Sunday, February 21, 2010

धारावाहिक उपन्यास



प्रिय दोस्तो… ‘बलि’ का तीसरा चैप्टर जो आकार में छोटा है, प्रस्तुत कर रहा हूँ। उपन्यास आपको कैसा लग रहा है, यह जानने की इच्छा मेरे अन्दर सदैव बनी रहेगी। आपकी बहुमूल्य राय का मैं इन्तज़ार करूंगा -हरमहिंदर चहल


बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 3
सुखचैन और गुरलाभ एक साथ ही बस-अड्डे पर पहुँचे। गुरलाभ ने सुखचैन को बता दिया था कि सत्ती को भी छुट्टियाँ हो गई थीं। सुखचैन बहुत बार गुरलाभ के साथ सत्ती के कालेज गया था। जब कभी गुरलाभ को सत्ती से मिलने जाना होता और सुखचैन फुर्सत में होता तो वह सुखचैन को अपने संग अवश्य ले जाता। जब सत्ती कालेज से बाहर आ जाती तो वह और गुरलाभ कहीं घूमने के लिए चल देते। सुखचैन किसी दूसरी तरफ चला जाता। सत्ती की सुखचैन से पूरी जान-पहचान थी। वह उससे पूरी तरह खुली हुई थी। कई बार वापस लौटते हुए गुरलाभ ने कहीं और जाना होता तो सुखचैन ही उसे हॉस्टल तक छोड़कर आता था। सत्ती को सुखचैन का स्वभाव और उसका नरम होना बहुत पसंद था। सत्ती हालांकि अमीर घर से थी पर उसने इसका कभी गुमान नहीं किया था। वह सुखचैन के बारे में भी जानती थी कि इसका परिवार एक आम किसान परिवार है। बड़ी मुश्किल से सुखचैन को पढ़ा रहा था। इस बात से उसे सुखचैन से बड़ी हमदर्दी थी। आज भी सुखचैन ही सत्ती के हॉस्टल पहुँचा।
''वह खुद नहीं आया ?'' सुखचैन को अकेला देखकर सत्ती हैरान हुई।
''वो बस-अड्डे पर है। अबोहर वाली बस चलने में अभी कुछ देर थी। हमने सोचा कि वह बस में सीट रोकेगा और मैं तुम्हें ले आऊँगा। मैं तेरा सामान भी उठाकर ले चलता हूँ।''
सत्ती सामान तैयार किए बैठी थी। भारी सूटकेस सुखचैन ने उठा लिया। हल्का बैग सत्ती ने कंधे पर लटका लिया। वे वहाँ से पैदल ही भारत नगर चौक की तरफ चल पड़े। पाँचेक मिनट में पहुँचकर, सामान को एक तरफ रखकर वे बस की प्रतीक्षा करने लगे। अभी वे आकर खड़े ही हुए थे कि सामने से अबोहर वाली बस आती दिखाई दे गई। सुखचैन ने सूटकेस उठा लिया। तभी बस पास में आकर रुकी। गुरलाभ ने पिछली खिड़की में से हाथ मारा। सुखचैन ने पिछली खिड़की से ही सूटकेस बस में रख दिया। गुरलाभ तीन व्यक्तियों वाली सीट रोके बैठा था। सत्ती गुरलाभ के साथ बैठ गई। सुखचैन वापस लौटने लगा।
''आजा, तू भी बैठ जा, अब वापस किधर जा रहा है।'' गुरलाभ ने उसे रोका।
''ओए मैं कहाँ कबाब में हड्डी...।''
''सुखचैन, यह जुमला अब बहुत घिसपिट गया है। कोई और मुहावरा तलाश ले। आ बैठ यहाँ।'' सत्ती ने थोड़ा सरकते हुए बड़े अपनेपन के साथ सुखचैन को संग बिठा लिया।
''यह बस तो सीधी जाएगी। मैं उधर किधर जाऊँगा।''
''बस भी सीधी जाएगी और तू भी हमारे संग हमारे गाँव चलेगा।''
''अच्छा, यह बात है। पर मुझे झेलेगा कौन।''
''तुझे मैं ले जाऊँगी अपने साथ अपने घर। मैं कहूँगी कि मेरा भाई है।'' सत्ती के मुँह से 'भाई' शब्द सुनकर सुखचैन का मन हर्ष से भर उठा।
''अगर ऐसा है तो आज पहले भाई के घर चलो बहन जी।'' सुखचैन खुश होकर बोला।
''वह भी कभी चलूँगी। और फिर तेरे दिल में कौन बसा है, वह भी देखना है।''
''वहमों-भरमों ने मार दी दुनिया...'' सुखचैन ने बात को काटना चाहा। वे एक दूसरे से मजाक करते जा रहे थे कि पता ही नहीं चला कि कब मुल्लापुर आ गया। सुखचैन का हाथ सत्ती और गुरलाभ ने पकड़ लिया कि नहीं उतरने देंगे, तुझे साथ ही लेकर जाना है। हँसी-ठठा करते हुए सुखचैन ने बड़ी मुश्किल से हाथ छुड़ाया और दौड़कर बस से नीचे उतर गया। सुखचैन के उतरते ही बस तेज गति से आगे बढ़ गई।
आसपास से बेख़बर सत्ती और गुरलाभ बातों में व्यस्त हो गए। वे कभी प्यार-मोहब्बत की बातें करते, कभी कालेज की तो कभी छुट्टियों के बारे में। बातें करते हुए पता ही नहीं चला कि डेढ़-दो घंटे कब बीत गए। सत्ती ने बाहर झांका तो उसने देखा, बस मोगा बाईपास पार करके कोटकपूरे की तरफ जा रही थी।
बस जब मुक्तसर से चली तो गुरलाभ सत्ती के साथवाली सीट से उठकर उसके पीछे वाली सीट पर जा बैठा।
''इससे आगे अपना इलाका आ गया। कोई जान-पहचानवाला बस में चढ़ सकता है। हमारा अलग-अलग होकर बैठना ठीक रहेगा।'' गुरलाभ ने मतलब समझाया। सत्ती भी समझ गई। मुक्तसर से चली बस शेरे आले रुकी। फिर पन्नीवाले। आख़िर अबोहर पहुँच गई। गुरलाभ मेन बस-अड्डे से पहले ही फाजिल्का वाले मोड़ पर उतर गया। वे इकट्ठा मेन बस-अड्डे पर नहीं जाना चाहते थे। गुरलाभ ने सामने वाले दुकान से पानी का जग लेकर हाथ-मुँह धोया। इतना लम्बा सफ़र और धूल ने हालत बुरी कर रखी थी। उसके मुँह पोंछते तक चाय का कप तैयार हो गया। इतने में वाया सीतो गन्नो होकर संगरीये को जाने वाली बस आ गई। बस ऊपर नीचे से सवारियों से ठुंसी पड़ी थी। बस के मोड़ मुड़ते ही उसने दौड़कर खिड़की खोली और खिड़की में खड़ा हो गया। अब उसे अपनी ननिहाल वाले गाँव जाने की उतावली थी। पशुओं की भांति ठुंसे लोगों ने बस के अड्डे पर से चलते ही सुख की सांस ली थी।
जब गुरलाभ घर पहुँचा, दिन छिप चुका था। हवेली के दरवाजे का बड़ा वाला दरवाजा पार करके गुरलाभ सीधा रसोई की ओर चला गया। उसे अचानक आया देखकर सबके चेहरे खिल उठे। मामियों-मौसियों ने उसे गले लगा लिया। फिर वह चारपाई पर बैठी नानी की ओर बढ़ा। बूढ़ी नानी ने उसे छाती से लगाते हुए आँखें भर लीं। कुछ देर इधर-उधर की कुशलक्षेम पूछी-बताई। गुरलाभ ने पूछा- “बड़ा मामा किधर है ?”
''ऊपर चौबार में।''
बड़े मामा से उसे बेहद प्यार था। छोटी उम्र से वह बड़े मामा के पास ही अधिक रहा था। बड़े मामा की राजनीति में भी लीडरी चलती थी। वह जिधर भी जाता, गुरलाभ को संग ले जाता। गुरलाभ बड़े मामा के संग उसके बॉडी गार्डों से घिरा जब कहीं जाता तो उसे एक नशा-सा चढ़ जाता। बड़े लोगों में रहना, बड़े-बड़े अफ़सरों से मिलना, ये वो बातें थीं जिनके कारण गुरलाभ को राजनीति बहुत बढ़िया लगती थी। वह दौड़ते हुए सीढ़ियाँ चढ़कर चौबारे की तरफ गया। सामने उसका बड़ा मामा अपने तीन अन्य सरदार दोस्तों के संग बैठा शराब पी रहा था। गुरलाभ को देखकर वह खुश हो गया, ''आ भांजे, तू तो ईद का चाँद ही हो गया।'' उसने लपक कर भांजे को बांहों में भर लिया। मामा के मित्रों ने भी गुरलाभ के साथ हाथ मिलाया। सब उसे पहले से ही जानते थे। बड़े मामा को सब जैलदार कहकर बुलाते थे।
''क्या बताऊँ भांजे, तेरे आने से महफ़िल को चार चाँद लग गए। लगा ले घूंट...।'' मामा ने उसे थोड़ी-सी डाल कर दी।
''नहीं मामा जी, मैं शराब नहीं पिऊँगा।''
''ओए, तुझे किसने कह दिया यह शराब है। यह तो तेरे लिए स्पेशल दवाई बनवाई है।'' मामा ने जबरन गिलास उसके मुँह से लगा दिया।
गिलास खत्म करते हुए गुरलाभ को लगा मानो किसी छुरी ने अन्दर से उसे चीर दिया हो। शराब ने अन्दर जाते ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। गुरलाभ की आँखें लाल हो गईं। सरूर में वह हवा में उड़ने लगा। इस तरह कई बार उसका बड़ा मामा उसे पैग पिला दिया करता था। वैसे, गुरलाभ का मन शराब पीने को नहीं करता था। वह उस उम्र में था जिसमें किसी दूसरे नशे की ज़रूरत ही नहीं होती। जवानी का नशा ही संभाले नहीं संभलता। उसके मामा ने उसे और पिलानी चाही, पर गुरलाभ ने इनकार कर दिया।
''वैसे, भांजे तू बड़े टाइम से आया है। अभी तू थका होगा, नीचे जाकर आराम कर। बाकी बातें सवेरे करेंगे।''
गुरलाभ वाकई थका हुआ था। नीचे जाकर वह चूल्हे के पास बैठकर ही रोटी खाने लगा। साथ ही, इधर-उधर की बातें हो रही थीं। फिर वह अपने कमरे में जाकर जल्द ही सो गया।
सवेरे जल्द उठकर गुरलाभ ने खेतों का एक चक्कर लगाया। लम्बा चक्कर लगाकर वह नहर की तरफ से घर लौटा। जब वह घर पहुँचा, बड़ा मामा बड़ा-सा ढाठा बांध कर तैयार हुआ खड़ा था।
''आ जा, तेरा ही इन्तज़ार कर रहा हूँ। जल्दी से तैयार हो जा।''
''कहाँ जाना है ?'' गुरलाभ ने पूछा।
''तुझे रात भी कहा था कि तू बड़े सही वक्त पर आया है। बात यह है कि भई असेम्बली के चुनाव सिर पर आए खड़े हैं। अपनी पार्टी की तरफ से अपने मंत्री जी खड़े हुए हैं। दोनों पार्टियों का पूरा ज़ोर लगा हुआ है। वैसे, तुझे बुलाने के लिए तो उन्होंने मुझे स्पेशियली कहा था।''
''ऐसी क्या ज़रूरत पड़ गई ?''
''तुझे पिछले चुनाव के वक्त की तेरी कारगुजारियाँ याद हैं। तुझे याद है, तब तुझे कैसे सराहते थे। अच्छे वर्कर को हमेशा याद रखते हैं।'' गुरलाभ को याद आया कि अभी पिछले साल ही उसने अपने कालेज के दोस्तों के संग मिलकर मंत्री जी की पार्टी के समर्थन में कैसी चुनाव-मुहिम चलाई थी। मंत्री जी भी जीत का श्रेय नौजवानों को ही देते थे। तब से ही मंत्री जी उसे जानने लग पड़े थे। उसका मामा मंत्री जी का ख़ास आदमी था। उसके मामा को वे जैलदार कहकर बुलाते थे। गुरलाभ अपने मामा की तरह मंत्री जी को भी 'मामा जी' कहकर ही बुलाता था।
मंत्री जी ऊँचे से चबूतरे पर मोहड़ा डाले बैठे थे। सामने पार्टी के वर्करों के लिए कुर्सियाँ लगी थीं। मंत्री जी को उनके मिलने वालों ने घेर रखा था जब एक तरफ से गुरलाभ ने उनके पैरों की ओर झुकते हुए कहा, ''मामा जी, पैरीपैना।'' मंत्री जी का ध्यान एकाएक उसकी तरफ़ चला गया। मंत्री जी ने हाथ खड़ा कर दिया। उनके बॉडी गार्डों ने पलभर में मिलने वालों को एक तरफ कर दिया। मंत्री जी ने खड़े होकर गुरलाभ को बांहों में भर लिया। उसके मामा को लगा जैसे उसकी पदवी थोड़ा और ऊँची हो गई हो।
''अच्छा हुआ बेटा, तू आ गया। मैं तो तुझे सन्देशा भेजने वाला था।'' पढ़ाई वगैरह की बातें करते मंत्री जी गुरलाभ के कंधे पर हाथ रखे उसे अन्दर बैठक में ले गए। जब दोनों अकेले हो गए तो मंत्री जी बोले, ''अपनी जीत यकीनन होनी चाहिए। जो भी अच्छा तरीका तू इस्तेमाल करना चाहे, उसकी मंजूरी तुझे दी। डरना किसी ने नहीं, पुलिस और सारा प्रशासन अपने साथ है। वैसे, मुझे तुझसे बहुत उम्मीदें हैं।''
''मामा जी, बस आपका आर्डर चाहिए।'' गुरलाभ पुन: उनके पैरों की ओर झुका।
''देख, हो सकता है, भीड़भाड़ में अब हमारी अकेले में मुलाकात न हो। बस, जो तुझे कह दिया, यही फाइनल आर्डर है। तू फट्टे चक्की चल। अगर मुझे ज़रूरत पड़ी तो मैं तुझे खुद बुला लूंगा। बस, अब तो काम शुरू कर दे।'' मंत्री जी उसका कंधा थपथपा कर अन्दर ही न जाने कहाँ लुप्त हो गए।
घर पहुँचकर मामा-भांजा ने सारी रणनीति बनाई। गुरलाभ को अपने कालेज वाले संगी-साथियों को भी ढूंढ कर इकट्ठा करना था। उसे तो अबोहर गए को ही साल भर से ऊपर हो चुका था। क्या मालूम यार-दोस्त अन्य कालेजों में चले गए हों। रात में ही जैलदार ने गाँव में अपने यार-बेलियों को जीपों-कारों के लिए कह दिया। वे अगले दिन से ही पूरी तैयारी के साथ चुनाव-प्रचार में उतरना चाहते थे। गुरलाभ को अगले दिन घूम-फिर कर पुराने दोस्तों को एकत्र करना था। देर रात तक योजनाएँ बनती रहीं।
सवेरे जब गुरलाभ खेतों का चक्कर लगाकर लौटा तो उसने देखा कि अड्डे से लेकर उनके घर तक कारों, जीपों का काफ़िला तैयार खड़ा था। देखकर गुरलाभ को तसल्ली-सी हुई और खुशी भी। घर से जब वह तैयार होकर निकला तो उसने देखा कि सब तैयार थे पर मामा कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।
''आ जाओ अब मामा जी !'' वह आवाज़ लगाता हुआ दौड़कर सीढ़ियाँ चढ़ा।
''आजा...आजा। बस चलते हैं।'' जैलदार ने चौबारे पर से ही जवाब दिया। गुरलाभ अन्दर गया तो उसने देखा कि जैलदार चाँदी की एक डिब्बी खोले बैठा था। मेज पर पानी रखा था।
''यहाँ कहीं से तिनका उठा और लगा ले थोड़ी सी।'' मामा ने अपना काम निपटाते हुए गुरलाभ से कहा।
''क्यों पेट इकट्ठा करते हो ?'' कहते हुए गुरलाभ तिनका ढूंढ़ने लगा।
''तू देख तो सही। कल ही पकाई है नाग की बच्ची ! अन्दर जाते ही अम्बर में उड़ाने लगी है।''
गुरलाभ ने तिनके को डिब्बी में घुमाया और फिर मुँह में डाल लिया। ऊपर से फटाफट पानी का घूंट भरा।
''अब देखना नारे कैसे बजते हैं। आधी रात तक तो थकते नहीं। चल, आ चले अब।''
मामा-भांजा दोनों चौबारे से नीचे उतर आए। एक पल इधर-उधर देखा, फिर मामा ने चलने का हुक्म दिया। पचास-साठ गाड़ियों का काफ़िला मंत्री जी की पार्टी के झंडे और उनके पोस्टर बांधे शहर की ओर चल पड़ा। ''मंत्री जी ज़िंदाबाद !'' के कानफोड़ू नारों ने राह में आते-जाते लोगों को रुककर देखने के लिए विवश कर दिया। जब यह काफ़िला नारे लगाता शहर में घुसा तो लगा मानो मंत्री जी के पोस्टरों वाली गाड़ियों की शहर में बाढ़ आ गई हो। काफ़िला मंत्री जी की कोठी के सामने से आहिस्ता-आहिस्ता गुजरता हुआ आगे बढ़ गया। जैलदार इधर से गुजर कर मंत्री जी को अपना शौ दिखाना चाहता था। मंत्री जी ने ऊपर से देखा तो उनकी बांछे खिल उठीं। शहर पहुँचकर गुरलाभ अलग हो गया। वह दिनभर अपने मित्रों को इकट्ठा करता रहा। जीपों, कारों का काफ़िला सारा दिन गाँवों में आँधी उड़ाता रहा। पूरा दिन भाग दौड़ कर गुरलाभ ने बहुत सारे यार-दोस्त खोज लिए। देर रात तक मीटिंग करके गुरलाभ ने भी बड़ा काफ़िला तैयार कर लिया।
अगले दिन जैलदार के काफ़िले ने शहर की पूर्वी दिशा से शहर में प्रवेश किया और गुरलाभ के काफ़िले ने पश्चिम की ओर से। आज लगा मानो बाढ़ शहर के हर हिस्से से आई हो। काफ़िले के इतने बड़े प्रदर्शन को शहर के लोगों ने घरों-दुकानों से बाहर निकल कर देखा। आज दोनों काफ़िले अलग-अलग दिनभर गाँवों में घूमते रहे। फिर दिनोंदिन दोनों काफ़िले बड़े होते चले गए। जिस गाँव में भी देखो, मंत्री जी के काफ़िले घूमते दिखाई देते। शहर के गली-बाज़ारों में हर तरफ मंत्री जी के पोस्टरों वाली गाड़ियाँ ही नज़र आतीं। इतने बड़े प्रदर्शन ने मंत्री जी के नाम की एक बड़ी लहर पैदा कर दी। अब सब तरफ मंत्री जी का नाम गूंजने लगा।
चुनाव प्रचार का अन्तिम दिन था। आज के बड़े ड्रामे के बारे में गुरलाभ और जैलदार ने पहले ही पूरी योजना तैयार की हुई थी। जैसे ही रात के नौ बजे, विरोधी उम्मीदवार राणा बहिणीवाल के वोट बैंक के पक्के गढ़ में हलचल-सी हुई। ये उस गाँव या शहर के गली-मोहल्ले थे, जहाँ राणा बहिणीवाल की पक्की वोटें थीं। तीन-तीन, चार-चार जीपें हर गढ़ की ओर बढ़ीं। इन कारों-जीपों पर राणा बहिणीवाल की पार्टी का झंडा और उसके पोस्टर लगे हुए थे। पहले तो कुछ देर वे राणा बहिणीवाल के समर्थन में नारे लगाते रहे, फिर उन्होंने बात बदली-
''तुम्हें राणा बहिणीवाल को वोट डालना ही होगा।''
''वोट तो हम जबरदस्ती ले लेंगे।''
''जिसने राणा को वोट न डाली, आग लगाकर फूंक देंगे। गली-मोहल्लों को जलाकर राख कर देंगे।''
''अगर यहाँ से राणा को वोट न मिले तो तुम्हारी औरतों को उठा ले जाएंगे।''
''तुम्हारी माँ की.... ओए तुम्हारी बहन की.... ओए !''
ललकारते हुए वर्कर कुछ क्षणों में ही तितर-बितर हो गए। घंटे भर बाद सभी गुरलाभ के अड्डे पर एकत्र हुए। पुराने पोस्टर उतारकर जला दिए। फिर से मंत्री जी के पोस्टर लगा लिए। चुनाव वाले दिन भी गुरलाभ के ग्रुप ने खुलकर गुंडागर्दी की। फिर नतीजों की घोषणा हुई। मंत्री जी बड़े अन्तर से चुनाव जीत गए। मुख्य विरोधी पार्टी ने इस चुनाव का बहिष्कार किया हुआ था, इसलिए मंत्री जी की पार्टी आसानी से बहुमत ले गई। सरकार का गठन हुआ और मंत्री जी को होम मिनिस्टर बना दिया गया।
(जारी…)
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2 comments:

Anonymous said...

भाई चहल जी
उपन्यास की चौथी किश्त पढ़ गया. मुझे तीसरी और चौथी में कुछ सम्पादन की आवश्यकता अनुभव हुई. विस्तार अधिक दिखा. खासकर चौथी में--- बस की यात्रा जैसे अंशों में. अंत में यदि गुण्डागर्दी के कुछ विवरण या पैदा किए गये आंतक का कुछ विवरण दे दिया जाता तो भारतीय राजनीति के इस वीभत्स स्वरूप नग्न साक्ष्य पाठक को मिला होता.
अगली किश्त एक दो दोनों में पढ़कर अपने विचारों से अवगत कराऊंगा.
धन्यवाद
चन्देल

निर्मला कपिला said...

अच्छी लगी अब तक की कहानी। अगली कडी पढने जा रही हूँ।आपको सपरिवार होली की ढेरो बधाईयाँ और शुभकामनाएँ