Sunday, October 17, 2010

कहानी



ममता
हरमहिंदर चहल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

मुझे नहरी विभाग में काम करते हुए चार-पाँच साल हो गए थे। पहली बार मेरी बदली दूर ग्रामीण इलाके की हुई थी। वैसे मुझे तो कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मेरा बचपन गाँव में ही बीता था। मुझे यह इलाका बहुत बढ़िया लगा। गाँव से दो-तीन किलोमीटर दूर नहर के किनारे पर ही सभी कर्मियों के क्वार्टर बने हुए थे। यह इलाका पंजाब और राजस्थान की सीमा पर पड़ता था। सारे क्वार्टरों से एक तरफ हटकर मेरा क्वार्टर था और बीच में एक पुराना बना हुआ रैस्ट हाउस था। इस सारी जगह को नहरी कोठी कहा जाता था। आसपास टीले ही टीले। गर्मियों में दिनभर धूल के बगूले उठते, आँधियाँ चलतीं। शाम होते ही कोठी एक ख़ामोश और शान्त वातावरण में डूब जाती थी। मेरा यहाँ बहुत दिल लगता था और मेरे दो वर्षीय बेटे बब्बू का भी। पर श्रीमती कई बार बोर हो जाती। शनि-इतवार शहर में अपने मायके में एक-आध रात गुजार आती। धीरे-धीरे उसका भी दिल लगने लग पड़ा। परन्तु जब कभी उसे शहर जाना होता तो बब्बू मेरे पास रह जाता था। बेशक बहुत छोटा था पर उसे मम्मी के जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।
गाँवों के लोग बहुत सीधे-सादे और मिलनसार थे। हालांकि वे जाट बोली बोलते, पर आहिस्ता-आहिस्ता मुझे उनकी बोली समझ में आने लग पड़ी थी। जैसे-जैसे उनके बीच घुलते-मिलते जा रहे थे, वैसे-वैसे उनके विषय में और बहुत कुछ पता चल रहा था। ये लोग बहुत साफ़ दिल के थे और मेहमान-नवाज़ भी थे। विशेषकर हमारे मकहमे की बहुत कद्र करते थे।
इस इतवार को श्रीमती शहर चली गई थी। मुझे गाँव के सरपंच को मिलने जाना था। मैं बब्बू को भी संग ही ले गया। शाम के समय हम सरपंच के घर पहुँचे। वह गाँव का चौधरी था। उसके परिवार ने बब्बू को आँखों पर बिठा लिया। सारे परिवार ने उसे बहुत प्यार दिया। बब्बू भी दौड़ते-भागते बहुत खुश था। कभी वह उनके चौबारों पर चढ़ जाता, कभी आँगन में दौड़ा फिरता। ऐसे दौड़ते-भागते हुए उसकी निगाह मृग के एक बच्चे पर पड़ी। चौधरी ने बहुत समय से मृगों का एक जोड़ा पाल रखा था। यह उसी जोड़े का एक छोटा-सा बच्चा था। वैसे भी इस इलाके में एक तो जंगली जानवरों को मारने की मनाही थी और दूसरा बहुत खुला जंगल-बियाबान था। बाहर खेतों में मृगों की डारें दौड़ती फिरतीं। मेरे ख़याल में पंजाब का यही इलाका बचा था जहाँ पर शिकार की मनाही होने के कारण पुराने जानवरों की निशानी शेष बची थी। दिन छिपने के समय मृगों की डारें इन जंगलों में उछलती-कूदती रहतीं। हमारी नहरी कोठी के पिछवाड़े भी मृगों की एक डार हर रोज़ शाम के वक्त ख़रमस्तियाँ करते हुए गुजरा करती थी।
चौधरी के घर मृग का बच्चा देखकर बब्बू मचल उठा। बोला, ''पापा, मैं तो मिलग का बत्ता लूंगा।'' मैंने बहुत समझाया कि यह बच्चा इनका है, हम कैसे ले जा सकते हैं। चौधरी ने भी बताया कि ले जाने की तो कोई बात नहीं, पर यह छोटा-सा बच्चा वहाँ अकेले रही नहीं पाएगा।'' पर बब्बू को कौन समझाए। जैसे-जैसे मृग का बच्चा हवा में छलांगे मारता था, बब्बू की उसे ले जाने की जिद्द बढ़ती जाती थी। आख़िर, चौधरी ने एक रास्ता निकाला। उसने कहा कि कल वह अपने कामगार को भेजकर हमारी कोठी के पास से गुजरने वाली मृगों की डार में से एक बच्चा इसके लिए पकड़वा देगा। वैसे चौधरी ने मुझे समझाया कि इस तरह डार से बिछुड़ा बच्चा कम ही पला करता है।
अब बब्बू बहुत अधिक खुश था। अगले दिन उसे प्रतीक्षा करते-करते बमुश्किल शाम हुई। हम कोठी के पिछवाड़े आ गए जिधर से डार ने गुजरना था। दिन छिपने के साथ ही दूर से धूल उड़ातीं मृगों की डार आ रही थी। मस्ती में आए मृग हवा में अठखेलियाँ करते, छलांगे लगाते आते थे। करीब आने पर चौधरी के आदमी डार की तरफ चल दिए। पहले तो कुछ बड़े मृग मारने को दौड़े, परन्तु कारिन्दे ऐसे कामों के भेदी थे। आख़िर, वे एक बच्चा उठाकर भाग पड़े। दो जनों ने बड़ी कठिनाई से बच्चे को काबू में किया। बच्चे की माँ हिरनी पहले तो मारने को दौड़ी, पर उसका वश न चला। फिर उसने असहाय-सा होकर मुँह से एक ऐसी दर्द भरी आवाज़ निकाली जैसे दया की भीख मांग रही हो। फिर उसने अगले दोनों पैर धरती पर जोड़कर पटके जैसे आखिरी बार मिन्नत कर रही हो, ''मेरा बच्चा दे दो...।'' उसकी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं तो वह मायूस-सी होकर खड़ी हो गई। फिर उसने डार की ओर देखा जो थोड़ी देर रुक कर आगे बढ़ गई थी। वह भी डार के पीछे चल पड़ी। कुछ कदम चलकर फिर खड़ी हो गई। बच्चा छूटने के लिए छटपटा रहा था। लेकिन मजबूत हाथों ने उसे काबू में कर रखा था। हिरनी फिर डार के पीछे चल पड़ी। काफी आगे जाकर उसने खड़े होकर गर्दन घुमाकर बच्चे की तरफ देखा। फिर चल पड़ी। अब वह कुछ कदम चलती, फिर रुककर बच्चे की तरफ तरसभरी नज़रों से देखती। फिर चल पड़ती। ऐसा उसने कई बार किया। उसकी डार भी उससे दूर होती जा रही थी। आख़िर, बेबस हिरनी अनचाहे मन से धीरे-धीरे डार में जा मिली।
चौधरी के आदमियों ने मृग के बच्चे को एक कमरे में ले जाकर बन्द कर दिया। बाहर से कुंडा लगा दिया। वे नौकर को उसे कुछ खिलाने-पिलाने के बारे में भी बता गए। अब मृग का बच्चा हद से ज्यादा उदास और बब्बू हद से ज्यादा खुश था। नौकर ने मृग के बच्चे के पैर में रस्सी डालकर उसे चारपाई के पाये से बांध दिया। बब्बू कभी उसके आगे पानी रखता और कभी दूध। कभी कटोरी में दाने डालकर रखता, कभी रोटी। बब्बू हर कोशिश कर रहा था कि मृग का बच्चा कुछ खा ले और उसके साथ दोस्ती कर ले। लेकिन मृग का बच्चा इन सबसे बेमुख उदास एक तरफ हुआ बैठा था। उदासी आँखों में पानी तैर रहा था। बब्बू परेशान था कि बच्चा उसका दोस्त क्यों नहीं बनता। पर उसे क्या पता था कि जो डारों से बिछुड़ जाते हैं, उन पर क्या बीतती है।
अगले दिन बब्बू दिन भर मृग के बच्चे के आसपास दौड़ता-भागता रहा। बच्चे ने एक भी चीज़ को मुँह नहीं लगाया। निराश्रय-सा होकर एक कोने में लगकर बैठा रहा। शाम के वक्त जब डार वापस आ रही थी तो कोठी के बराबर आकर हिरनी पैर गाड़कर खड़ी हो गई। उसने मुँह से कोई आवाज़ निकाली जैसे कोई गाय रंभाती है। फिर क्या था, अन्दर बन्द किया गया बच्चा उछलने-कूदने लग पड़ा। कई तरह की आवाज़ें भी निकालने लगा। बब्बू बहुत खुश हुआ। उसने सोचा कि शायद बच्चा अब उससे दोस्ती कर रहा है। बाहर हिरनी की याचना देखने वाली थी और अन्दर बच्चे की छटपटाहट। दोनों माँ-बेटा मजबूर थे। बाहर काफी देर परेशान होने के बाद हिरनी डार में मिलकर चली गई। अन्दर बच्चा फिर ख़ामोश होकर एक कोने से लगकर बैठ गया। बच्चे के ख़ामोश होने के बाद बब्बू उदास-सा बाहर निकला। उसने मृगों की डार को जाते हुए देखा। बब्बू एकदम उदास-सा हो गया। रात में पहले तो चुप-सा पड़ा रहा, फिर मेरे संग बातें करने लग पड़ा-
''पापा, बत्ता तुप क्यों है ?''
मैंने कहा कि बेटा उसका अपनी मम्मी के बगैर जी नहीं लगता।
''पापा, उसकी मम्म लोती होगी।'' वह उदास-सा बोला।
''पता नहीं।'' मैंने चुप तोड़ी।
''पल मैंने देखा है बत्ता तो लोता था।''
मैंने पूछा, ''तूने कब देखा ?''
वह कहने लगा कि जब डार यहाँ से निकली थी तो वो अन्दर रोये जाता था और इसकी माँ बाहर रो रही थी।
इससे पहले मैंने बब्बू से पूछा था कि हम बच्चे को छोड़ दें क्योंकि इसका अपनी माँ के बगैर जी नहीं लगता। तब बब्बू ने झट से कहा था, ''नहीं, मैं नहीं बत्ता देता।'' पर अब मैंने दुबारा पूछा तो बब्बू ने इतना ही कहा, ''मुझे नहीं पता।''
अगले दिन बब्बू बच्चे की सेवा-टहल में ही लगा रहा और शाम होने की प्रतीक्षा करता रहा। बच्चे ने फिर किसी चीज़ को मुँह नहीं लगाया। उदास चुपचाप बैठा रहा। उसकी आँखों में से लगातार पानी बह रहा था। शाम को अचानक बब्बू ने देखा कि बच्चे ने कल की तरह छलांगे लगाना और आवाज़ें निकालना शुरू कर दिया था। बब्बू दौड़कर कोठे पर गया। उसने देखा कि कोठी के पिछवाड़े मृगों की डार खड़ी है। बेचारी हिरनी उसी तरह विलाप कर रही थी। बेबस, लाचार हिरनी कुछ देर पैरों से धरती खोदती रही, हाँफती रही, रोती-कुरलाती रही। पर आख़िर गिरती-ढहती डार से जा मिली।
बब्बू ने शाम को रोटी नहीं खाई। पहले अपनी माँ के बगैर बहुत दिन अकेला ही मेरे पास रह लेता था। लेकिन इस बार चौथे दिन ही वह बहुत उदास-सा दिखाई देने लगा। मैंने रोटी खिलानी चाही तो जोर-जोर से रोने लग पड़ा, ''पापा, मैंने मम्मी के पास जाना है, मेला तो जी नहीं लगता।''
आहिस्ता-आहिस्ता बब्बू सिसकियाँ भर कर रोने लग पड़ा। मैंने बमुश्किल कल का बहाना लगाकर उसे शान्त किया। वह पता नहीं किस वक्त सिसकते हुए सो गया। अगले दिन तड़के ही उसे हल्का बुखार भी हो गया। नौकर ने मुझे उसके पिछले दिन हिरनी की आवाजें सुनकर उदास होने की बात भी बताई। मैं दिन भर उसके पास ही रहा। शाम को वह बुखार से भी ठीक था, चलने फिरने भी लगा। पर लगता था जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो।
दिन छिपने के समय कोठी के पीछे से मृगों की डार फिर गुजर रही थी। डार खड़ी हो गई। हिरनी ने घुटने मोड़कर मुँह से आवाजें निकालनी शुरू कर दीं मानो विलाप कर रही हो। इधर अन्दर मृग के बच्चे ने आवाज़ सुनकर छलांगें मारना शुरू कर दिया। बब्बू ने चुपचाप जाकर कमरे का दरवाजा खोला। फिर बच्चे की टांग से बंधी रस्सी खोल दी। बच्चा छलांग मारकर आँगन में आया। फिर जिधर से आवाजें आ रही थीं, उधर छलांग मारकर ऑंगन पार कर गया। उसकी माँ हिरनी ने उसे बेतहाशा चूमना-चाटना शुरू कर दिया। सारी डार उछलने-कूदने लग पड़ी। फिर बच्चे को बीच में लेकर डार अपनी राह पर चल दी।
इधर बब्बू दौड़ता हुआ अन्दर आया। वह बहुत खुश था। खुशी में उछल-कूद रहा था। लगता ही नहीं था कि उसे बुखार होकर हटा है। उसके चेहरे पर अनौखी चमक थी। मेरे कुछ कहने से पहले ही दौड़कर वह अपने संगी-साथियों की ढाणी में जा घुसा।
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2 comments:

Patali-The-Village said...

कहानी बहुत अच्छी और शिक्षाप्रद लगी धन्यवाद|

Sanjeet Tripathi said...

sach hai, mamta bhaav hi aisa hai....