Monday, February 8, 2010

धारावाहिक उपन्यास



प्रिय दोस्तो… मैं पजाब में जिस इलाके का वासी था, वहाँ रेत और मिट्टी के टीले देखा करता था। मेरे इस “बलि” उपन्यास में भी उन टीलों का जिक्र आया है। यहाँ यू एस ए में मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ इन दिनों बर्फ़बारी हो रही है और मेरे घर के बाहर बर्फ़ के टीले बन गए हैं। मौसम में आई तब्दीलियाँ, अमेरिका और भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में देखी-महसूस की गई हैं। ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा ज़ोरों पर है। आज मैं इस ब्लॉग पर अपने उपन्यास “बलि” के दूसरे चैप्टर का अन्तिम अंश पोस्ट कर रहा हूँ। भविष्य में मैं उपन्यास के चैप्टरों को दो अथवा तीन भागों में विभक्त करके पोस्ट किया करूंगा ताकि पोस्ट अधिक लम्बी न हो पाए और जैसा कि कुछ पाठकों ने संकेत किया है, उन्हें पढ़ने में दिक्कत न हो। आपकी बहुमूल्य राय का मैं इन्तज़ार करूंगा -हरमहिंदर चहल


बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 2(अन्तिम अंश)

सिधवां कालेज क्या था, सत्ती के लिए तो यह कैद था। स्कूल में पढ़ते समय जब कभी वह सिधवां कालेज के बारे सुनती तो रोमांचित हो उठती थी। उस समय उसका बहुत मन करता था कि इस प्रसिद्ध कालेज में जाकर पढ़े। वहाँ के हॉस्टल में रहे। फिर जब घरवाले उसे इस कालेज में दाख़िला दिलाकर हॉस्टल में छोड़ गए तो उसे लगा मानो वह उसे किसी पिंजरे में बन्द कर गए हों। बड़ा कालेज, बड़ी-बड़ी दीवारें और अन्दर सिर्फ़ लड़कियाँ। न बाहर से अन्दर कुछ दिखाई देता था, न अन्दर से बाहर। हॉस्टल क्या था मानो कोई पुरानी जेल के कमरे हों। सीमेंट उखड़े पुराने कमरे में से सीलन भरी दुर्गन्ध उठती। एक-एक कमरे में चार-चार लड़कियाँ रहती थीं। हरेक को अपनी-अपनी अल्मारी मिली हुई थी। हरेक के बिस्तर के सामने अल्मारी रखी हुई थी। साझे गन्दे बाथरूम थे। सत्ती को हर तरफ से घिन्न-सी आती। सवेरे जल्दी उठने की घंटी बजती। नहाते-धोते, नाश्ता करते कालेज का टाइम हो जाता। फिर दिन, एक क्लास से दूसरी क्लास में जाते हुए बीत जाता। शाम को लड़कियाँ हॉस्टल में आकर फिर बन्द हो जातीं। न कहीं से आना, न कहीं जाना। तीन-चार महीनों के बाद जब कभी छुट्टियाँ होतीं और घरवाले आकर ले जाते। स्कूल में पढ़ते समय सत्ती ने कालेजों की खुली ज़िन्दगी के बारे में सुना था, पर ऐसा यहाँ कुछ नहीं था। उसे तो लगता था कि बाहर उजाड़-से में एक जेल बना दी गई हो।
सत्ती का यहाँ कभी भी मन नहीं लगा। आरंभ में वह दिन में कई बार रोती थी। रात पड़ती तो कमरा उसे काटने को दौड़ता। उसे बहुत देर तक नींद न आती। ख़यालों में गुम वह अपने गाँव में घूमती रहती। अबोहर शहर में घूमती रहती। जब भी उसे अबोहर याद आता तो गुरलाभ उसकी नज़रों के सामने आ खड़ा होता। उसका दिल बहुत उदास हो जाता। कभी वह सिसक-सिसक कर रोती तो कभी चुपचाप आँसू बहाती। कभी वह उन दिनों को याद करती जब गुरलाभ उसके संग स्कूल में पढता था। कभी उसे बस वाली अन्तिम मुलाकात याद आती। अन्तिम मुलाकात याद आते ही उसे अफ़सोस होने लगता कि उसने उस दिन गुरलाभ से खुलकर बातें क्यों नहीं कीं। अब न जाने गुरलाभ कहाँ होगा। जब दूसरी लड़कियाँ उसके करीब ही सो रही होतीं तो उसका दिल गुरलाभ के लिए आहें भरता। गुरलाभ जो उसके दिल की हर धड़कन में बसता था। उसकी यादें उसे बहुत तड़पातीं। सारा साल सत्ती का यहाँ दिल न लगा। उसकी यहाँ दो-चार सहेलियाँ थीं, उन्होंने अगले वर्ष इस कालेज को छोड़ने का कार्यक्रम बना लिया था। सत्ती भी अगले वर्ष यहाँ नहीं रहना चाहती थी। उसकी सहेलियाँ जब लुधियाना शहर और वहाँ के कालेज के बारे में बातें करतीं तो वह भी मन ही मन सोचती कि काश, अगला वर्ष उसका भी लुधियाने के किसी कालेज में गुजरे। वहाँ भी कई कालेज थे, हॉस्टल वाले और खुले माहौल वाले, वहाँ यहाँ जैसी कैद नहीं थी। एक दो लड़कियों ने तो लुधियाना गवर्नमेंट कालेज के लिए मन बना लिया था। यह कालेज भारत नगर चौक के करीब था। खुला बड़ा कालेज। नये बने हॉस्टल। हॉस्टल से बाहर जाने के लिए शाम को चारेक घंटे की छूट भी मिलती थी। लड़कियाँ फुर्सत के समय बाहर भी घूम-फिर सकती थीं। पढ़ाई के लिहाज से भी यह कालेज ठीक था। दूसरी लड़कियों के साथ सत्ती भी इसी कालेज में जाना चाहती थी। लेकिन उसने अभी घरवालों से अनुमति नहीं ली थी।
उसकी स्थिति तो उसके घरवाले भी समझते थे। वह छुट्टियाँ बिता कर जाती तो रोते हुए जाती। कोई उसे कालेज में मिलने जाता तो वहाँ भी गले मिलकर रोती। उसे देखकर उसकी माँ का दिल बहुत खराब होता था। घरवाले सोचते पढ़ाई तो करनी ही है। और किया भी क्या जाए। प्रथम वर्ष की वार्षिक परीक्षा देकर जब सत्ती गाँव लौटी तो उसे लगा जैसे वह जेल काट कर लौटी हो। उसने आते ही रोना-धोना शुरू कर दिया कि उसे अगले वर्ष सिधवां में नहीं पढ़ना। घरवाले समझाने लगे तो उसने बताया कि उसकी जो भी यहाँ की तीन सहेलियाँ हैं, वे अगले साल लुधियाना गवर्नमेंट कालेज में जा रही हैं। वह लुधियाना के गवर्नमेंट कालेज के विषय में बताते हुए घरवालों के पीछे पड़ गई कि उसे तो वहीं पढ़ना है। रतनबीर ने आ-जा कर गवर्नमेंट कालेज का पता किया तो उसे भी ठीक लगा। फिर एक दिन सत्ती को संग लेकर रतनबीर लुधियाना चला गया। उसने उसका गवर्नमेंट कालेज में दाख़िला करवा दिया और हॉस्टल में एक कमरा भी दिला दिया। फीस आदि भरकर वे गाँव लौट आए। कालेज खुलने में अभी दो सप्ताह रहते थे।
गुरलाभ रिजल्ट आने तक गाँव में ही रहा। दसवीं हालांकि उसने फर्स्ट डिवीज़न में पास की थी, पर ग्यारहवीं में वह मुश्किल से ही पास हुआ। गाँव में आने के बाद उसने सिधवां कालेज में सत्ती को खोजने की कोशिश भी की, पर कुछ हासिल नहीं हुआ। उसके गाँव आने से कुछ दिन बाद ही पेपर होकर सिधवां कालेज में छुट्टियाँ हो गई थीं। वह सोचता रहता कि सत्ती से अब कैसे मिला जाए। अबोहर में तो वह मिलेगी नहीं। वह उसके गाँव या उसके घर तो किसी भी तरह नहीं जा सकता। छुट्टियों के बाद वह पुन: सिधवां कालेज चली गई तो भी मुलाकात नहीं हो सकती क्योंकि सिर्फ़ खास रिश्तेदारों को ही लड़कियाँ मिल सकती थीं। फिर कैसे मिले वह सत्ती से ?
''कैसे ? किन विचारों में गुम है ?'' उसरे चौंक कर देखा, सामने रणदीप था।
रणदीप का गाँव छोटे बुर्ज़ उसके गाँव के साथ ही पड़ता था। मुश्किल से दो किलोमीटर। छोटे बुर्ज़ जाने के लिए उसके गाँव के बीच में से होकर जाना पड़ता था। उसका गाँव तो बड़ी सड़क पर पड़ता था, छोटे बुर्ज थोड़ा हटकर था। गुरलाभ के घरों में ही रणदीप की बुआ ब्याही थी। पहले तो इतनी जान-पहचान नहीं थी। गुरलाभ तो अधिकतर रहा भी अपने नाना के घर था। अब परीक्षा की छुट्टियों के बाद गुरलाभ आस पास घूमता रहता था। रणदीप आता-जाता बुआ के घर जाता तो गुरलाभ से मुलाकात हो जाती। धीरे-धीरे उनके संबंध दोस्ती जैसे बन गए। अब रणदीप रोज़ सीधा गुरलाभ के घर ही आने लगा।
''नहीं यार, बस यूँ ही।'' अचानक रणदीप को सामने पाकर गुरलाभ को कोई बात न सूझी।
''तू बता, किस ओर की तैयारी है ?'' गुरलाभ संभलता हुआ बोला।
''मैं तो यार लुधियाना से आ रहा हूँ। यूँ ही गया था, कोई खास काम तो नहीं था, आगे कालेज तक चला गया। वहाँ बड़ी रौनक लगी हुई है नये परिंदों की। दाख़िले चल रहे हैं न।'' रणदीप एक तरफ कुर्सी पर बैठ गया।
गुरलाभ का मन अबोहर छोड़ने को नहीं करता था। अबोहर उसके रोम-रोम में बसा हुआ था। अब जब सत्ती ने भी अबोहर छोड़ दिया तो उसका मन अबोहर की ओर जाने को नहीं करता था। फिर उसके मन में आया कि सत्ती भी तो लुधियाणा के नज़दीक ही आ गई थी। सिधवां भी तो लुधियाना के साथ ही था। फिर क्यों न वह भी लुधियाना ही आ जाए।
''लुधियाना के कालेज कैसे हैं ? ठीक हैं ?''
''यह तुमने कौन सी बात कर दी। एक से एक बढ़िया कालेज तो लुधियाना में ही हैं।''
रणदीप के चले जाने के बाद गुरलाभ अकेला बैठा सोचता रहा। रणदीप की सलाह उसे ठीक लगी। अबोहर लौटने को तो अब उसका मन ही नहीं मानता था। पिछला साल बहुत कठिनाई से गुजारा था। वैसे प्लस टू में उसके नंबर भी अच्छे थे। इंजीनियरिंग कालेज में उसे दाख़िला भी मिल सकता था। और फिर तीन साल में डिप्लोमा करके कहीं ओवरसियर की नौकरी भी मिल जाएगी। नौकरी मिलेगी तो मौजें करेंगे। अपने आप से विचार-विर्मश करते गुरलाभ ने यहाँ दाख़िला लेने का फैसला कर लिया।
फिर शाम के वक्त उसने घरवालों से सलाह की। घर में किसी चीज़ का अभाव नहीं था। ज़मीन-जायदाद बहुत थी। उसके घरवाले प्रगतिशील विचारों के थे। उनका मत था कि सरकारी नौकरी जैसी कोई नौकरी नहीं। बाकी ज़मीन-जायदाद तो है ही। घरवालों को भी उसकी सलाह सही लगी। उन्होंने उसे लुधियाना में दाख़िला लेने की इजाज़त दे दी। फिर गुरलाभ ने अपने कागज-पत्र इकट्ठा किए। सर्टिफिकेट संभाले। अगले दिन दाख़िले का फॉर्म लेने जाने के लिए तैयारी कर ली।
बीस अगस्त को इंजीनियरिंग कालेज खुल गया। रणदीप और गुरलाभ तो एक साथ कालेज पहुँचे थे। गाँवों का होने के कारण बाद में सुखचैन से भी उनकी दोस्ती हो गई थी। रणदीप यहाँ का पुराना विद्यार्थी था इसलिए सुखचैन आदि की रैगिंग से भी छुटकारा मिल गया। फिर कमरों की अलॉटमेंट के समय तीनों ने एक कमरा अलॉट करवा लिया। शुरू के कई हफ्ते तो पढ़ाई का कोई ज़ोर नहीं था। उनका सारा समय घूमते हुए ही गुजरता। पढ़ाई का ज़ोर शुरू हुआ तो यह पेपरों तक जारी रहा। दिसम्बर में पहले समैस्टर के पेपर होने के बाद छुट्टियाँ हो गईं और सब विद्यार्थी अपने-अपने घरों को लौट गए।
दूसरा समैस्टर जनवरी के मध्य में आरंभ हुआ। समैस्टर शुरू होते ही कालेज और हॉस्टलों में रौनकें बढ़ गईं। सुखचैन पूरा मन लगाकर पढ़ाई करता था जबकि रणदीप और गुरलाभ यूँ ही वक्त क्टी करते थे। इस कालेज में आने के बाद सुखचैन निरंतर रम्मी से मिलता रहता था। सुधार के बस-अड्डे पर सुखचैन के मित्र विक्की का फोटो स्टुडिओ था- मलक फोटो स्टुडिओ। उनकी अधिकांश मुलाकातें इसी स्टुडिओ पर हुआ करती थीं। किसी छुट्टी के समय या मौका मिलने पर सुखचैन सुधार पहुँच जाता था और आगे किसी न किसी तरह रम्मी से सम्पर्क कर लेता था। घंटे दो घंटे की मुलाकात के बाद सुखचैन लुधियाना लौट आता था और रम्मी वापस अपने सुधार वाले कालेज में चली जाती थी। गुरलाभ ने भी आते ही सत्ती का अतापता खोज लिया था। वह तो हर शनिवार सत्ती को मिलने जाता था। सत्ती का कालेज लुधियाना गवर्नमेंट कालेज इतना सख्त भी नहीं था। गुरलाभ जब चाहे सन्देशा भेजकर सत्ती को हॉस्टल से बुला लेता था। वे इधर-उधर घूमते किसी रेस्तरां में चले जाते या किसी सिनेमा हॉल पर फिल्म देखते।
फिर दूसरे समैस्टर के पेपर हुए। सुखचैन और गुरलाभ पास हो गए और रणदीप फेल हो गया। दूसरे समैस्टर के खत्म होते ही कालेज में छुट्टियाँ पड़ गईं और हॉस्टल में कव्वे बोलने लगे।
(जारी…)
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