Sunday, March 14, 2010

धारावाहिक उपन्यास




दोस्तो…
“बलि” उपन्यास की अगली किस्त यानी चैप्टर -५ का प्रथम भाग पोस्ट कर रहा हूँ। आप इसे निरंतर पढ़ रहे हैं, यह मेरे लिए खुशी और संतोष की बात है। आपकी बेबाक टिप्पणियों की मुझे बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी।
-हरमहिंदर चहल



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 5(प्रथम भाग)
सुखचैन और सत्ती के चले जाने के बाद रम्मी बहुत खुश थी। अब कोई अड़चन नहीं थी। सुखचैन भी तैयार था। उसकी दुविधा से वह हमेशा परेशान रहती थी। खास कर सत्ती का उसको बहुत आसरा हो गया था। उसने तो सुखचैन की जिम्मेवारी ली थी। अब तीनों को अहसास हो गया था कि अगर रम्मी के घरवालों के इरादे सही न लगे तो उनके पास यही आख़िरी रास्ता बचा था। उन्होंने उस रास्ते पर चलने का निर्णय कर लिया था। रम्मी के सिर पर से भारी बोझ उतर गया था। दूसरी खुशी उसे गाँव जाने की थी। कल सवेरे ही घर से कोई आकर उसे ले जाएगा। खुशी में उड़ती घूमती रम्मी को मुलाकात वाले दफ्तर से फिर बुलावा आ गया। उसकी मम्मी ने कल आने की बजाय आज शाम ही उसे ले जाने का प्रोग्राम बना लिया था। रम्मी खुशी में उछलती-कूदती दफ्तर में पहुँची। सामने उसकी मम्मी खड़ी थी। मम्मी को देखकर पता नहीं क्यों उसका कलेजा काँप उठा। अभी वह मम्मी को मिल ही रही थी कि दफ्तर वाली मैडम स्वाभाविक ही बोल उठी, ''रम्मी, आज तो तेरा बड़ा अच्छा दिन चढ़ा, मुलाकात पर मुलाकात हो रही है।''
''और कौन मिलने आया था ?'' उसकी मम्मी ने हैरानी से पूछा। मम्मी का प्रश्न सुनकर रम्मी का खून सूख गया।
उसकी मम्मी की त्योरियाँ नाग की तरह बल खा रही थीं। उसने ऑंखे फाड़कर रम्मी की तरफ देखा तो भयभीत सी रम्मी ने नज़रें झुका लीं। पहले तो मम्मी के दिल में आया कि दफ्तर वालों से पूछे कि उन्होंने किस की इजाज़त से इसकी मुलाकात किसी बाहर के व्यक्ति के साथ करवाई थी। पर फिर वह बात को अन्दर ही अन्दर पी गई। उसने रम्मी से सामान उठवा कर रिक्शा में रखवाया। वे दोनों चुपचाप बस-अड्डे की ओर चल दीं। बस में भी माँ-बेटी दोनों में कोई बात नहीं हुई। रम्मी आने वाले तूफान के लिए अपने आप को तैयार कर रही थी। उसकी माँ बैठे बैठे अन्दर ही अन्दर विष घोल रही थी। जब वे घर पहुँची तो घर में कोई नहीं था। माँ-बेटी दोनों ही इस चुप से ऊबी पड़ी थीं। पहल माँ ने ही की।
''हाँ, बता रम्मी, कालेज में तुझे मिलने और कौन आया था ?''
''सुनकर क्या करेगी मम्मी, जब तुमने मुझे कभी अपनी बेटी ही नहीं समझा।''
''क्यों, मेरी बेटी नहीं है तो और क्या है। समझने वाली इसमें क्या बात है।''
''मेरा अगर तुम्हें कोई मोह हाता तो बिना पूछे ही यूँ सजा देते। मुझे तुमने पिछले साल भर से हॉस्टल में कैद कर रखा है। इस घर में मेरी कोई पूछताछ नहीं रही।'' रम्मी इतना कहते ही रोने लगी।
बेटी को रोता देखकर एकबारगी तो माँ का दिल भी भर आया। उसने करीब होकर रम्मी को बांहों में समेट लिया। रम्मी एकाएक तेज तेज रोने लग पड़ी। माँ ने उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे चुप कराया।
''तो बता, क्या अच्छे घरों की लड़कियाँ ये हरकतें करती हैं।''
''मैंने क्या किया है, पता तो चले ?''
''तू खुद ही याद कर। पहली बार तू आधी रात में घर से बाहर गई। अब यह कोई तेरे हॉस्टल तक भी आ पहुँचा।''
''मम्मी, सबसे पहले तो मेरी यह बात अच्छी तरह सुन लो कि तुम्हारी बेटी पवित्र है। मैंने आज तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे तुम्हारी इज्ज़त को बट्टा लगे।'' उसकी मम्मी ने हैरानी से रम्मी की ओर देखा मानो विश्वास न हुआ हो। साथ ही, उसके मन को कुछ तसल्ली सी भी हुई।
रम्मी ने गहरा साँस लेकर बात आगे बढ़ाई, ''अब जब बात चल ही पड़ी है तो मैं सब कुछ तुम्हें सच सच बता देना चाहती हूँ। वह यह है कि मैं एक लड़के से प्यार करती हूँ। वह लुधियाना में इंजीनियरिंग का कोर्स करता है। यह कोई आज की बात नहीं। हम स्कूल के समय से एक-दूसरे के करीब थे। वही नज़दीकी आगे चलकर प्यार में बदल गई। उस रात भी मैं बाहर उसे ही मिलने गई थी। हॉस्टल में भी मुझे वही मिलने आता है। इतने सालों का हमारा आपसी रिश्ता बना हुआ है। यह रिश्ता सिर्फ सच्चे प्यार का है। इसके अलावा हमारे बीच कोई गलत संबंध नहीं। मैं यह भी बताना चाहती हूँ कि हम इस पवित्र प्यार के रिश्ते में इस तरह बंध चुके हैं कि अब एक-दूजे के बग़ैर नहीं रह सकते। मम्मी, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि हमारे प्यार के बंधन पर तुम अपनी रजामंदी की मोहर लगाकर हमें एक कर दो। हम तुम्हारी मर्जी से ही सबकुछ करना चाहते हैं।'' सारी बात कहकर रम्मी फूल-सी हल्की हो गई।
''किनका लड़का है ? मतलब उसके घरवाले क्या करते हैं ?''
''लड़का अपनी जात-बिरादरी में से ही है। घरवाले खेती करते हैं।''
''तेरे पापा ने तो तेरे लिए बहुत बड़े सपने देख हुए हैं।''
''कैसे ?''
''वह तुझे किसी फौजी अफ़सर से ब्याहना चाहता है। कभी किसी कैप्टन की बात चलती है, कभी किस लैफ्टीनेंट की। उन्होंने अभी कोई फैसला नहीं किया।''
''मैं किसी फौजी अफ़सर के संग विवाह नहीं करवाना चाहती। न ही मुझे किसी और बड़े घर की इच्छा है। मैं तो सिर्फ़ इसी लड़के के साथ विवाह करना चाहती हूँ।''
''किस गाँव के हैं? नाम क्या है ?''
''यह मैं बाद में बताऊँगी जब तुम विवाह के लिए तैयार हो जाओगे।'' रम्मी ने समझदारी बरतते हुए सुखचैन का नाम नही लिया।
''देख रम्मी, तेरा पापा ने अगले का स्टेट्स देखना है। वह अपने बराबर का स्टेट्स खोज रहा है। तुझे किसी गाँववाले जट्ट के साथ ब्याहने को तो वह बिलकुल नहीं मानेगा।''
''मेरा विवाह उन्होंने मेरी खुशी के लिए करना है कि समाज में अपना रुतबा बढ़ाने के लिए ?''
''तू इनका स्वभाव नहीं जानती है। इनके लिए रुतबा सबसे पहले है।''
''मैं तुम्हारी बेटी हूँ। प्लीज़ मेरी मदद करो। तुम पापा को मनाओ अगर मेरी यहाँ शादी न हुई तो मेरी ज़िन्दगी नरक बन जाएगी।''
''देख रम्मी, तेरी शादी किसी गाँव के जट्ट से हो, यह तो मुझे भी नहीं जंचता। हम पढ़े-लिखे ऊँची सोसायटी के लोग हैं। अपनी जान-पहचान वाले सभी बड़े अफ़सर हैं।''
''तुम मेरी खुशी क्यों नहीं देखते। तुम अपने स्टेटस ही सोचे जाते हो। अगर मैं ही खुश नहीं तो तुम स्टेटस का क्या करोगे।''
''तुझे पहले सोचना चाहिए था। कम से कम किसी बराबर के लड़के से दोस्ती करती। यह रिटायरमेंट क्या हो गई, हमारी सोशल लाइफ ही खत्म हो गई। दिल्ली में होते थे तो बराबर के लोगों में ऐश करते थे। इस आसपाल के गाँव-गंवार...'' रम्मी की माँ असल बात से एक तरफ जाकर पता नहीं क्या-क्या बोली जा रही थी।
''मम्मी, तुम तो दूसरी तरफ ही चल पड़े, जो बात मैंने कही है, उसका जवाब दो।''
''देख रम्मी, अगर मैंने कह भी दिया, फिर भी तेरे पापा ने करनी तो अपनी मर्जी ही है। तू बस चुप ही कर जा।''
''इसका मतलब तुमसे मैं कोई उम्मीद नहीं रख सकती।''
''चल, फिर मैं कोशिश करूँगी।'' मम्मी सियासत बरतने लगी।
''प्लीज़ मम्मी, पापा को मनाओ।'' रम्मी ने मम्मी के गले में बांहें डाल दीं।
''ले, अब एक बात मेरी ध्यान से सुन ले। मैं समय देखकर तेरे पापा से बात करूँगी। उनके स्वभाव को तू जानती ही है। धीरे-धीरे मनाऊँगी। इस बीच तू कोई ऐसी हरकत न करना कि बनती बात ही बिगड़ जाए। न ही तू उस लड़के को मिलने की कोशिश करना।''
मम्मी ने रम्मी को विश्वास में लेकर सारे राह बन्द कर दिए। भोली लड़की माँ को खुदा समझ बैठी। प्रेम की मूरत बनी माँ के मुखौटे के पीछे क्या-क्या कलाबाजियाँ चल रही थीं, रम्मी वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती थी। माँ ने अपना जाल ममता के रंग में रंग कर फेंक दिया। रम्मी मासूम पंछी की तरह उसमें जा फंसी।
पेपर खत्म हो गए थे। छुट्टियाँ होने के कारण सुखचैन गाँव आ गया था। उसे पता था कि रम्मी भी गाँव में आई हुई थी। पहले की भांति मलिक फोटो स्टुडिओ पर अब मुलाकात नहीं हो सकती थी। वह रम्मी से मिलने के लिए उतावला था। उसे अधिक चिंता रम्मी के घरवालों की थी कि पता नहीं वे रम्मी को लेकर आगे क्या फैसला करते हैं। उसे कोई तरीका नहीं सूझ रहा था कि रम्मी से कैसे राबता कायम करे। वह प्रतिदिन सुधार अड्डे पर जाता। विक्की की ओर से हमेशा ही एक जवाब मिलता कि रम्मी को तो देखा ही नहीं। जब कई दिन इसी तरह बीत गए तो सुखचैन परेशान हो गया। रम्मी ने अब तक कोई सन्देशा क्यों नहीं भेजा। कहीं पहले की तरह वह फिर किसी मुश्किल में न फंस गई हो। उसने अपने छोटे भाई देबे की मार्फत रम्मी की किसी सहेली से पता करवाया तो पता चला कि रम्मी तो घर में ही होती है। यह जानते ही सुखचैन की परेशानी और अधिक बढ़ गई कि यदि रम्मी घर में ही थी तो उसने अब तक कोई सुख-सन्देश क्यों नहीं भेजा।
मम्मी की ओर से भरोसा मिलने पर रम्मी बेफिक्र हो गई थी। जब उसकी मम्मी ने कहा था कि वह उसके पापा को मना कर आराम से उसका मसला हल कर लेगी तो रम्मी को बड़ा सुकून मिला। उस समय उसे क्या पता था कि एक तरफ मम्मी ने छल-प्रपंच से चुप करा दिया, दूसरी तरफ वह स्वयं उसकी मुहब्बत को बर्बाद करने के लिए योजनाएँ बना रही थी। तीनेक दिन घर में बहुत अच्छे गुजरे। चौथे दिन रम्मी ने अपने पापा की दहाड़ सुनी। उसके मम्मी-पापा किसी बात पर बहस कर रहे थे। थोड़ी देर तक तो उसके पापा गुस्से में ज़ोर-ज़ोर से बोलते रहे, फिर उनके कमरे में से साधारण बातों की आवाज़ आने लगी। रम्मी समझी कि शायद मम्मी ने उसकी बात पापा को बता दी थी, इसीलिए पापा गुस्से में चीख रहे थे। फिर ज्यों ही पापा की आवाज़ शान्त होने लगी तो वह समझी कि मम्मी उसके पापा को उसके हक में समझा रही थी। सच्चाई यह थी कि बात इसके उलट हो रही थी। उचित अवसर देखकर जब मम्मी पापा दोनों ही कमरे में अकेले थे, उसकी मम्मी ने रम्मी के बारे में बात छेड़ी। किसी लड़के के संग उसकी मुहब्बत की बात सुनकर उसका पापा अपनी गन उठाने के लिए दौड़ा। उसकी मम्मी ने आगे होकर उसे रोकते हुए कहा, ''पहले पूरी बात तो सुन लो।''
''अब सुनने-सुनाने को पीछे क्या रह गया। मैं उसका किस्सा ही खत्म कर देता हूँ।''
''मैंने तुम्हें पहले ही कहा था कि मेरी पूरी बात सुने बग़ैर न बोलना।''
''बता, तेरी पूरी बात क्या है।''
''तुम्हें मैंने उसकी प्रेम कहानी मैंने इसलिए बताई है ताकि तुम मेरी अगली बात अच्छी तरह समझ जाओ।''
''हाँ, बोली चल।''
''देखो, जवान उम्र है। ऊपर से वह किसी को दिल से मुहब्बत करती है। ऐसे मौके अगर हम सख्त हो गए तो वह कोई भी स्टैप उठा सकती है।''
''मैं गोली मार कर वहीं ढेर नहीं कर दूँगा। स्टैप कैसे उठा लेगी वह।''
''तुम हमेशा फौजी लहजे में बात न करा करो। मैंने कुछ ऐसा सोचा है कि साँ भी मर जाए, लाठी भी न टूटे।''
''हूँ !'' उसका पापा ढीला पड़ गया।
''देखो, इधर मैंने रम्मी को पूरा यकीन दिला दिया है कि हम अपने हाथों तेरा उस लड़के से विवाह करेंगे। दूसरी तरफ हम अपने हिसाब से जहाँ चाहेंगे, वहाँ उसका झट से विवाह कर देंगे।''
''वो तो ठीक है, पर इधर जल्दी कोई रिश्ता भी तो मिले। अभी हाल में ही एक कैप्टन लड़के के बारे में पता चला है।'' उसका पिता भी चाल समझने लगा।
''तुम अपने कप्तानों, लैफटनों का पीछा छोड़ो। अमेरिका वाली छोटी बीबी, मेरा मतलब तुम्हारी छोटी बहन की कॉल आई है। वो एक-आध दिन में दिल्ली पहुँचने वाले हैं। लड़का उसने देखा हुआ है। असल में लड़के की फैमिली भी उनके साथ ही आ रही है। वो लड़के का विवाह करने ही आ रहे हैं। मैंने तो रम्मी के बारे में बात भी पक्की कर रखी है।''
''वाह ! यह तो तूने हद कर दी।'' कर्नल खुश हो गया।
''उन्होंने विवाह करके रम्मी को संग ही ले जाना है। इधर मैं इसका पक्का तौर पर झंझट ही खत्म कर दूँगी।''
''अब तुम रम्मी के साथ प्यार से पेश आना। मैं भी बहला कर रखूँगी। जब तक यह काम पूरा नहीं होता, हम उसे ज़रा भी शक नहीं होने देंगे।'' बात कर्नल को भी जंच गई। अगले दिन रम्मी ने अपनी मम्मी से पूछा कि पापा ने क्या कहा।
''रम्मी, अभी बात नहीं हुई। मैं बस उनका सही मूड देखकर बात करूँगी। तू कोई फिक्र न कर। यह अब मेरा जिम्मा है।'' उसने रम्मी के सिर पर हाथ रखा।
''हैलो !'' मम्मी द्वारा ऊँचे स्वर में हैलो कहने पर रम्मी समझ गई कि फोन कहीं दूर से था। शायद किसी बाहरी मुल्क से।
''हाँ बीबी, सति श्री अकाल... हाँ जी, मैं ही बोल रही हूँ। नहीं, तुम्हारा भाई तो घर में नहीं है।''
''अच्छा, रात में पहुँचोगे... ठीक है जी... हाँ जी पूरी तैयारी है... अकेले शगन की रस्म... चला, जैसा तुम्हें ठीक लगता है... ठीक है जी... विवाह में विवाह वहीं सही... हाँ जी, अभी बारहवीं के पेपर दिए हैं सिधवां कालेज... आगे तो अब क्या पढ़ना है... चलो ठीक है, वहाँ जाकर पढ़ लेगी... लो, उसे क्या एतराज है। अमरीका के नाम पर तो वह फूली नहीं समाती... हाँ हाँ, रम्मी से पूछ कर ही तुम्हें हाँ की है जी... रम्मी से... अभी तो वह यहाँ नहीं है, उससे बात फिर कर लेना... आने के बाद कितने दिन लगेंगे... अच्छा अच्छा, तुम्हारे साथ ही चली जाएगी...हाँ जी, पासपोर्ट तो उसका बना हुआ है... अच्छा जी, जब आएंगे तो उनको तुम्हें फोन कर लेने के लिए कह दूँगी... हाँ जी, आज तो दोहरी खुशी में डट कर पियेंगे... हाँ जी, दो खुशियाँ तो हैं ही, एक रम्मी के विवाह की, दूसरा उसके अमरीका जाने की... अच्छा जी... चंगा जी सति श्री अकाल...।'' रम्मी की माँ ने फोन रखा और दबे कदमों से बाहर निकल गई। अँधेरे कोने में से रम्मी बमुश्किल उठी। गिरती-ढहती वह अपने बैड पर जा पड़ी।
(जारी…)
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