Sunday, August 15, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 18(प्रथम भाग)

लुधियाने से ट्रैक्टर लेकर चला गुरलाभ रात को अबोहर पहुँच गया। रास्ता ही लम्बा था। वह स्वयं भी वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते रात कर देनी चाहता था। अबोहर से बाहर ही बाहर वह डबवाली रोड पर पड़ गया। आगे नहर के पुल पर पहुँच कर वह दायें हाथ गाँव की ओर मुड़ने के स्थान पर बायें हाथ नहर की पटरी पर हो लिया। खतरनाक सामान लेकर वह आधी रात अपनी ननिहाल वाले घर कैसे जा सकता था। करीब डेढ़ किलोमीटर जाकर उनका दूर वाला खेत आ गया। इस खेत का एक हिस्सा नहर के साथ लगता था। खेत से आगे ही नहरी कोठी रसूलपुर रह जाती थी। यहाँ चौकीदार को छोड़कर अन्य किसी की रिहाइश नहीं थी। पुराना रैस्ट हाउस और कुछ क्वार्टर खाली पड़े रहते थे। चौकीदार भी नई उम्र का लड़का था। इस चौकीदार गणेश से पहले उसका बाप राम लाल यहाँ का चौकीदार था। राम लाल ने सारी उम्र इस रैस्ट हाउस की चौकीदारी करते ही गुजारी थी। राम लाल के समय भी यहाँ दूसरा कोई नहीं रहता था। जैलदारों का खेत नज़दीक होने के कारण उसकी सारी उम्र उनके संग घूमते ही गुजर गई थी। उसका इकलौता बेटा गणेश दसवीं की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर निठल्ला-सा इधर-उधर घूमने लगा तो उसने गणेश को कहीं दूर कच्चे बेलदार के तौर पर रखवा दिया था। फिर राम लाल की मृत्यु के बाद गणेश को पिता के स्थान पर चौकीदारी की नौकरी मिल गई थी। बाप की तरह वह भी सारा दिन जैलदारों के खेत में ही रहता था। हमउम्र होने के कारण गुरलाभ से वह अधिक घुलामिला था। वह गुरलाभ का वफ़ादार नौकर था। गुरलाभ के सभी उल्टे-सीधे काम वही करता था। आधी रात के करीब रैस्ट हाउस के पास जाकर जब गुरलाभ ने हॉर्न बजाया तो गणेश सिर पर साफा लपेटते हुए दौड़ा आया। ट्रैक्टर की तेज लाइट के कारण वह अँधेरे में कुछ पहचान नहीं पाया। फिर जैसे ही गुरलाभ नीचे उतरकर उसके पास आया तो वह उसे पहचानते हुए उसके पैरों की ओर झुका।
''काका जी, सासरीकाल।''
''कैसे, अकेला ही है ?'' गुरलाभ धीमी आवाज़ में बोला।
''हाँ जी, और यहाँ किसने होना है।'' गणेश गुरलाभ के इस तरह पूछने का कारण कुछ और ही समझा था। 'पर काका जी, ट्रैक्टर पर क्यों हैं ? पहले तो कार पर आते थे।' उसने मन में सोचा। ''काका जी, करूँ कोई खाने-पीने का इंतज़ाम ?''
''वह सब छोड़। मुझे यह बता कि रैस्ट हाउस के कमरों में क्या पड़ा है ?''
''दो कमरे खाली हैं। एक में सीमेंट के खाली बोरे पड़े हैं। कहो तो कमरे में बैड लगा दूँ ?'' गणेश अभी भी अपनी सोच के मुताबिक ही बोल रहा था।
''नहीं, बैड-शैड रहने दे। इधर आकर बैटरी जला।''
बैटरी की रोशनी में पेचकस और चाबियों की मदद से गुरलाभ नट बोल्ट खोलने लगा। सब कुछ तैयार करके उसने फिर गणेश को संग लिया। रैस्ट हाउस का खाली बोरों वाला कमरा खुलवाया। उसने गणेश को कुछ बताया, फिर बोरों के ढेर को इधर उधर करके बीच में खाली जगह बनाई। गणेश को संग लेकर पोलीथीन के बैग अन्दर ढोने लगा। राइफ़िलों और पैसों वाले बैग बीच में रखकर उनके ऊपर फिर खाली बोरे चिन दिए।
कमरे में ताला लगाकर गुरलाभ ट्रैक्टर को मोड़कर खेत वाले कोठे की तरफ ले गया। ट्रैक्टर का ड्राइवर पहले ही खेत में पहुँचा बैठा था। उसे गुरलाभ ने रैस्ट हाउस से काफी पीछे उतार कर खेत की तरफ भेज दिया था। उससे आगे ट्रैक्टर को स्वयं चला कर ले गया था। उसने ड्राइवर को कुछ धीमे से समझाया, दिन चढ़ने पर गाँव जाने का कहकर वह सो गया।
सवेरे ही ड्राइवर को चला आता देख बड़े जैलदार का माथा ठनका। वह तो कल से दुखी हुआ घूमता था। ज्यों-ज्यों ड्राइवर करीब आता गया, जैलदार के माथे की त्यौरी गहरी होती चली गई। ड्राइवर ने 'सासरीकाल सरदार जी' कहा पर जैलदार चुपचाप उसे घूरता रहा।
''काका जी ने कार मंगवाई है।'' ड्राइवर डरते-डरते बोला।
''कहाँ है वह ?''
''जी, शहर में है।''
''कहाँ कहा ?'' जैलदार ड्राइवर को मारने को दौड़ा।
''शहर से रात को खेत में आ गए थे। अब तो खेत में है।'' ड्राइवर ज्यादा देर झूठ न बोल सका।
''चल, कार निकाल।''
ड्राइवर कार निकाल लाया।
''ओए, पीछे मर। साला बैठा है नंबरदार बना।'' ड्राइवर की सीट पर बैठे ड्राइवर से जैलदार गुस्से में बोला। ड्राइवर जल्दी से उठकर पिछली सीट पर बैठ गया। जैलदार ने ड्राइवर की सीट पर बैठते ही कार दौड़ा ली। गाँव से सड़क पर चढ़कर, आगे साथ ही नहर की पटरी पर हो लिया।
''तुझे दस दिन हो गए मरे को... इतने दिन वहाँ क्या भैण...।''
''जी, काका जी ने रोक लिया था।''
''साला काका जी का।'' जैलदार अपना गुस्सा किसी और पर निकाल रहा था। जब वे खेत पर पहुँचे, गुरलाभ सोया पड़ा था। बौखलाया-सा जैलदार कुछ सोच कर चुप हो गया।
''इसे उठा कर चाय-पानी पिला। कह गाँव चलना है।'' इतना कहकर जैलदार एक तरफ खड़े ट्रैक्टर की ओर चल दिया। वह काफी देर ट्रैक्टर को और नई बनी कंबाईन को निहारता रहा। फिर आगे खेत की तरफ बढ़ गया। जब तक जैलदार मुड़कर आया, गुरलाभ तैयार हुआ बैठा था। वह जैलदार मामा को करीब होकर मिला। जैलदार ने उसकी तरफ टेढ़ी नज़र से झांका। ''चलो, घर चलें।'' जैलदार ने कार स्टार्ट कर ली। गुरलाभ बराबर में बैठ गया। ड्राइवर पीछे बैठ गया।
''कैसे मामा जी, पारा कुछ ज्यादा ही हाई है।'' गुरलाभ ने मामा को प्यार से बुलाया।
''क्यों, तुझे नहीं पता ?'' प्रत्युत्तर में जैलदार कुछ कहने ही लगा था कि उसने पीछे बैठे ड्राइवर की ओर देखा।
''तू नीचे उतर ओए कुत्ते की औलाद। साला बैठा है बराबर लाट साहब बना।'' कार रोकते हुए जैलदार ड्राइवर को गुस्से में बोला। ड्राइवर कार से उतर कर ट्रैक्टर की ओर चल पड़ा।
''अब बताओ मामा जी। कैसे सवेरे-सवेरे चढ़ाई की ?'' गुरलाभ ने फिर मामा के साथ प्रेमभरी वार्तालाप करनी चाही। जैलदार चुपचाप कार चलाता रहा। जैलदार गुरलाभ को ऊपर चौबारे में ले गया।
''यह क्या चल रहा है ?'' जैलदार ने गुरलाभ की आँखों में आँखें गड़ाकर पूछा।
''क्या कह रहे हो ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।''
''तू लुधियाना में अब तक क्या करता था ?''
''पेपर दे रहा था, और मैंने क्या करना था। पिछले दिनों छुट्टियों में कुछ देर दोस्तों के पास रहा और अब खाली हूँ।''
''कल यहाँ सी.आई.डी. का इंस्पेक्टर आया था।'' यह कहकर जैलदार चुप हो गया। उसने देखा कि गुरलाभ के चेहरे पर कुछ तनाव-सा आ रहा था।
''क्या कहता था इंस्पेक्टर ?'' अपने आप को सहज रखते हुए गुरलाभ ने पूछा।
''यह जो नई आँधी चल रही है, तेरा इससे क्या लेना-देना है, तू खुद ही बता दे।''
''मामा जी, मुझे सीधी बात बताओ। इंस्पेक्टर क्या कहकर गया है ?''
''उसका कहना था कि तू इन खाड़कुओं का मददगार है। अभी तो वह इतना ही कहकर गया है कि अपने लड़के को संभालो। कहीं किसी गलत राह पर न चल दे।'' जैलदार का गुस्सा ठंडा होता जा रहा था। वह एक तरफ कुर्सी पर बैठ गया। तब तक गुरलाभ भी संभल गया था। उसे हैरानी इस बात की थी कि सी.आई.डी. वाला उसके गाँव जाने की बजाय यहाँ क्यों आया। फिर इतनी जल्दी ! उसके पहुँचने से पहले ही पहुँच गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। असल में वह पुलिसवाला लुधियाना से रणदीप ने अपने तौर पर भेजा था। वह गुरलाभ को अपने हाथ में से नहीं निकलने देना चाहता था। उसे गुरलाभ की राजनीतिक पहुँच की जानकारी थी। वह जानता था कि सीधे तौर पर तो वह गुरलाभ का बाल भी बांका नहीं कर सकता। रणदीप को यह नहीं पता था कि अभी तो गुरलाभ को स्वयं ही इस ओर से हटने की उतावली नहीं थी। अभी तो वह खुद ही इस लहर का और आनन्द लूटना चाहता था।
''मामा जी, बात यह है कि हमारे कालेज के कितने ही लड़के इस लहर में शामिल हो गए। कुछ मारे गए। कुछ अभी भी सक्रिय हैं। कारनामे किए जाते हैं। और बहुत से नये लड़के इस लहर में शामिल होते जा रहे हैं। यह सी.आई.डी. वाले तो कालेज के हर लड़के के पीछे लगे हुए हैं। पूछताछ करके खुद ही लौट जाते हैं। और फिर हमें किस बात का डर है जब हमारा किसी से कोई लेना-देना ही नहीं।'' गुरलाभ की प्रभावशाली बात से जैलदार ने कुछ राहत की साँस ली।
''गुरलाभ, तू नहीं जानता, जब गवर्नमेंट ऐसी लहरों को कुचलने पर आती है न, फिर ये खास सिफ़ारिशें भी काम नहीं आतीं। ये लीडर तो खड़े-खड़े ही आँखें फेर लेते हैं।'' अपनी तरफ से जैलदार गुरलाभ को यह समझा रहा था कि कहीं मंत्री जी की फूंक में आकर आग में हाथ न डाल बैठना।
''न हमें गलत काम करना है, न ही हमें सिफारिशों की ज़रूरत है। आप तो यूँ ही घबरा रहे हो।'' गुरलाभ हर तरीके से मामा की तसल्ली करवाना चाहता था। जैलदार शांत बैठा कुछ सोच रहा था। वह गुरलाभ के चंचल स्वभाव से परिचित था। 'आगे इस पर निगाह रखनी पड़ेगी।' वह मन ही मन सोच रहा था।
''अब तो फिर छुट्टियाँ हैं। अब तो मुझे रहना ही आपके पास है।'' गुरलाभ चुप बैठे जैलदार को इतना कहकर नीचे उतर गया। दिन भर गुरलाभ घर में ही रहा। पिछले पहर कार लेकर वह दूर वाले खेत की ओर चल दिया। खेत का चक्कर लगाकर वह रसूलपुर कोठी चला गया। गणेश उसे सामने ही मिल गया। गणेश की ओर देखते हुए उसने मन ही मन काफी कुछ सोच लिया। रैस्ट हाउस के कमरे की चाबी लेकर उसने अन्दर रखे सामान की तसल्ली की। फिर रैस्ट हाउस के सामने चबूतरे पर बिछी कुर्सी पर जा बैठा। जब भी गुरलाभ आता था तो गणेश को अजब-सा चाव चढ़ जाता था। गुरलाभ के कामधंधे ही ऐसे हुआ करते थे कि गणेश हर वक्त उसके संग ही रहना चाहता था। पहले उसने अच्छी कड़क चाय बनाकर गुरलाभ के सामने ला रखी। खुद भी गिलास में चाय डालकर गुरलाभ के सामने नीचे ज़मीन पर ही बैठ गया।
''काका जी, इस बार तो आपने बहुत देर बाद चक्कर लगाया।'' चाय का घूंट भरता गणेश बोला।
''बस, पढ़ाई-लिखाई ही पीछा नहीं छोड़ती। फिर मैंने सोचा, चलो, गणेश को मिल आएँ।'' गुरलाभ ने गणेश को फूंक दी।
''जी, धन्यभाग मेरे। आपने मुझे याद रखा।'' गणेश ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
''क्यों फिर, यहाँ मौज मार रहा है ?''
''टाइम पास हुआ जाता है। वैसे अब अकेले को डर-सा लगता रहता है।''
''वह क्यों भाई ?''
''यह जो नई लहर चली है खाड़कुओं की इसी के कारण। अब तो कहते हैं, इस तरफ भी आते जा रहे हैं। कहते हैं, ऐसी उजाड़ जगहों पर तो वे अड्डे बनाते हैं जी... आम लोग भी अब तो सहमे हुए हैं जी, जो खेतों में अकेले रहते हैं।''
''अच्छा, इधर भी वही हाल है ?''
''हाँ जी। सच पूछो, मैं तो रात में डर ही गया था। मैंने कहा- आ गए बाबे, अब नहीं छोड़ेंगे।''
''बाबे ?'' गुरलाभ दिलचस्पी से गणेश की बातें सुन रहा था।
''हाँ जी, इधर उन्हें बाबे ही कहते हैं। अभी तो इधर इक्का-दुक्का ही बातें होती हैं। उधर लुधियाने की तरफ इनका बहुत जोर सुना है।''
''हाँ, उधर तो पूरी चढ़ाई है।''
''काका जी, आपने कभी देखे हैं ये बाबे ? आप तो लुधियाने ही रहते हो।'' गणेश ने भोलेपन में बात की।
''ओए, वो कौन सा आसमान से उतरे हैं। आम लड़कों जैसे ही हैं। बस, एक ही फ़र्क है कि उनके गलों में ए.के. सैंतालीस लटकी होती हैं।''
''ए.के. सैंतालीस तो जी कहते हैं, बड़ी बुरी राइफ़ल है। यह तो पुलिसवालों को भी आगे लगा लेती है।''
''तुझे कैसे पता ?'' गुरलाभ ने गणेश की ओर टेढ़ी नज़र से देखा।
''लोगों से ही सुनते हैं।''
''अगर कभी तेरे ये बाबे यहाँ आ गए तो फिर क्या करेगा ?''
''करना क्या है जी। जो हुक्म करेंगे, मानना पड़ेगा।''
''अगर उन्होंने तुझे अपने संग शामिल होने को कहा, फिर ?''
''ना जी ना, पुलिस वाले पकड़ लें तो कहते हैं, मांस चीर कर बीच में मिर्चें भर देते हैं।''
''ओए, पुलिस-वुलिस कहाँ फटकती है उनके पास। वे तो मौजें मारते हैं। उनके पास खुले पैसे होते हैं। पैसे से जो चाहे करो।''
''फिर तो हो सकता है, वे पुलिस को महीना देते हों जी।'' गणेश ने अपनी समझ के मुताबिक बात की।
''वो तो देते ही होंगे, तभी तो कोई बुलाता नहीं। मुझे तो लगता है, वो खूब ऐश करते हैं।''
खुले पैसे और ऐशों की बात सुनकर गणेश के अन्दर कुछ कुछ होने लगा। उसके चेहरे के बदलते हावभाव गुरलाभ देख रहा था।
''फिर कइयों को पुलिस मार क्यों देती है जी ?'' गणेश की जिज्ञासा बढ़ रही थी।
''जो महीना नहीं भरते, उन्हें पुलिस मार देती होगी।''
''राह तो बुरी ही है जी।'' गणेश ने कानों को हाथ लगाया।
''अच्छा फिर, मैं कल आऊँगा। कोई आए-जाए तो ख़याल रखना।''
गणेश को इतनी हिदायत देकर गुरलाभ गाँव लौट गया। बातों बातों में उसने गणेश को टोह लिया था। उसे वह काम का आदमी लगा। उधर गणेश का उतना ध्यान गुरलाभ द्वारा रखे सामान की ओर नहीं था जितना कि उसकी कही गई बातों की ओर था। गुरलाभ के साथ बाबाओं के बारे में बात करके अब उसे उनसे इतना डर नहीं रहा था। गुरलाभ की बातों ने उसके मन में कुछ और ही हलचल मचा दी थी। अगले दिन शाम के वक्त फिर गुरलाभ आया। चाय-पानी पीकर उसने कमरे की चाबी ली। अन्दर से दो राइफ़लें निकाल लाया। रैस्ट हाउस के बाहर चारपाई पर बैठ कर जब उसने पॉलीथीन के बैगों में से राइफ़लें निकालीं तो गणेश हैरानी से राइफ़लों की तरफ देखने लगा। जैलदारों के पास उसने कई किस्म के हथियार देखे थे पर ऐसी चमचमाती राइफ़लें तो कभी नहीं देखी थीं।
''चल आ, मलोट तक काम पर होकर आना है।'' राइफ़लें कार की डिग्गी में छिपा कर रख लीं। गणेश को उसने पिछली सीट पर बिठा लिया। मलोट पहुँचते-पहुँचते उन्हें अँधेरा हो गया था। गुरलाभ काफी देर तक कार लिए इधर-उधर घूमता रहा। आख़िर वह डिफैंस रोड पकड़कर छापियाँ वाली की तरफ निकल गया। थोड़ी दूर जाकर ही उसने कार एक तरफ रोक दी। सड़क के साथ ही उसने भइयों की झुग्गी देख ली थी। एक राइफ़ल उसने स्वयं उठा ली, दूसरी गणेश को थमा दी। झुग्गी के आगे पहुँच कर उसने धमकी देते हुए अन्दर बैठे तीन भइयों को बाहर निकाल लिया। गणेश का मुँह सफ़ेद हुआ पड़ा था। गुरलाभ ने गोलियों की बौछार की तो बग़ैर चू-चाँ किए भइये धरती पर ढेर हो गए। लहू की नदी बह चली।
''ले, अब तू भी चला गोली।'' गुरलाभ ने गणेश को दबका मारा।
''मैं मैं, मैं जी।'' गणेश से बोला नहीं जा रहा था। उसके हाथ कांप रहे थे। गुरलाभ ने उससे राइफ़ल लेकर उसे लोड किया और लाक हटाकर दुबारा उसके हाथ में पकड़ाते हुए उसकी उंगल घोड़े पर टिका दी।
''दबा घोड़ा, नहीं तो मैं तुझे मार दूँगा।'' गुरलाभ ने अपनी राइफ़ल का मुँह गणेश की तरफ कर लिया। भयभीत से गणेश ने घोड़ा दबाया तो राइफ़ल के मुँह से आग की लपटें निकलीं। गुरलाभ ने जेब में से कुछ कागज निकालकर वहाँ फेंक दिए और कार की ओर मुड़ पड़ा। गणेश को संग बिठा कर उसने कार सीतो गुनो की तरफ तेज रफ्तार में दौड़ा ली। आगे भाई केरे से गाँवों के बीच में से होते हुए उसने कार को लिंक रोड पर चढ़ा लिया। शीशे में से पीछे बैठे गणेश को देखकर गुरलाभ ज़हरीली हँसी हँसा। गणेश बुत बना बैठा था। गाँवों में से होते हुए नहर की पटरी चढ़कर उसने कार रसूलपुर रैस्ट हाउस में जा लगाई। सबसे पहले उसने दोनों राइफ़लें कमरे में छिपा दीं। कार की नंबर प्लेट बदलकर असली नंबर प्लेट लगा दी। इधर से खाली होकर उसने कार में से कुछ सामान उठाया और चबूतरे पर गर्दन झुकाये बैठे गणेश के पास जा बैठा। उसने बोतल में से आधा गिलास शराब से भरकर सूखा ही गणेश के मुँह को लगा दिया। गणेश के अन्दर उसने बमुश्किल जबरन ही शराब उंडेली। फिर गिलास भरकर वह खुद पी गया। कुछ देर वह चुप बैठा गणेश की ओर देखता रहा। दसेक मिनट के बाद गणेश के शरीर में हरकत होने लगी।
''काका जी, यह क्या हो गया ?'' वह मरी-सी आवाज में बोला।
''होना क्या था। आज से तू और मैं भी बाबे बन गए।''
''पर जी, बहुत बुरा हुआ। यूँ ही गरीब मार दिए।''
''बाबों का काम है मारना। अच्छा या बुरा सोचना नहीं।''
''अब पुलिस टाँगें चीरेगी।'' पुलिस को याद करते हुए गणेश को पिये हुए पैग का नशा उतर गया।
''पुलिस को हम पूरा महीना देंगे। हम क्या किसी से कम हैं।'' गुरलाभ ने एक गिलास और भरकर गणेश को पिला दिया। नशे की लोर में गणेश अच्छे सुरूर में बोलने लगा, ''पर मेरे पास पुलिस को देने के लिए कहाँ हैं जी पैसे।''
''ओए, तू पैसों की फिक्र न कर। अब हम बाबे बन गए। पैसों की अब कोई कमी नहीं रहेगी।'' इतना कहते हुए दस हजार की गड्डी उसने गणेश को पकड़ा दी।
''ये आज वाले एक्शन के हैं तेरे। पुलिस को महीना मैं खुद भरूँगा।'' गुरलाभ को भी अच्छा-खासा नशा हो गया था।
सुबह मलोट में तहलका मच गया। शहर की सारी पुलिस वहाँ हाज़िर थी। बड़े-बड़े अफ़सर भी पहुँचे हुए थे। सिवाय उस कागज के टुकड़े के पुलिस को कोई सबूत नहीं मिला। 'सारे भइये पंजाब छोड़कर चले जाएँ। नहीं तो सभी का यही हश्र होगा।' - मेज़र जनरल बाबा बसंत ''कमांडो फोर्स'' । बाबा बसंत के नाम की चिट्ठी फेंक कर गुरलाभ ने दोहरी खेल खेली थी। पहला मकसद था- पुलिस को भ्रम में डालना। दूसरा, बाबा बसंत को खोजना। उसका विचार था कि यदि बाबा बसंत आसपास हुआ तो अपने नाम की झूठी चिट्ठी पर कोई न कोई रियेक्शन करेगा। पुलिस ने अपना रिकार्ड खंगाला। यह नाम उनके लिए बिलकुल नया था। वैसे भी इस इलाके में पिछले कुछ महीनों से ही इक्का-दुक्का वारदातें होने लगी थीं। इस घटना ने पुलिस के हाथ-पैर फुला दिए। अगले हफ्ते ऐसी चार वारदातें और हुईं। चारों वारदातें मलोट के आसपास ही हुई थीं। हर जगह से पुलिस को कमांडो फोर्स के मेजर जनरल बाबा बसंत की चिट्ठी ही मिलती थी। हर एक्शन के बाद गुरलाभ गणेश को दस हज़ार रुपया देता था। गणेश की झिझक धीमे-धीमे खत्म होती गई। उसे पैसे का लालच होता चला गया।
अगली कार्रवाई में गुरलाभ ने मलोट के एक आढ़तिये को अगवा किया। उसके घरवालों ने अपना आदमी बचाने के लिए पुलिस से बाहर-बाहर किसी लीडर के मार्फत फिरौती की रकम दी और आदमी ठीकठाक घर वापस पहुँच गया। लुधियाना की भाँति यहाँ भी गुरलाभ ने अपनी पार्टी के एक लीडर केवल कुमार को अपने संग मिला लिया था। भरोसे वाला आदमी मिलने के बाद गुरलाभ ने दो-चार हाथ और मारे। उधर रसूलपुर रैस्ट हाउस के एक बन्द पड़े क्वार्टर में कैश का ढेर लगा पड़ा था। अब तक गणेश की सारी झिझक खत्म हो चुकी थी। वह एक खूंखार आतंकवादी बन चुका था। रात में वे एक्शन किया करते। दिन में आराम से गणेश अपनी नौकरी करता। गुरलाभ भलामानुष बनकर घर में रहता।

कई दिनों बाद शाम के समय गुरलाभ और गणेश रसूलपुर रैस्ट हाउस में बैठे थे।
''देखा, पुलिस के बाजे बजा दिए।'' गुरलाभ ने पैग की चुस्की लेते हुए बात छेड़ी। मलोट एरिये की कार्रवाइयों के बाद पुलिस ने इलाके का चप्पा-चप्पा छान मारा था। जगह-जगह नाके लगा दिए थे। लोगों में दहशत बढ़ती जा रही थी। लोगों को लगता था कि पता नहीं कितने खाड़कू इधर आ गए हैं। खेतों की ढाणियों में रह रहे लोगों की जानें सूखी पड़ी थीं।
''काका जी, वो तो ठीक है, पर कहीं पुलिस इधर न आ निकले।'' गणेश पुलिस की मार से बहुत डरता था।
''नहीं, अपना महीना भरा हुआ है। पुलिस से तू न डर।'' गणेश की सोच के अनुसार ही गुरलाभ ने उत्तर दिया।
''पर एक बात है।'' गुरलाभ ने गणेश की तरफ देखा।
''हाँ जी, हुक्म करो।''
''हमें अब और लड़कों की ज़रूरत है। यह प्रबंध तुझे करना पड़ेगा।''
''एक तो है जी मेरी निगाह में। साथ वाले गाँव का लड़का है - गोरा।''
''लड़के दिल-गुर्दे वाले चाहिएँ। तेरे जैसे।'' गणेश को उसने फूंक दी।
''लड़का तो जी वह बड़ा खुर्रांट है। अगर कहो तो कल ही ले आऊँ।'' गणेश ने छाती ठोकी।
''नहीं, मेरे सामने मत लाना। एक यह भी मेरी बात समझ ले कि मेरा भेद बाहर नहीं निकले। कोई दिखावा भी नहीं करना। तू ऐसा करना…।''
''हाँ जी, बताओ।''
''एक तो तेरा यह गोरा। एक लड़का और तैयार करना है। उनसे कहना कि नौकरी मिल रही हैं कहीं। दस दस हजार एडवांस मिलेगा।''
''जी, मैं समझ गया।''
अगले दो दिनों में गणेश ने गोरे के साथ उसका एक दोस्त जीवन भी तैयार कर लिया। गणेश ने उन्हें बताया कि लुधियाना की ओर से कोई अफ़सर आया था। नौकरी का दस-दस हजार पहले मिलेगा। नौकरी क्या थी ? यह सोचकर उन्होंने क्या लेना था। बीस रुपये रोज की दिहाड़ी करने वालों को इतने पैसे मिल रहे थे। फिर एक दिन गणेश उन दोनों को दस-दस हज़ार दे आया। शाम को किसी खास जगह पर प्रतीक्षा करने के लिए कह आया। गुरलाभ ने रसूलपुर कोठी में से कुछ सामान कार की डिग्गी में रखा। गणेश कार चलाने लगा। गुरलाभ पीछे मुँह-सिर लपेटकर बैठ गया। बल्लूआणे के अड्डे से करीब आधा मील पीछे एक पुल पर गणेश ने कार रोक ली। एक तरफ बैठकर प्रतीक्षा करते गोरा और जीवन दोनों करीब आए तो गणेश ने उन्हें कार में बैठने का इशारा किया। उनमें से एक आगे बैठ गया, दूसरा पीछे गुरलाभ के बराबर। गुरलाभ ने किसी से आँख न मिलाई। गोरे और जीवन को कुछ पता नहीं था कि वे किधर जा रहे थे। क्या काम था। वे कार में घुटे-घुटे से बैठे थे। बल्लूआणा और अबोहर के बीच कार एक लिंक रोड पर मुड़ गई। लिंक रोड पर थोड़ी दूर जाकर गुरलाभ ने कार रुकवा ली। गणेश ने उन दोनों को बाहर निकाला। गुरलाभ भी बाहर निकल आया। गणेश ने कार की डिग्गी खोलकर सभी को एक-एक राइफ़ल थमा दी। गोरे और जीवन ने काँपते हाथों से राइफ़लें पकड़ लीं। कार दुबारा स्टार्ट हुई। कच्चे रास्ते पर पड़ कर थोड़ा पीछे की ओर भट्ठे पर जा खड़ी हुई। गणेश अब ऐसे एक्शनों को अंजाम देने के काबिल हो चुका था। उसने सामने चलती-फिरती लेबर को धमकाया। सबको एक लाइन में खड़ा कर लिया। कुछ मजदूर इधर-उधर भाग गए। सात-आठ मजदूरों को उन्होंने काबू में कर लिया। सामने हथियारबंद आदमी देखकर मजदूर हाथ बांधे खड़े थे। गुरलाभ ने इशारा किया। गणेश ने सभी को सेकेण्ड में भून दिया। गोरे और जीवन के चेहरे पीले ज़र्द हो गए थे।
''अब तुम चलाओ गोली।'' गणेश ने सपाट आवाज़ में उनसे कहा।
''हम गोली ? ना ना यह काम नहीं। हम हाथ जोड़ते हैं। हमें माफ करो।'' गोरा और जीवन थर्र-थर्र काँप रहे थे।
''अगर तुमने गोली न चलाई तो तुम्हें भी इनके साथ मैं ढेर कर दूँगा।'' पीछे से गुरलाभ की तीखी आवाज़ आई।
एक तरफ गणेश और एक तरफ गुरलाभ उन्हें घेरे खड़े थे। असहाय होकर उन्होंने गिरे पड़े मजदूरों पर गोलियों की बौछार की।
सभी को फटाफट कार में बिठाकर गणेश ने कार वापस लिंक रोड पर चढ़ाते हुए सामने गाँव की ओर मोड़ ली। उससे आगे कार गोबिंदपुर डिस्ट्रीब्यूटरी चढ़ गई। आगे जाने पर एक खाली पड़ा नहरी तारघर आता था। पहले बने प्रोग्राम के अनुसार गणेश ने वहाँ कार रोक ली। आसपास सन्नाटा व्याप्त था। उसने डिग्गी में से शराब की बोतल निकाल कर बड़े-बड़े पैग बनाये और गोरे और जीवन को पकड़ा दिए। गोरा और जीवन सुन्न-से मिट्टी बने बैठे थे। ''नहीं भाई, रहने दे।'' गोरा बमुश्किल बोल पाया। गणेश ने जबरन उसे शराब पिला दी। फिर दस-दस हजार की गड्डी दोनों का पकड़ाते हुए गणेश बोला, ''ये अब अगले वाले काम के हैं। पहले का हिसाब बराबर।''
''नहीं भाई, हम नहीं कर सकते यह काम। हमें यार तुम माफ करो।'' जीवन ने गणेश का हाथ पीछे धकेलते हुए मिन्नत की।
''अरे यह काम तुम अपने लिए कहाँ करते हो। यह तो कौम के वास्ते है। यही बाबों का हुक्म है।'' गणेश ने मुँह-सिर छिपाये बैठे गुरलाभ की ओर देखा। गोरा और जीवन बेहरकत बैठे रहे।
''तुम भट्ठे के मजदूरों को मार कर बाबे बन चुके हो। अच्छा यही है, अब बाबों का हुक्म मानो, नहीं फिर पुलिस...।'' गुरलाभ ने गुप्त धमकी देते हुए बात बीच में ही अधूरी छोड़ दी।
दोनों के होश उड़े पड़े थे। इतने में गणेश ने कार की नंबर प्लेटें बदलकर और कार में से सारा सामान निकाल कर कार की चाबी गुरलाभ को थमा दी।
''अच्छा, बाबा जी। कल हम आपको वहीं मिलेंगे।'' कार नहर की पटरी पर चढ़ा कर गुरलाभ गाँव की तरफ निकल गया। उधर गणेश, गोरे और जीवन को लेकर खेतों में से होता हुए उनके गाँव की ओर चल पड़ा।
''ओए बामण, तूने हमें किस कुत्ते काम में फंसा दिया।'' गुरलाभ के जाते ही गोरे ने भड़ास निकाली।
''इतना बुरा क़त्लेआम। यार मेरे तो अभी तक फ्यूज उड़े पड़े हैं। आज तो बच गए, भविष्य में नहीं ऐसे राह पडेंगे।'' जीवन अभी तक डरा हुआ था।
''सारा दिन काम करके बड़ी मुश्किल से बीस रुपये दिहाड़ी मिलती है। कहाँ दस हजार, यह भी तो सोच लो।'' गणेश बोला।
''इन गरीब मजदूरों को मारने से मिलेगा क्या ?'' गोरा थोड़ा नशे में हो गया था।
''यह तो बड़े बाबा जी जाने, वही कमांडर जनरल हैं। हम तो उनकी फौज के सिपाही हैं।''
''यह आदमी कौन था ?'' अचानक जीवन ने पूछा।
''यह बड़े बाबा जी हैं। सारे पंजाब पर इनका राज चलता है। सारी पुलिस इनके हाथ में है। तुम आम खाओ, पेड़ गिनकर क्या करना है।''
''नहीं यार, आज जो हुआ, सो हुआ। आगे दिल नहीं मानता।'' गोरे ने साफ़ जवाब दे दिया।
''अगले काम के पैसे तो तुमने पकड़ लिए हैं। वह तो अब करना ही पड़ेगा। उसके बाद फिर देखा जाएगा। तुम यूँ क्यों नहीं समझते कि हम तो फौजी हैं। फौजी सामने दुश्मन को देखकर उफ्फ करता है कभी। वह ठांय से गोली मारता है।''
''ये मजदूर अपने दुश्मन कैसे हो गए ? अगर मारना है तो मोटी तोंद वाले सेठों को क्यों नहीं मारते तुम्हारे बाबे ?'' जीवन को भी नशा हो चला था।
''ओए, उनके भी बहुत उड़ाते हैं तोते। आगे चलकर बाबा जी से कहकर तुम्हारी ड्यूटी उधर लगवा दूँगा।'' गणेश ने देखा दोनों लाइन पर आते जा रहे थे। सामने गाँव आ गया था।
''चल ठीक है, कल वाला काम करने के बाद हम दुबारा ऐसा काम नहीं करेंगे।'' गोरा सोच में डूबा खड़ा था कि वे पैसे लेकर फंस गए थे।
''ठीक है फिर। कल को जहाँ तुम्हें बताया, वहीं मिलना। पर देखना, कहीं मुझे न मरवा देना। बाबा जी धोखा करने वालों को नहीं छोड़ते।''
असमंजस में फंसे गोरा और जीवन अपने आप कहाँ भागते। दिन चढ़ते ही भट्ठा पुलिस की छावनी बना पड़ा था। आठ राजस्थानी मजदूरों की लाशें सफ़ेद कपड़ों में लिपटी एक पंक्ति में पड़ी थीं। एक तरफ बैठे उनके परिवार वाले विलाप कर रहे थे। वारदात करने वालों का कोई पता नहीं चल रहा था। ए.के. 47 के खाली कारतूसों के अलावा कमांडो फोर्स के लैटर हैड पर लिखी एक चिट्ठी मिली थी - ''सारे हिंदू पंजाब छोड़कर चले जाएँ। नहीं तो सबका यही हाल होगा।- द्वारा मेजर जनरल बाबा बसंत कमांडो फोर्स।'' पुलिस को लगता था कि यह बाबा बसंत का कोई नया ग्रुप इधर आ चुका था।
(जारी…)
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