बहुत सफल हुआ है।
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Sunday, October 17, 2010
‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (2)
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