Sunday, May 2, 2010

धारावाहिक उपन्यास





प्रिय मित्रो
अपने उपन्यास “बलि” में आपकी दिलचस्पी देखकर खुश और रोमांचित हूँ। किसी भी लेखक के लिए यह संतोष और प्रसन्नता की बात होती है जब पाठक उसकी रचना को पढ़कर उससे संवाद स्थापित करते हैं, अपनी राय देते हैं, कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहते हैं। मुझे खुशी है कि हिंदी के प्रबुद्ध पाठक/लेखक मेरे इस उपन्यास को गंभीरता से ले रहे हैं और अपनी बेबाक राय संप्रेषित कर रहे हैं। मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूँ और आशा करता हूँ कि वे इस उपन्यास के अगले अध्यायों पर भी अपनी राय प्रकट करते रहेंगे।
-हरमोहिंदर चहल


बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 9(प्रथम भाग)

अगले दिन सारा समय गुरलाभ अन्दर ही बैठा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। अकेले को कोठी भी खाने को दौड़ती थी। दिन छिपे-से वह हॉस्टल की ओर चला गया। कार को दूर खड़ा करके वह पिछले गेट से हॉस्टल में घुसा। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। आहिस्ता से उसने अर्जन और जीता के कमरे का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने दरवाजे के ऊपर से गुरलाभ को देखकर दरवाजा खोल दिया।
''कैसे है? क्या हो रहा है ?'' गुरलाभ एक तरफ कुर्सी पर बैठते हुए बोला।
''होना क्या है भाई। तेरे सामने मुर्गों की तरह दड़बे में ठुंसे बैठे हैं।'' अर्जन निराश सा बोला।
''यूँ बैठे हुओं को तो ज़र लग जाएगा।''
''फिर क्या करें। और कोई चारा भी नहीं।''
''मैं तो खुद दो दिनों से दीवारों में सिर मार रहा हूँ।''
''अभी कितने दिन और हैं छुट्टियाँ भाई ?'' जीता फौज़ी झिझकता हुआ बोला।
एक तो वह गुरलाभ से खुला नहीं था। दूसरा, कालेजों, हॉस्टलों में न रहा होने के कारण वह अपने आप को उनके सामने हीन-सा समझता था।
''छुट्टियाँ तो यार अभी बहुत पड़ी हैं।''
''अर्जन, आज मूड बहुत खराब है। एक एक घूंट न लगाएँ ?''
''देख ले। कहीं वार्डन को पता न चल जाए कि हॉस्टल में लड़के रह रहे हैं।'' अर्जन भी चाहता था कि इस जेल से कुछ समय के लिए बाहर निकला जाए।
''उसकी चिंता न कर। चौकीदार की जेब मैंने गरम की हुई है। पर मैं कहता हूँ, कोठी चलें। अन्दर घुस कर गेट बन्द कर लेंगे। वहीं बढ़िया रहेगा।'' गुरलाभ ने तरीका बताया।
''चल ठीक है।'' अर्जन उठता हुआ बोला।
''हम ऐसा करते हैं। गिल चौक से बोतल और खाने-पीने का सामान ले आते हैं। रोटी भी डलवा लाएँगे। आज रात कोठी में ही गुजारेंगे।''
''हाँ भई जीते, तू लगा लेता है पैग-शैग ?'' गुरलाभ ने जीते की ओर देखते हुए पूछा।
''हाँ भाई, फौज़ में तो लगा लेता था। पर खाड़कुओं को तो इसकी मनाही नहीं?'' वह बिलकुल ही भोला भगत था।
''हमने कौन सा शौक को पूरा करने के लिए पीनी है। हम तो इन हालातों से ऊबे पड़े हैं। थोड़ा-बहुत सब कुछ चलता ही रहता है।'' गुरलाभ ने बात संभाल ली। कमरे में से निकलने लगे तो जीते ने खेसी के नीचे राइफ़ल छिपा ली। अर्जन राइफ़ल उठाने लगा तो गुरलाभ ने रोक दिया, ''चल, एक ही बहुत है। जीता पिछली सीट पर बैठ जाएगा। तुझे अगली सीट पर साथ लेकर बैठना मुश्किल हो जाएगा। कोठी में दो पड़ी हैं।''
कार गुरलाभ चला रहा था। जनता नगर पार करके सड़क के दोनों तरफ छोटी-छोटी फैक्टरियों के आगे बने शीशे के दफ्तर में बैठे मालिकों की ओर देखकर गुरलाभ ने अर्जन को इशारा किया, ''क्यों ? कैसे लगते हैं शिकार ?''
''शिकार कैसे ?''
''भूल गया वो टायरों वाली दुकान।'' गुरलाभ ने खन्ना वाली बात स्मरण कराई।
''हाँ, वह तो याद है।''
''तभी तो कह रहा हूँ। भाई अब तो जेबें भी खाली हुई पड़ी हैं। कल एक कबूतर न मरोड़ लें।''
''इसके बारे में सवेरे बात करेंगे।'' अर्जन अभी डरता था।
सारा सामान लेकर वे वापस कोठी में लौट आए। कार को अन्दर ही गुप्त स्थान पर लगाकर गुरलाभ ने गेट बन्द कर दिया। गुरलाभ ने अपना पैग डाला। जीता झिझकता था क्योंकि उसका अभी तक किसी गुरलाभ जैसे व्यक्ति से वास्ता नहीं पड़ा था। ज़ोर-जबरदस्ती करके गुरलाभ ने उसे भी पिला दी। बहुत देर से अज्ञातवास काट रहे जीते ने पहली बार आनन्द की अनुभूति की। जब थोड़ा-सा सरूर हुआ तो गुरलाभ ने जीते को परखना चाहा, ''और सुना भाई फिर अपने बारे में। हम तो आज पहली बार एक साथ बैठे हैं।''
''मैंने भाई क्या सुनाना है। घर से तो बस गुजारा ही हुआ। तभी दसवीं पास करते ही मैं फौज में भर्ती हो गया। हमें तो इन बातों का कुछ पता ही नहीं था। वो तो जिस दिन हरमंदर साहिब पर हमला हुआ, हम सब इसी तरह घूंट-घूंट लगाए बैठे थे। अपने धर्म स्थान पर हमला सुनकर मानो अन्दर आग लग गई। बाकी हमारे लीडर ने ऐसा धुआंधार भाषण दिया कि जोश ठाठें मार उठा। हमने तो उसी समय गाड़ियाँ निकाल लीं और सीधी अमृतसर की ओर कर लीं।''
''कौन सी छावनी से चले थे तुम ?''
''हम भाई गंगानगर के पास लालगढ़ छावनी से चले थे। पर जैसा कि सयाने कहते हैं कि जोश में अक्ल का होना ज़रूरी है, बस वही गलती हम कर बैठे।''
''वह कैसे ?''
''अब तुम ही देख लो, इन हालातों में अमृतसर पहुँचना कोई खेल था। वहाँ से तो जैकारे मारते हुए गाड़ियाँ दौड़ा लीं, पर अबोहर तक आते ही सुधबुध गुम हो गई। न कोई तैयारी, न कोई प्लैनिंग। और तो और हम तो अबोहर शहर की गलियों में ही गुम हो गए। तब तक आगे से गोबिंदगढ़ छावनी वाली फौज ने अबोहर से निकलते ही हमारा रास्ता रोक लिया। जब हम अबोहर से बाहर निकले तो दिन चढ़ चुका था। सामने फौजी गाड़ियाँ रास्ता रोके खड़ी थीं। पर एक बात है भाई, मुकाबला हमने वहाँ डटकर किया। जितने उन्होंने हमारे साथी मारे, हमने भी बराबर के मार गिराये। लेकिन यह कुर्बानी किसी काम न आई।'' जीता बीती बात याद करके उदास हो गया।
''फिर तू कैसे बच गया ?''
''बस, उस गर्दोगुबार में मैं खेतों की तरफ निकल गया। मैं नहीं समझता कि कोई और बचा होगा। बच तो मैं गया पर किसी तरफ का न रहा। अगर पेश होता तो वे पकड़ कर गोली ठोक देते। छिपने के अलावा कोई चारा नहीं था। वो दिन और यह दिन, बस छिपता ही घूमता हूँ। पुलिस ने घरवालों पर बहुत जुल्म ढाया।''
''अब फिर क्या इरादा है ?''
''अधिक तो मैं नहीं जानता, मैं तो कहता हूँ कि पुलिस वालों को ठोकते रहो।'' जीते को अच्छा-खासा सुरूर हो गया था।
''और यह जो हमने अपना अलग मुल्क बनाना है ?'' गुरलाभ ने उसकी सोच के विषय में जानना चाहा।
''अलग मुल्क का तो भाई क्या पता, कब बने। पर एक बात ज़रूर है कि यह जो बीच में निर्दोषों को मारा जा रहा है, यह गलत है। इनको मारने से अलग मुल्क का क्या ताल्लुक। मैं तो कहता हूँ कि अगर लड़ाई लड़नी है तो पुलिस और फौज से लड़ो।''
गुरलाभ जीता की मानसिकता को समझ गया था। आगे उसने बात बन्द कर दी।
''हाँ, फिर कैसे ? बनी कुछ बात ?'' गुरलाभ ने अर्जन की ओर देखा।
''एकबार तो रोग ही खत्म कर दिए। यूँ ही कैदियों की तरह बैठे थे वहाँ।''
''इतनी एतिहात तो अर्जन ज़रूरी है।''
''मेरा तो विचार है भाई, हम एक्शन को बढ़ाएँ। लोगों में दहशत पड़े। लोग डरें। फिर हम कुछ खुलकर चल-फिर भी सकते हैं।'' अर्जन को नशा हो चला था।
''लोगों को तो डरा लेंगे। पुलिस का क्या करेंगे। अभी तो इतना है कि अपने बारे में किसी तरह का शक नहीं है। न ही अभी इधर का इलाका पुलिस की नज़र में आया है। जब पुलिस की निगाह में ये अपना हॉस्टल आ गया, फिर तो छिपना कठिन हो जाएगा।''
''यह बात तो तेरी सही है। इसका कोई हल भी सोचो।''
''हल यही है कि हम बाहर भी अपने अड्डे बनाएँ।''
''बाहर मतलब जैसे यह कोठी है ?''
''हाँ, इसी तरह दूसरे इलाकों में भी जगहें किराये पर लें। यह बात तो ठीक है, जितने ज्यादा अड्डे होंगे, उतना ही ठीक होगा।''
''उसके लिए धन की जरूरत है। इस वक्त हम बिलकुल ही नंग हैं।''
''फिर क्या करें ?'' अर्जन को इस बात की समझ नहीं आ रही थी।
''तुझे गिल चौक की तरफ जाते हुए कहा तो था कि कोई कबूतर उठाएँ।''
''अच्छा ! तेरा यह मतलब था।''
''भाई, मीता तो कह कर गया है कि एक्शन बन्द रखना है।'' जीता अचानक बोला।
''वो तो ठीक है भाई जीते। पर हम जो कुछ करेंगे, अपने संगठन के लिए ही करेंगे। जब मीता लौटकर अपना काम देखेगा, तो वह उल्टा खुश होगा। उसके लौटने तक हम बाहर दो-चार अड्डों का इंतज़ाम तो कर ही लेंगे।''
तीनों, कुछ देर बाद पूरे नशे में हो गए। गुरलाभ अर्जन की ओर देखते हुए बोला, ''क्यों ? रात रंगीन करनी है आज ?''
''क्या ?'' अर्जन ने हैरानी के साथ गुरलाभ की तरफ देखा। सभी जानते थे कि जिस राह पर वे चल रहे हैं, उस राह पर ऐसे कामों की सख्त मनाही थी। किसी को क्या पता था कि गुरलाभ की तो अपनी राह थी। गुरलाभ बहुत देर से चाह रहा था कि वह किसी न किसी को अपने संग मिलाए। उसे अर्जन ही ठीक लगा। अर्जन काफी समय से उसके करीब था। वह जानता था कि अगर अर्जन उसके संग न भी मिला, तब भी उसकी बात बाहर नहीं निकालेगा। ऐसे काम करने वालों के लिए संगठन की सजाएँ बहुत सख्त थीं।
''क्या बात करता है ? मरने का इरादा है। अगर मीता आदि को पता चल गया...'' उसने आँख के इशारे से अर्जन को चुप करा दिया। दो तीन बड़े पैग डालकर उसने जीते को टेढ़ा कर दिया। जीते की ओर से निश्चिंत होकर वह अर्जन की ओर लौटा।
''तू यार इतना डरता क्यों है ?''
''डरना तो है ही। संगठन के उसूल भी कोई चीज हैं।''
''देख, यह तो सो गया। अब हम दोनों हैं। यहाँ दूसरा और कौन है संगठन वाला।'' उस रात गुरलाभ न टला। उसने अर्जन को भी मना लिया। सुबह उठकर अर्जन को यह सब अच्छा न लगा। उसे लगता था कि वह गलती कर बैठा है। भविष्य में उसने गुरलाभ से संभल कर रहने की सोच ली। वह जानता था कि संगठन की कई बैठकों में ऐसा कुछ करने वालों को वहीं गोली मार दी गई थी। उनके हिसाब से जीता शराबी हुआ पड़ा था। जीता सब कुछ जानता था कि रात में क्या हुआ था। उसके तो देखकर ही होश उड़ गए। उसने तो सुन रखा था कि खाड़कू संगठन बड़े ऊँचे और पवित्र उसूलों वाले हैं क्योंकि उसके मुताबिक ये धर्म के लिए लड़ रहे थे। लेकिन ये किस प्रकार के खाड़कू थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह सही राह पर पड़ गया था या गलत। उन्हें वहीं छोड़कर गुरलाभ गिल रोड की तरफ निकल गया। उसने गिल चौक और जनता नगर के बीच कई चक्कर लगाए। वह धीमी गति से गाड़ी चलाते हुए आसपास देखता रहा था। आखिर में उसने एक शौरूम वाली दुकान सलेक्ट कर ली। उस शौरूम के बीच खुला सा दफ्तर था। दफ्तर में एक मोटा सेठ बैठा था। देखने में ही उसे वह एक मोटी असामी लगी। दो दुकानें छोड़ कर चौक की तरफ एक ट्रक बैक लगा हुआ था और उसमें से सामान उतर रहा था। दुकान के दूसरी तरफ दो-तीन बड़ी जीपें खड़ी थीं। सामने की जगह खुली थी। निशाना सलेक्ट करके उसने गाड़ी कोठी की तरफ सीधी कर दी। अर्जन और जीता को उसने पहले ही तैयार रहने के लिए कहा था। गाड़ी अन्दर लगाते ही उसने जल्दी-जल्दी नंबर प्लेटें बदलीं। अपने कपड़े बदले। पगड़ियाँ उतार कर बाल बिखेर लिए। जीते को हिदायत देकर पिछली सीट पर बिठा लिया। अर्जन को गुरलाभ ने ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बिठा कर गाड़ी जनता नगर की ओर दौड़ा ली। सारी योजना उसने दिमाग में पहले ही बना रखी थी। गाड़ी एकदम शौरूम के सामने जा लगाई। सेठ अभी भी अकेला बैठा था। गाड़ी में से उतर कर अर्जन और गुरलाभ दौड़कर सेठ के कमरे में घुसे। अन्दर घुसते ही गुरलाभ ने पिस्तौल निकाला। अर्जन ने खेसी के नीचे से ए.के. 47 थोड़ी सी बाहर निकालकर दिखाई।
''अगर आवाज़ की तो परखचे उड़ा दूंगा। चुपचाप गाड़ी में बैठ।'' सेठ को अपने आगे लगाकर उसे बाहर निकाला। पिछली सीट पर जीते के साथ बिठा कर उसे जीते की जांघों पर मुँह के बल झुके रहने का हुक्म सुनाया। झुके हुए सेठ के ऊपर अर्जन ने कम्बल ओढ़ा दिया। बाहर से देखने पर पता नहीं चलता था कि पीछे कोई आदमी मुँह के बल लिटा रखा है। गाड़ी बैक करने के बाद गुरलाभ ने गाड़ी को गलियों में घुसा लिया। अर्जन सेठ को चुप रहने के लिए धमकाये जा रहा था। मोटे सेठ को साँस ही बमुश्किल आ रहा था।
कार को कोठी के अन्दर लगा कर गुरलाभ ने गेट बन्द कर दिया। कम्बल के नीचे ढके सेठ को एक कमरे में ले जाया गया, जो शायद स्टोर जैसा था। अन्दर बन्द करते हुए उसने सेठ को हिदायत दी, ''हमारे संगठन को पैसे चाहिएँ। तुझे हम कुछ नहीं कहते। पर अगर शोर मचाया या कोई दूसरी चुस्ती दिखलाई तो तेरे घर का एक भी सदस्य जिन्दा नहीं छोड़ेंगे।''
''मेरे घरवालों के साथ मेरी बात तो करवाओ। तभी तो वे पैसे देंगे।''
''तू उसकी फिक्र न कर। वो काम हम खुद कर लेंगे।''
''कितने पैसे चाहिएँ ?'' सेठ डरते-डरते बोला।
''पूरे पचास लाख।'' गुरलाभ ने धमकी भरे स्वर में कहा। उन तीनों के चेहरे ढके हुए थे।
''देखो, मैं इतना अमीर तो नहीं, मैं तो अधिक से अधिक दो लाख की मार हूँ। एक बात का मैं वायदा करता हूँ। न मैं अब कोई शोर मचाऊँगा, न बाद में। प्लीज मुझे पानी पिला दो।'' सेठ समझदार था। सेठ का व्यवहार भांपते हुए उसे दूसरे कमरे में ले जाया गया। पानी पिलाने के बाद उसे लेटने के लिए बैड दे दिया। बाहर से कुंडा लगाकर जीता पहरे पर बैठ गया।
गुरलाभ ने एक्शन तो कर लिया पर मुश्किल यह थी कि सेठ के घरवालों के साथ सम्पर्क कैसे हो। वैसे तो वे कागज का पुर्जा उसके दफ्तर में रख आए थे, जिस पर सारी हिदायतें लिखी थीं। सबसे पहली यह कि शोर नहीं मचाना और न ही पुलिस को बताना है। अगर ऐसा किया गया तो सेठ की ज़िन्दगी खत्म कर दी जाएगी। घबराना नहीं, पैसे मिलने के बाद सेठ सही सलामत वापस पहुँच जाएगा। कागज पर भी पचास लाख की मांग लिखी थी। सेठ के घरवालों को कागज मिल गया था। उनके लिए भी यही मुश्किल थी कि अगवा करने वालों से राबता कैसे कायम हो। उन्होंने काफी सोच-विचार के बाद इलाके के स्थानीय प्रधान से बात साझी की। पार्टी का यह युवा प्रधान रिम्पा काफी मशहूर लीडर था। इसकी पार्टी और गुरलाभ के मंत्रीजी वाली पार्टी दोनों एक ही थी। इसी कारण गुरलाभ से इसकी पहले से ही मेल मुलाकात थी।
गुरलाभ ने फिर हुलिया बदला। कपड़े बदलकर घुटवीं पगड़ी बांध ली। स्कूटर लेकर शहर की ओर निकल गया। पीछे अर्जन और जीता को वह सख्त हिदायतें दे आया था। चक्कर काटता गुरलाभ रिम्पे के दफ्तर पहुँच गया। वहाँ पूरी हलचल मची हुई थी। सेठ के घरवाले रिम्पे को घेरे बैठे थे। कभी कोई उसे इधर ले जाकर बात करता, कभी कोई दूसरा उसे दूसरी तरफ खींच ले जाता। सबके चेहरों पर घबराहट थी। एक अजीब ख़ामोश वातावरण था वहाँ। गुरलाभ ने रिम्पे से हाथ मिलाया। रिम्पा उसे अपने दफ्तर ले गया।
''कैसे ? काम है कोई ?'' रिम्पा ऐसी स्थिति में उसकी अच्छी तरह से आवभगत नहीं कर सकता था। वह उसे जल्दी ही विदा करना चाहता था।
''नहीं, मैं तो इधर से यूँ ही गुजरते हुए आ गया। पर कोई मुश्किल आई लगती है ?''
''बस, पूछ नहीं। ये अपनी ही जान पहचान वाले हैं। खाड़कुओं ने इनका बाबू अगवा कर लिया। साथ ही धमकी भी दी है कि अगर बात बाहर निकाली तो बाबू को मार देंगे।''
''यह तो बड़ा काम खराब हुआ।'' गुरलाभ ने सच्ची हमदर्दी दिखलाई।
''न पुलिस को बताने लायक, और न ही उनका कोई ठौर-ठिकाना पता है। इन हालातों में आदमी क्या करे।'' रिम्पा सिर पकड़े बैठा था।
''एक बात तो है पर...।'' कहते-कहते गुरलाभ चुप हो गया।
''कौन सी बात गुरलाभ ? तुझे कोई बात समझ में आ रही है।''
''रिम्पे, यहाँ तो यह बात है भाई जो बोले, वही कुंडा खोले।''
''क्या मतलब ?'' इतना तो रिम्पा भी जानता था कि गुरलाभ की जान-पहचान बहुत थी।
''वह यह कि अगर किसी न किसी तरह उन लोगों तक पहुँच बना भी लेते हैं तो पहली बात तो बाद में, पुलिस ही नहीं छोड़ने वाली। अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो वे कमबख्त ए.के. 47 सीधी कर लेंगे।''
''देख गुरलाभ, तू कुछ कर सकता है तो कर। अगर हम बाबू जी को छुड़ा लेते हैं तो एक तो इनका आदमी हम बचा लेंगे, दूसरा मेरी इज्ज़त भी रह जाएगी। बाकी मेरा वायदा रहा, तेरा नाम मैं बाहर नहीं निकालूँगा। न ही हम पुलिस तक बात पहुँचने देंगे। बाकी पुलिस की ऐसी बात भी नहीं, अपनी पार्टी का ही राज है।''
''रिम्पे, मेरी जानकारी जहाँ तक है, मैं हाथ-पैर मार लेता हूँ, पर देखना भाई कहीं भला करते का सिर कलम न हो जाए।''
''यह मर्दों वाला वायदा रहा।'' रिम्पे ने गुरलाभ का हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया। अपना फोन नंबर लिखकर गुरलाभ को पकड़ा दिया। गुरलाभ आहिस्ता-से बाहर निकला। उसका काम हो गया था। करीब दो घंटे बाद उसने बाहर से रिम्पे को फोन मिलाया। रिम्पे ने दफ्तर बन्द करके फोन सुना।
''हाँ, बना कुछ। मेरा मतलब कुछ पता चला ?''
''रिम्पे, बन्दों का तो मैंने पता लगा लिया, पर सच्ची बात यह है भाई मैं बीच में पड़ने से डरता हूँ।'' गुरलाभ ने पत्ता खेला।
''तू यार, मेरा भरोसा भी कर। हम एक ही पार्टी के आदमी हैं। कब से एक-दूजे को जानते हैं। मेरी इज्ज़त बनी रह जाएगी। इनका आदमी बच जाएगा। तेरा भला होगा।'' रिम्पे को डर था कि गुरलाभ सचमुच ही खाड़कुओं के मसले में पड़ने से इन्कार न कर दे।
''अच्छा, तेरे-मेरे बीच रब है। बस, तुझे पता है या फिर मुझे पता है।''
''हाँ-हाँ, ठीक है।''
''ठीक है। फिर मैं बात चलाता हूँ। तुझे फिर काल करता हूँ।'' अगले एक घंटे में दोनों के बीच तीन-चार बार बात हुई। सेठ के घरवालों की ओर से रिम्पा बात कर रहा था, खाड़कुओं की तरफ से गुरलाभ। आख़िर उनकी बात पाँच लाख पर खत्म हो गई।
(जारी…)
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