Saturday, March 27, 2010

धारावाहिक उपन्यास





बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 6
पंजाब के बहते शान्त पानियों के साथ किसी ने छेड़खानी कर दी थी। हुमक-हुमक कर बहती शीतल हवाओं में किसी ने ज़हर की चुटकी बिखेर दी थी। सदियों से इकट्ठे बसते लोग एक दूसरे की ओर शक की नज़रों से देखते थे। परस्पर अविश्वास बढ़ रहा था। पंजाब का अमन भंग हो गया था। लोगों के चेहरों पर से खुशियाँ गायब हो गई थीं। गाँवों में खंडहरों जैसी ख़ामोशी छा गई थी। काफी समय से चली आ रही छोटी-मोटी घटनाओं के चक्रवातों ने बड़ा विकराल रूप धारण कर लिया था। पश्चिम दिशा से उठी काली आंधी सारे पंजाब पर छा गई थी। अतिवाद ने अमरबेल की तरह पूरे पंजाब को अपनी जकड़ में ले लिया था। कोई इसे अतिवाद कहता, कोई खाड़कूवाद, कोई हकों की लड़ाई लेकिन पंजाब के मासूम लोगों के लिए रक्तचूसी अजगर बनकर गाँवों के कोने-कोने में पहुँच गया था। कानून का राज खत्म हो गया था। ना ही कानून का कोई अर्थ रह गया था। कानून लागू करने वाले भी गोली के बल पर ही कानून लागू करने लग पड़े थे। दोनों धड़ों की गोली के बीच में आ गए थे मजलूम लोग। बड़े लोग तो इधर-उधर से इन धड़ों से जुड़ गए थे पर ये मजलूम लोग भाग कर कहाँ जा सकते थे। गोली किसी भी दिशा से चलती, पर मारे ये मजलूम लोग ही जाते थे। ज़ोर-जुल्म किसी भी ओर से होता, उसका शिकार यही लोग होते थे।
इसबार, जब लुधियाना इंजीनियरिंग कालेज खुला तो हालात पहले जैसे नहीं थे। बहुत कुछ बदल गया था। अब तक कालेज, यूनिवर्सिटियाँ इस नई लहर से अछूते थे। अभी तक यह लहर कालेजों, यूनिवर्सिटियों के अन्दर नहीं घुसी थी। कालेज हॉस्टलों के गलियारों में अभी तक खुशी की किलकारियाँ गूंजती थीं। विद्यार्थी इस तरफ से बेखबर, जवानी की नशे में कालेजों, यूनिवर्सिटियों में मौजें मारते थे। लहर चलाने वाले जानते थे कि इस लहर को जारी रखने और इसके फलने-फूलने के लिए गरम खून की ज़रूरत थी। गरम खून के लिए और कहाँ जाने की ज़रूरत थी। यह तो इन कालेजों के हॉस्टलों में खूब था। बस, आवश्यकता थी तो इस गरम खून को और उबाला देने की। या इसे उबालने के लिए ऐसे हालात पैदा करने की। उबाला भी ऐसा आए कि एकबार उबलता खून फिर ठंडा न होने पाए। जवान खून जब उबलता है तो सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देता है। कई जगहों पर हालात पैदा किए गए। कई स्थानों पर हालात स्वयं ही बन गए। इन हालातों ने कालेजों की जवानी का ध्यान अपनी ओर खींचना आरंभ कर दिया। शुरू-शुरू में यह काम जलसे-जुलूस तक ही सीमित था, फिर धीमे-धीमे हर तरफ़ अपनी जकड़ बनाता चला गया। वामपंथी दलों ने मज़दूर संघर्ष दिवस मनाने का फैसला किया। अब तक कालेज-यूनिवर्सिटियों में जिस विद्यार्थी यूनियन का ज़ोर था, उसके तार आख़िर में जाकर वामपंथी दलों से ही जुड़ जाते थे। जब कहीं ज़रूरत होती तो ये पार्टियाँ कालेजों, यूनिवर्सिटियों में हड़ताल करवा देतीं। इससे पहले नक्सलाइट आंदोलन के समय की ये पार्टियाँ विद्यार्थी वर्ग में ऐसी घुसीं कि फिर बाहर ही नहीं निकलीं। ग्रुप बेशक आगे चलकर कई बने होंगे, पर कालेजों में बोलबाला स्टुडेंट्स यूनियन का ही था। इनके गरम नारे नौजवान पीढ़ी को खूब लुभाते थे। दूसरा इनका काम नारों तक ही सीमित होने के कारण विद्यार्थियों के लिए यह एक शुगल भी था। खतरा कोई था नहीं, और हड़तालें करके, नारे लगाकर मन की भड़ास निकल जाती थी। इंजीनियरिंग कालेज में स्टुडेंट्स यूनियन की बागडोर फिरोजपुरियों के हाथ में थी। यूनियन का प्रधान गोगा था। पिछले वर्ष की लड़ाई के बाद पहली बार फिरोजपुरिये बड़ा प्रदर्शन करने जा रहे थे। इसी समय में उन्होंने अपने आप को लामबंद भी किया। कुछ नए आये लड़के भी उनके ग्रुप में शामिल हो गए। गुरलाभ का ग्रुप हालांकि बड़ा था पर वह किसी बाहरी पार्टी या संगठन से नहीं जुड़ा हुआ था। जब फिरोजपुरियों ने मज़दूर संघर्ष दिवस पर जुलूस निकालने का ऐलान किया तो गुरलाभ की पार्टी ने इसके बॉयकाट का बिगुल बजा दिया। जैसे-जैसे दिन करीब आता गया, तनाव बढ़ता गया। बाहर से आए कुछ लीडरनुमा लोगों ने गुरलाभ को मनाना भी चाहा पर वह नहीं माना। फिर उन्होंने सारे कार्यक्रम को फिरोजपुरियों के हाथ से लेकर गुरलाभ के हाथ में सौंपने की तजवीज़ भी पेश की। गुरलाभ आरंभ से ही वामपंथी पार्टियों के खिलाफ़ था। ''तुम निकालो अपना जुलूस... बाद में गुरलाभ तुम्हें दिखाएगा कि जुलूस क्या होता है।'' उसने सरेआम ललकारा। जुलूस वाले दिन फिरोजपुरियों और उनके साथियों द्वारा पूरा ज़ोर लगाने के बावजूद जुलूस बेअसर रहा। कारण था, गुरलाभ का हर तरीके से इस जुलूस को फेल करना। उसके ग्रुप का हर कालेज में एक विंग था। एक तरह से मेल जोल करते हुए गुरलाभ ने जुलूस को फेल करने में पूरा ज़ोर लगा दिया था। गहरा सोचने वालों को लगता था मानो किसी ने पर्दे के पीछे रहकर गुरलाभ के ग्रुप को पूरी मदद की हो। गुरलाभ स्वयं भी इस बात को नहीं जानता था। फिर उसी प्रकार पर्दे के पीछे रहकर ही गुरलाभ को अपनी पार्टी की ओर से जुलूस निकालकर अपना शक्ति-प्रदर्शन का संकेत दिया गया। गुरलाभ के साथियों ने तैयारियाँ शुरू कर दीं। उनकी पार्टी को नाम भी दे दिया गया- फेडरेशन ग्रुप। जुलूस की तारीख़ से कुछ दिन पूर्व शहर वालों को जुलूस के समर्थन में दुकानें बन्द करने की अपील की गई। निश्चित तारीख़ को शहर में विद्यार्थियों की बाढ़ आ गई। गुरलाभ के ग्रुप ने गिल चौक तक जाकर वापस लौटना था। जाते समय तो जुलूस ठीक चलता रहा लेकिन वापस लौटते समय हाथों से निकलने लगा। नारे भड़कीले होने लगे। इधर-उधर से और बहुत से लोग जुलूस में शामिल होते चले गए। जनता नगर पहुँचते ही लड़के खुली हुई दुकानों को जबरन बन्द करवाने लगे। उससे आगे चलकर दुकानों की तोड़फोड़ शुरू हो गई। फिर लोगों की मारपीट होने लगी। इसके बाद पुलिस भी सिर्फ़ तमाशबीन न रही। उसने पहले आँसू गैस छोड़ी, फिर लाठीचार्ज किया, हवा में गोली भी चलाई। नहर तक पहुँचते जुलूस तो तितर-बितर हो गया था, पर हर तरफ़ तबाही के निशान छोड़ गया था। काफी लड़कों को गिरफ्तार कर लिया गया था। घायल लोग सड़कों पर ही पड़े थे। कहीं लड़कों की उतरी हुई पगड़ियाँ पड़ी थीं, तो कहीं बूट। इंजीनियरिंग कालेज में एक तरह का मातम छा गया। जुलूस की बात यहाँ तक बढ़ेगी, यह किसी ने सोचा तक नहीं था। अगले दिन हर तरफ यह चर्चा थी कि जुलूस को इस तरह बिगाड़ने का काम यूनियन वालों अर्थात फिरोजपुरियों ने किया है। गुरलाभ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के चार नंबर हॉस्टल में अपने ग्रुप के साथ बैठा यूनियन वालों के खिलाफ़ विष घोल रहा था। उसके ग्रुप के कई लड़के उससे भी अधिक गरम हुए पड़े थे। सबका यही मानना था कि यूनियन वालों ने अपने लीडरों के साथ मिलकर यह सबकुछ किया था। सभी का यह कहना था कि भांजी आज ही लौटाई जाए। लेकिन गुरलाभ को पकड़े गए लड़कों की चिन्ता थी।
''नहीं, पहले अपने यार-दोस्तों को छुड़वायें। रही बात फिरोजपुरियों की, उन्हें नहीं अब भागने देंगे।'' गुरलाभ ने सभी को शान्त किया। वे कई तरफ भाग-दौड़ कर रहे थे कि कालेज में तभी प्रेजीडेंट के चुनाव की घोषणा हो गई। यूनियन वाले अर्थात फिरोजपुरिये हाथ ऊपर होने के कारण कुछ अधिक ही उत्तेजित थे। फेडरेशन वालों ने रणदीप को प्रधान बनाने का ऐलान कर दिया। उधर विरोधी पार्टी ने भी अपने व्यक्ति की घोषणा कर दी। पहले काउंसिल मेंबरों को सभी लड़कों ने वोट डालकर चुनना था। उसके बाद काउंसिल मेंबरों को प्रधान का चुनाव करना था। फेडरेशन वाले दोहरे फंसे हुए थे। एक तो वे पकड़े गए साथियों को छुड़वाने के लिए घूम रहे थे, दूसरा उन्हें वोटों की तैयारी भी करनी थी। यहाँ भी कोई शक्ति पर्दे के पीछे रहकर उनकी मदद कर रही थी। गुरलाभ ने दौड़भाग करके अपने साथियों को छुड़वा लिया, पर दो पर केस बन गया। उन दो में से भी एक की जमानत हो गई थी। उधर चुनाव हुआ तो एक नई स्थिति पैदा हो गई। काउंसिल के कुल दस मेंबर चुने जाने थे। संयोगवश दोनों दलों के पाँच-पाँच मेंबर चुने गए। दोनों धड़ों के मेंबर बराबर होने के कारण प्रधान का चुनाव करना कठिन हो गया। गुरलाभ दुखी तो पहले ही हुआ घूमता था, उसने एक नई योजना बनाई। आई.टी.आई. में उसका एक दोस्त था- अर्जन जिसका गाँव राउंते कला था। सभी उसे राउंतेवाला अर्जन कहकर बुलाया करते थे। पढ़ता भले ही वह आई.टी.आई. में था, रहता भी वहीं हॉस्टल में ही था, पर गुरलाभ से उसकी बहुत गहरी दोस्ती थी। हर लड़ाई में वह गुरलाभ का दाहिना बाजू होता था। आई.टी.आई. की पढ़ाई तो वह कहाँ करता था, अधिकतर गुरलाभ के संग ही घूमता रहता था। गुरलाभ के संग रहने के कारण लगभग सभी लड़के उसे जानते थे। प्रधान का चुनाव पाँच बजे होना था। करीब दोपहर के समय अर्जन फिरोजपुरियों के पक्ष के एक लड़के को बहला कर मेन गेट की ओर ले गया। वहाँ पहले से खड़ी कार में उसे फेंका और कार को गिल्लां की ओर दौड़ा लिया। पाँच बज गए। प्रधान का चुनाव शुरू हो गया। फिरोजपुरिये अपना एक व्यक्ति कम पाकर बगलें झांकने लगे। चीफ़ वार्डन ने चुनाव का समय आधा घंटा और आगे कर दिया। उनका व्यक्ति फिर भी नहीं आया। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद उस मेंबर को गैर-हाज़िर करार देकर रणदीप को प्रधान बना दिया गया। यूनियन वालों में शोक की लहर फैल गई। अगर उनका मेंबर उपस्थित होता तो दोनों धड़ों की बराबर वोटें होने की स्थिति में चीफ़ वार्डन की फैसलाकुन वोट उन्हें ही मिलनी थी। यह पत्थर पर लकीर जैसी बात थी। पर अब जब मेंबरों की संख्या ही कम हो गई तो चीफ़ वार्डन भी क्या कर सकता था। एक ओर फेडरेशन वाले रणदीप को कंधों पर उठाकर जुलूस की शक्ल में हॉस्टल की ओर ले चले। दूसरी ओर यूनियन वाले मुँह लटकाये कालेज से बाहर निकल गए। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उनका व्यक्ति गया किधर। मेन गेट पर चाय की दुकान का मालिक जिसे सभी लाला कहते थे, उनका दोस्त था। यह भेद उसने खोला कि उनके आदमी को राउंतियेवाले अर्जन ने किडनैप किया था। सभी की बन्द आँखें खुल गईं। वे सोचने लगे, उन्होंने पहले क्यों नहीं प्रबंध करके रखा। गुरलाभ यहाँ फिर उन्हें मात दे गया। जब काफी अंधेरा हो गया तो उनका आदमी और अर्जन दोनों लौट आए। अर्जन उसे गेट पर उतार कर आगे बढ़ गया। वे सभी दौड़कर अपने आदमी के पास आए। बात सही थी। उसे अर्जन ने ही किडनैप किया था। वहीं से वे इकट्ठा होकर पुलिस चौकी पहुँचे। वे किडनैप का केस लिखवाना चाहते थे, पर पुलिस वाले उनकी एक नहीं सुन रहे थे।
''हम तुम्हारी लड़ाइयों का क्या करें। तुम तो रोज ही यही कंजरखाना करते हो।'' थानेदार चिढ़ा बैठा था।
''नहीं जी, हमने कभी कानून को हाथ में नहीं लिया। हमने पहले जुलूस कितना शान्तिपूर्वक निकाला था। वे हमेशा बदमाशी करते हैं। दूसरा जुलूस उनका था जब तोड़फोड़ हुई थी।'' इनका लीडर दलील देकर थानेदार को मनाना चाहता था।
''क्यों, तेरे क्या मुँह पर लिखा है कि पहले जुलूस के वक्त तू ही लीडर था।''
''आप कालेज में जिस किसी से पूछ लो।''
''तुम सारे ही....'' गाली निकालते-निकालते थानेदार रुक गया।
''जिस आदमी को अगवा किया गया है, वह आपके सामने खड़ा है।''
''क्यो ओए, क्या बात है ?''
''हाँ जी, मुझे ज़ोर-जबर्दस्ती से अगवा किया गया।''
''तुम्हारी किसी की बात मैं नहीं मानता। हाँ, अगर कोई बाहर का गवाह है मौके का तो उसे सवेरे लाओ। मैं परचा काट दूंगा। पर याद रखना, झूठ न हो।''
''ठीक है जी।''
''देखो, इस बात की गवाही तो चीफ़ वार्डन भी दे देगा कि यह चुनाव के वक्त वहाँ नहीं था। यह बात भी मानने योग्य है कि अगर इसने गैर-हाज़िर ही रहना था तो चुनाव क्यों लड़ता।'' उनका लीडर लौटते समय सभी को दलीलें दे रहा था।
''इससे यह साबित हो गया कि इसे अगवा किया गया है। अगवा करने की गवाही लाला दे देगा।'' इतने में वे लाला की दुकान पर पहुँच गए।
''ओए फिर, अकेला अर्जन ही क्यों, बीच में गुरलाभ का भी नाम लिखा दो। क्यों लाला ठीक है ?'' उनका लीडर लाला की तरफ देखकर बोला।
''मैं तो बीच में उसका भी नाम ले दूंगा। साले रोज मुफ्त का खाते हैं यहाँ आकर।''
अगला प्रोग्राम बनाते हुए वे डिग्री कालेज के एक नंबर हॉस्टल की ओर चल पड़े। उधर डिप्लोमा वाले हॉस्टल में जश्न मनाया जा रहा था। इधर ये दाँत पीसते रात बीतने का इंतज़ार करने लगे।
अगले दिन सवेरे ही यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई थी। रात में मेन गेट के बाहर लाला का किसी ने क़त्ल कर दिया था। पिस्तौल की नली सिर से सटा कर गोली चलाई गई थी। गोली लगते ही लाला वहीं का वहीं ढेर हो गया था। यह तो सबको पता था कि उसने आई.टी.आई. वाले अर्जन के खिलाफ़ अगवा वाले केस में गवाही देनी थी। पर अर्जन इस बात पर लाला का क्यों क़त्ल करेगा, यह बात किसी के गले नहीं उतर रही थी। इस बात को पुलिस भी नहीं मानती थी। यूनियन वालों का लीडर गोगा फिरोजपुरिया क़त्ल का चश्मदीद गवाह बना खड़ा था। इस कारण पुलिस ने अर्जन को तफ़तीश के लिए रख लिया। लाला के वारिसों ने भी किसी का नाम नहीं लिया था। पर्चा तो दर्ज़ हो गया था पर पुलिस अभी तक अर्जन को पकड़ नहीं सकी थी। इधर पुलिस इसे खोजती घूम रही थी और वह डिप्लोमा वाले हॉस्टल में बैठा था। मैनेजमेंट की अनुमति के बग़ैर पुलिस कालेज की सीमा के अन्दर नहीं जा सकती थी। न ही मैनेजमेंट ने अनुमति प्रदान करनी थी। अर्जन उनका विद्यार्थी नहीं था। अर्जन के तो यूँ ही होश उड़ गए थे। रात में वह गुरलाभ के पास था। न ही उनमें में किसी को मालूम था कि लाला अगवा वाले केस में अर्जन को लेकर गवाही देगा। जब अर्जन सारी रात बाहर गया ही नहीं, तो लाला का क़त्ल उसने कैसे कर दिया ? यदि उसने नहीं किया तो लाला को किसने मारा ? गुरलाभ और उसके साथी सिर पकड़कर बैठ गए। अपना प्रधान बनाते-बनाते अपने आदमी को क़त्ल के केस में फंसा बैठे। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या किया जाए। जब से कालेज शुरू हुआ था, कोई भी एक दिन चैन से नहीं गुजरा था। गुरलाभ ने सोचने लगा कि क्या किया जाए। क्या मंत्रीजी तक पहुँच की जाए ? फिर रणदीप ने पुलिसिया लहजे में सुझाव दिया कि जल्दबाजी न की जाए। अर्जन हॉस्टल में बैठा है, यहाँ तक पुलिस आ ही नहीं सकती। हम सब जानते हैं कि लाला का क़त्ल इसने नहीं किया है। इसलिए चार दिन चुप रह कर देखो। कई बार असली क़ातिल यूँ ही पिंजरे में जा फंसता है। हो सकता है, यहीं असली क़ातिल सामने आ जाए। बस, एकबार चुप ही भली थी। सभी रणदीप के विचार से सहमत हो गए। ऐसा सोच-विचार चल ही रहा था कि दोपहर के समय एक ऑटो रिक्शा हॉस्टल में आया। हरमीत जिसे सभी मीता कहकर बुलाते थे, ऑटो रिक्शा में से उतरा। यह लड़का कद में छोटा था और बहुत सज्जन स्वभाव का था। किसी से लड़ना-झगड़ना तो दूर, कभी ऊँची आवाज़ में भी किसी से बोलता नहीं सुना गया था। उसका गाँव लहिरा, रामपुरा फूल के साथ ही था। उसके माता-पिता स्कूल में टीचर थे। वे भी अत्यंत शरीफ थे। मीता घरवालों का इकलौता बेटा था। उसके माता-पिता पूर्ण गुरसिख थे। उसके प्रभाव के अधीन मीता ने भी कभी दाढ़ी-केस नहीं काटे थे। कोई नशा करना तो बहुत दूर की बात थी।
ऑटो रिक्शा से उतर कर वह लड़खड़ाता हुआ बमुश्किल चल रहा था। ऊपर से दौड़कर दो-तीन लड़के आ गए। उसे सहारा देकर उस कमरे में ले गए जहाँ गुरलाभ और उसके साथी बैठे थे। उसकी बहुत दयनीय हालत बनी हुई थी। सभी उसके मुँह से सुनने के लिए उतावले थे कि आख़िर हुआ क्या था।
''उस दिन मैं भी जुलूस में था। करना-कराना तो क्या था, मैं तो नारे लगाने वालों में था। जनता नगर पार करते ही अच्छा-खासा शोर-शराबा होने लगा। जब सामने से पुलिस का लाठीचार्ज होने लगा तो मैं दौड़कर एक दुकान में घुस गया। दुकानदार भलामानुष था। उसने मेरे अन्दर घुसते ही शटर गिरा दिया। काफी देर बाद जब माहौल शान्त हुआ तो उसने शटर उठाकर मुझे बाहर निकाला और बोला, ''ले काका, अब कोई खतरा नहीं। तू चुपचाप चला जा।'' सामने उस इलाके का लीडर चिरंजी लाल खड़ा था। उसने दूर से पुलिसवाले को बुलाकर मुझे गिरफ्तार करा दिया। जिस दुकानदार ने मुझे सहारा दिया था, उसने बहुत कहा कि यह तो ग्राहक था। बस, मौके पर जुलूस में फंस गया। लेकिन चिरंजी लाल ने गवाह बनकर पुलिस चौकी पहुँचकर मेरे पर तोड़फोड़ की रिपोर्ट लिखवा दी। उसके बाद तो बस पूछो ही नहीं।'' सभी साँसें रोके उसकी दर्दभरी कहानी सुन रहे थे।
''पुलिस अफ़सर ने मेरे दाढ़ी-केस और पगड़ी देखकर मुझे गालियाँ बकीं। मेरी पगड़ी से मेरी बांहें बांधकर मुझे हवालात में फेंक दिया। फिर रात को वह पुलिस अफ़सर फिर आया। वह शराब में धुत्त था। उसने मुझे हवालात से बाहर निकाल कर खूब मारा-पीटा। मार-पीट का तो कोई अफ़सोस नहीं था पर जो उसने मेरे संग बाद में किया, उसने मेरा कलेजा चीर कर रख दिया। मुझे इतनी ग्लानि हो रही है कि मन करता है कि डूबकर मर जाऊँ।''
''बाद में उसने क्या किया ?'' किसी ने धीमे से पूछा।
''उसने मेरे सिर के बाल खींचे। मेरी दाढ़ी उखाड़ी। फिर सिगरेट और तम्बाकू निकालकर मेरे मुँह में जबरन ठूँसा और बाद में मेरे मुँह पर पेशाब...।'' इससे आगे उससे बोला नहीं गया।
''वैसे तो पुलिस पहले ही बहुत बदनाम है, पर यह तो किसी ने जानबूझ कर ईर्ष्या में किया लगता है। वैसे कौन था भला वो थानेदार ?''
''थानेदार संत राम, पाँच नंबर चौकी वाला।'' मीता धीमे से बोला।
''यार, पुलिस की पिटाई का और कीचड़ के गिरे का क्या गुस्सा।'' किसी के मुँह से अकस्मात् निकल गया।
''क्या कहा तूने ?'' मीता उठकर खड़ा हो गया। उसकी आँखों में से चिंगारियाँ फूटने लगीं।
''न, फिर रोज अरदास क्या करते हो ? जो चरखड़ियों पर चढ़े, आरों से चीरे गए, देगों में उबाले गए, जिन्होंने शीश दिया पर सिखी न छोड़ी। भाई तारू सिंह जैसों ने केसों की बेअदबी के बजाय खोपड़ी उतरवाना बेहतर समझा। उन महान शहीदों को याद करके अपने दिन की शुरूआत करते हैं हम। यहाँ संत राम और बंत राम जैसे हमारे केस उखाड़ें, हमारी दाढ़ियों पर मूतें, लाहनत है ऐसी ज़िन्दगी पर।'' मीता आग बबूला होकर अपने कमरे की ओर जाने लगा। किसी के मुँह से कोई आवाज़ न निकली। सबके मुँह मानो सिल गए थे।
वह चुपचाप अपने कमरे में जाकर पड़ गया। उसे शारीरिक मार का दुख नहीं था। थानेदार संत राम ने उसकी दाढ़ी उखाड़कर और अन्य बेजा हरकतें करके उसका नहीं, उसके धर्म का अपमान किया था, जो उसे चैन नहीं लेने दे रहा था। वह कमरे में से बाहर ही नहीं निकलता। बस, लेटे-लेटे छत की ओर निहारे जाता। दिन भर वह उन महान शहीदों के कारनामों को याद करता रहता जिन्होंने हँस कर धर्म के लिए शीश न्योछावर कर दिए थे। उसे अपने आप से घिन्न आती। उसे लगता कि उसने यह सब कुछ कैसे सह लिया। उस समय वह मजबूर था। उस वक्त वह कुछ नहीं कर सकता था। ज़ालिमों की गिरफ्त में था। कभी उसे चिरंजी लाल याद आता। उसने भी उसे केसधारी होने के कारण पुलिस को पकड़वाया था। वह अपनी देह पर मार के पड़े हुए निशान देखता। ये तो ठीक हो जाएँगे, पर अन्दर के गहरे निशानों का क्या होगा। वह अन्दर ही अन्दर तड़प रहा था। अगले दिन काफी अंधेरा होने पर किसी ने उसके कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी। उसने उठकर दरवाजा खोला। सामने एक नौजवान लड़का खड़ा था, पर मीता उसे पहचान नहीं सका।
''भाई जी, तुमने मुझे पहचाना नहीं, पर मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम लहिरे वाले मास्टर जी के लड़के हो। वह हमारे गाँव में हमें पढ़ाते रहे हैं।''
''कौन सा गाँव है तुम्हारा ?''
''मेरा गाँव है शेखा। तुम्हारे गाँव के साथ ही है।''
''आओ, क्या सेवा करूँ ?''
''भाई, इस वक्त तो सेवा यही है कि सहारा चाहिए। वैसे तो मैं एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में पढ़ता हूँ। इस वक्त पुलिस मेरे पीछे लगी हुई है।'' मीते ने उसे कमरे में अन्दर करके कुंडी लगा ली।
''पर बात क्या हुई है ?''
''बातें तो भाई लम्बी हैं पर हम वक्त के मारे और पुलिस के सताये हुए हैं। वैसे हम कोई पेशावर मुज़रिम नहीं। बस, पुलिस ने घर से बेघर कर दिए।''
पुलिस का नाम सुनते ही मीते के शरीर में से चिन्गारियाँ फूटने लगीं। वह उसकी तकलीफ़ समझ गया।
''तू आराम से बैठ, मैं तेरे लिए रोटी लेकर आता हूँ।''
''भाई, अब तू सहारा दे ही रहा है तो एक विनती और है। मेरे साथ मेरे दो साथी और है जो बाहर खेत में बैठे हैं।''
''कोई नहीं, ले आ उन्हें भी।'' मीता बेधड़क कह गया।
दसेक मिनट में उसके संग दो और व्यक्ति खेस लपेटे कमरे में आ गए। वे झिझकते हुए एक तरफ होकर बैठ गए।
''भाई मेरा नाम है गुरमीत सिंह उर्फ़ मीता और तेरा नाम ?''
''मेरा नाम गमदूत सिंह शेखा है। ये महिंदर और नाहर हैं।''
''देखो भाई, मैं सारी बात समझ गया हूँ। मेरे पर तुम लोग आँखें मूंद कर यकीन कर लो और जब तक चाहो, रहो।'' मीता ने विश्वास दिलाया।
''फिर भाई, एक काम और कर दे। हमारी रोटी ज्यादा लेकर आना और हमारे कमरे को बाहर से ताला लगाकर तू कहीं और सो जाना। हम पिछली दो रातों से सोये नहीं हैं। कल जब आना तो थोड़ा सर्तक होकर ताला खोलकर हमें जगा देना।''
''अच्छा, तुम आराम से बैठो।'' वह मैस की ओर जाते हुए बोला।
''एक मिनट रुक जाना भाई, ज़रा सामान संभाल लें।'' उन्होंने खेस उतार कर एक ओर रख दिए। फिर कमर से तीन ए.के. 47 उतारीं। उन्हें अल्मारी में रखकर साथ ही गोलियों वाले झोले टिका दिए। मीता ने पहली बार ए.के. 47 देखी थी। उसने मैस में जाकर पाँच-छह जनों की रोटी डलवाई और वापस कमरे में आ गया। पानी का जग रखते हुए मीता बोला, ''लो भाई, छको परसादा। फिर नींद उतारो जी भरकर। यहाँ चिड़िया नहीं फड़कती।'' उसने बाहर निकलते हुए कमरे को ताला लगा दिया।
यह पहला दिन था जब डिप्लोमा वाले हॉस्टल में ए.के. 47 का प्रवेश हुआ।
(जारी…)
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Sunday, March 21, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 5(दूसरा भाग)

'ओ मेरे रब्बा ! इतना बड़ा विश्वासघात वह भी सगी माँ की ओर से। वैसे ही सीधा जवाब दे देती। इस तरह पीठ पर वार करने की क्या सोची। मेरी माँ नहीं, वह तो डायन है, डायन ! हाय री मेरी किस्मत, मैंने उस पर क्यों विश्वास कर लिया। अच्छा-भला उसकी चतुराइयों को जानती थी, फिर क्यों मेरी अक्ल पर पर्दा पड़ गया। अब किधर जाऊँ।' रम्मी सिर थामे बैठी थी। अगर सुखचैन को पता लग गया, वह तो यही साचेगा कि रम्मी दगा दे गई। अमरीका पीछे गरीब सुखचैन को लात मार गई। नहीं, जैसे भी हो, मैं बेवफ़ा नहीं कहलवाऊँगी। तो फिर क्या करूँ ? सबसे पहले सुखचैन से मिलूँ। बड़ी कठिनाई से रम्मी ने अपने आप को संभाला। अगले दिन अपनी नज़दीक की सहेली को मिलकर रम्मी ने चिट्ठी द्वारा सुखचैन को सारी स्थिति बताई। उधर सुखचैन तो पहले ही किसी अनहोनी का कयास लगाये बैठा था। मुलाकात तो उनकी नहीं हो सकती, पर साझे हमदर्दों की मार्फत दोनों किसी फैसले पर पहुँच गए। अगले दिन बारह बजे रम्मी और सुखचैन ने कचेहरी में मिलना था।
सुखचैन अपने खास दोस्त के संग दस बजे ही कचेहरी पहुँच गया था। उसने वकील भी पहले ही कर रखा था। कोर्ट मैरिज के लिए एक महीना पहले नोटिस देना पड़ता था। यह काम गुरलाभ की राजनीतिक पहुँच ने कर दिया था। वकील ने महीना पहले की तारीख में अर्जी लिखवा कर गुरलाभ को पकड़ा दी थी। उसने महीना पहले की ही एंट्री करवा दी थी। सब तैयारियाँ पूरी थीं। रम्मी के पहुँचते ही बारह बजे उन्हें कोर्ट में पेश होकर मैरिज रजिस्टर करवा लेनी थी। सुखचैन को पता था कि टाइम बेशक बारह बजे का दिया गया था, फिर भी रम्मी पहले ही आ जाएगी। पर रम्मी दिए गए टाइम पर नहीं पहुँची।
'शायद कहीं ट्रैफिक में फंस गई हो, या कोई गाड़ी ही खराब हो गई हो। कुछ भी हो सकता है। चलो, आ जाएगी। थोड़ा लेट सही।' सुखचैन मन को तसल्ली देता ऑंखें फाड़ फाड़कर इधर उधर देख रहा था।
रम्मी ने अपनी बात की किसी को भनक न पड़ने दी। रम्मी के घरवालों ने भी किसी बात की भाप न निकलने दी। रम्मी के मम्मी-पापा ने पूरी स्कीम बड़ी सोच-समझ कर बनाई थी। उस रात रम्मी को रातभर नींद न आई। आने वाले हालातों के ताने-बाने बुनते सारी रात गुजर गई। सवेरे चारेक बजे उसकी थोड़ी-सी ऑंख लगी ही थी कि उसकी मम्मी बड़े प्यार से उसे जगाने लगी। रम्मी ऑंखें मलते हुए हैरानी में इधर-उधर देखे जा रही थी। ''चल बेटा, तैयार हो जा। आज सवेरे सवेरे ही गुरद्वारे हो आएँ।'' गुरद्वारे तो वे पहले भी जाते रहते थे। नानकसर गुरद्वारा वहाँ से नज़दीक ही था। पर इतनी सुबह ! फिर रम्मी ने सोचा, चलो, जितना जल्दी जाएंगे, उतनी जल्दी ही वापस लौट आएंगे। वह जल्दी जल्दी तैयार हो गई। उसने देखा कि सारा परिवार ही पहले से तैयार हुआ खड़ा था। खासकर उसका पापा तो ऊपर नीचे दो ढाठे बांधे खड़ा था। सभी को लेकर कार बाहर सड़क पर निकली और सुधार के रास्त पड़ गई। सूरज अभी चढ़ा नहीं था। पूरब की ओर लाली पसरी हुई थी। मुँह ऍंधेरे ही कार मुलांपुर पहुँच गई। बायीं ओर गुरद्वारे की ओर मुड़ने की बजाय कार लुधियाना की तरफ मुड़ गई। ''आज लुधियाने के गुरद्वारे चलते हैं।'' उसके पापा ने स्वयं ही उधर मुड़ने का कारण बता दिया। रम्मी के कलेजे में दर्द-सा उठा। 'कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं। चलो, लुधियाना कौन सा दूर है। वहाँ से भी जल्दी ही लौट आएंगे।' उसने अपने आप को तसल्ली दी। सब चुपचाप बैठे थे। कोई नहीं बोल रहा था। लुधियाना शहर में पहुँचकर उसके पापा ने अमरीका से आने वाली बहन की बात छेड़ते हुए कहा, ''वैसे मुझे एक ख़याल आया है, तू बता तुझे कैसा लगता है।''
''क्या ?'' रम्मी की माँ अनजान बनते हुए बोली।
''आज शाम बीबी को लेने दिल्ली जाना ही है। इस वक्त सड़कें खाली पड़ी हैं, कोई ट्रैफिक नहीं। क्यों न अभी दिल्ली को सीधे हो जाएँ।''
''जैसे तुम्हारी मर्जी।''
''क्यों बेटे, ठीक है न।''
''मैं साथ जाकर क्या करूँगी। तुम पापा बाद में चले जाना। पापा मुझे रहने देते। बुआ जी ने यहाँ घर ही आना है। मुझे बस में चढ़ा दो। मैं वापस गाँव चली जाती हूँ। तुम उन्हें ले आओ।'' रम्मी ने डूबती नैया को बचाने के लिए आखिरी हिम्मत दिखाई। ''ले, सारे इकट्ठे ही चलते हैं।'' पापा ने तुरन्त कहा। रम्मी चुप रही। उसकी आवाज़ बमुश्किल निकली। अब वह समझ गई थी कि यह जाल उसे फंसाने के लिए ही बिछाया गया है।
''नहीं नहीं, चलते हैं सभी।'' कर्नल की रौबदार आवाज़ के सामने कौन बोल सकता है।
दिल्ली में वे किसी रिश्तेदार के घर में ठहरे। रम्मी को उन्होंने अपने बीच में घेरे रखा। एक पल के लिए भी उसको इधर-उधर नहीं होने दिया। रात की फ्लाइट पर कर्नल की बहन भी वहीं आ गए। रात में कोई सोया नहीं था। बातें करते हुए दिन चढ़ आया। कर्नल, उसकी घरवाली और कर्नल की बहन तीनों बैठकर कोई खिचड़ी पकाते रहे। दूसरी फैमिली भी अपने घर पहुँच चुकी थी। करीब ग्यारह बजे सभी इकट्ठा होना शुरू हो गए। रम्मी को तैयार किया गया। उसका हार-श्रृंगार किया। पर वह तो लगता था कि कहीं गुम थी। वह बेहोश सी जैसा कहते, वैसा किए जाती थी। फिर दूसरी फैमिली आ गई। रम्मी को पसन्द करके उसे शगुन की रिंग डाल दी। मंगनी की रस्म हो गई। लड़के वालों को वापस लौटने की जल्दी थी। अगले दिन रम्मी को संग ले जाकर अमेरिका अम्बेसी से टूरिस्ट वीज़ा लगवा लिया। सोचा कि विवाह वहीं जाकर कर लेंगे। चार-पाँच दिनों में सारी तैयारी करके वापसी की टिकटें ले ली गईं। रात की फ्लाइट थी। सब चढ़ाने गए। रम्मी की सबसे छोटी बहन जो उसकी राज़दार थी, उसके गले लगकर रम्मी फूट फूटकर रोई। फिर रम्मी की माँ ने आगे बढ़कर बेटी को आलिंगन में लेना चाहा। रम्मी ने ऑंसू पोंछ दिए। माँ की ओर बांहें न बढ़ाईं। उसकी मम्मी ने जबरन उसे अपनी बांहों में लेकर प्यार जताया। पापा नज़दीक हुए तो रम्मी ने मुँह फेर कर आगे लगी लम्बी कतार के पीछे जा खड़ी हुई। कर्नल और उसकी घरवाली ने मन मसोस कर एक दूसरे की ओर देखा था। कुछ ही देर में रम्मी हवाई जहाज में जा बैठी।
(जारी…)
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