Sunday, June 20, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 13(प्रथम भाग)

इस बात का हॉस्टल में किसी को भी पता नहीं चला था कि अजैब विवाहित था। उसका गाँव भादसों के निकट था। दसवीं करने के बाद वह रिपदमन कालेज, नाभा में पढ़ने लगा था। वहाँ पढ़ते हुए ही उसकी मुलाकात हरमनदीप से हुई थी। उसका गाँव भी नाभा के करीब ही था। दोनों ने एक साथ ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश लिया था। दोनों का इरादा बी.एससी., बी.एड. करने का था। दोनों पढ़ने में भी होशियार थे। परियों जैसी हरमनदीप ने कुछ ही दिनों में अजैब को मोह लिया था। कुछ समय में ही वे एक-दूसरे के करीब आ गए। उनके प्यार के चर्चे कालेज की बाउंडरी में से निकलकर उनके घरों तक भी जा पहुँचे। दोनों तरफ ही सुलझे हुए परिवार थे। अजैब घर से ठीकठाक था। हरमनदीप अच्छे परिवार में से थी। दोनों के घरवालों ने कहा कि पहले पढ़ाई पूरी करो, फिर जैसा कहोगे, कर देंगे। लेकिन अजैब हरमनदीप की जुल्फ़ों में ऐसा खोया कि पढ़ाई-लिखाई बीच में ही रह गई। यही हाल हरमनदीप का था। लक्ष्य तो उसने बनाया था साइंस टीचर बनने का, पर उससे प्री-इंजीनियरिंग ही पास न हुई। अजैब भी फेल हो गया। नाभा कालेज छोड़कर अजैब ने डिप्लोमा में दाख़िला ले लिया। जैसे ही उसका कालेज शुरू हुआ तो दोनों घरों ने आपसी सहमति से दोनों का विवाह कर दिया। दोनों को मन मांगी मुराद मिल गई। अजैब हॉस्टल में ही रहता था। सप्ताहांत में वह घर चला जाता था। बीच बीच में भी जब कभी समय मिलता तो वह गाँव भागने की करता। कई बार क्लास खत्म करके आखिरी बस पकड़कर गहरे अँधेरे में घर पहुँचता। सवेरे कालेज लगने तक फिर लौट आता। प्यार तो उनका परवान चढ़ गया था, पर अजैब की पढ़ाई के कारण उन्हें बिछोड़े का दर्द सहना पड़ता था। कहाँ तो नई-नवेली जोड़ियों का चाँदनी रातों में हर रोज़ कोठों पर चारपाइयाँ जोड़कर बिछाना और कहाँ भाग-दौड़ ही में रहना। अजैब गाँव जाता तो उसका मन हरमनदीप के आगोश में से निकलने को न करता। मजबूरीवश कालेज लौटना पड़ता। दोनों सोचते थे कि एक बार डिप्लोमा पूरा हो जाए, फिर बहुत ज़िन्दगी पड़ी है जीने के लिए। नित्य-रोज़ दोनों इसी आस पर समय गुजार रहे थे। दो वर्ष कब बीत गए, पता ही न चला था। पाँचवें सिमेस्टर में जाने से पहले अजैब ने कसकर हरमनदीप को अपनी बांहों में लिया, जाने की इजाज़त मांगी। हरमनदीप ने हर बार की तरह बिछोड़े का दर्द अपने अन्दर छिपाते हुए उसे दिलासा देकर विदा किया। वह अकेली तड़पती तो बहुत थी, पर अजैब के सामने वह नार्मल रहती थी। वह जानती थी कि यदि वह ज्यादा करेगी तो वह पढ़ेगा नहीं। उसने भी मरती ने दो साल गुजारे थे। अब तो एक ही साल बचा था। फिर जुदाइयाँ हमेशा के लिए खत्म हो जाएँगी। मन को दिलासा देते हुए उसने अजैब को हँसकर विदा किया।
अजैब को क्या मालूम था कि होनी तो उसका दूसरी तरफ खड़ी इंतज़ार कर रही थी। अब तो वह पछता रहा था उस वक़्त को जब वो गुरलाभ की बातों में आ गया था। कुछ समय तक तो उसके घरवालों को कुछ पता न चला। हॉस्टल की तलाशी के बाद उसका नाम पुलिस की लिस्ट में आ गया था। उसके मन में भी यही था कि बाहर किसी को कुछ पता नहीं है। वह तो जब एक बार आधी रात के करीब घर गया तो हरमनदीप ने उसके गले लगकर ज़ोर से दुहाई दी, ''मुझसे क्या गुनाह हो गया ?'' उसे कोई जवाब न सूझा।
''मुझे तो बर्बाद कर दिया मेरी किस्मत ने। मैंने यह राह जान-बूझकर नहीं चुना।'' अजैब भी दुहाई देने लगा।
दोनों एक-दूजे के दर्द में तड़पते रहे। उसने ढाढ़स देकर हरमनदीप को शांत किया। आपबीती बताई कि कैसे वह किसी बदमाश लफंगे गुरलाभ की चाल में फंस कर इस राह पर जा चढ़ा।
''अब क्या होगा ?'' हरमनदीप के होंठ थर्र-थर्र काँप रहे थे।
''इतना घबराने की बात नहीं। मैंने अभी तक कोई मारा-मारी नहीं की। कोई गलत काम नहीं किया।'' उसने घरवाली को तसल्ली दी।
पुलिस वाले दो बार बापूजी और बड़े भाई को पकड़कर ले जा चुके हैं। छोटा राजा अच्छी किस्मत को दोनों बार इधर-उधर था। हरमनदीप का कलेजा धक्-धक् कर रहा था।
''फिर कहते क्या हैं पुलिस वाले ?''
''वे कहते हैं कि तुम्हारा बेटा आतंकवादी बन गया। उसे पेश करो। नहीं तो घर फूंक देंगे। सभी को जेल में बन्द कर देंगे।''
''ऐसा कहते हैं ?'' अजैब काफी उदास हो गया।
''वे तो एक बार मुझे भी ले जा रहे थे, पर पंचायत ने मिन्नत करके पुलिस को रोक लिया। पुलिस वाले तो कितने ही क़त्लों और डाकों में तुम्हारा नाम बताते हैं।''
फूल जैसी हरमनदीप की तरफ देखकर अजैब ने गहरी आह भरी। 'हमारे प्यार को किसी की नज़र लग गई।' उसने मन में सोचा। इससे तो अच्छा था कि उससे विवाह ही न होता। कम से कम कहीं चैन से ज़िन्दगी तो काटती।
''क्या सोच रहे हो ?'' उसे उदास देखकर हरमनदीप ने पूछा।
''तू इतनी घबरा न। पुलिस की ओर से मेरा नाम जल्द ही क्लियर हो जाएगा। फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा।'' कहने को तो उसने कह दिया, पर असल में उसे पता था कि ये सब झूठे दिलासे हैं। जिस राह जाने-अनजाने वह चल पड़ा था, उधर से वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं। यह राह तो वन-वे स्ट्रीट की तरह था। जल्द हो या देर से, पर जब कभी भी हुआ तो इस राह पर चलते हुए मौत से ही मिलाप होगा। उसकी आँखें सजल हो उठीं। उसने हरमनदीप की छाती में मुँह छिपा लिया।
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अजैब सोच में डूबा सामने छिपते सूरज की ओर देख रहा था। वह सोच रहा था कि दिन खत्म हो गया। रात उतर आई थी। दिन रात का इंतज़ार करता था और रात दिन की प्रतीक्षा करती थी। हर एक चीज़ बदलती रहती थी। शायद, कहीं इस तरफ से निकलने का रास्ता बन जाए, देखो...। आगे उसकी सोच की लड़ी टूट गई जब गमदूर ने उसके कंधे पर हाथ रखा, ''कैसे छोटे भाई, बहुत उदास है ?''
''बस भाई, घर याद आ गया।''
''वो सुना है न कि कौम की सेवा बहुत कठिन होती है।'' अजैब ने अजीब-सी नज़रों से गमदूर की तरफ देखा। 'यह किस कौम सेवा की बात करता है। मैं यहाँ तड़पता हूँ, घरवाली वहाँ तड़पती है। पता नहीं, किस राह डाल दिया किस्मत ने।' उसने मन में आह भरी।
''कैसे जवानों, उदास से बैठे हो ?'' सामने से आता बाबा बसंत बोला। वह गमदूर के आमंत्रण पर ही आया था। जो बात उन्होंने पिछली बैठक में बीच में ही छोड़ दी थी, उस पर बातचीत करना चाहते थे।
''कुछ नहीं बाबा ! यार अजैब को भरजाई याद आ रही है।'' गमदूर ने बात को मजाक में डालना चाहा।
''भरजाई ?'' बाबा ने हैरानी से अजैब की ओर देखा।
''तुझे नहीं पता भाई, इसके लिए ज़मीन पर लकीरें खींचने वाली गाँव में बैठी है।''
''मतलब अजैब तू मैरिड है ?'' बाबा ने आश्चर्य में पूछा।
''हाँ बाबा, डिप्लोमा शुरू करने के समय मेरा विवाह हो गया था। पहले हम इकट्ठा नाभा में पढ़ते थे।''
''इसका मतलब लव-मैरिज हुई थी।''
''हाँ, थी तो लव-मैरिज ही।'' अजैब ने उदास-सा उत्तर दिया।
''फिर तो अजैब, तूने यह बहुत गलत बात की।'' बाबा ने सिर मारा।
''तेरा मतलब विवाह करवाने वाली।'' अजैब ने बाबा के मुँह की तरफ देखा।
''नहीं यार, तेरी तो इतनी बढ़िया लव-मैरिज हुई। मैं तो यह कहता हूँ भाई कि तू इस राह में क्यों पड़ा। अगर इस राह पर चलना ही था तो विवाह क्यों करवाया। अपने अंत का तुझे पता ही है, फिर उसकी क्यों ज़िन्दगी उजाड़ दी।'' बाबा बेहद दर्दभरे स्वर में बोला।
''रोना तो यही है बाबा कि मैंने खुद यह राह नहीं चुना, बल्कि राह ने मुझे चुन लिया।''
''वह कैसे भाई ?''
''कोई ऐक्शन करने जा रहा था। मुझे कुछ बताये बग़ैर ही संग मिला लिया। तू तो जानता ही है कि जब ज़रा भी खून के छीटे पड़ जाएँ, फिर कब उतरते हैं। लाख मिन्नतें करने के बावजूद उसने यह मौत मेरे हाथ में थमा दी।'' कहते हुए उसने हाथ में पकड़ी ए.के. सैंतालीस की ओर इशारा किया।
''कौन सा ऐक्शन ? किसकी बात करता है तू ?'' बाबा पूरी बात जानना चाहता था।
''चलो छोड़ो, जो हो गया, सो हो गया।'' अजैब ने बात टाल दी। अचानक उसे याद आया कि गुरलाभ ने हिदायत दी थी कि इस ऐक्शन का भेद बाहर नहीं निकलना चाहिए।
''यदि नहीं बताना चाहता, तो तेरी मर्जी। पर जिससे भी बात करो, आगे यही जवाब मिलता है कि हालातों ने इस लहर के साथ जोड़ दिया। मेरा खुद का भी यही हाल है। समझ में नहीं आता, यह तानी-सी कैसे उलझ गई।''
''चलो, जो उसको मंजूर।'' कुछ देर चुप रहकर बाबा ने अपनी बात का खुद ही जवाब दिया। माहौल अभी भी उदास था। बाबा को बेचैनी-सी हो रही थी।
''कैसे फिर भरजाई के साथ मेले करने हैं ?'' बाबा ने बात हँसकर आगे बढ़ाई।
''मेले तो दूर, दिल तो करता है कि उसके पास से हिलूं ही नहीं, पर ये जगह-जगह बैठे मामों का क्या करें ?''
''इन्हें छोड़ परे। अगर आज की रात भरजाई से मिला दूँ तो मानेगा मुझे।'' बाबा का गाँव भी अजैब के गाँव की तरफ ही था।
अजैब ने गमदूर की तरफ देखा माना इजाज़त मांग रहा हो। ''आज की रात मेरी जिम्मेवारी है। कल को सही-सलामत तेरा बंदा यहाँ छोड़ दूंगा। देख ले, बिछड़ों को मिलाने का तो पुण्य ही मिलता है।''
''जैसी तेरी इच्छा।''
बाबा ने अजैब को सीधी गमदूर से ही मंजूरी ले दी।
''अच्छा फिर तैयार रह, चलते हैं।'' इतना कह कर बाबा और गमदूर एक तरफ चले गए। वे बहुत देर तक आपस में बातें करते रहे। जब अच्छा-खासा अँधेरा हो गया तो बाबा अजैब को लेकर करीब के पैट्रोल पम्प पर चला गया। पीछे से होते हुए वे खाली पड़े तेल टैंकर की टंकी में उतर गए। पाँचेक मिनट बाद टैंकर चल पड़ा। दो घंटों में अजैब को उसके गाँव के खेतों में ले जा उतारा। सवेरे चार बजे वहीं मिलने का कहकर बाबा पता नहीं किधर निकल गया।
जैसे ही अजैब छत पर से दीवार का आसरा लेकर आँगन में उतरा तो पूरा परिवार भयभीत-सा हुआ एक कमरे में इकट्ठा बैठा था। कोठे पर खड़का सुनकर सभी डर गए थे कि इस वक्त पता नहीं कौन होगा। अजैब को सामने देखकर उसकी माँ की रुलाई फूट पड़ी। उसने दौड़कर उसे बांहों में भर लिया।
''रे तू किस उल्टे राह पर चल पड़ा रे बेटा ?'' अजैब की भी आँखें नम हो उठीं। फिर उसके बाप ने डांटा तो उसकी माँ चुप हो गई, ''क्यों गाँव को बताती है। चुप नहीं रहा जाता।''
''कुछ नहीं होता बेबे, यूँ दिल न ढा।'' अजैब ने भी चित्त कड़ा किया। वह जल्दी-जल्दी रोटी खाता रहा। सभी से छोटी-मोटी बातें भी करता रहा। उसका छोटा भाई राजा बिना किसी के कहे ही दरवाजे में खड़ा होकर आस पास नज़र रख रहा था।
अन्दर से निकलकर अजैब अपने कमरे में जाने लगा तो राजा उसके पास आ गया।
''भाई, पुलिसवाले बहुत तंग करते हैं। कैसे करें ?''
अजैब से कोई उत्तर न दिया गया। उसने चुप खड़े रहकर ही राजा के कंधे पर हाथ रखा। ''भरजाई को अलग जलील करते हैं।'' राजा गुस्से में ऊपर तक भरा हुआ था।
''तू राजा बचकर रहना। तू न कहीं पुलिस के हत्थे चढ़ जाना।''
''तू भाई फिकर न कर। मुझे घरवालों की चिंता है।''
''पुलिस अफ़सर कौन है ?'' अजैब ने बेमतलब-सा सवाल किया।
''थाणेदार नंद सिंह है। बाकी पुलिसवाले तो इतना नहीं बोलते। वो कुछ ज्यादा उछलता है। कहता है, उसने बहुत लड़के मारे हैं। साथ में उसके सी.आर.पी. भी होती है। जब भी आते हैं, तड़के चार बजे ही आ घेरा डालते हैं।'' राजा ने मोटा मोटा सा हाल बयान कर दिया। फिर उसे अचानक मानो कुछ याद हो आया हो।
''तू भाई जा अपने कमरे में। मैं दरवाजे पर बैठकर पहरा दूँगा। अगर कोई बात होगी तो मैं तेरा दरवाजा खड़का दूँगा। पीछे से कुम्हारों के घर में उतरकर सामने ईंख में से निकल जाना।'' इतना कहते हुए राजा दरवाजे की ओर चला गया। उसे बात करते हुए ख़याल ही नहीं रहा था कि भाभी तो कब की प्रतीक्षा कर रही होगी।
हरमनदीप ने अजैब को दौड़कर आलिंगन में ले लिया। कोई रूठना नहीं, कोई मनाना नहीं। क्योंकि उसने मन में निश्चय कर लिया था कि मन गिराने वाली बातें करके अजैब का दिल नहीं दुखाना। जो भी चार पल मिलेंगे, वे रो कर नहीं बिताने। अजैब तो पहले ही बहुत दुखी था। पता नहीं कहाँ-कहाँ और कैसे मुसीबतों भरे हालातों में भटकता फिरता है। ऊपर वह उसे और उदास कर देती। रात दोनों ने बग़ैर शिकवे-शिकायतों के एक-दूजे की बांहों में गुजारी। घड़ी का अलार्म बजा तो अजैब ने देखा तीन बज गए थे। पता ही नहीं चला, कब घंटे पल बनकर गुजर गए। अजैब ने हरमनदीप को बांहों में भरा। फिर अपना सामान संभालता, घर के पीछे की ओर उतरकर खेतों में कहीं गुम हो गया। करीब चार बजते ही राजा ने दौड़कर अजैब का दरवाजा खटखटाया। हरमनदीप ने दरवाजा खोला तो राजा हाँफता हुआ बोला, ''भाभी, घेरा तो पड़ गया। मुझे लगता है, रात में किसी मुखबिर को भनक पड़ गई होगी।''
''कोई नहीं राजे, तेरा भाई तो बहुत देर का निकल गया है। तू भी पिछले रास्ते से भाग जा।'' उसे भगाकर हरमनदीप ने पूरे टब्बर को जगाकर पुलिस के आने की खबर दी। स्वयं जाकर सास के साथ पड़ गई। पौ फटते ही पुलिस वाले बन्दूकें ताने घर की ओर बढ़े। दरवाजा खटखटाकर वे एक तरफ हो गए। शायद डरते हों कि अजैब अन्दर से गोली न चला दे। दरवाजा खोलने आए अजैब के बापू ने कुंडा खोलने से पहले अन्दर से पूछा कि कौन है।
''तेरा जमाई हूँ नंद सिंह, निकाल मेरे साले साहब को बाहर। आज किधर भागेगा।''
''सरदार जी, यहाँ कोई नहीं आया। बेशक घर की तलाशी ले लो।''
अन्दर घुसते थानेदार नंद सिंह ने बूढ़े की छाती में राइफल का बट मारा। बूढ़ा चारों खाने चित गिरा। भारी पुलिस फोर्स बन्दूकें ताने कमरों की ओर बढ़ी। मुख्बिरी पक्की थी। नंद सिंह को पूरा यकीन था कि वह आज नहीं भागने देगा। उसका वार फिर खाली गया। वह गुस्से में दांत पीसता रहा। जो भी घर का सदस्य सामने आता, वह उसे ही गिरा लेता। हरमनदीप को सामने देखकर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा चढ़ा। वह जानता था कि वह इसे ही मिलने आया था। इसी ने भगाया होगा। ''बता, कहाँ छिपाया है खसम को।'' उसने गरज कर कहा। हरमनदीप कुछ न बोली। नंद सिंह राइफ़ल एक तरफ फेंक कर हरमनदीप की चुटिया पकड़कर खींचने लगा। फिर ऊपर से जैम्पर में हाथ डालकर उसके शरीर के ऊपरी हिस्से के कपड़े फाड़ दिए। हरमनदीप ने गहरी शर्मिन्दगी में दोनों बांहों से अपनी छाती को ढक लिया। नंद सिंह अधनंगी हरमनदीप को बाहर घसीटने लगा।
''सरदार जी, यह कौन सा तरीका है, लड़की से तफतीश करने का।'' एक तरफ खड़ा सी.आर.पी. का डी.एस.पी. गुस्से में नंद सिंह की ओर लपका। पचासेक वर्ष की उम्र के हिंदू अफ़सर की आँखें गुस्से में लाल हो गईं।
''तू कौन होता है ओए, मेरे काम में दख़ल देने वाला।'' नंद सिंह लड़की को छोड़कर डी.एस.पी. को उछल कर पड़ा।
''मैं भी पुलिस अफ़सर हूँ। और ओहदे में आप से बड़ा हूँ। मैं आपको औरतों को बेइज्ज़त करने की इजाज़त नहीं दे सकता।''
''इन औरतों के खसम ही हिंदुओं को बसों में से उतार उतार कर मारते हैं। तुझे इन पर कैसा तरस आता है ओए।''
''जो मारते हैं, उनको पकड़ो न। इन मज़लूम औरतों पर क्यों जुल्म ढाते हो। इनका क्या दोष है।''
''तू दूर हटकर खड़ा हो जा। मेरी तफ़तीश में दख़ल न दे। नहीं तो फिर कान खोलकर सुन ले, मेरा नाम भी थानेदार नंद सिंह है।'' नंद सिंह ने दबका दिया। फिर वह हरमनदीप की तरफ बढ़ा।
''तुम नंद सिंह हो तो मैं भी नंद लाल हूँ। अब लड़की को हाथ मत लगाना।'' डी.सी.पी. ताव खा गया। हरमनदीप के आगे खड़ा हो गया।
''तेरी मैं...।'' नंद सिंह राइफ़ल की ओर बढ़ा। उसके आदमियों ने उसे पकड़ लिया। सी.आर.पी. और पंजाब पुलिस दोनों के बीच बन्दूकें तन चुकी थीं।
''अरे, कैसा सरदार है तू और कैसे तेरे उसूल हैं। दोषियों को पकड़ नहीं सकता तो मजलूम औरतों को बेइज्ज़त करता है।''
''तू मेरे काम में दख़ल दे रहा है।''
''एक पुलिस अफ़सर होकर एक निर्दोष लड़की को सरेआम लोगों के सामने नंगा करना ये तेरा कौन सा काम है रे !''
''इसने अपने खसम को भगाया है जो कानून का मुजरिम है। मैं इसे थाने ले जाकर हटूंगा।''
''उसके लिए महिला पुलिस को बुलाओ, वरना यहाँ से चलते बनो। तुम्हारी मर्जी मैं नहीं होने दूँगा।''
दोनों अफ़सर बुरी तरह भिड़ गए थे। लोगों की भीड़ भी जुट गई थी। कुछ सयाने छोटे मुलाज़िमों ने बीच में पड़कर उन्हें शान्त करवाया और वहाँ से चलते बने।
(जारी…)
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