Monday, February 1, 2010

धारावाहिक उपन्यास



प्रिय दोस्तो… मुझे जानकर खुशी हो रही है कि नेट की दुनिया के पाठक मेरे ब्लॉग पर आकर न केवल मेरे उपन्यास ‘बलि’ को पढ़ रहे हैं बल्कि अपनी राय से मुझे अवगत भी करा रहे हैं। किसी भी लेखक के लिए वे क्षण अत्यंत सुखद होते हैं जब वह अपने पाठकों की राय से गुजरता है। मैं डॉ रूपसिंह चन्देल, बलराम अग्रवाल, महेश दर्पण, सुरेश यादव, सुश्री निर्मला कपिला जी, राज सिंह, अजय कुमार, अशोक गुप्ता, चांद शुक्ला, जैनी शबनम, प्रेम, डॉ अमरजीत कौंके, प्राण शर्मा, नवराही, सुश्री संध्या गुप्ता जी और पंजाबी के वरिष्ठ लेखक जगजीत बरार जी का बहुत बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने अपनी राय देकर मेरा हौसला बढ़ाया। आदरणीय जगजीत बरार जी ने तो मेरे उपन्यास पर बहुत बड़ी प्रशंसात्मक टिप्पणी की है, मेरे जैसे लेखक के लिए यह गर्व की बात है। कुछ पाठकों की राय है कि मैं उपन्यास के चैप्टर अधिक लम्बे न दिया करूँ, लम्बी पोस्टिंग को पढ़ना उनके लिए दुष्कर होता है। इस सन्दर्भ में मैं बताना चाहूँगा कि मेरा यह उपन्यास करीब 250 पृष्ठों का है और इसके लगभग सभी चैप्टर लम्बे हैं। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि हर चैप्टर दो या तीन अंशों में ब्लॉग पर जाए। भविष्य में भी मैं आपकी दो-टूक राय की प्रतीक्षा करूंगा। -हरमहिंदर चहल


बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

2
सुधार के बराबर आकर अबोहर ब्रांच नहर पर एक बड़ी झाल बनी हुई है। इसी झाल के ऊपरी पुल से होकर बरनाला-लुधियाना की बड़ी सड़क गुजरती है। पुल के ऊपर से देखने पर लगता है मानो पानी ऊँची चोटियों से नीचे गिर रहा हो। इतना पानी, इतनी ऊँचाई से इतने जोर से गिरता है कि पानी के शोर के अलावा और कुछ सुनाई नहीं देता। ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं, लहरें नहर की पक्की दीवारों से टकरा कर फिर नहर के मध्य की ओर मुड़ जाती हैं। ऊपर की तरफ, झाल के पीछे जो पानी दरिया बना शान्त दिखाई देता है, वही झाल से नीचे गिरते ही मदमस्त हाथी की तरह धमाल मचाता हुआ ऊपर-नीचे उठता है। पानी का कोलाहल बेहद मधुर संगीत पैदा करता है। फिर लहरें कम होती जाती हैं, पानी शान्त-स्थिर होता चला जाता है। झाल से फर्लांग भर नीचे पहुँचकर पानी बिलकुल शान्त हो जाता है। अपनी मस्त चाल से आगे बढ़ने लगता है। यहीं से नहर बायें हाथ को मोड़ काटती है। थोड़ा-सा बायीं होकर फिर सीधी हो जाती है। यही से इसके बायें किनारे के साथ-साथ हलवारे का फौज़ी हवाई अड्डा आरंभ हो जाता है। दायीं ओर लहराती हुई फसलें हैं। काफी दूर तक हवाई अड्डा नहर के साथ साथ चलता है। आगे जाकर अड्डे की सीमा आ जाती है। इससे आगे दोनों ओर हरे-भरे खेतों के बीच से नहर किसी नवब्याहता दुल्हन की तरह आगे बढ़ती जाती है। काफी दूर जाकर नहरी रैस्ट हाउस अखाड़ा आता है। उससे पहले नहर की बायीं ओर बस एक गाँव है- मलकपुर। यह गाँव न बहुत बड़ा है और न बहुत छोटा। पुराने ज़मानों में शहर की ओर जाने के लिए लोग नहर की पटरी के रास्ते ही आते-जाते थे। अब गाँव में से भी पक्की सड़क गुजरती है जो पीछे जगरावां से आकर हलवारे गाँव के अड्डे पर बरनाला-लुधियाना वाली बड़ी सड़क पर आ चढ़ती है। हलवारे फौज़ी अड्डे के बढ़ने से हलवारा गाँव भी सुधार से बिलकुल जुड़ गया है। उधर मलकपुर और हलवारा एकमेक हुए पड़े हैं।
उन दिनों न ही इतनी आबादी थी, न ही इतना ट्रैफिक, न ही इतनी सड़कें। जब सुखचैन ने गाँव से पाँचवी पास की तो नज़दीक का बड़ा स्कूल सुधार का ही था। गाँव के स्कूल से प्राइमरी पास करके मलकपुर के सारे बच्चे सुधार के हायर सेकेंडरी स्कूल ही जाते। जब सुखचैन ने सुधार के इस स्कूल में जाना आरंभ किया तो उस गाँव से लगभग पच्चीस-तीस बच्चे साइकिलों पर सुधार जाते थे। उन दिनों नहर की पटरी बहुत बढ़िया थी। सुबह के समय मलकपुर के बच्चे नहर की पटरी पर एक दूसरे से होड़ लगाते हुए साइकिलें दौड़ाते सुधार की ओर जाते। शाम को हुड़दंग मचाते बच्चों की टोलियाँ गाँव को वापस लौट आतीं।
सुखचैन का परिवार मध्यम श्रेणी का जमींदार परिवार था। उसके बड़े भाई ने उससे पहले सुधार से ही दसवीं पास की थी। दसवीं करने के पश्चात उसने किसी सेंटर से जे.बी.टी. की। फिर किसी नज़दीकी स्कूल में मास्टर लग गया। नौकरी मिलने की देर थी कि उसका विवाह हो गया। उसकी घरवाली जे.बी.टी. टीचर थी। दौड़भाग करके उसके भाई ने उसकी बदली भी अपने स्कूल में करवा ली। दोनों एक साथ स्कूल जाते, एक साथ वापस लौटते। दो जनों की तनख्वाह से घर के हालात बदलने लगे। घर में एक किस्म की बहार ही आ गई। पर यह बहार अधिक देर न रही। सुखचैन की भाभी अक्खड़ स्वभाव की थी। साझा परिवार में वह न रह सकी। घर में झगड़ा रहने लगा। बड़े भाई ने घरवालों को अपने अलग होने की मंशा बताई। घरवालों की तो कंपकंपी छूट गई। उसके पिता ने खुद तंग रहकर जैसे तैसे उसे कोर्स करवाया था। सारी उम्मीदें उसी पर टिकी थीं कि यह नौकरी करेगा और घर को संभालेगा। साथ ही, छोटों को पढ़ाएगा। परन्तु जब उसने चारों पल्ले झाड़ दिए पिता को चिन्ता हुई। पिता ने शान्त मन से सोचा तो उसे घर के लड़ाई-झगड़े का एक हल नज़र आया। उसने बड़े लड़के को अलग रहने की इजाज़त दे दी। उसने सोचा कि घर तो जैसे पहले घिसट रहा था वैसे ही घिसटता रहेगा, पर घर में से लड़ाई-झगड़ा तो खत्म करें। लड़के को पिता का हुंकारा मिलने की देर थी कि उसने जगरावीं जाकर किराये पर मकान ले लिया। अपना डंडा-डेरा उठा कर शहर के किराये वाले मकान में रहने लग पड़ा। वहीं से दोनों पति-पत्नी स्कूल आते और वहीं से लौट जाते। घर में आना-जाना उन्होंने बिलकुल बन्द कर दिया। पिता को बेटे की नौकरी लगने का कोई फायदा न हुआ। उसके अनुसार तो वह न हुए के बराबर था। घर की कबीलदारी का रस्सा फिर से पिता के गले में आ पड़ा। इस बात का सुखचैन के दिल पर बड़ा असर पड़ा। उसे भी भाई के फैसले ने भीतर तक झिंझोड़ कर रख दिया था। भाई के माध्यम से घर में खुशहाली के उसने सपने देखे थे। उसे भाई-भाभी से नफ़रत हो गई क्योंकि उन्होंने घर की कबीलदारी को संभालने की बजाय भागने की सोची। बूढ़े पिता का बोझ बांटना तो दूर, उस पर और बोझ लाद दिया। सुखचैन का पिता 'रब की रज़ा' में रहने वाला इन्सान था। 'जो तुधि भावे...' कहते हुए उसने हाथ जोड़े। संभाल ली घर की जिम्मेदारी। इस घटना ने सुखचैन को समय से पूर्व ही गंभीर बना दिया। वह स्कूल से लौटकर खेत में चला जाता। पिता के साथ खेती के काम में हाथ बंटाता। छुट्टी वाले दिन खेत में काम करवाता। वह रात में जमकर पढ़ाई करता। दिन में अधिक से अधिक समय निकालकर खेत में काम करता। जब उसका भाई मास्टर लगा था तो वह सोचा करता था कि दसवीं करने के बाद वह कालेज ज़रूर जाएगा। कालेज को लेकर उसके बहुत सुनहरे सपने थे। अब वह सोचता कि स्कूल पास करने के बाद वह सीधे ही कोई कोर्स करेगा। फिर नौकरी करके घर की हालत बदलेगा। उसका स्कूल सुधार के बाहरी तरफ पड़ता था। स्कूल से पहले रास्ते में दायें हाथ डिग्री कालेज गुरूसर, सुधार का बोर्ड वह रोज देखा करता था। कई बार उसे कालेज के अन्दर जाने का अवसर भी मिला था। अन्दर रौब में घूमते लड़के और नाचती-कूदती लड़कियों को देखकर उसके अन्दर सरसराहट सी उठती। वह सोचता- शायद उसे भी कभी यहाँ आना है। इस कालेज में पढ़ने का उसका सपना था। लेकिन भाई की खुदगर्जी ने उसके सारे सपने चकनाचूर कर दिए। अब उसका एक ही लक्ष्य था कि कब वह कोई कोर्स पूरा करे, कब नौकरी लगकर घर की हालत को बदले।
जब उसका भाई घर से अलग हुआ, तब सुखचैन ने दसवीं कक्षा शुरू की थी। भाई वाली घटना के बाद वह पढ़ाई की ओर ज्यादा ध्यान देने लगा था। वह जानता था कि जितने अच्छे नंबर आएंगे, उतना ही अच्छा कोई कोर्स मिलेगा। कई बार वह पूरी पूरी रात जागकर पढ़ता रहता। उसमें आए इस परिवर्तन और इस बदलते स्वभाव की ओर बेशक किसी और ने ध्यान न दिया हो, पर रम्मी ने इसे अवश्य पकड़ लिया था। रम्मी हैरान थी। हँसते-खेलते सुखचैन को क्या हो गया ? जो सारा दिन हँसता-खिलखिलाता रहता था, उसे एकदम ही सांप सूंघ गया। मानो वह गुमसुम हो गया हो।
रम्मी रिटायर्ड कर्नल की बेटी थी। हलवारे फौज़ी हवाई अड्डे के सिरे पर अफसरों और अन्य कर्मचारियों के क्वाटर थे। रम्मी का पिता था तो फौज़ी अफसर पर वह कहीं ओर से रिटायर होकर आया था। इन क्वाटरों में हलवार अड्डे की यूनिट के ही सभी कर्मचारी थे। कुछेक बाहर से भी थे। रम्मी का पिता भारतीय फौज़ में से तो कर्नल के पद से रिटायर हो गया था, पर बाद में उसे एक ऐसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई जो हलवारा फौज़ी यूनिट के लिए काम करती थी। नौकरी मिलने के बाद उसने दौड़भाग कर इन क्वाटरों में से एक क्वाटर अपने लिए अलॉट करवा लिया। उसकी बड़ी लड़की ने हायर सेकेंडरी में दाख़िला ले लिया। क्वाटर नहर के निकट ही पड़ते थे। क्वाटरों के कुछ अन्य बच्चों के साथ रम्मी भी साइकिल पर ही स्कूल आने-जाने लगी। आरंभ में वह अन्य बच्चों में शामिल नहीं होती थी। वह फटी ऑंखों से देखती रहती। पता नहीं, ये ग्रामीण लड़के-लड़कियाँ उसे अच्छे नहीं लगते थे या फिर वह इन्हें कुछ समझती नहीं थी। पहली बार सुखचैन से उसकी बातचीत उस दिन हुई जिस दिन स्कूल से घर लौटते समय उसका साइकिल खराब हो गया। सब आगे बढ़ गए थे। वह साइकिल घसीटती पैदल नहर की पटरी पर चली आ रही थी। उस दिन सुखचैन भी किसी कारण पीछे रह गया था। उसने दूर से ही पहचान लिया था कि यह तो स्कूल में आई नई लड़की थी। सुखचैन ने करीब आकर उसका साइकिल ठीक करने की कोशिश की। साइकिल ठीक न हुआ। उसने रम्मी को अपने साइकिल के पीछे कैरिअर पर बिठा लिया और दायें हाथ से रम्मी का साइकिल पकड़कर साथ-साथ दौड़ाने लगा। सुखचैन के पीछे रम्मी आराम से बैठी थी। बैठते ही उसने राहत की सांस ली थी। पता नहीं कब से वह अपना साइकिल घसीटे चली आ रही थी।
''क्या नाम है तेरा ?'' सुखचैन ने बात चलाई।
''रमनदीप कौर। वैसे मुझे सब रम्मी कहकर बुलाते हैं।''
''लगता है, तेरे फॉदर फौज़ी अफ़सर हैं ?''
''थे, अब रिटायर हो चुके हैं। वैसे तुमने कैसे अंदाजा लगाया ?''
''तेरे बात करने के लहजे से। तूने नाम बताया -रमनदीप कौर। अगर कोई गाँव की लड़की होती तो जानती हो वह अपना नाम कैसे बताती ?'' सुखचैन ने पीछे की ओर मुँह करके कहा।
''कैसे ?'' रम्मी के मुँह पर चंचलता थी।
''वह कहती- मेरा नाम रम्मी है या कहती- रमनदीप। तेरी तरह पूरा नाम रमनदीप कौर नहीं बताती।''
वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। इतनी सुन्दर हँसी सुखचैन ने पहली बार देखी थी। इतनी सुन्दर लड़की उसके बिलकुल पास लगकर पहली बार ही बैठी थी। थोड़ा सा भी साइकिल इधर-उधर होता तो रम्मी का मुँह सुखचैन की पीठ से जा लगता। उसे बहुत अच्छा लगता। फिर वह जानबूझ कर साइकिल यूँ चलाने लग पड़ा कि थोड़ी थोड़ी देर बाद रम्मी का मुँह उसकी पीठ से जा टकराता। फिर अचानक उसने साइकिल की ब्रेक लगाई तो रम्मी की गोल मोल सी देह सुखचैन की पीठ से जा लगी। वह रोमांचित सा हो उठा। उसे लगा कि काश, यह सफ़र खत्म ही न हो। रम्मी उसकी साइकिल के पीछे इसी तरह बैठी रहे। फिर वे इधर-उधर की बातें करने लग पड़े। सुखचैन के लिए यह पहला अवसर था कि वह किसी हमउम्र लड़की से बात कर रहा था। शायद रम्मी के लिए भी यह पहला मौका था। पन्द्रह-बीस मिनट में उनका सफ़र खत्म हो गया। रम्मी अपना साइकिल पकड़कर क्वाटरों की ओर चल पड़ी। ये पन्द्रह-बीस मिनट उनकी ज़िन्दगी में ऐसे आए कि उनके जीवन ही बदल गए।
इस घटना के बाद, जब कभी पुन: अवसर मिलता, वे एक दूसरे से बातें करने लगते। जब आपस में अच्छी तरह खुल गए तो बातें करने के लिए मौके तलाशने लगे। सवेरे तो सभी स्कूल की तरफ साइकिलों को दौड़ाते हुए जाते थे, स्कूल पहुँचने में ताकि देर न हो जाए। वापस लौटते हुए कोई जल्दबाजी न होती। सुखचैन और रम्मी धीमे-धीमे साइकिल चलाते सबसे पीछे रह जाते। जब सारा हुजूम आगे निकल जाता तो वे आराम से साइकिल बराबर-बराबर चलाते हुए बातें करने लगते। उनकी बातें पढ़ाई को लेकर होतीं, अध्यापकों को लेकर होतीं या फिर छुट्टियों के बारे में होतीं। बातें हालांकि साधारण ही होती थीं, पर उन्हें एक दूसरे के करीब रहकर अच्छा लगता। गर्मी का मौसम होने के कारण वह पानी पीने के लिए कहीं सघन दरख्तों की छांव में रुकते तो घड़ी दो घड़ी आमने-सामने बैठकर बातें करते। कभी साइकिल चलाते चलाते यूँ ही कहीं खड़े हो जाते। कुछ देर एक साथ बैठकर बिताते। कोई शक्ति थी जो दोनों को एक दूसरे की ओर खींच रही थी। यह खिंचाव दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था। कई बार जब आस पास निर्जन और सुनसान होता तो रम्मी सुखचैन के पीछे कैरिअर पर बैठ जाती। सुखचैन उसका साइकिल दायें हाथ में पकड़कर अपनी साइकिल चलाता रहता। फिर वह साइकिल तेज तेज दौड़ाने लगता। फिर एकदम ब्रेक लगाता तो रम्मी उसकी पीठ से चिपक जाती। उस समय दोनों को बड़ा मीठा अहसास होता। इस प्रकार रोज़ अठखेलियाँ करते वे दिनों दिन निकट होते चले गए। फिर शरद ऋतु आई। वह भी गुजर गई। पढ़ाई के दिन थे। दोनों एक दूसरे को देखकर पढ़ने की ताकीदें करते। रम्मी पढ़ने में वैसे भी बहुत होशियार थी। प्लस टू के सालाना पेपर आ गए। पेपरों से पहले छुट्टियाँ हो गईं। घर बैठकर दोनों ने पेपरों की पूरी तैयारी की। उसके बाद पेपर शुरू हो गए। हर तीसरे-चौथे दिन वे पेपर देकर अपने अपने घरों को लौट जाते। अब पेपरों के अलावा और कोई बात न होती। जिस दिन अन्तिम पेपर था, रम्मी ने सवेरे जाते समय सुखचैन से कहा कि पेपर के बाद एक साथ वापस लौटेंगे। अन्तिम पेपर खत्म होते ही यूँ लगा जैसे सिर पर से भारी बोझ उतर गया हो। वापस लौटते हुए दोनों एक साथ हो लिए। रास्ते में अपनी मनपसंद जगह पर आमने-सामने बैठ गए।
''अब आगे का क्या प्रोग्राम है सुखचैन ?''
''क्या मतलब ?''
''मतलब यह कि कौन सा कालेज चुना है आगे की पढ़ाई के लिए ?''
''रम्मी, मुझे तो कोई ट्रेनिंग करनी है। जिस भी कोर्स में दाखिला मिला, उसी के हिसाब से कालेज होगा।''
''यह क्या बात कर दी कि ट्रेनिंग करूँगा।'' रम्मी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
रम्मी की ओर देखकर सुखचैन ने नज़रें झुका लीं।
''डिग्री कालेज गुरूसर सुधार को देखते ही मेरा तो मन ललचाने लगता है कि कब इस कालेज में दाख़िला लूँ। इसके अन्दर कैसे लड़के-लड़कियाँ आज़ाद घूमते हैं। कैसे यहाँ खेल होते हैं। कैसे यहाँ गिद्धे-भंगड़े पड़ते हैं। ज़िन्दगी तो इस कालेज में है। मैं तो बी.ए. आर्ट्स में दाख़िला ले लूँगी। तू भी इसी कालेज में चल। हम दोनों एक ही कालेज में दाख़िला लेंगे।'' रम्मी अपने आप में मस्त हुई न जाने क्या क्या बोले जा रही थी।
''रम्मी, मन तो मेरा भी बहुत करता है इस कालेज में पढ़ने को। पर मेरी मजबूरी है। मैं आगे पढ़ाई चालू रखने की बजाय कोई कोर्स करना चाहता हूँ।'' फिर घर के हालात बताते हुए सुखचैन ने सब कुछ रम्मी को बता दिया। सुनकर रम्मी उदास हो गई।
''तेरे बग़ैर मेरा यहाँ दिल कैसे लगेगा ? साजन बिना कैसी खुशियाँ।'' रम्मी ने आँखें भर लीं।
''मैं तुझसे दूर कहाँ जाऊँगा। यहीं कहीं आसपास रहूँगा। मेरा भी कहाँ तुझे छोड़कर पढ़ने को मन करता है। पर रम्मी, मजबूरी अपनी जगह है।'' सुखचैन ने रम्मी का हाथ अपने हाथ में लेकर गहरा सांस भरा।
''तू हौसला रख। मैं कहीं भी होऊँगा, हफ्ते में एक बार तुझे ज़रूर ही मिला करूँगा।''
''जैसी तेरी मर्जी। मुझे हमेशा तेरी प्रतीक्षा रहेगी। ज़िन्दगी की आखिरी सांसों तक तेरा इंतज़ार करूँगी।'' कहते हुए रम्मी खड़ी हो गई।
''तू हौसला रख। तुझे अकेली नहीं छोड़ने वाला।'' सुखचैन भी चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
''अच्छा फिर, रिजल्ट आने तक मिलते रहना।'' इतना कहकर रम्मी ने अपनी राह पकड़ ली।
सुखचैन कुछ देर उसे जाते हुए देखता रहा। 'नसीब अपना अपना, रे मन चल अब।' अपने आप से बातें करता हुआ सुखचैन भी चल पड़ा। अब वह स्कूल की तरफ से खाली था। घर के काम में पूरा हाथ बंटा सकता था।
कई दिन तो वह छोटे-मोटे काम निपटाता रहा। इतने में गेहूं की कटाई का काम शुरू हो गया। उसने अपने पिता के सिर से खेती का सारा बोझ अपने कंधों पर ले लिया। उसने पूरी योजना के साथ गेहूं निकालने का जिम्मा संभाला। गेहूं संभल गई तो उसने झोने की तैयारी शुरू कर दी। पहले उसने इधर-उधर से बीज खोज कर बढ़िया पनीरी (धान की पौध) तैयार करवाई। फिर समय से पूरे खेत में धान की रौंपाई शुरू कर दी।
उस दिन वह खेत से थका-मांदा घर लौटा तो उनका पड़ोसी पंडित पूरन चन्द उनके घर में बैठा था जो उसका चाचा लगता था। उसके लड़के ने सुखचैन के साथ ही प्लस टू के पेपर दिए थे।
''आ भई भतीजे, बधाई ।''
''कैसी बधाई चाचा ?'' सुखचैन भौंचक सा झांका।
''अरे भतीजे, रिजल्ट आ गया। तेरा नाम भी मैरिट में है। कमाल कर दिया ओए भतीजे।'' पूरन चन्द ने उसे अपनी छाती से लगा लिया।
सुखचैन को इतनी खुशी हुई कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया। मैरिट में नाम आने का सुनकर खुशी के आँसू उसकी आँखों में तैरने लगे। उसने कसकर चाचा को अपनी बांहों में भर लिया।
''वैसे तो हमारे वाले की भी फर्स्ट डिवीजन है पर तूने तो कमाल ही कर दिया। बहुत खुशी की बात है। अब बता, आगे तेरा क्या प्रोग्राम है ?''
पूरन चन्द सरकारी नौकरी करता था। वह नहरी रैस्ट हाउस अखाड़ा में एस.डी.ओ. का क्लर्क था जिसे एस.डी.सी. कहते थे। शुरू में वह दसवीं करके नहरी विभाग में क्लर्क भर्ती हुआ था। पहले तो रिकार्ड विभाग में था। बाद में तरक्की करता-करता एस.डी.ओ. का क्लर्क बन गया। एस.डी.सी. को बड़ा अनुभव होता है। जितने भी काम ओवरसियर करवाते हैं, वह सारा रिकार्ड उसके हाथों में से ही निकलता है। फिर वह बिल तैयार करके चैक करता है। ठेकेदारों को पेमेंट करवाता है। सारा लेखा-जोखा नीचे से ऊपर की ओर चलता पहले उसी से शुरू होता है। ऊपर से नीचे आने वाला लेखा जोखा भी उसी पर आकर खत्म होता है। वह ओवरसियरों, ए.डी.यू. और एक्सीयन की रत्ती रत्ती भर की कार्रवाई की खबर रखता है। उसके इसी अनुभव को देखते हुए सुखचैन ने उससे सलाह मांगी।
''तुम ऐसा करो फिर।'' पूरन चन्द बैठने के लिए चारपाई नज़दीक खींचते हुए बोला।
''हाँ जी। बताओ।''
''वैसे यार एक बात है कि मेरा लड़का आगे कालेज में पढ़ना चाहता है। पर मैं कहता हूँ कि कालेज जाने से अच्छा है कोई कोर्स कर ले। मैं तो कहता हूँ, तुम दोनों ओवरसियर के कोर्स कर लो।'' ओवरसियर के कोर्स सुनकर सुखचैन का दिल धड़क उठा।
''चुपचाप लुधियाना में ओवरसियर के कोर्स में दाख़िला ले लो। तुम्हारे नंबरों के हिसाब से तुम्हें दाख़िला भी सिविल में मिल जाएगा। फिर तीन साल कोर्स करके नहरी कोठी में ओवरसियर लग जाना।''
''वाह चाचा, कमाल कर दिया। ओवरसियर बनने का तो मेरा शुरू से ही सपना रहा है। मैं तैयार हूँ। बस, मुझे बताओ, दाख़िला मिलेगा कैसे ?''
''अगर तू तैयार है तो मैं अपने वाले को भी मना लूंगा। रही बात दाख़िले की तो कल चलते हैं। बस, सवेरे तैयार रहना।'' पूरन चन्द घर की ओर लौटते हुए बोला।
अगले दिन उन्होंने लुधियाना पहुँचकर अर्जियाँ भरीं। फिर दो सम्पाह बाद इंटरव्यू पर गए। उन्हें सिविल इंजीनियरिंग डिप्लोमे में दाख़िला मिल गया। सारे कागज-पत्र और फीस आदि भर दी। उन्हें हॉस्टल में कमरा भी मिल गया। सब कुछ हो गया। बस, अब उन्हें 20 अगस्त को क्लास शुरू करनी थी। उधर रम्मी ने भी सुधार कालेज में दाख़िला ले लिया था।
(जारी…)
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