Monday, January 25, 2010

धारावाहिक उपन्यास


प्रिय दोस्तो… एक बार फिर मैं आपके समक्ष हूँ, अपने धारावाहिक उपन्यास “बलि” की अगली किस्त लेकर। मैं उन सभी पाठकों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने मेरे ब्लॉग पर आकर न केवल मेरे उपन्यास की पहली किस्त को पढ़ा बल्कि अपनी अमूल्य टिप्पणियां देकर मेरा उत्साहवर्द्धन भी किया। अब तो यह सिलसिला चल ही निकला है। मैं अपने इस धारावाहिक उपन्यास की अगली किस्तों के साथ आपसे रू-ब-रू होता ही रहूँगा। आपका यह स्नेह –प्यार मुझे भविष्य में भी मिलता रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। -हरमहिंदर चहल


बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)


1.1
धीमे-धीमे ज़िन्दगी अपनी रफ्तार पकड़ने लगी। उसे आसपास की जानकारी होने लगी। अधिकतर वास्ता लोगों से ही पड़ता था। अधिकांश समय भी बाहर नहर पर ही गुजरता था। दफ्तर कोठी से तीसेक मील की दूरी पर था, पर हर रोज़ दफ्तर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। दफ्तर को एस.डी.ओ. का क्लर्क एस.डी.सी. चलाता था। असल में, सारे नहर विभाग के दफ्तर यहीं पर थे। इसे नहरी कॉलोनी के नाम से जाना जाता था। एस.डी.ओ., एक्सीअन, ज़िलेदार और पटवारियों के दफ्तर यहीं पर थे। ओवरसियर के दफ्तर में भी अधिक ज़रूरत नहीं होती थी। वह सप्ताह में एक-आध बार नहरी कॉलानी वाले अपने दफ्तर में जाता था। ओवरसियर का ज्यादातर काम बाहर अपने इलाके में ही होता था। लोगों की अनेक किस्म की शिकायतें होती थीं। किसी की शिकायत होती थी कि उनका मोघा सही नहीं। उसे चैक करने ओवरसियर ही जाता। किसी ने अपनी ऊँची ज़मीन के लिए पानी बंधवाने की अर्जी दे रखी होती तो ओवरसियर ज़मीन का लेवल करके देखता कि यहाँ पानी पहुँच सकता है कि नहीं। किसी को अपनी ज़मीन एक मोघे से निकलवा कर दूसरे मोघे में डलवानी होती तो इसके लिए दौड़भाग भी ओवरसियर ही करता। कभी कहीं नहर में से पानी लीक हो जाता या अन्य कोई टूट-फूट हो जाती तो ओवरसियर की दौड़धूप और भी बढ़ जाती।
पर अधिकांश समय ऐश-ओ-आराम में ही गुजरता था। सवेरे नौ-दस बजे तैयार होकर वह मोटर साइकिल पर बाहर निकलता। डिफेंस रोड तक जाते-जाते मन बन जाता कि उसे किस ओर जाना है। यदि शेरगढ़ कोठी जाना होता तो सीधा नहर की पटरी ही जाता। पटरी से जाने का एक लाभ तो था कि सारे इलाके की इंस्पेक्शन हो जाती। धीरे-धीरे मोटर साइकिल पर जाते हुए दोनों तरफ के मोघों का निरीक्षण करता जाता। अगर किसी ने मोघा तोड़ा होता तो पता चल जाता। कई जगह किसी ने 'कट' लगाकर पानी चोरी किया होता तो वह तुरन्त पकड़ा जाता। कई स्थानों पर लोगों ने रात में रबड़ के पाइप फेंककर पानी की चोरी की होती तो पाइपों के ताज़ा निशानों से चोरी का पता लग जाता। वैसे भी लोग नहरी बाबू को गुजरते देखते तो चोरी का साहस कम ही करते। लेकिन, कई बार इधर नहर की पटरी से गुजरने का खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता। वह यह कि करीब आधे रास्ते जाकर बायें हाथ को चौधरी अक्षय कुमार की ढाणी पड़ती थी। कई बार अक्षय कुमार आसपास ही घूमता-टहलता मिल जाता तो फिर वह पीछा नहीं छोड़ता था। उसकी एक आदत बुरी थी कि वह दिन में भी शराब पीता था। बस, उसे साथ चाहिए होता था। साथ किसी भी वक्त मिल जाए तो शराब शुरू। पक्की रिहाइश तो उसकी गाँव वाली कोठी में थी, पर यह खेतवाली ढाणी भी किसी महल से कम नहीं थी। नीचेवाले कमरों में खेती का सामान पड़ा रहता था। ऊपर चौबारों के आगे खुला आँगन था जहाँ अक्षय कुमार अपना अड्डा जमाता था। या फिर ढाणी से बाहर निकलकर छायादार दरख्तों के नीचे जहाँ खुली हवा चलती थी। अक्षय कुमार के संग उसके दो-चार मित्र अवश्य हुआ करते। इसके अतिरिक्त उसके साथ चार बाडीगार्ड सदैव हुआ करते। यदि अक्षय कुमार कभी ढाणी में सोता तो वे सारी रात जागकर पहरा देते। दिन के समय वे अक्षय के इर्दगिर्द रहते। अगर अक्षय कहीं बैठने का प्रोग्राम बनाता तो बाडीगार्ड उससे कुछ फासले पर पोज़ीशन लेकर बैठते। कारण- एक तो बस शौक था। बाडीगार्ड संग रखने से बड़े लोगों की शान बढ़ती थी। लेकिन असली कारण यह था कि एक ज़मीन के सौ-एक किल्ले का उसका झगड़ा चल रहा था। दूसरी पार्टी उसके घरों में से ही थी। ज़मीन का झगड़ा बुजुर्ग़ों के समय से चला आ रहा था। इसके चलते दोनों धड़ों में कई बार टक्कर भी हुई थी। कई बार खून-खराबा भी हुआ था। परन्तु इस झगड़े का कभी कोई हल न निकला। पुश्त-दर-पुश्त झगड़ा भी आगे सरकता चला आ रहा था। वैसे, अक्षय कुमार के समय में यह लड़ाई कुछ ठंडी पड़ गई थी क्योंकि अक्षय कुमार ठंडे स्वभाव का नरम आदमी था। उसने तो इस झगड़े को निपटाने के लिए कुछ साझे बन्दों को बीच में रखकर राज़ीनामा करने का भी प्रयास किया था। राज़ीनामा तो अभी तक नहीं हुआ था, पर झगड़े की सुलगती आग मद्धम अवश्य पड़ गई थी। अक्षय कुमार खुद अकेला था। आगे, उसके भी एक ही पुत्र था जबकि दूसरे धड़े में बन्दों की कमी नहीं थी। यही कारण था कि अक्षय चाहता था कि झगड़े का हमेशा-हमेशा के लिए अन्त हो जाए।
कोठी से निकलते ही सुखचैन असमंजस में था कि किस तरफ चला जाए। डिफेंस रोड तक पहुँचते-पहुँचते उसके मन ने कोई फैसला नहीं किया। डिफेंस रोड का पुल चढ़ते हुए उसने इधर-उधर देखा और सीधा नहर की पटरी पर चढ़ गया। रात में हुई हल्की बारिश के कारण धूल दबी हुई थी। आसपास नज़र दौड़ाने पर दूर-दूर तक नरमे की खेत लहराते नज़र आते थे। नहर के दायीं ओर ही सिर्फ़ हरियाली थी। बायीं तरफ तो टीला शुरू हो जाता था जो कई मील तक नहर के साथ-साथ चलता था। स्याह काले नरमों के खेत शराबी हुए जट्ट(किसान) की तरह कल्लोल कर रहे थे। सावन का महीना बीत गया था। बस, नरमे के खेतों को फल पड़ने वाला था। अगला पुल पार करते नहर की पटरी पर टीले का रेता फैला पड़ा था। मोटर साइकिल घुर्र-घुर्र की आवाज़ करता और टेढ़े-मेढ़े बल खाता रेता पार कर गया। आगे फिर साफ़ पटरी शुरू हो जाती थी। उससे अगले पुल पर खड़े होकर सुखचैन ने अपने पैरों को थोड़ा मला। यह राह वहावखेड़े को जाता था। उससे आगे रत्तेखेड़े गाँव में से होकर ही अबोहर को जाया जा सकता था। वहाँ खड़े-खड़े उसने कुछ देर सोचा कि क्यों न आज दफ्तर ही हो आया जाए। फिर उसने बायीं ओर निगाह दौड़ाई। सामने अक्षय कुमार की ढाणी थी। 'चलो, अक्षय के पास ही चलते हैं।' सुखचैन ने मन में कहा। मोटर साइकिल पुन: नहर की पटरी पर चढ़ा ली। ढाणी के बराबर आकर उसने निगाह डाली तो ढाणी में दो जीपें खड़ी थीं। इसका अर्थ था- अक्षय ढाणी में ही था। अगले पुल पर उसने मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी कर दी। वहाँ से वह यूँ ही पैदल पीछे की ओर मुड़ गया। ढाणी के बराबर नहर में आमने-सामने दो मोघे थे। बायीं ओर का मोघा अक्षय कुमार का था। दायीं ओर वाला वहावखेड़े और रत्तेखेड़े वालों का। यह दोनों गाँव का साझा मोघा था। उसने दायीं ओर के मोघे को गौर से देखा। मोघे के साथ ही नहर की तरफ कुछ घास दबा हुआ था। उसे कुछ शक-सा हुआ तो वह पुल की तरफ चल पड़ा। पुल पर से होकर छोटी पटरी की तरफ हो लिया। मोघे पर खड़े होकर इधर-उधर दृष्टि घुमाई। रात में किसी ने पाइप लगाए थे। 'खसके' पर घास दबा हुआ था। ऊपर खाल के किनारे भी पाइपों के निशान थे। इसका मतलब रात में जिस किसी की भी पानी की बारी थी, उसने पाइप लगाकर पानी चोरी किया था। कहीं ओर जाने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। बस, अब पटवारी को मिलकर उस आदमी का पता लगाना था जिसकी रात में पानी की बारी थी ताकि पानी चोर को पकड़ा जा सके। वह वापस जैसे ही पुल पर पहुँचा तो सामने से अक्षय कुमार आता दिखाई दिया। उसने ढाणी के चौबारे में खड़े-खड़े ही मोटर साइकिल की उड़ती धूल देख ली थी। वह तभी अपने आदमियों के संग पुल की ओर चल पड़ा था। वह जानता था कि यह मोटर साइकिल नहरी बाबू का ही है। करीब पहुँचते ही अक्षय बोला, ''क्यों? मिला कुछ ?'' उसने दूर से ही देख लिया था कि बाबू निशानियाँ खोज रहा था।
''मिल तो बहुत कुछ गया है। बस, अब तो बन्दे का पता लगाना है। पटवारी से बन्दे का नाम भी पता चल जाएगा।'' सुखचैन जाने के लिए अपने मोटर साइकिल की तरफ बढ़ा।
''छोड़ यार, आ ढाणी में चलते हैं।'' अक्षय, बाबू का हाथ पकड़ते हुए बोला। साथ ही उसने अपने एक आदमी को इशारा किया कि वह बाबू का मोटर साइकिल ढाणी में ले चले।
''नहीं अक्षय, मुझे इस बन्दे को ज़रूर पकड़ना है।'' सुखचैन ने जिद्द की।
''वह भी हो जाएगा। पहले ढाणी तो चलें।'' वह सुखचैन को ढाणी की तरफ ले चला। ढाणी पहुँच कर उसने रसोइये को खाना बनाने का आदेश दे दिया। स्वयं मेज सजाने लगा।
''ऐसे तो काम नहीं चलेगा।'' सुखचैन का ध्यान पाइपों की ओर था।
''मुझे सब पता है, तू फिक्र न कर।'' अक्षय ने विश्वास दिलाया।
''क्या मतलब ?'' सुखचैन हैरान था।
''तेरे यारों ने ही रात में पाइप लगाये हैं।''
''मेरे यार कौन से आ गए ?''
''जो उस दिन मोघा लगाते समय तेरे से बहस कर रहे थे।''
''अच्छा ! वो वहावखेड़े की ढाणी वाले।'' करीब दो महीने पहले इसी मोघे की मरम्मत हुई थी। इस पुल वाली राह पर गाँव से बाहर जो ढाणी थी, उसे वहावखेड़े की ढाणी कहते थे। मोघे की मरम्मत के समय इस ढाणी वाले फालतू की लीडरी झाड़ते हुए सुखचैन से मोघे के साइज़ के बारे में बहस करने लगे थे। सुखचैन ने किसी की नहीं मानी थी। अपने हिसाब से मोघा ठीक कर दिया था। शायद, इसी कारण अक्षय मजाक में उन्हें बाबू के यार बता रहा था।
''ले अक्षय, फिर तो फंस गए कबूतर जाल में। अब नहीं छोड़ूंगा।''
''जल्दी न मचा, कबूतरों को अच्छी तरह फंस लेने दे।''
''क्या मतलब ?'' सुखचैन ने हैरानी से अक्षय की ओर देखा।
''वह यूँ कि आज रात फिर उनकी पानी की बारी है। आज रात वे फिर पाइप लगाएँगे।''
''पक्का पता है ?''
''पूरा पक्का।''
''तो यूँ कर फिर। एक जीप कोठी भेज दे। मैं बस आधे घंटे में लौट कर आया।''
अक्षय कुमार सुखचैन की बात समझ गया था। सुखचैन ने मोटर साइकिल पुन: नहर की पटरी पर चढ़ा दी। नीचे की ओर चल पड़ा ताकि देखने वाले को लगे कि बाबू तो चला गया। अगले पुल के रास्ते वह कोठी की ओर मुड़ गया। तब तक जीप कोठी पहुँच चुकी थी। सुखचैन ने अकेले मेट को एक तरफ ले जाकर सारी बात समझाई। फिर जीप में बैठकर वह अक्षय की ढाणी चला गया। शेष बचा दिन उन्होंने खाते-पीते बिताया। उसने अपनी योजना बना ली थी। करीब दो घंटे रात बीतने पर मेट पाँच-सात बेलदारों के संग टेढ़े रास्ते से होता हुआ अक्षय की ढाणी पर पहुँच गया। सुखचैन तैयार था। उधर मोघों की तरफ हलचल-सी हुई। चार-पाँच आदमी पाइप खींचकर लाए। आधे घंटे की मशक्कत के बाद पाइप चला दिए। खाल में पानी दुगना हो गया। अपनी ओर से बेफिक्र होकर पाइप लगाने वाले लौट गए, सिर्फ़ एक व्यक्ति मोघे पर रह गया। सुखचैन, मेट और बेलदारों को लेकर धीमे-धीमे मोघे की ओर बढ़ा। दोनों तरफ से घेर कर उन्होंने उस व्यक्ति को पकड़ लिया और बांध दिया। फिर पाइप बाहर निकाले। बेलदार अपने साइकिल ले आए। सारे पाइप साइकिलों से बांधे और कोठी की ओर ले चले। सुखचैन ने जीप मंगवाई और उस पकड़े हुए आदमी को संग लेकर वह भी कोठी की तरफ चल पड़ा। प्रोग्राम यह था कि सवेरे दिन चढ़ने पर उस व्यक्ति को पाइपों सहित थाने ले जाकर मालिक के नाम का पर्चा कटवाया जाएगा। पकड़ा गया आदमी वहावखेड़ा ढाणीवालों का 'सीरी' था। अक्षय इस सारे आपरेशन के दौरान पर्दे के पीछे रहा। उसका कहना था कि पड़ोस का मामला है। इस प्रकार सामने आना अच्छा नहीं लगता। आपरेशन पूरा करके सुखचैन कोठी में आकर आराम से सो गया।
दिन अभी चढ़ा भी नहीं था कि अक्षय की ढाणी से एक आदमी कोठी पहुँच गया। उसे अक्षय ने ही भेजा था। उसे हिदायत सिर्फ़ इतनी थी कि वह बाबू को एक तरफ ले जाकर सन्देशा दे कि अक्षय कुमार कोठी आ रहा है। उसके आने से पहले वह कहीं न जाए। अक्षय स्वयं सुबह-सुबह जाकर बाबू को नींद से नहीं उठाना चाहता था। वह जानता था कि इस पकड़-पकड़ाई में ही रात काफी बीत गई थी। बाबू अभी आराम से ही उठेगा। सुखचैन ज्यों ही उठा तो उसने बाहर की तरफ देखा। बाहर मेट घूम रहा था। सुखचैन को करीब आता देख मेट भी आगे बढ़ा।
''अक्षय कुमार की बन्दा आया है जी।'' मेट ने सल्यूट मारते हुए बताया।
''क्यों ? सब ठीक तो है ?'' सुखचैन हैरानी-सी में बोला।
''पता नहीं जी। वह तो मुँह-अंधेरे में ही आकर बैठा हुआ है। उसने कहा है कि अक्षय आपके पास ही आ रहा है। आप उसे मिले बगैर कहीं न जाएँ।''
''अच्छा, चलो ठीक है। मैं भी तैयार होता हूँ। और हाँ, जिसे रात में पकड़कर लाए हो, उसे चाय-पानी पिला दो।'' इतना कहकर सुखचैन अन्दर चला गया। वह समझ गया था कि अक्षय कुमार रात वाली पाइपों की बाबत ही आ रहा होगा। क्या मालूम, उन्होंने उससे कोई सिफारिश डलवाई हो। अड़ोसी-पड़ोसी गाँव हैं, क्या पता। जब सुखचैन तैयार होकर बाहर आया तो अक्षय रैस्ट हाऊस के सामने बिछी कुर्सियों पर अपने आदमियों के संग बिराजमान था।
''सारा गुड़ गोबर हो गया यार !'' अक्षय ने सुखचैन से हाथ मिलाते हुए उसे एक ओर ले जाकर कहा, ''आज सवेरे मुँह-अंधेरे ही रत्तेखेड़े वाले करनबीर का फोन आ गया कि ये पाइपों वाले बन्दे तो अपने ही हैं।''
''अब पकड़ कर कैसे छोड़ दें ? पहले पता नहीं था इन्हें, जब चोरी करते थे ?'' सुखचैन के माथे पर बल पड़ गए।
''फिर अब उस करनबीर की बात कैसे लौटाएँ ?'' अक्षय कुमार भी चिंतातुर था। करनबीर रत्तेखेड़े के ऊँचे सरदारों का लड़का था। वह अक्षय कुमार के साथ पढ़ता रहा था। दोनों की बड़ी गहरी दोस्ती थी। अक्षय के कारण ही सुखचैन की थोड़ी-सी जान-पहचान करनबीर से थी।
दोनों बातें करते-करते नहर की पटरी पर आ गए। अक्षय की बातें सुनकर वह सोच में पड़ सामने बहते हुए पानी की ओर देखने लगा।
''बात अब करनबीर की नहीं, यह तो अब मेरी बन गई। अब बता क्या करें ? बुरे फंस गए।''
''बुरे तो फंस ही गए। आज अगर इन्हें छोड़ दिया तो लोगों को मुँह लग जाएगा।'' सुखचैन को भी राह नहीं सूझ रही थी।
''अब तो जो भी हो, इन्हें छोड़ना तो पड़ेगा ही।''
''बड़ी मुश्किल से तो पकड़े थे यार ! उनकी उस दिन वाली लीडरी तो निकल ही जाती।''
''चल, गोली मार उस बात को। अब पीछे क्या रह गया जब करनबीर की झोली में ही आ गिरे। चल, वहीं चलते हैं, जैसा चाहे कर लेना। बस, केस को रफा-दफा कर।''
''केस तो अब रफा-दफा ही समझ। पर वहाँ कहाँ जाना है ?''
''बात ऐसी है कि करनबीर टांग टूटी होने के कारण चल फिर नहीं सकता। वे लोग उसके घर में ही बैठे हैं। करनबीर का कहना है कि तुम उसके यहाँ बैठकर इन लोगों को बेशक जूते मार लो या कुछ और कर लो। बस, केस न बनाओ।''
''तो क्या अब हमें करनबीर के घर जाना होगा ? यह क्या बात हुई ?''
''देख सुखचैन, उसकी मज़बूरी है। पर वह कहता है कि एकबार उसके घर आ जाओ। उसने बन्दे तुम्हारे हवाले करने हैं। इतना तो उसे भी पता है कि मोघे की मरम्मत वाले दिन ये तेरे गले पड़ रहे थे।''
सुखचैन समझ गया कि करनबीर कोठी में आने से मजबूर था, पर वह उन लोगों को सबक भी सिखाना चाहता था। वह भी उसके सामने। और फिर, अक्षय कुमार बीच में था ही, जाना तो अब पड़ेगा ही।
उसने सबको काम पर भेज दिया। स्वयं अक्षय कुमार के संग चला गया। जीपें सीधी नहर की पटरी पर हो गईं। अक्षय की ढाणी वाले पुल से वे दायें हाथ की ओर कच्चे रास्ते पर हो लिए। वहावखेड़ा गाँव के ऊपर से घूम कर आगे मील भर की दूरी पर था- रत्ता खेड़ा। रत्ता खेड़ा आगे एक लिंक रोड से होकर अबोहर - हनुमानगढ़ सड़क से जुड़ा हुआ था। लिंक रोड के अड्डे से अबोहर थोड़ी दूर ही रह जाता था।
जैसे ही जीपें दरवाजे के सामने जाकर रुकीं तो नौकर सभी को एक तरफ बड़ी-सी बैठक में ले गया। वहाँ करनबीर टांग पर पलस्तर बांधे एक पलंग पर पड़ा था।
''भाई जी, माफ़ करना, मैं तो उठ नहीं सकता।''
''गाड़ी ज़रा धीमी चलाया कर।'' अक्षय ने नसीहत दी। पहले उन्हें चाय पानी पिलाया गया। इधर-उधर की बातें होती रहीं।
''भाई जी, एक बार हमारी इज्ज़त ज़रूर रखो। बन्दे तो बिलकुल ही नीचे लगे पड़े हैं।'' करनबीर सुखचैन से सम्बोधित हुआ।
''चल, वो बात तो अब खत्म हो गई। कोई और बात सुना।'' सुखचैन ने माहौल को सहज बनाते हुए कहा।
''एक बार तुम्हारे सामने ज़रूर करता हूँ इन्हें। तुम चाहो तो जूतियाँ मार लो।''
''नहीं, नहीं यार। जाने दे अब उन्हें।''
सुखचैन के रोकते-रोकते भी करनबीर ने नौकर भेजकर उन लोगों को बुला लिया। वहवाखेड़ा ढाणी के तीन-चार लोग गर्दन झुकाये बैठक में घुसे। हाथ जोड़ कर नमस्ते की। बैठने से वे शरमा रहे थे।
''कोई बात नहीं सरदार जी, बैठो चारपाई पर।'' सुखचैन ने उनकी झिझक-सी दूर की।
''बाबू जी, काम तो बड़ा शर्मिन्दगी वाला कर बैठे...।'' उनके एक बड़े व्यक्ति ने शर्मिन्दगी जताते हुए बात शुरू की, ''इस बार मेहरबानी करो, आगे ऐसे काम के पास से भी नहीं गुजरेंगे।'' उस गर्दन झुकाये व्यक्ति ने अपनी बात पूरी की।
''नहीं, इसमें मेहरबानी वाली कौन सी बात है। अगर अहसान मानना है तो करनबीर और अक्षय का मानो। इन्हीं के कारण बात यहीं पर खत्म हो गई।'' सुखचैन ने उनके सामने करनबीर और अक्षय की तारीफ़ की।
''नहीं जी, अहसान तो सभी का है। आप तो हमें सेवा बताओ।'' इतना कहकर उसने जेब में हाथ डाला।
''नहीं भाई साहब। मैं यह काम नहीं करता।'' सुखचैन ने हाथ खड़ा करके उसे रोका।
''फिर हमें कोई तो हुक्म करो।'' वह फिर सिर झुकाये बोला।
''बस, यह काम दोबारा न करना। और सरकारी मुलाजिम से बोलने का ढंग थोड़ा ठीक रखा करो।'' सुखचैन ने उस दिन वाली बात की ओर इशारा किया।
उनकी बोलती बन्द हो गई। कोई बात नहीं सूझी।
''ठीक है, कोई बात नहीं। हम सब भाइयों जैसे ही हैं।'' सुखचैन ने माहौल को सहज-सा बनाते हुए उन्हें वापस भेज दिया।
शिखर दोपहरी हो चुकी थी। करनबीर ने भोजन का आर्डर दे दिया। सुखचैन ने आराम से बैठते हुए आसपास नज़रें घुमाईं। बैठक बहुत सुंदर ढंग से सजाई हुई थी। हर तरफ चौधराहट झलकती थी।
सामने वाली दीवार पर चार-पाँच तस्वीरें एक पंक्ति में लगी हुई थीं। ये उनके पुरखों की स्मृतियाँ थीं। एक तरफ शेर की खाल लटक रही थी। साथ ही हिरन के लम्बे सींगों वाला बड़ा-सा सिर टंगा हुआ था। दीवारों पर टंगी निशानियाँ सरदारों के शौक की कहानी कह रही थीं। करनबीर और अक्षय आपस में बातें करने लग पड़े।
उन्हें बातें करता छोड़ सुखचैन उठकर दीवारों पर टंगी पेटिंग्स देखने लगा। वहीं से उसने दरवाजे की तरफ देखा। एक तरफ बाड़ के घेरे में मृगों का एक जोड़ा खड़ा था। सुखचैन धीमे कदमों से करीब जाकर उछलते-कूदते मृगों को देखने लग पड़ा। साथ ही, कबूतरों और तीतरों का दरबा था। सुखचैन जानवरों की अठखेलियाँ देख ही रहा था कि अचानक उसके कानों में जानी-पहचानी आवाज़ पड़ी-
''सुखचैन... तू ?''
सुखचैन ने पीछे मुड़कर देखा। सामने सत्ती खड़ी थी।
''हाँ मैं, पर सत्ती तू यहाँ कहाँ ?'' सुखचैन हैरान हुआ।
''मेरा तो यह घर है।'' सत्ती खुलकर हँसी।
उन्हें बातें करता देख करनबीर आश्चर्य में भरकर उनकी तरफ़ देखने लगा। फिर कोहनी के बल होकर वह ऊँचे स्वर में बोला-
''कैसे ? तुम एक दूसरे को जानते हो ?''
''जी हाँ, मैं भी लुधियाने में ही पढ़ा हूँ।'' सुखचैन ने मुस्कराते हुए बड़ी आत्मीयता से उत्तर दिया।
''वाह भाई ! फिर तो पुराने स्टुडेंट्स का पुनर्मिलाप हो गया।'' यह कहकर करनबीर पुन: अक्षय के साथ बातों में व्यस्त हो गया। उधर सुखचैन और सत्ती एक ओर फूलों की क्यारी की तरफ बढ़ गए।
''सुखचैन, तू इधर कैसे ?'' सत्ती ने बात आगे बढ़ाई।
''मैं इधर नौकरी करता हूँ।''
''नौकरी ? इधर... पर इधर नौकरी कहाँ करता है ?'' सत्ती हैरान थी।
''मैं तुम्हारे नज़दीक ही नहरी कोठी रतनगढ़ में ओवरसियर हूँ।''
''अच्छा ! यह कोठी तो हमारे इलाके में बहुत मशहूर है।'' सत्ती को उत्सुकता हुई, ''पर तू यहाँ इस तरह मिलेगा, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था।''
''देख ले, तू तो बिन बताए लुधियाना ही छोड़ आई थी।'' अचानक सुखचैन संजीदा हो गया, ''पर अब तू कहाँ पढ़ती है ?''
''अब मैं पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में पढ़ती हूँ।''
''पटियाला में दिल लग गया ?''
''दिल कहा तो बहुत कहा। यह यूनिवर्सिटी तो बहुत बढ़िया है। सच पूछो तो लुधियाना तो यूँ ही है- मशीनी शहर सा। पटियाला में तो ज़िन्दगी जोश से भरपूर रहती है।''
''चल फिर तो ठीक है, बहुत अच्छा हुआ।''
''सुखचैन तेरा डिप्लोमा पूरा हो गया। तुझे बढ़िया नौकरी मिल गई। मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई है। उस वक्त नहीं लगता था कि डिप्लोमा पूरा होगा।'' सत्ती को भी पुराना समय स्मरण हो आया था।
''हाँ, उस वक्त तो हालात बहुत खराब थे। बस, किस्मत अच्छी समझो कि कोर्स पूरा हो गया।''
''सच, सुखचैन...'' बात करते-करते सत्ती ने अचानक चुप होकर आकर आसपास देखा। फिर दुबारा बोली, ''तुझे गुरलाभ कभी मिला ?''
''गुरलाभ ! तुझे नहीं पता ?'' सुखचैन के चेहरे पर कई भाव आए और कई गए।
''कैसा पता ? क्या बात है ? कहाँ है गुरलाभ ?'' सत्ती ने परेशान-सा होकर सुखचैन की तरफ देखा।
''सत्ती, वह तो...'' वह बताने ही चला था कि गुरलाभ और उसके साथी तो लुधियाना में किसी मीटिंग के दौरान ही पकड़े गए थे, उसके बाद सबकी पुलिस मुठभेड़ में मरने की खबर ही आई थी, लेकिन सामने से चले आते अक्षय को देखकर सुखचैन खामोश हो गया। प्रश्न भरी नज़रों से सत्ती भी सुखचैन को कुछ कहने ही वाली थी कि पीछे से आती पदचाप सुनकर वह भी चुप हो गई। अक्षय के करीब आने पर दोनों ने बातों का रुख बदल दिया। अक्षय सुखचैन को संग लेकर लौट गया। सत्ती के मन में उथल-पुथल होने लगी। गुरलाभ के साथ क्या हुआ ?...
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अबोहर की नहरी कालोनी के सामने वाली सड़क की तरफ से शहर से बाहर निकलते ही लगता था कि राजस्थान शुरू हो गया। वैसे भी राजस्थान का बार्डर यहाँ से मात्र बीसेक किलोमीटर ही था। इस सड़क पर ट्रैफिक भी अधिक नहीं होता था। इधर आस पास कोई बड़ा शहर भी नहीं था। इधर के गाँवों में भी अधिकतर किसान ही थे। आम तौर पर सभी गाँवों की आबादी मिली-जुली-सी थी। किसी गाँव में किसान सिखों की आबादी थोड़ी अधिक थी तो किसी गाँव में बागड़ी बोलते किसान अधिक थे। कई गाँव तो पूरे के पूरे जट्ट सिखों के थे अथवा पूरे जाटों के। अबोहर के दसेक किलोमीटर बाहर जाकर एक छोटा-सा बस-अड्डा आता था। गाँव बस-अड्डे से थोड़ा हटकर था। गाँव तक लिंक रोड जाती थी। गाँव का नाम था- रत्ताखेड़ा। यह कम आबादीवाला गाँव था। पूरी आबादी ही जट्ट सिखों की थी। गाँव में दो ही परिवार थे। एक बड़ा परिवार, दूसरा छोटा परिवार। गाँव के दूसरी तरफ बड़ा परिवार पड़ता था। उससे आगे सड़क नहीं थी। आगे कच्चा राह जाता था जो अगले गाँव वहावखेड़े के बीच में से होकर नहर पर जा चढ़ता था। बड़े परिवार की गिनती के ही घर थे। बस, केवल पन्द्रह घर। ये घर बड़ी ज़मीनों वालों और सरदारों के थे। किसी भी घर के पास सौ किल्ले से कम ज़मीन नहीं थी। इस पन्द्रह घरों की लगभग दो हजार किल्ले ज़मीन थी। बहुत वर्ष पहले इस दो हजार किल्ले के टुकड़े का एक ही मालिक था - सरदार मोता सिंह। यह अंग्रेजों के जमाने की बात है। मोता सिंह को अंग्रेजों ने उसकी विशेष सेवाओं के बदले में यह दो हजार किल्ले की ज़मीन का टुकड़ा और सफ़ेदपोश का खिताब बख्शा था। सरकार-दरबार में उसका रुतबा था। मोता सिंह को ज़मीन का मालिकाना हक तो मिल गया पर मोता सिंह को भविष्य में इस ज़मीन का कोई वारिस नहीं मिला। सफ़ेदपोश मोता सिंह ने तीन विवाह करवाये, पर तीनों से ही औलाद न हुई। मोता सिंह की दो बहनें थीं। वे दोनों ब्याही हुई थीं और अपने-अपने घर में बसी थीं। जब कोई चारा न रहा तो मोता सिंह ने दोनों बहनों के परिवार रत्तेखेड़े में बुलवा लिए और सारी ज़मीन की मालिकी उन्हें सौंप दी। उसके बाद दोनों बहनों के परिवार ज़मीन के मालिक बनकर खेती करवाने लगे। नई पीढ़ियाँ आने लगीं। परिवार बढ़ते चले गए। फिर उन दो परिवारों से पन्द्रह परिवार बन गए। पन्द्रह घरों के लिए भी ज़मीन बहुत थी। सभी घरों ने बड़ी-बड़ी कोठियाँ बनवा रखी थीं। कई घर पुरानी किलेनुमा हवेलियों में ही रहते थे। इन्हीं में से एक हवेली का मालिक था - जंग सिंह। जंग सिंह ने सारी उम्र सरदारी करते हुए पूरी-पूरी ऐश की थी। जंग सिंह के तीन बच्चे थे। बड़ी लड़की बहुत पहले ब्याह दी गई थी। उससे कई साल बाद जन्मा इकलौता बेटा था- करनबीर जो विवाहित था और तीस बरस का हो चला था। करनबीर से छोटी थी सतबीर जिसे प्यार से सब सत्ती कहकर बुलाते थे।
सत्ती घर में सबसे छोटी होने के कारण लाडली थी। उसका बचपन घरवालों के लाड़-प्यार में ही बीता था। जब उसे स्कूल में पढ़ने भेजा गया, उस समय गाँव में मिडिल स्कूल था। बचपन कब बीत गया, पता ही नहीं चला। आसपास के गाँवों में उन दिनों प्राइमरी स्कूल ही थे। रत्तेखेड़े के परिवार की ओर करीब दो मील पर एक छोटा-सा गाँव और था - अमरगढ़। अमरगढ़ भी सरदारों का गाँव था। यहाँ सिर्फ़ प्राइमरी स्कूल था। यह गाँव अबोहर डबावली सड़क के बिलकुल ऊपर पड़ता था। अबोहर भी यहाँ से पांचेक किलोमीटर दूर था। गाँव के बच्चे प्राइमरी करने के बाद अबोहर की बजाय रत्तेखेड़े के मिडिल स्कूल में ही पढ़ने जाते थे। लोग छोटे बच्चों को शहर भेजने के स्थान पर साथ वाले गाँव में ही भेजना पसंद करते थे। गुरलाभ अपनी ननिहाल वाले गाँव अमरगढ़ में रहता था। उसका अपना गाँव कुरज कलां तो लुधियाना ज़िले में सुधार के पास था। लेकिन उसके ननिहाल में कोई छोटा बच्च न होने के कारण उसे ननिहालवालों ने अपने पास रख लिया था। उसने प्राइमरी अमरगढ़ के पास करके रत्तेखेड़े के मिडिल स्कूल में दाख़िला ले लिया। गाँव के अन्य बच्चे भी रत्तेखेड़े जाते थे। कुछ पैदल चलकर और कुछ साइकिलों पर। जब गुरलाभ ने छठी कक्षा में दाख़िला लिया तो उसी समय सत्ती भी छठी में दाख़िल हुई थी। लड़के-लड़कियाँ उस समय सब एक जैसे थे। इकट्ठा खेलते, एक साथ पढ़ते और इकट्ठे लड़ा करते। सत्ती और गुरलाभ का तभी आपस में लगाव-सा आरंभ हो गया था। दोनों एक -दूसरे के करीब रहते। तब, दोनों में एक दूसरे को अच्छा लगने के अतिरिक्त कुछ नहीं था। मिडिल स्कूल के तीन साल चुटकी बजाते गुजर गए। उसके बाद सत्ती को अबोहर में लड़कियों के एक स्कूल में दाख़िला दिला दिया गया। वहाँ छोटा सा एक हॉस्टल था। वह हॉस्टल में ही रहती थी। गुरलाभ भी अबोहर में पढ़ने लगा था। वह गाँव के अन्य बच्चों के संग सवेरे बस पर शहर पढ़ने जाता। शाम को बस पर ही वापस अमरगढ़ लौटता। महीना, बीस दिन में कभी-कभार बस में या कहीं दूसरी जगह गुरलाभ और सत्ती का आमना-सामना हो जाता था। यह वो वक्त था जब बचपन पीछे छूट चुका था और ज़िन्दगी उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ती जवानी की ओर बढ़ रही थी। अब वे जब कभी मिलते तो एक-दूजे की आँखों में आँखें डालकर झांकते। जब भी कहीं नज़रे मिलतीं तो चुम्बक की भांति जुड़ जातीं। वैसे आपस में कभी कोई बातचीत नहीं हुई थी। लेकिन आँखों ही आँखों में बहुत-सी बातें हो जातीं। ऐसी मुलाकात के बाद वे फिर से एक-दूसरे को मिलने के लिए तरसते। इस तरह फिर कभी संयोग से मुलाकात हो जाती। ज्यों-ज्यों मुलाकातें बढ़ती गईं, त्यों-त्यों मिलने की चाह और ज्यादा बढ़ती चली गई। कई बार गुरलाभ सत्ती के स्कूल के आसपास चक्कर लगाता रहता कि शायद सत्ती कहीं दिखाई दे जाए। मुलाकात तो कभी संयोग से ही होती थी। इस तरह संयोग से हुई मुलाकातों की यादों को और उन पलों को वे दिल में बसाये अगली मुलाकात की प्रतीक्षा किया करते। स्कूल के ये चार वर्ष भी चुपचाप पता नहीं कब बीत गए।
प्लस-टू करके कालेज में दाख़िला लेने का समय आ गया था। गुरलाभ की मसें भीग आई थीं। दाढ़ी उतरने लगी थी। वह शरीर से दुबला-पतला था। देखने में लम्बू-सा लगता था। उधर सत्ती ने भी लम्बा कद निकाल लिया था, पर अभी वह पतली-पतंग सी थी। हल्की-सी मानो तितली हो। दोनों ने जवानी की दहलीज़ पर पैर रख लिया था। प्लस-टू पास करने के पश्चात् वे सिर्फ़ एक बार खुलकर मिले थे, वह भी बस में अबोहर से गाँव की तरफ लौटते दोनों को किस्मत से साथ-साथ सीट पर बैठने का अवसर मिल गया। दो जवान दिलों की यह पहली मुलाकात थी। उनसे कोई बात नहीं हो पा रही थी। दोनों को कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि क्या बातें करें। उन्होंने पढ़ाई की, कालेज की, आगे की पढ़ाई की बातें तो कीं पर दिल की बात जुबां पर न ला सके। उनके दिलों ने नज़रों की जुबान से बहुत-सी बातें कर लीं। जवान धड़कनों पर पुंगरता प्यार एक-दूसरे की नज़रों के रास्ते दिल में उतर गया। उन्होंने प्यार की इस पहली और अमूल्य मुलाकात की यादों को दिलों की गहराइयों में कहीं छिपा लिया। यह छोटी-सी मुलाकात दोनों की ज़िन्दगी में फूल खिला गई।
गुरलाभ ने अब अबोहर के गवर्नमेंट कालेज में दाख़िला ले लिया। यह लड़के-लड़कियों का साझा कालेज था। गुरलाभ को पूरी उम्मीद थी कि सत्ती भी यहीं दाख़िला लेगी। वह कई दिन प्रतीक्षा करता रहा, पर सत्ती कहीं दिखाई न दी। वह सोचता था कि सत्ती के लिए तो यह कालेज यूँ भी बहुत नज़दीक है। शहर से बाहर यह कालेज अबोहर-हनुमानगढ़ सड़क के बिलकुल ऊपर था। यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर जाकर ही रत्ताखेड़ा आ जाता था। लेकिन सत्ती इस कालेज में नहीं आई। गुरलाभ कुछ निराश-सा हो गया। कक्षाएँ शुरू हो गईं तो गुरलाभ ने सोचा कि सत्ती ने किसी दूसरे कालेज में दाख़िला न ले लिया हो। उसने अन्य दो-तीन छोटे-छोटे कालेज भी छान मारे, पर सत्ती न मिली। उसका मन और अधिक उदास हो गया। उसने इधर-उधर जहाँ कहीं से भी पता चल सकता था, पता किया, पर सत्ती का कोई पता न चला। सत्ती को खोजता गुरलाभ स्वयं गुम हो गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसका पढ़ाई में मन न लगता। उसका खेलों में जी न लगता। उसका किसी चीज में दिल न लगता। उसने कई बार रत्ताखेड़ा जाकर सत्ती के घर की तरफ चक्कर लगाए कि शायद कहीं से सत्ती का दीदार हो जाए। सत्ती वहाँ नहीं थी। सत्ती के बगैर उसका गाँव उजाड़-वीरान-सा प्रतीत हुआ। कई महीने गुजर गए, पर उसे सत्ती के बारे में कोई ख़बर न मिली। कई बार वह यूँ ही रेलवे-स्टेशन या बस-अड्डों पर जाकर घूमता रहता कि शायद कहीं सत्ती दिखाई दे जाए। वह जब भी गाँव आने-जाने के लिए बस पकड़ता तो एक-एक सीट पर निगाहें दौड़ाता। कई बार वह शहर में यूँ ही चक्कर लगाता रहता। वह शहर के एक कोने से आरंभ करता। एक गली में चलता वह गली के अन्त तक आस पास की दुकानों की तरफ गौर से देखता। फिर वहाँ से लौटते समय भी ऐसा ही करता। कहीं से लड़कियों का समूह आता दिखाई देता तो वह बड़े गौर से उनकी तरफ देखता। कई माह गुजर गए। मौसम बदलने लगे पर गुरलाभ की खोज पूरी न हुई। अब वह हर समय गमगीन-सा रहने लगा। शहर छान मारा। आसपास खोज लिया। सत्ती कहीं ऐसी अदृश्य हुई कि वह उसकी एक झलक पाने को तरस उठा।
फिर एक दिन वह बस में बैठा तो संयोग से सत्ती का बड़ा भाई करनबीर उसके साथ वाली सीट पर आ बैठा। सत्ती के परिवार के किसी सदस्य को अपने करीब बैठा पाकर उसे मानो एक चाव-सा महसूस हुआ। उसे आसपास का वातावरण अच्छा लगने लगा। उसने सोचा कि यह समय पुन: नहीं मिलेगा और साहस करके बोला, ''भाई साहब, आपका गाँव रत्ताखेड़ा है न ?''
''हाँ।'' करनबीर ने मुस्करा कर उसकी तरफ देखा, ''तू मुझे कैसे जानता है ?''
''जी, अमरगढ़ मेरी ननिहाल है। मैं आठवीं तक आपके गाँव में पढ़ा हूँ।''
''अच्छा-अच्छा, तू हमारे गाँव में पढ़ता रहा है। अब कहाँ पढ़ता है ?''
''जी, उसके बाद प्लस-टू मैंने अबोहर से पास की। अब गवर्नमेंट कालेज अबोहर में बी.ए. कर रहा हूँ।''
''वाह भाई वाह ! गवर्नमेंट कालेज की तो क्या बात है।'' करनबीर को अपने कालेज के दिन याद हो आए।
''भाई साहब, आठवीं कक्षा में शायद आपकी छोटी बहन भी पढ़ा करती थी।'' गुरलाभ डरते-डरते बोला।
''हाँ, सत्ती ने आठवीं गाँव से ही की थी। अब तो वह कालेजिएट हो गई है।''
''यहाँ किस कालेज में पढ़ती है ?'' शब्द उसके गले में से बमुश्किल बाहर निकले।
''नहीं-नहीं, वह यहाँ अबोहर में नहीं पढ़ती। उसे तो हमने सिधवां कालेज भेज दिया था। वहीं हाँस्टल में रहती है।''
गुरलाभ का कलेजा नीचे डूबता चला गया। उसके बाद उसे नहीं मालूम कि क्या-क्या बातें हुईं और सफ़र कैसे पूरा हुआ।
'वाह सत्ती वाह ! मैं तुझे यहाँ खोजता मर गया। तू चुपचाप दूर हॉस्टल में जा बैठी। वाह री किस्मत ! ऐसा ही होना था।'
सत्ती हालांकि नहीं मिली थी पर उसकी खोज समाप्त हो गई थी। अब उसे पता था कि सत्ती कहाँ है। उसे पता चल गया था कि सत्ती इस शहर में नहीं मिल सकती। सत्ती के रहते जिस अबोहर शहर से उसको बेइन्तहा मोह था, वही अबोहर अब उसे बिलकुल भी नहीं भाता था। हँसता-बसता शहर उसे सत्ती के बगैर उजाड़-सा लगता था। शहर की गलियाँ उसे सूनी-सूनी लगती थीं। रौनक भरे बाज़ार उसे काटने को आते थे। सत्ती को खोजते-खोजते उसने शहर का चप्पा-चप्पा छान मारा था। पर अब उसे शहर में चलते हुए ऐसा महसूस होता मानो उसके पैरों के नीचे अंगारे बिछे हों। वह यह शहर छोड़ देना चाहता था, यहाँ से कहीं दूर भाग जाना चाहता था। यारों के संग बहारें थीं, अब यहाँ क्या था। बी.ए. का एक साल उसने बड़ी मुश्किल से पूरा किया। जैसे-तैसे पास भी हो गया, पर अब उसका न तो पढ़ने को मन करता था, न ही यहाँ रहने को। आख़िर, एक दिन उसने अपना बैग कंधे पर रखा और लुधियाने वाली बस में चढ़ गया। बस ज्यों ही शहर से बाहर निकलकर शाह फकीर के टीले के पास पहुँची तो उसने गर्दन घुमाकर पीछे छूट गए शहर की ओर देखा। शहर को अलविदा कहा।
(जारी…)
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8 comments:

निर्मला कपिला said...

agar aap is kee kisht ko kuch chota kar ke den tabhee niyamit padha ja sakata hai sakriy bloggers ke paas time ke kamee rahatee hai is liye itani lambee kisht ke liye vo niyamit nahee rah pata| dhanyavaad aaj mera cafe hindi nahin chal raha is liye roman me likh rahi hoon.kal padhoongee aapaka upnias dhanyavaad

Anonymous said...

धन्यवाद चहल जी,एक साथ पढूंगा जमीन से जुड़ासहज संवेदना का उपन्यास प्रतीत होता है.थोडा सा पढ़ा है.बधाई.
सुरेश यादव
sureshyadav55@gmail.com

RAJ SINH said...

दोनों अंशों ने रोचकता पैदा कर दी है. आगे का इंतज़ार है. शैली अच्छी है .कथ्य का आगाज़ भी .
आपका स्वागत है.

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिये स्वागत और बधाई । अन्य ब्लागों को भी पढ़ें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देने का कष्ट करें

Anonymous said...

प्रिय भाई चहल जी,
आपके उपन्यास की दूसरी किस्त आते ही उसे देखा और पाया की यह अभी भी जारी है. मैं समझता हूँ कि पूरे उपन्यास को पढ़ कर ही टिप्पणी करना ज्यादा ठीक रहेगा... और सच कहूँ, तो मैं उपन्यास पढना भी एक साथ शुरू करूंगा. तभी निरंतरता भी बनेगी.

चिंता न करें, मैं आपकी लेखक सुलभ आतुरता की क़द्र करता हूँ. मैं
स्वयं भी अपने लेखन के संबंध में इसी मनःस्थिति से गुज़रता हूँ.
शेष शुभ.
अशोक गुप्ता
मोबाइल: 9871187875
ashok267@gmail.com

रूपसिंह चन्देल said...

प्रिय चहल जी

किस्सागोई शैली का भरपूर उपयोग हुआ है उपन्यास में. निश्चित ही जमीन से जुड़ा हुआ उपन्यास है. खास बात यह लग रही है कि ग्रामीण प्रष्ठभूमि में जिन विषयों को हल्के स्पर्श के बाद छोड़ दिया जाता है उपन्यास की कथा वहां से प्रारंभ होती है. अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी.

चन्देल

Anonymous said...

Harmohinder Ji,
I finished reading your novel yesterday. Here are my thoughts about it as a reader:
Bali is a novel that attempts to open a window on one of the most horrific times in the history of Punjab. It was the time when Kharku movement infused with religious fervor arose like a wild fire and was extinguished with blood. Since the author builds his story on or around events that are similar to those that actually did happen even though the characters are obviously fictional, it may not be a stretch to call it a historical novel.
One nice quality of this novel is that it continues to motivate the reader to keep on reading. The central theme of the novel revolves around three broad types of characters. First, there are characters that are staunch, and perhaps blind, believers in the Kharku movement. Second, there are police or government forces that are determined to crush it, and, third, there are those opportunists that play both sides for their personal gain of some sort.
As is true of almost all movements, its leaders recruit the young, most impressionable men to accomplish their goal. It seems like that the young recruits who laid their lives on the line did not fully understand the cause they were fighting for and they themselves became easily engulfed by greed and criminal behavior, which in turn could have diminished their commitment without any realization on their part.
The slow and gradual, or perhaps even stealth, emergence of its protagonist, Gurlabh Singh, may distract the reader to home in on the lead character. Usually the protagonist who is the central thread of a novel shows up right at the beginning, and the lesser or supportive characters emerge as the story moves along. Throughout the story, which is filled with events that are treacherous, violent, bloody, and deadly, Gurlabh Singh experiences no harm and eventually slips into Canada unscathed. He does not even seem to reflect much less regret the havoc his leadership has caused, the innocent lives that have been lost, and the families that have been destroyed. At first blush, one may say that that is the new paradigm –- a breaking away from an ending that might have been rather traditional. Maybe so. But let us not overlook the fact that when we choose our behavior, we choose the consequences. Put differently, we cannot behave in a certain way and not face the consequences of some sort. Moreover, Gurlabh’s arrival in Canada is another way of saying that he thinks nothing of abandoning the very movement that he lead and fostered. No one can lead without commitment and a committed leader cannot just walk away from the cause.
In closing, I would like to say that Bali is a very readable novel and its author did a commendable job by chronicling a period so tragic that no one wants to remember nor can any one forget.
Wishing you much success.
Jagjit Brar, PhD
jagjitsbrar@yahoo.com

Anonymous said...

main ne apka novel balli parh liya hai.punjab trasdi ka dil dehla dene wala kala itehas sameta hai apne.kamaal hai.
surinder neer
neersurinder@gmail.com