Sunday, September 19, 2010

धारावाहिक उपन्यास


बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 21
मंत्री जी के साथ मुलाकात के बाद जैलदार का गुस्सा जाता रहा था। वह भी गुरलाभ के साथ सहमत था कि पेड़ गिनकर क्या लेना। आम खाओ। वह अफीम के नशे में चुटकियाँ मार रहा था जब गुरलाभ ने आकर उसके विचारों की लड़ी को तोड़ा।
''मामा जी, इस वक्त मूड कैसा है आपका ?'' गुरलाभ ने जैलदार को चुटकियाँ मारते देख लिया था।
''बस, गाड़ी पूरी रफ्तार पर है। तू हुक्म कर।''
''मैं परसों वाली बात करना चाहता हूँ।''
''हाँ, बता।''
''मामा जी, वैसे आप मुझसे बड़े हो पर मेरे साथ हमेशा दोस्तों जैसा व्यवहार करते हो।'' गुरलाभ ने मामा को फूंक दी।
''तू यार बात तो बता। तेरे वास्ते दिल्ली-दक्खिन एक कर दूँ।'' मामा हवा में उड़ रहा था। गुरलाभ ने सकुचाते हुए सत्ती वाली सारी कहानी सुना दी।
''अब तू चाहता क्या है ?'' जैलदार अन्दर ही अन्दर खुश होता हुआ बोला।
''आप बन जाओ बिचौलिया। और मैं क्या चाहता हूँ।'' गुरलाभ चुप हो गया।
''ओए, वाह रे आशिक ! तूने तो बिलकुल ही शिखर पर लगे बेर पर हाथ डाला है। जंग सिंह तो रत्तेखेड़े का जाना-माना सरदार है।''
वे बातें कर ही रहे थे कि मंत्री जी की कारों का काफ़िला जैलदार के घर के सामने आ खड़ा हुआ। मंत्री जी अपने लोगों की भांति घर के सदस्यों से मिलने लगे। जैलदार की माँ के पैरों को हाथ लगाया। फिर आँगन में बिछे मूढ़ों पर आ बैठे।
''जैलदार, मैंने तो पहले ही देख लिया था कि अपना गुरलाभ किसी दिन सियासत के तख्त पर बैठेगा।'' मंत्री जी शुरू हो गए, ''अभी इसकी उम्र ही क्या है। एम.एल.ए. बनने जा रहा है।''
''मंत्री जी, आपकी कृपा है।''
''चल भाई साथ चल। अब ऐसे बैठने से काम नहीं चलेगा। राजनीति में तो दिन रात एक करना पड़ता है।'' मंत्री जी अधिक देर नहीं बैठे। वह गुरलाभ को अपने संग ही कार में बिठा कर ले गए।
शाम को मंत्री जी की कोठी के एक प्राइवेट कमरे में मंत्री जी और गुरलाभ बैठे थे।
''देख गुरलाभ, मैं तुझे रायपुर से सीट दिलवाना चाहता हूँ। तू तो जानता ही है कि वहाँ से अपनी विरोधी पार्टी का उम्मीदवार जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ हर बार चुनाव जीतता है।''
''जी।''
''वैसे तो इसबार हम उसे चुनाव में भी हरा देंगे। और फिर तेरे सामने वह चीज़ भी क्या है। पर सुना है कि उसके खाड़कुओं के साथ संबंध हैं। जहाँ तक चुनावों की बात है, वह मैं संभाल लूँगा। उसके दूसरे संबंधों का तो तू ही कोई...।'' इससे आगे मंत्री जी ने बात अधूरी छोड़ दी।
तीसरे दिन अख़बारों की मुख्य सुर्खी थी - विरोधी पार्टी का मैंबर अजमेर सिंह लद्धड़ खाड़कुओं द्वारा हलाक।
उस दिन मंत्री जी द्वारा इशारा करने के बाद गुरलाभ अपने ठिकाने पर पहुँचा। चार लड़कों का ग्रुप तैयार किया। रात के करीब नौ बजे जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ को हलाक करके उसके लड़के भाग निकले। उसके गनमैन द्वारा चलाई गई गोली से एक लड़का ज़ख्मी हो गया। ज़ख्मी लड़के को कार में फेंक गुरलाभ ने कार दौड़ा ली। आगे कोई नहर आई तो सड़क छोड़कर उसने कार नहर की पटरी पर चढ़ा ली। कुछ दूर जाकर बायें हाथ पर नहरी कोठी आ गई। गुरलाभ ने रेस्ट हाउस के एक तरफ कार रोक ली। रेस्ट हाउस के चौकीदार ने समझा कि शायद कोई नहर महकमे का अफ़सर आया होगा। उसने दौड़कर रेस्ट हाउस का दरवाजा खोल दिया। जैसे ही वे अपने ज़ख्मी साथी को लेकर अन्दर उजाले में आए तो चौकीदार के होश उड़ गए। सभी के गलों में लटकती राइफ़लें देखकर वह समझ गया था कि ये कौन थे।
''यहाँ ओवरसीयर कौन है ?'' गुरलाभ ने पूछा।
''जी, चट्ठा साहिब।'' चौकीदार के गले से कांपती आवाज़ में बमुश्किल से निकली।
''जा, बुलाकर ला। चन्ने, तू इसके साथ जा।'' गुरलाभ ने एक राइफ़ल वाले लड़के को इशारा किया। चौकीदार ने जाकर कोठी का दरवाजा खटखटाया। सुखचैन ने दरवाजा खोल दिया, ''हाँ, क्या बात है ?'' सुखचैन ने सिर पर कपड़ा लपेटते हुए पूछा।
''जी, बाबे बुला रहे हैं।''
''हैं ! बाबे कौन ?'' सुखचैन ने हैरान होते हुए चौकीदार की तरफ देखा। एक तरफ खड़े बंदूकधारी ने सुखचैन की कमर से राइफ़ल टिका दी, ''चुपचाप चल पड़, नहीं तो परखचे उड़ा दूँगा।''
कांपता हुआ सुखचैन आगे-आगे चलता हुआ रेस्ट हाउस की तरफ हो लिया।
जैसे ही वह रेस्ट हाउस के दरवाजे पर पहुँचा तो उजाले में खड़े व्यक्ति ने उसकी तरफ मुँह घुमाया।
''गुरलाभ ! अरे तू ! ओ माई गॉड !'' सुखचैन आगे बढ़ा।
''सुखचैन, तू यहाँ है !'' गुरलाभ भी हैरान होता हुआ बोला।
सुखचैन ने मोह के वेग में आकर आगे बढ़कर गुरलाभ को बांहों में भर लिया। गुरलाभ ने भी सुखचैन को आलिंगन में ले लिया। बाकी लड़कों ने सुखचैन की ओर तानी हुई राइफ़लें नीची कर लीं।
बांहों का घेरा ढीला करते हुए सुखचैन ने गुरलाभ को थोड़ा एक तरफ करके एकबार फिर उसे अच्छी तरह देखा।
''मैं पक्का करना चाहता हूँ कि तू गुरलाभ ही है, कहीं कोई छलावा तो नहीं।'' उस वक्त क्षणभर को सुखचैन भूल गया था कि वह किनके बीच घिरा खड़ा था।
''तूझे पता है, मैं तो आज तक यही समझता था कि तू भी उस मीटिंग के समय...'' आसपास देखता सुखचैन इससे आगे खामोश हो गया। गुरलाभ उसे अपनी बांह के घेरे में लेकर बाहर की ओर ले गया।
''हाँ, अब बता।''
''बताना क्या है गुरलाभ। मैं तो असल में... अकेला मैं ही नहीं, अपने सभी जानने वालों का ख़याल था कि जब लुधियाने में किसी मीटिंग में सभी लड़के पकड़े गए थे, तब तू भी उनमें शामिल था। मतलब सभी यही समझते हैं कि तूझे भी पुलिस ने खत्म कर दिया था।''
''सुखचैन, तू यह समझ ले कि बस बढ़ी हुई थी कि मैं बच गया। उस दिन मैं उस मीटिंग में लेट हो गया था।''
फिर, सुखचैन बाबा बसंत के विषय में बात करते करते रुक गया। वह एकाएक गुरलाभ को देखकर उभरी खुशी से बाहर आ चुका था। वह सच्चाई को समझने की कोशिश कर रहा था।
''गुरलाभ, तूने भी यह राह ?''
''बस, पूछ मत यार, यूँ ही चलते-चलते बाड़ की झाड़ियों में फंस गए।'' गुरलाभ ने एक्टिंग की। ''इस लड़के को गोली लगी है। पर तुझे ज्यादा दिन तकलीफ़ नहीं देंगे। दो-चार दिनों में इसके ठीक होते ही इसे ले जाएँगे।'' गुरलाभ ने मन में सोचा कि यह तो अड्डा ही बढ़िया मिल गया। न इधर कोई आए, न जाए।
''नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।'' सुखचैन ने ऊपरी मन से कहा।
''तेरी तो फिर इस इलाके में जान-पहचान होगी। इस लड़के का कर कोई हल।''
गुरलाभ का मतलब डॉक्टर से था।
अनमने-से सुखचैन ने मोटरसाइकिल निकाला। राजस्थान के साथ लगते शहर मटीली से अपने डॉक्टर दोस्त को ले आया। जब वह पहुँचा, वहाँ दो लड़कों के अलावा और कोई नहीं था। एक ज़ख्मी लड़का और एक अन्य। गुरलाभ बाकी लड़कों को लेकर जा चुका था। सुखचैन की दोस्ती के कारण ही डॉक्टर ने खाड़कू का इलाज किया था। गोली निकालकर उसने पट्टियाँ कर दीं, दवाइयाँ भी दे दीं। डॉक्टर समझता था कि सुखचैन और उसके सिर पर अनचाही विपदा आन पड़ी थी। डॉक्टर तब तक आता रहा, जब तक वह लड़का ठीक नहीं हो गया था। दिन चढ़ने पर जब सुखचैन ने सारी स्थिति पर विचार किया तो वह बहुत अशान्त हो गया। ''कहीं इन्होंने स्थायी अड्डा बना लिया तो फिर नहीं बच पाऊँगा।'' उसे मौसी का परिवार याद हो आया। साल भर रोटियाँ खाकर, जाते समय लाशों का ढेर लगा गए थे। सारा कुटुम्ब ही खत्म कर दिया था। फिर उसने कुछ सोचते हुए करनबीर की तरफ जाने का फैसला किया। वह सत्ती से मिलना चाहता था ताकि गुरलाभ के विषय में बता सके।
जैसे ही सुखचैन रत्ते खेड़े करनबीर के घर पहुँचा, उसने देखा कि वहाँ तो रौनकें लगी हुई थीं। ''अच्छा हुआ भाई जी तुम आ गए। वैसे मैंने अक्षय को सन्देशा भेजा था कि तुम्हें संग ले आए।'' अचानक आए सुखचैन को देखकर करनबीर शर्मिंदा-सा होता बोला। उसने सुखचैन को आमंत्रित नहीं किया था। लेकिन सुखचैन समझ नहीं पाया कि वह क्या कह रहा था। उसे लगा था कि जैसे घर में कोई फंक्शन हो।
''कैसे करनबीर ? सत्ती यहीं है या यूनिवर्सिटी लौट गई ?''
''वह तो यहीं है, तभी तो यह सब कुछ हो रहा है। तुझे उसने बताया नहीं ?''
''पर तू तो उस दिन के बाद इधर आया ही नहीं।'' अपने सवाल का करनबीर ने खुद ही जवाब दिया, ''मिलना है तो मिल आ। सत्ती अन्दर घर में ही है। वैसे तो वह लड़कियों में घिरी बैठी होगी।'' फिर करनबीर ने सत्ती को सन्देशा भेजा। सत्ती ने सन्देश भेजकर सुखचैन को अन्दर ही बुला लिया था।
सुखचैन अन्दर गया तो सत्ती लड़कियों में से निकलकर एक दूसरे कमरे में आ गई।
''कैसे बहन जी, तैयारियाँ तो ऐसी हैं जैसे...।''
''कर ले बहन से मखौल तू भी।'' सत्ती सुखचैन के करीब बैठती हुई बोली।
''ऐसा लगता है, सत्ती बहन को कोई राजकुमार मिल गया है। आज तो खूब रौनक लगी हुई है।'' सत्ती के दिपदिपाते चेहरे की ओर देखकर सुखचैन ने मीठा मजाक किया।
''मिला नहीं, गुम हुआ राजकुमार मिल गया।''
''वह कैसे ?'' सुखचैन कुछ समझा नहीं।
''इतने समय से उसे खोजती रही, उसका कोई अता पता नहीं लगा। फिर दो दिन पहले ही परिवार सहित आ गया हमारे घरवालों से बात करने। फिर झटपट मंगनी वाली बात हो गई।''
''तू किसकी बात करती है ?''
''गुरलाभ, और कौन ?''
सुखचैन को लगा मानो उसे बिच्छू ने डंक मारा हो। वह तो आया था कि गुरलाभ के बारे में बता कर वह सत्ती को उससे सावधान कर दे, पर इधर तो उनकी मंगनी हुई जाती थी।
''अच्छा बहन मेरी, गुड लक। मैं उधर करनबीर के पास बैठता हूँ।'' इतना कहकर वह बाहर निकल आया। करनबीर के पास भी वह अधिक देर बैठ न सका। काम का बहाना बनाकर वहाँ से खिसक आया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए। फिर वह बुझे हुए मन से ही शेरगढ़ कोठी की तरफ निकल गया। ''न जाने, अब क्या होगा ?'' यह चिंता उसे घुन की तरह खाये जा रही थी।
जैलदार ने गुरलाभ के बताने के बाद रत्ते खेड़े गाँव में जाकर जंग सिंह के परिवार के बारे में पता लगाया था। उसे सब कुछ जच गया। रत्ते खेड़े के ही किसी परिचित व्यक्ति को बिचौला बनाया। करनबीर के परिवार को भी गुरलाभ का घरबार पसन्द आ गया। दोनों तरफ की सहमति होने के पश्चात् जैलदार ने गुरलाभ और सत्ती की पुरानी जान-पहचान के बारे में चुप रहना ही बेहतर समझा। गुरलाभ और सत्ती को मनचाही मुराद मिल गई थी। मंगनी से पहले दिन दोनों की मुलाकात भी करवाई गई। गुरलाभ ने स्वयं को दूध का धुला साबित कर दिया। डिप्लोमा के विषय में पूछे जाने पर गुरलाभ ने समझाया कि अब उसे एम.एल.ए. की टिकट मिल ही रही थी, इसलिए अब डिप्लोमे का क्या लेना। सत्ती को राजनीति पसन्द नहीं थी। वह जानती थी कि इन सरदारों के बेटों के शौक निराले हैं। इन पर कोई रोक नहीं लगा सकता। उसे इस बात की संतुष्टि थी कि उसने अपनी मंजिल पा ली थी। उसकी मुहब्बत परवान चढ़ी थी। दोनों की मंगनी हो गई। विवाह के लिए सत्ती की परीक्षा तक रुकना था।
सुखचैन बड़े असमंजस में रहने लगा था। गुरलाभ के ग्रुप ने आकर उसकी सुख-शान्ति से चल रही ज़िन्दगी में खलल डाल दिया था। उसे लगता था मानो जाती हुई बला उसके घर में आ घुसी हो। यद्यपि उस दिन के बाद गुरलाभ दोबारा नहीं आया था, पर दो लड़के अभी रेस्ट हाउस में ही थे। उनके खाने-पकाने का काम चौकीदार करता था। जैसे ही सुखचैन को मौसी के घर की याद आती, तो उसका दिल बैठ जाता। एक दिन अच्छा-खासा अँधेरा होने पर वह रेस्ट हाउस की तरफ जा निकला। जिस लड़के को गोली लगी थी वह अब पूरी तरह ठीक था। सुखचैन को आता देखकर वह लड़का खड़ा हो गया। ''बैठ जा भाई, खड़ा क्यों है ?'' एक तरफ कुर्सी पर बैठते हुए उसने इशारा किया।
''क्या नाम है भाई तेरा ?''
''मेरा नाम भाई जी अमरीक है।''
''कौन सा इलाका ? मेरा मतलब कौन सा गाँव है ?''
''मेरा गाँव...'' वह कुछ कहते कहते रुक गया, ''अब तो भाई जी सारा पंजाब ही मेरा गाँव है।''
''अरे भाई मुझसे कैसा छिपाव। चल, जैसे तेरी मर्जी।'' सुखचैन ने दांत भींचे।
''भाई जी, मैं आपका सारी उम्र ऋण नहीं उतार सकता। आपने मुझे मरते को बचा लिया।'' वह डाक्टरी सहायता की बात कर रहा था।
''भाई मेरे यह तो अवसर पड़ने पर ही पता चलता है।''
''वैसे भाई जी, मैंने आपको पहले भी देखा है।'' सुखचैन की बात अनसुनी करता अमरीक बोला।
''क्या ? मुझे देखा है, कहाँ ?''
''मैंने काफी समय पहले आपको मल्ल सिंह वाले गाँव में जत्थेदार की ढाणी पर देखा था, उधर सादक की तरफ।''
सुखचैन को लगा जैसे किसी ने उसका कलेजा दबोच लिया हो।
''अच्छा, तू भी उनमें था जो उस ढाणी में ठहरा करते थे।''
''हाँ जी।''
''फिर मुझे एक बात का जवाब ज़रूर दे भाई मेरे।'' गुस्सा सुखचैन की अन्दर लप लप जल उठा। वह कुर्सी पर से खड़ा हो गया।
''वह मेरी मौसी का घर था। उन्होंने साल भर तुम्हारी बेटों की भाँति सेवा की। किस बात के बदले तुमने उस परिवार का नामोनिशान मिटा दिया ?''
''वह काम भाई जी, हमारे विरोधी ग्रुप वाले दलबीर ने किया था। हम तो उस परिवार के हमदर्द थे।'' उसके जवाब ने एकबारगी तो सुखचैन को खामोश कर दिया।
''तो फिर बाद में जैलदारों का परिवार तुम्हारे ग्रुप ने मारा था।''
''हाँ जी।'' अमरीक धीमे स्वर में बोला।
''उनके बारे में ही बता दे कि उनका क्या कसूर था ?''
''भाई जी, सच पूछते हो तो मैं तो बहुत छोटे लेवल का खाड़कू हूँ। हमारा जो प्रधान था बलविंदर रिजोरी, यह उसके हुक्म पर हुआ था।''
''पर कारण तो तुझे मालूम ही होगा।''
''उस वक्त बलविंदर रजोरी ने कहा था कि जत्थेदार का परिवार मरवाने में जैलदार का हाथ था। मुझे पता है, यह तो एक बहाना था। उन पर हमला करने का।''
''फिर असली कारण क्या था ?'' सुखचैन बीच की बात जानने की कोशिश कर रहा था।
''असल में, बलविंदर रजोरी कोई बड़ा कारनामा करके दलबीर को अपनी ताकत दिखाना चाहता था। इसीलिए उसने जैलदार के परिवार का खात्मा किया।'' अमरीक ने खुलासा किया।
''तुम यार लड़ किससे रहे हो ? तुम्हारे उसूल क्या हैं ?'' सुखचैन कुछ सख्ती में बोला। फिर उसे स्वयं ही अपनी ऊँची आवाज़ का अहसास हुआ। 'इन आग के गोलों से क्या पंगा लेना।'
''भाई गुस्सा न करना। वे मेरे रिश्तेदार थे, आख़िर दुख तो होता ही है।'' सुखचैन नरम पड़ गया।
''भाई जी, मैं आपकी बात समझता हूँ। मेरा परिवार भी पुलिस और खाड़कुओं की आपसी टक्कर की भेंट चढ़ गया था। अब पुलिस से डरकर इधर शामिल हुआ हूँ। किसका जी करता है घरबार छोड़कर, जंगल-बियाबानों में भटकने को।'' अमरीक उदास हो गया। सुखचैन को उस मासूम से लड़के पर तरस आया। ''चल कोई नहीं। भूल जा इन बातों को। किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बताना।''
''भाई जी, आज मैं अकेला हूँ। इसलिए एक दो बातें आपसे करना चाहता हूँ, अगर टाइम है तो।'' अमरीक ने मिन्नत-सी की।
उठता-उठता सुखचैन फिर बैठ गया।
''वैसे तो भाई जी, पार्टी के हुक्म के मुताबिक मुझे इजाज़त नहीं कि पार्टी की कोई बात किसी से करूँ। पर मैं ही जानता हूँ कि आप उस दिन मेरे लिए कैसे रब बनकर आए थे। ये तो मुझे यहाँ फेंक कर चले गए थे। अगर आप रात में डाक्टर न लाते तो मैं अब तक गल सड़ जाता। इसलिए इन्सानियत के नाम पर ही मैं आपके साथ चार बातें साझी करना चाहता हूँ।''
सुखचैन चुपचाप उसकी तरफ देखता रहा।
''एक तो यह कि आप यह न समझना कि ये लोग यहाँ से चले गए हैं। हर रोज सभी रात में इकट्ठा होते हैं। ये साथ ही खैरू वाला गाँव है न, इसके पीछे की ओर राजस्थान के खेतों में कोई ढाणी है - बिरजू प्रधान की। हर रोज़ रात में वहाँ इकट्ठा होते हैं। बिरजू प्रधान की मंडी में आढ़त की दुकान है और कोई राजसी लीडर है।''
''अच्छा।'' सुखचैन को लगा यह तो साधारण सी बात थी।
''दूसरी बात यह कि ये इस कोठी को मुख्य अड्डा बनाने लगे हैं। आप इधर से बच कर रहना। सच कहूँ तो शहर में रहने लग जाओ। आते-जाते इनके माथे न लगा करो। तीसरी बात भाई जी, जो बहुत ज़रूरी है, वह यह है कि पिछली बार मैं भी बिरजू प्रधान की ढाणी वाली मीटिंग में था। इन्होंने किसी चौधरी को मारने के लिए पैसे लिए हैं। कोई आपका लिहाजी है। कहते हैं, यहाँ कोठी में भी आता-जाता रहता है।''
''नाम क्या है ?''
''अक्षय कुमार।'' अमरीक के मुँह से अक्षय कुमार का नाम सुनते ही सुखचैन की साँसे थम गईं। ''ठीक है।'' इतना कहते ही सुखचैन उठ खड़ा हुआ। वह उसी वक्त मोटरसाइकिल उठाकर अक्षय की ढाणी की तरफ चल पड़ा। अक्षय शराबी हुआ पड़ा था। उसका मुख्तियार मिल गया। मुख्तियार अनुभवी व्यक्ति था। वह अक्षय और सुखचैन की मित्रता के बारे में जानता था। सुखचैन ने धीरे धीरे सारी बात मुख्तियार को समझाई। उसे समझाकर सुखचैन कोठी लौट आया। मुख्तियार ने अक्षय को जीप में लादा और रात में ही राजस्थान की तरफ निकल गया। अगले दिन सुखचैन को अनेक चिंताओं ने घेर रखा था। उसे लगता था मानो कोई भयानक तबाही उसकी तरफ बढ़ रही हो। वह दफ्तर गया। दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर उसी दिन गाँव चला गया।
जत्थेदार अजमेर सिंह लद्धड़ वाली घटना से कई दिन पश्चात मंत्री जी और गुरलाभ फिर उनकी कोठी के प्राइवेट कमरे में बैठे थे।
''गुरलाभ बेटे, मेरा लड़का भी इस बार चुनाव मैदान में उतर रहा है। बलासपुर सीट से। वहाँ भी उसका मुख्य विरोधी जत्थेदार अजमेर सिंह की पार्टी का ही कोई उम्मीदवार है ज्ञानी भजन सिंह। मैंने सुना है, उसने भी खाड़कुओं की फौज पाल रखी है।'' इतना कहकर मंत्री जी गुरलाभ के चेहरे की तरफ देखने लगे। गुरलाभ का चेहरा सपाट था।
''जत्थेदार अजमेर सिंह तो अपने पाले खाड़कुओं के हाथों ही मारा गया, पर यह ज्ञानी भजन सिंह बड़ा चुस्त है। इसका कोई हल सोचना पड़ेगा।''
''हो सकता है जी इसके पाले हुए खाड़कू ही इसे गाड़ी चढ़ा दें, जत्थेदार अजमेर सिंह की तरह।''
''नहीं गुरलाभ बेटा, यह आदमी बहुत चालाक है। ऊपर से एक पंगा और भी है...'' मंत्री जी चुप लगा गए।
''वह भी बता दो।'' गुरलाभ खुलकर बोला।
''यह अब भाजपा लीडर राणा बहिणीवाल जो मेरा मुख्य विरोधी है, सुना है उसने मुझे मरवाने के लिए मेरे पीछे खाड़कू लगा रखे हैं। मैं भी डरता नहीं। देश की सेवा करते हुए जान भले ही चली जाए।'' मंत्री जी में से देशभक्ति बोली।
अचानक गुरलाभ 'हा...हा... ' करके ऊँचे स्वर में हँसा।
''क्या बात, मैंने कुछ गलत कहा है ?'' मंत्री जी खीझ-से गए।
''मंत्री जी, नहीं सच मामा जी... वो कहते हैं न कि जब नाचने ही लग गई तो घूंघट किससे काढ़ना। जब पेट से हो ही गए तो दाई से क्या शरमाना।''
''क्या मतलब ?''
''मतलब यह मामा जी कि आप अपने अन्दर से इस झिझक को खत्म करो। आपको पता है, मैं कौन हूँ। मुझे भी पता है कि आप क्या चाहते हो।''
''फिर ?'' मंत्री जी को लगा जैसे वह सरे बाज़ार नंगे हो गए हों।
''यह लो पेपर। आप इस पर लिस्ट बना दो कि आपके विरोधी कौन-कौन हैं। उसके बाद मैं जानूँ और मेरा काम। एक बात और।''
''वह क्या ?''
''वह यह कि मैं बहुत कुछ कर चुका हूँ। आपकी इस लिस्ट वाला काम हो चुकने के बाद मुझे छुट्टी दो। मेरा कोई प्रबंध करो।'' गुरलाभ की आवाज़ में आत्मविश्वास था। थोड़ी छिपी हुई धमकी भी झलकती थी।
''अगले दो महीने तो मुझे विदेशी दौरे पर जाना है।'' मंत्री जी चिंतित-से बोले।
''आप बेफिक्र होकर दौरे पर जाओ। आपके लौटने तक आपका कोई विरोधी नहीं छोड़ना। आपको वापस आकर मैदान साफ़ मिलेगा। आते ही मेरा और मेरी मंगेतर का कोई प्रबंध करो। पानी मेरी गर्दन तक आ चुका है। कहीं मैं बढ़ते पानी में डूब ही न जाऊँ।''
''बाहर कहाँ ठिकाना है ?'' कुछ देर सोचते हुए मंत्री जी बोले।
''हाँ जी, कनेडा में मेरे बहुत सोर्स हैं।'' गुरलाभ ने बताया।
''अच्छा ऐसा कर।'' मंत्री जी कुछ सोचने लगे, ''कल, सवेरे दस बजे मुझे यहीं पर मिलना। तब तक मैं करता हूँ कुछ।''
मंत्री जी के साथ सीधी बात करके गुरलाभ के मन पर से बोझ उतर गया। रात में वह लेटे लेटे सोचता रहा कि अगले दो महीने जी भरकर कमाई की जाए। मंत्री जी के कामों को अंजाम दिया जाए। सवेरे गुरलाभ मंत्री जी के पास पहुँचा। मंत्री जी ने जेब में से एक लिस्ट निकाल कर गुरलाभ को थमा दी।
''अब मेरे बारे में बताओ।'' गुरलाभ ने मंत्री जी को बीच में ही टोका।
''जल्दी न कर, वह भी समझाता हूँ। तू अपनी और अपनी मंगेतर की फोटो लाकर मुझे दे, पासपोर्ट और वीज़ा के लिए। मुझे परसों विदेशी दौरे पर जाना है। उससे पहले पहले फोटो मुझे दे जाना। आगे मैंने सारा प्रबंध किया हुआ है। ध्यान से सुन।''
''हाँ जी।''
''मैं पन्द्रह नवम्बर को दौरे से वापस दिल्ली पहुँचूँगा। तू उस दिन मुझे अपनी मंगेतर के संग मेरी दिल्ली वाली कोठी में मिलना। मेरे लिए यह काम सबसे अधिक अहम है। और तू बग़ैर किसी रुकावट के पन्द्रह नवम्बर को शाम तक दिल्ली मेरे पास पहुँच जाना। मैं तेरी प्रतीक्षा कर रहा होऊँगा। इसके बाद यदि अपने बीच कोई बातचीत न हुई तो यह मेरा फाइनल आर्डर है।''
''ठीक है जी।'' गुरलाभ को मंत्री जी की योजना कुछ कुछ समझ में आ रही थी।
''दूसरी बड़ी बात। अपनी दोनों की वार्तालाप अपने बीच ही रहे। उस पुलिस वाले से बचकर रहना, क्या नाम है उस भैण... का... हाँ, रणदीप। उसे कोई भेद न देना।''
''एक बात और।''
''जी...।''
''कहीं बाहर जाने से पहले तुझे एक काम और भी करना पड़ेगा। मेरा मतलब...।'' मंत्री जी ने गुरलाभ के चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं।
''हाँ जी... मैं... मैं आपका मतलब समझ गया।'' गुरलाभ ने मंत्री जी की नज़रें पढ़ लीं।
''अच्छा जी फिर...।'' मंत्री जी का इशारा पाकर गुरलाभ बाहर निकल गया। फिर मंत्री जी ने एस.पी. रणदीप को बुलाया। अगले ही पल रणदीप मंत्री जी के सामने था।
''मिस्टर रणदीप, तू एक समझदार और जाबांज अफसर है। मेरे पीछे इलाके की हिफाजत करना। गुरलाभ को हर तरह से प्रोटेक्ट करना। तेरी डी.आई.जी. की प्रमोशन वाली फाइल तैयार है। विदेशी दौरे से लौटते ही मैं तुझे प्रमोट कर दूँगा।'' रणदीप ने खड़े होकर बड़े ज़ोर का सलूट मारा। खुशी में उछलता बाहर निकल गया।
(जारी…)
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