Sunday, August 1, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 16
डिप्लोमा पूरा होते ही सुखचैन ने सुख का साँस लिया था। कालेज में तो आठों पहर सिर पर तलवार लटकती रहती थी कि पता नहीं किस वक्त, क्या हो जाए। कभी खाड़कू हड़ताल की धमकी देते थे, सरकार हड़ताल फेल करने का यत्न करती थी। कभी कहीं कोई कार्रवाई हो जाती, कभी कहीं। जब से वह हर रोज़ गाँव आने लगा था, तब से यही खतरा रहता था कि कभी शाम के समय अँधेरा होने पर कोई बस ही अगवा न हो जाए। गाँव से सुधार तक वह आता भी हर रोज़ साइकिल पर ही था। शाम को अँधेरा होने पर गाँव की ओर जाते हुए भय सताता रहता था कि पता नहीं कब कोई ए.के. सैंतालीस लेकर सामने आ खड़ा हो। वे कौन-सा दूर, बाहर से आए थे। वे तो उसके सहपाठी और उसके आसपास के गाँवों के ही लड़के थे। उसने देखा था कि डिप्लोमा खत्म होने तक उसकी कक्षा आधी रह गई थी। बाकी के सब लड़के खाड़कू दलों में जा मिले थे। इनमें से आधे के करीब मारे जा चुके थे। शेष बचे हुओं ने इधर उधर आतंक फैलाया हुआ था। उसके जैसे ज़रूरतमंद और दूर की सोचने वाले लड़के ही आखिर लगे थे। उसके घरवालों को उससे भी ज्यादा चिंता थी। वे कहाँ जानते थे कि कालेज में क्या हो रहा था। उन्हें तो सदैव यही खतरा रहता था कि ऐसे बुरे हालातों में कहीं लड़के का पैर किसी गलत दिशा की ओर न फिसल जाए। रब-रब करते उन्होंने भी तीन साल बड़ी मुश्किल से पूरे किए थे। डिप्लोमा समाप्त होते ही वह घर आ गया था। रिजल्ट अभी दो महीने बाद आना था। इतनी देर उसने खेत का कामधंधा संभाला। उसका छोटा भाई देबा भी सुधार कालेज में जाने लग पड़ा था। छोटे बहन-भाई भी ऊपर की कक्षाओं में पहुँच गए थे। घरवालों को अब यही था कि शीघ्र नतीजा निकले, उसे कहीं नौकरी मिले तो ज़रा हाथ खुला हो।
सुखचैन का पड़ोसी पंडितों का लड़का ही रिजल्ट का पता लेकर आया था। सुखचैन तो लौटकर कालेज गया ही नहीं था। फर्स्ट डिवीजन में पास होना उसके लिए बड़ी खुशी की बात थी। डिप्लोमा का सर्टिफिकेट तो मिल गया था, पर अब उसे आगे यह पता नहीं चल रहा था कि नौकरी कहाँ और कैसे खोजे। इस मसले का हल भी उसके पड़ोसी चाचा पंडित पूरन चंद ने किया। उसकी बदली मुक्तसर की हो गई थी। दो-चार हफ्तों बाद वह गाँव लौट आता था।
''सिफारिश की तो ज़रूरत शायद न ही पड़े। लड़के के नंबर अच्छे हैं और ऊपर से सिविल के ओवरसियरों की मांग भी है।''
''देख सुखचैन, पहले तो तू ऐसा कर कि हर बड़े शहर के रोज़गार दफ्तर में अपना नाम लिखा आ। जब भी कहीं कच्चे ओवरसियरों की ज़रूरत पड़ती है, वे लोकल रोज़गार दफ्तरों से ही ले लेते हैं। चार-पाँच महीने कहीं कच्ची नौकरी मिल जाएगी। फिर जब कहीं सरकार ने पक्की पोस्टें निकालीं, फिर वहाँ भर्ती भी हो जाएगा। और फिर यह कच्ची नौकरी तजुर्बे का काम भी करेगी।''
''एक रास्ता मैं और भी बताता हूँ।''
''सरकार ने एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया है। वह है ये छोटी-बड़ी नहरें पक्की करने का। यह महकमा नहर विभाग का ही हिस्सा है। बहुत जगह काम शुरू भी हो गए हैं। हर एक काम पर एक वर्क-इंचार्ज की ज़रूरत होती है। वैसे तो दस पढ़ा कोई भी लड़का वर्क-इंचार्ज लग जाता है, पर तूने तो कोर्स किया हुआ है। यह साथ ही अपने गाँव के नज़दीक मेरा एक दोस्त ओवरसियर छोटी नहर पक्की करवा रहा है। अगर कहे तो तुझे वहाँ वर्क-इंचार्ज रखवा देता हूँ। चार पैसे भी मिलेंगे, और फिर तजुर्बा भी होगा।''
''चाचा जी, मैं तैयार हूँ।'' सुखचैन तुरन्त बोला।
''चल फिर कल को दसेक बजे ढोलण वाले पुल पर आ जाना। वो ओवरसियर वहीं होगा।''
नौकरी का पहला दिन सुखचैन को बहुत बढ़िया लगा। नौकरी वर्क-इंचार्ज की थी। उसकी नौकरी की शुरूआत ही थी। लेवल करने का सारा काम सुखचैन ने संभाल लिया। दिनोंदिन वह प्रोजेक्ट और अन्य कामों की ओर भी ध्यान देने लगा। वह हर रोज़ सवेरे आठ बजे गाँव से साइकिल पर जाता था। नौ बजे पहुँचकर काम शुरू कर देता था। पाँच बजे काम बन्द करवाकर वह घर को वापस लौट जाता था। ओवरसियर को मौज आ गई। पहले उसे खुद सवेरे नौ बजे काम पर पहुँचना पड़ता था। फिर सारा दिन वहाँ बिता कर वह पाँच बजे लौटता था। उसके अन्य कई काम भी सुखचैन ने संभाल लिए। जहाँ एक तरफ ओवरसियर को जिम्मेदारियों से छुटकारा मिला, वहीं सुखचैन को काम का अनुभव हो रहा था। महीना पूरा होने पर जब सुखचैन को पहली तनख्वाह मिली तो उसे अत्यंत खुशी हुई। उसके परिवार के लिए भी यह दिन खुशियों से भरा दिन था। अच्छे दिनों की शुरूआत होने लगी थी। लगता था कि इस घर में पक्के तौर पर पाँव जमाये बैठी गरीबी के यहाँ से रुखसत होने के दिन आ गए थे। बीच बीच में जब कभी काम बन्द होता तो वह कहीं न कहीं जाकर रोज़गार दफ्तर में नाम दर्ज क़रवा आता था।
तीन महीनों के बाद उसको पहली बार बठिंडे के रोज़गार दफ्तर से ओवरसियर की नौकरी के लिए चिट्ठी मिली। वह बड़े ज़ोशोखरोश से इंटरव्यू के लिए गया। उसकी इंटरव्यू तो हुई, पर नौकरी सिफारिशियों को ही मिली। उस दिन पहली बार उसे धक्का लगा। उसे लगा जैसे डिप्लोमा का सर्टिफिकेट सिर्फ़ कागज का टुकड़ा मात्र हो। टूटे हुए मन से उसने वापस जाकर वर्क-इंचार्ज की नौकरी शुरू कर दी। इस बीच सीवरेज बोर्ड में स्थायी नौकरियाँ निकलीं। बेउम्मीदी से उसने यहाँ भी अर्जी भेज दी। कुछ समय बाद वहाँ इंटरव्यू भी दे आया। चारेक महीने में दो तीन बार किसी न किसी रोज़गार दफ्तर की ओर से उसे इंटरव्यू की चिट्ठी आती थी। उसने देखा कि किराया खर्च करने के अलावा और कुछ नहीं होता था। वर्क-इंचार्ज की नौकरी करते हुए उसे छह-सात महीने हो गए थे। फिर उसे फरीदकोट के रोज़गार दफ्तर से ओवरसियर की नौकरी के लिए बुलाया आया। जहाँ जाना था, वह जगह बहुत दूर थी। वह सवेरे जल्दी ही चल पड़ा। फरीदकोट अड्डे पर पहुँचकर उसने ऑटो लिया। शहर से बाहर नहर कालोनी पहुँच गया। वहाँ उम्मीदवारों की लम्बी लाइन लगी हुई थी। दफ्तर बन्द होने तक बड़ी मुश्किल से उसकी बारी आई। जिन्हें नौकरी पर रखना था, उन्हें तो पहले ही रख लिया गया था। निराश सुखचैन वापस बस अड्डे पर पहुँचा। इधर उधर घूमते हुए उसने सामने सादिक की ओर जाने वाली बस खड़ी देखी। सादिक के करीब ही उसकी मौसी का गाँव था। वह सादिक वाली बस में बैठ गया। सादिक पहुँचते दिन छिप चुका था। उसे मौसी के गाँव को जाने वाला टैम्पू मिल गया। सादिक फाजिल्का रोड पर सादिक से सात-आठ किलोमीटर जाकर यह गाँव आता था- मल्ल सिंह वाला। वहीं सुखचैन की बड़ी मौसी ब्याही हुई थी।
गाँव के अड्डे पर उतरकर सुखचैन मौसी के खेत वाली राह पर पैदल ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाकर वह ड्रेन की पटरी पर हो लिया। रात उतर आई थी। आसपास बियाबान जंगल और सुनसान था। कहते थे कि इन गाँवों में तो दिन छिपते ही लोग घरों में ताले लगा लेते थे। गाँव के लोग भय और खौफ़ में रातें बिताते थे। इस इलाके में खाड़कुओं का पूरा ज़ोर था। दिन छिपते ही उनका राज शुरू हो जाता था। लोग डरते थे कि पता नहीं कब किसके घर का दरवाजा आ खटखटाएँगे और पता नहीं क्या मांग करेंगे। पुलिस तो इधर दिन के समय ही कहीं आती थी। वह भी लोगों को उठाकर पैसे उगाहने के लिए। एक तरह से ये सारा इलाका ही पुलिस और खाड़कुओं का बन्दी बना हुआ था। रात में खाड़कू और दिन में पुलिसवाले मनमर्जी करते थे। उसे आसपास से भय आया। ख़यालों में मग्न सुखचैन मौसी के घर के पास जा पहुँचा। उसे कुछ बेचैनी-सी हुई। घर अँधेरे में डूबा हुआ था। वह काफ़ी दूर ही था जब उसके कदमों की आहट सुनकर कुत्ता भौंकने लगा। फिर उसने घर की तरफ से कोई आता हुआ देखा। सुखचैन जहाँ था, वहीं खड़ा हो गया। ''कौन है ?'' घर की ओर से आने वाले ने दूर से ही पूछा। सुखचैन ने आवाज़ पहचान ली थी। यह उसकी मौसी का छोटा लड़का दीपा था। ''मैं सुखचैन हूँ, मलकपुर से।'' सुखचैन प्रत्युत्तर में बोला। ''अच्छा, सुख। पर तू इस वक्त किधर से ?'' मौसी का बेटा करीब आते हुए बोला।
फिर दोनों ने एक दूजे से मिलते हुए हाथ मिलाया। मौसी के बेटे दीपे ने वहीं से ऊँचे स्वर में बोलकर घरवालों को बताया, ''सब ठीक है, यह तो सुख है।'' दीपा उसे घर से बाहरवाली बैठक की ओर ले चला। ''इधर किधर, घर नहीं जाना ?'' सुखचैन ने हैरानी में पूछा। ''नहीं, हम इधर ही सो जाएँगे। उधर ठीक नहीं।'' आगे आगे जाते हुए दीपा बोला।
''ठीक नहीं। क्या मतलब ?'' सुखचैन उसके व्यवहार से हैरान था।
''बाकी सबकुछ बाद में बताऊँगा। अभी इतना ही बहुत है कि उधर कुछ रिश्तेदार आए हुए हैं।'' इसके बाद दीपा ने चुप्पी धारण कर ली। सुखचैन को चुपचाप बाहरवाली बैठक में बिठाकर वापस घर लौट आया। कुछ देर बाद दीपा दूध का गिलास लेकर आया। सुखचैन अभी भी अचम्भे में बैठा था।
''चाय का अब कौन सा टाइम है ? रोटी ले आता।''
''नहीं, यह तो दूध है। रोटी भी खा लेना, थोड़ी देर ठहर जा।'' मौसी का बेटा बोला।
''पर यार यह क्या चक्कर है। चारों तरफ घुप्प अँधेरा कर रखा है। अन्दर कौन रिश्तेदार आए हुए हैं।'' दूध का घूंट भरते हुए सुखचैन ने पूछा।
''यार क्या बताऊँ। अन्दर खाड़कू सिंह ठहरे हुए हैं।'' दीपा धीमे स्वर में बोला।
''हैं ! खाड़कू !'' सुखचैन के हाथ से गिलास गिरता-गिरता बचा। ''तुमने यार इनसे क्या लेना था।'' सुखचैन ने अफ़सोस सा प्रकट करते हुए कहा।
''हम कौन सा इन्हें बुलाने गए थे। खेत में रहने का यही तो पंगा है।'' दीपा आहिस्ता-आहिस्ता बातें कर रहा था।
''फिर ये यहाँ कैसे आ गए ?'' दूध खत्म कर सुखचैन ने गिलास एक तरफ रख दिया। फिर कम्बल ओढ़कर बैठ गया।
''असल में, सच पूछता है तो खेतों में रहने वाले तो सूली पर टंगे पड़े हैं। ये हरेक खेत में डेरा लगाए बैठे हैं।''
रोटी खाने के बाद धीमे-धीमे बातें करते हुए वे सो गए। सवेरे मुँह-अँधेरे उठकर सुखचैन तैयार होने लगा। तैयार होने के बाद चाय का कप पीकर वह चलने ही लगा था कि दीपा हाँफता हुआ उसके पास आ खड़ा हुआ। सुखचैन ने प्रश्नभरी नज़रों से उसकी तरफ देखा।
''तुझे यार उनमें से एक मिलना चाहता है।'' दीपा ने घबराहट -सी में कहा। सुखचैन का ऊपर का साँस ऊपर और नीचे का नीचे ही रह गया। वह दीपा के पीछे-पीछे घर के अन्दर एक छोटी-सी कोठरी में चला गया। अन्दर कोई आदमी कम्बल ओढ़े बैठा था। दीपा सुखचैन को कोठरी के दरवाजे तक छोड़ कर बाहर से ही लौट गया। उसे हिदायत भी यही मिली थी। कोठरी के अन्दर घुसते ही सुखचैन की आँखें फटी की फटी रह गईं। सामने बाबा बसंत बैठा था। दोनों एक-दूसरे से पूरे जोश से जफ्फी डालकर मिले।
''बाबा तू ? नहीं सॉरी, बाबा जी तुम ?'' सुखचैन पीछे हटता हैरानी में बोला।
''अरे यार, मैं कोई बहुत बड़ी हस्ती तो नहीं बन गया। तू मुझे बाबा ही कह। मुद्दत के बाद कोई अपना मिला है।'' बाबा ने दुबारा सुखचैन को बांहों में भर लिया।
''बाबा शुक्र है। बड़ी खुशी हुई तुझे देखकर। उस समय तो कुछ और ही बात उड़ी थी।'' आगे सुखचैन चुप हो गया।
''कौन सी ?'' बाबा अनजान बना बोला।
''कहते थे, लुधियाना में मीटिंग के दौरान ही सारे लड़के...।'' सुखचैन कहते कहते पुन: चुप हो गया।
''बस ! कुछ बढ़ी हुई थी कि मैं वहाँ से बच निकला या फिर शायद उस गद्दार को सबक सिखाने के लिए बच गया था। सारे पंजाब की खाक छान मारी, पर वह मुझे नहीं मिला। पता नहीं, किस पाताल में जा छिपा है।'' बाबा गहरी सोच में डूबा हुआ बोला।
''यार, सभी दोस्त-मित्र चले गए। गुरलाभ का भी कोई पता नहीं किधर गया। कहते हैं, वह भी उसी मीटिंग में था। किस्मत का कैसा खेल है।'' सुखचैन सहज ही बोला। जिस गद्दार की बात बाबा बसंत ने कही थी, सुखचैन को लगा वह किसी पुलिस वाले को लेकर है जो पार्टी में दाख़िल होकर सबको फंसा गया होगा।
बाबा ने सुखचैन को अन्दर बुलाया ही इसलिए था कि उसे शायद गुरलाभ के बारे में कुछ पता हो। बाबा बसंत ही जानता था कि रेड हाउस वाला भयानक कांड गुरलाभ की गद्दारी के कारण ही घटित हुआ था। बाद में उसे पुलिस इंस्पेक्टर रणदीप और गुरलाभ की मिली-भगत का भी पता लग गया था। लुधियाना छोड़ने के बाद वह लगातार गुरलाभ की तलाश में घूम रहा था। गद्दारी की सजा देने के अलावा बाबा बसंत यह भी सोचता था कि जो आतंक गुरलाभ ने लुधियाना में फैलाया था, वैसा ही वह जगह-जगह फैला रहा होगा। इसीलिए गुरलाभ को खत्म करना ज़रूरी था। जैसे ही उसने सुखचैन के मुँह से सुना कि गुरलाभ का भी कोई पता नहीं तो उसने आगे की पूछताछ अपने अन्दर ही दबा ली।
''बाबा, लहर अब किधर को जा रही है ?'' सुखचैन ने न चाहते हुए भी व्यर्थ-सा प्रश्न पूछ लिया।
''सुखचैन, मेरा तो लहर से कोई लेना-देना नहीं था। मैं तो उस वक्त हॉस्टल में पड़े छापे के दौरान पकड़ा गया था। मैं निर्दोष था पर पुलिस ने मेरे पर अंधा अत्याचार किया। मेरे घरवालों को बेइज्ज़त करने में पुलिस ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे भाई और पिता को पुलिस ने मुठभेड़ दिखा कर मार दिया। फिर तू ही बता, मेरे पास कौन सा राह बचा था। बाहर रहते को पुलिस मार देती, इसलिए मैं भूमिगत हो गया। मैं अभी तक सिर्फ़ पुलिस वालों के साथ ही लड़ रहा हूँ। जितनी भी ज़िन्दगी शेष बची है, बस इसी काम पर लगानी है। जहाँ तक तेरा सवाल है कि लहर किधर जा रही है, वह तो यह है कि जिन लड़कों ने लहर शुरू की थी, वे सब मारे जा चुके हैं। अब तो दूसरी-तीसरी कतार के लड़के लहर को चला रहे हैं जिनका कोई लक्ष्य नहीं है। ज्यादातर जरायमपेशा लोग लहर में आ घुसे हैं जिनका मकसद लहर के नाम पर सिर्फ़ पैसा कमाना है। पुलिस भी ऊपर होती जा रही है। पुलिस ने अपने आदमी जिन्हें कैट कहते हैं, लहर में उतार दिए हैं। मुझे लगता है कि लहर अपनी समाप्ति की ओर बढ़ रही है।''
''और जो कहते थे कि यह जद्दो-जहद कौम का अलग घर बनाने के लिए चल रही है ?'' सुखचैन ने एक और सरसरी-सा सवाल किया।

''कोई भी लहर या संघर्ष चलता है लोगों के साथ मिलकर चलने से। तू देख ले कि इस लहर के साथ कितने भर लोग हैं। पुलिस और खाड़कुओं से तंग आए आम लोगों का जीना दूभर हुआ पड़ा है। जब लोग ही इस लहर के हक में नहीं तो लहर चलेगी कैसे। सच पूछे तो यदि लोग एकजुट हो जाएँ तो फिर ए.के. सैंतालीस की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। इस वक्त लोगों की इस लहर से कोई हमदर्दी नहीं। मतलब साफ़ है कि जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह लहर चल रही है, लोगों को वो लक्ष्य नहीं चाहिए। लहर का बिखर जाना और लोगों का इससे दूर भागना इस बात की गवाही है कि लोग जैसे रह रहे हैं, वैसे ही खुश हैं। लोग नहीं चाहते कोई पृथक कौमी घर। यह मैं नहीं, हालात कह रहे हैं।'' बाबा बसंत ने अपना पक्ष स्पष्ट किया।
''यार, फिर क्या फायदा हुआ इतनी मारा-मारी का ?'' सुखचैन निराश-सा बोला।
''फायदा ! फायदा तो बहुत हुआ, पर यह फायदा हुआ कुछ खास लोगों को ही। वैसे तो सब पुलिस वाले भी बुरे नहीं। पुलिस में भी बहुत अच्छे और ईमानदार आदमी हैं। ऐसे ही खाड़कुओं में भी बहुत से लड़के अपने काम के प्रति वफ़ादार और ईमानदार हैं। इस वक्त कुछ मौकापरस्त लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस लहर के चलते पैदा हुए हालातों का जी भरकर फायदा उठाया है और उठा रहे हैं। पुलिस में कुछ व्यक्ति हवलदारों से एस.एस.पी. बने बैठे हैं। ऐसे मौकापरस्त पुलिस अफ़सरों ने पता नहीं कितने लड़कों की लाशों के ढेर लगाकर ये स्टार हासिल किए हैं। ऐसे ही कुछ खाड़कुओं ने लूट-खसोटों और फिरौतियों से अंधा पैसा बनाया है। कई पुलिस के मुख्बिरों ने मौके का बहुत लाभ उठाया है। कई गाँवों में भी बड़े लोगों ने लड़कों को पकड़वा कर बहुत ईनाम लिए हैं। लड़कों के मारे जाने पर उनका रुपया-पैसा भी ऐसे लोगों के पास ही रह जाता है। तू ही देख ले कि अगर खाड़कू मरते हैं तो भी सिक्ख ही मरते हैं, और अगर आम पुलिस वाले मरते हैं तो वे भी सिक्ख ही हैं। सिक्खों के हाथों सिक्खों को मरवाकर अवसरवादी सरकार दोनों हाथों लड्डू खा रही है।'' बाबा क्रोध में था। वह चुप हो गया।
''चल छोड़ यार लहर को। तू अपना सुना, क्या हाल है ?'' बाबा ने बात का रुख मोड़ा।
''मेरा तो ठीक ही है। डिप्लोमा पूरा हो गया था। अब इधर-उधर इंटरव्यू के लिए घूमता फिरता हूँ। कल फरीदकोट इंटरव्यू में ही गया था। एक काम पर वर्क-इंचार्ज लगा हुआ हूँ।'' सुखचैन ने बताया।
''चल अच्छा है। तू तो लग किसी कोठी में ओवरसियर।''
''देखते हैं, क्या होता है।'' सुखचैन उठते हुए बोला, ''अच्छा बाबा, फिर मिलेंगे कभी, अब मैं चलता हूँ।''
''किस्मत वाला है जो इस राह से बचा रहा। एक-दो बातें मेरी ध्यान से सुन ले। एक तो दुबारा यहाँ मत आना। तुझे नहीं पता, अपने कालेज के हर लड़के के पीछे सी.आई.डी. लगी रहती है। दूसरा, मुझे तो मिल लिया, पर आगे किसी दूसरे खाड़कू के करीब से भी न गुजरना। अपनी यह मुलाकात का यहीं भोग डाल देना। अच्छा, रब राखा।''
उठकर चलता हुआ सुखचैन एक पल के लिए रुका। उसके मन में आया कि बाबा इतनी अच्छी बातें कर रहा था, इसे कहकर देखूँ कि भाई उसकी मौसी का घर छोड़कर कहीं और ठिकाना बना ले।
''बाबा, एक बात और करनी है।''
''हाँ, बता।''
''यह यार, मेरी मौसी का घर है। ये बड़े शरीफ से बन्दे हैं...।''
''हाँ सुखचैन, यह बहुत शरीफ परिवार है। माता तो हमें बेटों की तरह समझती है। अब तेरे आने के कारण तो हमारा यहाँ रहना और भी आसान हो गया।'' सुखचैन की बात बीच में ही पकड़कर बाबा बसंत ने उसका कुछ और ही मतलब निकाल लिया। 'ये नहीं हिलते अब यहाँ से' मन में सोचते हुए सुखचैन कोठरी से बाहर निकल गया था।
(जारी…)
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