Sunday, March 21, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 5(दूसरा भाग)

'ओ मेरे रब्बा ! इतना बड़ा विश्वासघात वह भी सगी माँ की ओर से। वैसे ही सीधा जवाब दे देती। इस तरह पीठ पर वार करने की क्या सोची। मेरी माँ नहीं, वह तो डायन है, डायन ! हाय री मेरी किस्मत, मैंने उस पर क्यों विश्वास कर लिया। अच्छा-भला उसकी चतुराइयों को जानती थी, फिर क्यों मेरी अक्ल पर पर्दा पड़ गया। अब किधर जाऊँ।' रम्मी सिर थामे बैठी थी। अगर सुखचैन को पता लग गया, वह तो यही साचेगा कि रम्मी दगा दे गई। अमरीका पीछे गरीब सुखचैन को लात मार गई। नहीं, जैसे भी हो, मैं बेवफ़ा नहीं कहलवाऊँगी। तो फिर क्या करूँ ? सबसे पहले सुखचैन से मिलूँ। बड़ी कठिनाई से रम्मी ने अपने आप को संभाला। अगले दिन अपनी नज़दीक की सहेली को मिलकर रम्मी ने चिट्ठी द्वारा सुखचैन को सारी स्थिति बताई। उधर सुखचैन तो पहले ही किसी अनहोनी का कयास लगाये बैठा था। मुलाकात तो उनकी नहीं हो सकती, पर साझे हमदर्दों की मार्फत दोनों किसी फैसले पर पहुँच गए। अगले दिन बारह बजे रम्मी और सुखचैन ने कचेहरी में मिलना था।
सुखचैन अपने खास दोस्त के संग दस बजे ही कचेहरी पहुँच गया था। उसने वकील भी पहले ही कर रखा था। कोर्ट मैरिज के लिए एक महीना पहले नोटिस देना पड़ता था। यह काम गुरलाभ की राजनीतिक पहुँच ने कर दिया था। वकील ने महीना पहले की तारीख में अर्जी लिखवा कर गुरलाभ को पकड़ा दी थी। उसने महीना पहले की ही एंट्री करवा दी थी। सब तैयारियाँ पूरी थीं। रम्मी के पहुँचते ही बारह बजे उन्हें कोर्ट में पेश होकर मैरिज रजिस्टर करवा लेनी थी। सुखचैन को पता था कि टाइम बेशक बारह बजे का दिया गया था, फिर भी रम्मी पहले ही आ जाएगी। पर रम्मी दिए गए टाइम पर नहीं पहुँची।
'शायद कहीं ट्रैफिक में फंस गई हो, या कोई गाड़ी ही खराब हो गई हो। कुछ भी हो सकता है। चलो, आ जाएगी। थोड़ा लेट सही।' सुखचैन मन को तसल्ली देता ऑंखें फाड़ फाड़कर इधर उधर देख रहा था।
रम्मी ने अपनी बात की किसी को भनक न पड़ने दी। रम्मी के घरवालों ने भी किसी बात की भाप न निकलने दी। रम्मी के मम्मी-पापा ने पूरी स्कीम बड़ी सोच-समझ कर बनाई थी। उस रात रम्मी को रातभर नींद न आई। आने वाले हालातों के ताने-बाने बुनते सारी रात गुजर गई। सवेरे चारेक बजे उसकी थोड़ी-सी ऑंख लगी ही थी कि उसकी मम्मी बड़े प्यार से उसे जगाने लगी। रम्मी ऑंखें मलते हुए हैरानी में इधर-उधर देखे जा रही थी। ''चल बेटा, तैयार हो जा। आज सवेरे सवेरे ही गुरद्वारे हो आएँ।'' गुरद्वारे तो वे पहले भी जाते रहते थे। नानकसर गुरद्वारा वहाँ से नज़दीक ही था। पर इतनी सुबह ! फिर रम्मी ने सोचा, चलो, जितना जल्दी जाएंगे, उतनी जल्दी ही वापस लौट आएंगे। वह जल्दी जल्दी तैयार हो गई। उसने देखा कि सारा परिवार ही पहले से तैयार हुआ खड़ा था। खासकर उसका पापा तो ऊपर नीचे दो ढाठे बांधे खड़ा था। सभी को लेकर कार बाहर सड़क पर निकली और सुधार के रास्त पड़ गई। सूरज अभी चढ़ा नहीं था। पूरब की ओर लाली पसरी हुई थी। मुँह ऍंधेरे ही कार मुलांपुर पहुँच गई। बायीं ओर गुरद्वारे की ओर मुड़ने की बजाय कार लुधियाना की तरफ मुड़ गई। ''आज लुधियाने के गुरद्वारे चलते हैं।'' उसके पापा ने स्वयं ही उधर मुड़ने का कारण बता दिया। रम्मी के कलेजे में दर्द-सा उठा। 'कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं। चलो, लुधियाना कौन सा दूर है। वहाँ से भी जल्दी ही लौट आएंगे।' उसने अपने आप को तसल्ली दी। सब चुपचाप बैठे थे। कोई नहीं बोल रहा था। लुधियाना शहर में पहुँचकर उसके पापा ने अमरीका से आने वाली बहन की बात छेड़ते हुए कहा, ''वैसे मुझे एक ख़याल आया है, तू बता तुझे कैसा लगता है।''
''क्या ?'' रम्मी की माँ अनजान बनते हुए बोली।
''आज शाम बीबी को लेने दिल्ली जाना ही है। इस वक्त सड़कें खाली पड़ी हैं, कोई ट्रैफिक नहीं। क्यों न अभी दिल्ली को सीधे हो जाएँ।''
''जैसे तुम्हारी मर्जी।''
''क्यों बेटे, ठीक है न।''
''मैं साथ जाकर क्या करूँगी। तुम पापा बाद में चले जाना। पापा मुझे रहने देते। बुआ जी ने यहाँ घर ही आना है। मुझे बस में चढ़ा दो। मैं वापस गाँव चली जाती हूँ। तुम उन्हें ले आओ।'' रम्मी ने डूबती नैया को बचाने के लिए आखिरी हिम्मत दिखाई। ''ले, सारे इकट्ठे ही चलते हैं।'' पापा ने तुरन्त कहा। रम्मी चुप रही। उसकी आवाज़ बमुश्किल निकली। अब वह समझ गई थी कि यह जाल उसे फंसाने के लिए ही बिछाया गया है।
''नहीं नहीं, चलते हैं सभी।'' कर्नल की रौबदार आवाज़ के सामने कौन बोल सकता है।
दिल्ली में वे किसी रिश्तेदार के घर में ठहरे। रम्मी को उन्होंने अपने बीच में घेरे रखा। एक पल के लिए भी उसको इधर-उधर नहीं होने दिया। रात की फ्लाइट पर कर्नल की बहन भी वहीं आ गए। रात में कोई सोया नहीं था। बातें करते हुए दिन चढ़ आया। कर्नल, उसकी घरवाली और कर्नल की बहन तीनों बैठकर कोई खिचड़ी पकाते रहे। दूसरी फैमिली भी अपने घर पहुँच चुकी थी। करीब ग्यारह बजे सभी इकट्ठा होना शुरू हो गए। रम्मी को तैयार किया गया। उसका हार-श्रृंगार किया। पर वह तो लगता था कि कहीं गुम थी। वह बेहोश सी जैसा कहते, वैसा किए जाती थी। फिर दूसरी फैमिली आ गई। रम्मी को पसन्द करके उसे शगुन की रिंग डाल दी। मंगनी की रस्म हो गई। लड़के वालों को वापस लौटने की जल्दी थी। अगले दिन रम्मी को संग ले जाकर अमेरिका अम्बेसी से टूरिस्ट वीज़ा लगवा लिया। सोचा कि विवाह वहीं जाकर कर लेंगे। चार-पाँच दिनों में सारी तैयारी करके वापसी की टिकटें ले ली गईं। रात की फ्लाइट थी। सब चढ़ाने गए। रम्मी की सबसे छोटी बहन जो उसकी राज़दार थी, उसके गले लगकर रम्मी फूट फूटकर रोई। फिर रम्मी की माँ ने आगे बढ़कर बेटी को आलिंगन में लेना चाहा। रम्मी ने ऑंसू पोंछ दिए। माँ की ओर बांहें न बढ़ाईं। उसकी मम्मी ने जबरन उसे अपनी बांहों में लेकर प्यार जताया। पापा नज़दीक हुए तो रम्मी ने मुँह फेर कर आगे लगी लम्बी कतार के पीछे जा खड़ी हुई। कर्नल और उसकी घरवाली ने मन मसोस कर एक दूसरे की ओर देखा था। कुछ ही देर में रम्मी हवाई जहाज में जा बैठी।
(जारी…)
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3 comments:

ashok andrey said...

priya Chahal jee aapka oopanyaas achchhi gatee pakad rahaa hai bhaasha shailee bhee damdaar hai poore samaya bandhe rakhne me saksham hai,badhai

Anonymous said...

प्रिय मित्र,

आपके उपन्यास की दूसरी कडी ने आगे रम्मी की नियति जानने की इच्छा बढा दी है। मैं भी एक लेखिका हूं। अनुरोध है मेरी वेब्साइट पर अपने विचार और सुझाव देने की कृपा करें।
Best regards,
-Pushpa Saxena
My bloghttp://hindishortstories.blogspot.com/

Anonymous said...

Hello,

I am a PhD student at University of British Columbia at Vancouver. I have heard about your novel 'Bali'. I am very much interested in recent history of Punjab and I always try to read books about Punjab's troubled past. I tried to find your novel at local bookstores but coundnt find it. Can you please send a copy?

Thanks,

--
Prabhsharanbir Singh
http://prabhsharanbir.blogspot.com/