Sunday, March 7, 2010

धारावाहिक उपन्यास



दोस्तो…
पिछली पोस्ट में आपने मेरे उपन्यास के चैप्टर- 4 का प्रथम भाग पढ़ा। इस पोस्ट में आप चैप्टर-4 का शेष भाग पढ़ेंगे। आपके बहुमूल्य विचारों का मैं स्वागत करूँगा।

-हरमहिंदर चहल


बलि

हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 4(अन्तिम भाग)


सुखचैन का पिछले कई दिनों से सत्ती से मिलने को मन कर रहा था। अवसर मिलते ही वह सत्ती के कालेज में पहुँच गया। कुछ देर बाद सत्ती आई। वह चलकर सामने वाले रेस्तरां में जा बैठे।
''सुखचैन, मैं तो यही सोच-सोच कर मरती जा रही हूँ कि यह गुरलाभ को दिनोंदिन कया होता जा रहा है।''
''इस बात की मुझे भी चिंता है।''
''तुझे याद है, मैंने तब भी कहा था कि यह अब पास नहीं खड़ा होता।''
''सत्ती, मुझे तो यूँ लगता है कि गुरलाभ को बदमाश हीरो बनने का शौक सवार है। मार-पिटाई करना इसका शौक बनता जा रहा है। अब भी मुझे तो लगता है, यह कोई बहाना ही तलाश रहा था। एक शो करने का।''
''तूने कैसे नोट किया ?''
''मुझे चोटें लगने के बाद कई दिन तो मुझे भी गुस्सा चढ़ा रहा। फिर मैंने आगे की सोची कि चल छोड़ इस बात को। हॉस्टल जाकर बैठक कर लेंगे। इधर-उधर से लड़कों को बीच में लेकर सुलह कर लेंगे। क्या पड़ा है लड़ाई-झगड़ों में। फिर गुरलाभ मेरे गाँव आ गया। उसे भी मैंने यही बात समझाई, पर इसने तो मेरी बात ही नहीं सुनी। पूरी फौज इकट्ठी कर ली।''
''काश ! उस वक्त मुझे पता चल गया होता।''
''सत्ती, मुझे भी लगता है कि इसके अन्दर काई उथल-पुथल चलती रहती है। दूसरा, इसकी राजनीतिक पहुँच हो गई है। इसकी दिलचस्पी गलत कामों की तरफ ज्यादा हो गई है। अब तो ईश्वर ही इसे सुमति बख्शे।''
''सुखचैन, मैं तो बुरी फंस गई। तू भी जानता है कि मेरा सब कुछ गुरलाभ ही है। यह अब पता नहीं किस गलत दिशा में चल पड़ा।''
''चल, तू इतनी मायूस न हो। मैं तो हर वक्त इसे गलत रास्ते से हटाने की कोशिश करता रहता हूँ। कोई बात नहीं, मैं खुद संभाल लूँगा।'' सुखचैन ने सत्ती को दिलासा दिया। फिर उसने बातों का रुख दूसरी ओर मोड़ लिया। उसकी पढ़ाई और अपनी पढ़ाई की बातें करने लग पड़ा। वह चाहता था कि सत्ती का इधर से ध्यान हटे और उसका मन कुछ हल्का हो। जब वे साधारण बातें करने लगे तो वाकई सत्ती के चेहरे पर से शिकन घटने लगी। चाय समाप्त कर कप रखते हुए सत्ती ने सुखचैन से पूछा, ''हाँ, रम्मी का कुंछ अता पता ?''
''हाँ, रम्मी...'' चाय का घूंट भरते हुए सुखचैन मुस्करा कर बोला।
''बड़ी खुशी चढ़ती है भरजाई का नाम सुनकर।''
''भरजाई वह कैसे ?''
''क्यों तू मेरा भाई है तो रम्मी फिर भरजाई हुई।'' सत्ती ने चटखारा लिया।
''वह तो ठीक है। पहले विवाह तो हो लेने दे। फिर बना लेना भाभी।''
''इतना उतावला क्यों है ? विवाह भी हो जाएगा।''
विवाह की बात चलने पर सुखचैन की मुस्कराहट गायब होने लगी।
''क्यों क्या हुआ, तू तो चुप हो गया ?''
''सत्ती, विवाह वाला काम तो बड़ा कठिन लगता है। अगर हुआ भी तो मुश्किल से ही किनारे लग पाएगा।''
''क्यों, रूकावट क्या है ?''
''ये कप उठा यार और मेज साफ कर दे।'' सुखचैन ने बीच में ही बैरे को आवाज़ लगाई।
''सत्ती, कुछ खाना है तो मंगवाएँ ?'' सुखचैन ने सत्ती से पूछा।
''नहीं, नही। बस चाय पी ली, यही बहुत है।''
''हाँ, सच क्या बात कर रही थी तू ?'' सुखचैन मुख्य बात की ओर मुड़ा।
''मैं पूछ रही थी कि विवाह में क्या रुकावट है कि तू इस तरह मायूस है।''
''सत्ती, असल में रम्मी की बातों से ही लगता है। मैंने उससे कहा कि मेरा डिप्लोमा पूरा होने तक रुक जा, पर वह कहती है कि उसके घरवाले इस विवाह के लिए न अब मानने वाले हैं, न डिप्लोमा पूरा होने पर।''
''कारण क्या बताती है ?''
''कारण वही अमीर-गरीब की खाई। वह तो इस बात से बड़ी मायूस है। वह कहती थी कि अगर अपने बारे में घरवालों को तनिक भी भनक लग गई तो वे खड़े पैर उसे किसी दूसरे के साथ भेज देंगे। फिर हाथ में कुछ नहीं आएगा।''
''प्रॉब्लम तो सुखचैन बड़ी सीरियस है।''
''मेरी अपने घर की समस्या है। डिप्लोमा करना है। फिर नौकरी करके घर की हालत बदलनी है। छोटे भाइयों और बहन की फिक्र है, पर साथ ही मैं रम्मी से अलग भी नहीं रह सकता।''
''तू तो चारों तरफ से घिरा हुआ है। सुखचैन मुझे भी डर है कि कहीं तू रम्मी को खो न दे।''
''वह तो पिछली मुलाकात पर ही फैसला किए बैठी थी। कहती थी, सब कुछ होता रहेगा। तू मेरे साथ कोर्ट मैरिज कर ले। उसके मुताबिक तो घरवाले किसी भी हालत में नहीं मानेंगे। फिर क्यों न अभी कोर्ट मैरिज कर लें, बाद में जो कुछ होना है, होता रहे।''
''वैसे सुखचैन, अपनी ओर से वह सही है। अगर एकबार मौका हाथ से निकल गया, दुबारा तुम्हें कोई एक नहीं होने देगा।''
''मैं कहता हूँ कि जितना भी टाइम गुजरता है, गुजर जाए। फिर जैसे वह कहेगी, मैं कर लूँगा।''
''टाइम गुजारते गुजारते कहीं टाइम हाथ से न गवां बैठना।''
''मैं तो बुरी तरह फंसा हुआ हूँ। बहन बनकर तू ही कोई राह बता।''
''ये इश्क के रास्ते बड़े कठिन हैं, भाई मेरे। राह तो खुद ही खोजने होते हैं। मुझे देख ले, घर की तरफ से कोई मुश्किल नहीं, न ही और कोई मुश्किल है। पर जो कुछ हाथ में है, लगता है वही हाथ में से रिसता जा रहा है।'' सत्ती उदास हो गई। सुखचैन ने भी चुप होकर नज़रें झुका लीं। अपने बहाव में बहती सत्ती वापस लौटते हुए पुन: बोली, ''अगर तुझे काम बिलकुल ही हाथ से निकलता दिखाई दे तो चुपचाप जैसा रम्मी कहे, कर लेना। मेरा मतलब कोर्ट मैरिज। बाकी काम तो होते ही रहेंगे। अगर कहीं मौका गवां दिया तो फिर रम्मी नहीं मिलने वाली।''
''हूँ ! ठीक है।'' सुखचैन ने उदास-सा हुंकारा भरा।
''मुलाकात तो होती रहती है न ?''
''दीवाली के समय मिली थी। उसके बाद तो वह गाँव ही नहीं आई। वैसे वह बहुत मायूस लगती थी। कह रही थी, मुझे हॉस्टल में कैद ही इसीलिए किया है कि घरवालों को मेरे पर शक है।''
''सुखचैन, तू अता-पता निकाल। मुझे तो तुम्हारी कहानी खराब होती लगती है।'' सत्ती की बातें सुनकर सुखचैन के कान एकाएक खुल गए। वह सोचने लगा कि बातें तो सत्ती की सही हैं, यूँ ही नहीं रम्मी मिन्नतें कर रही। घंटा, डेढ़ घंटा बातें करके वे उठ खड़े हुए। सुखचैन सत्ती को हॉस्टल छोड़ आया। वापस भारत नगर चौक में खड़ा होकर बस का इन्तज़ार करने लगा। फिर उसके मन में पता नहीं क्या आया कि हॉस्टल जाने के बजाय वह सुधार वाली बस में चढ़ गया। वहाँ पहुँचकर विक्की से उसे पता चला कि रम्मी को तो दुबारा देखा ही नहीं। शायद, हॉस्टल में से कभी वापस ही नहीं आई। सुखचैन का मन और उदास हो गया। वह वहीं से वापस हॉस्टल लौट आया।
सिमेस्टर आधा बीत गया था। रम्मी से मिले तीन महीने से ऊपर का समय हो गया था। पढ़ाई में वह इतना मग्न हो गया था कि उसने इस बात के बारे में अधिक कभी सोचा ही नहीं था। वह तो बस इतना जानता था कि जब भी रम्मी गाँव आई, उसका भाई तभी उसे आकर बता देगा। पर रम्मी तो गाँव में आई ही नहीं थी, सन्देशा कोई क्या देता। यह क्या बात हुई। इस बीच कितनी बार छुट्टियाँ पड़ी थीं, वह कभी तो गाँव में आती। फिर उसने विचार बनाया कि आगामी इतवार को पहले की भांति सत्ती के साथ सिधवां कालेज जाने का कार्यक्रम बनाया जाए। वह तभी सत्ती की तरफ चल दिया।
पिछली बार सत्ती ने स्वयं को रम्मी की कज़न बताकर रम्मी से मुलाकात की थी। वह स्वयं भी वहाँ रही थी इसलिए वह वहाँ के तौर-तरीकों से परिचित थी। अगले शनिवार को जाने का कार्यक्रम बनाकर सुखचैन अपने हॉस्टल लौट गया। तय समय पर वह सत्ती के पास पहुँच गया था। वहाँ से वे दोनों सिधवां कालेज की ओर चल पड़े। मुलाकात के दफ्तर में सत्ती ने अपने आप को रम्मी की कज़न और सुखचैन को अपने भाई के तौर पर लिखवाया। सुखचैन का नाम उसने वहाँ करनबीर लिखवाया। उसने यह भी लिखा कि वह यहाँ की स्टुडेंट रह चुकी है। सत्ती और करनबीर का उल्लेख पुराने रजिस्टर में मिल गया। बाकी रम्मी की कज़न बनकर सत्ती अभी कुछ समय पहले ही मिलकर गई थी। उन्हें जल्द ही मिलने की अनुमति मिल गई।
वह आगांतुक कक्ष में सोफ़ों पर बैठ गए। जब रम्मी को सन्देशा पहुँचा तो वह समझ गई कि सत्ती ही होगी। उसे सुखचैन ने ही भेजा होगा। वह दौड़ी आई। कमरे में प्रवेश करते ही सामने सुखचैन को बैठा पाकर उसका मुँह लाल सुर्ख हो उठा, उसकी आँखें सजल हो आईं। उसने शीघ्र ही सव्यं को संभाला। खुला कमरा था, इसलिए उसे संयम में रहना था। वह जुदाई का दर्द अन्दर ही पी गई। उसने चेहरे पर मुस्कराहट लालने का यत्न किया। उसका उड़ा हुआ चेहरा और रिक्त आँखें उसके दर्द की कहानी कह रही थीं। अधिकांश बातें उन तीनों ने इकट्ठा बैठकर ही कीं। रम्मी ने अपने घरवालों के मन्सूबे और आने वाले खतरों के बारे में उन्हें स्पष्ट बता दिया। सत्ती उठकर दरवाजे की तरफ चली गई। रम्मी की आँखें झर झर बहने लगीं। सिसकियाँ भरती उसने बमुश्किल स्वयं पर नियंत्रण किया।
''यह वर्ष तो चलो पूरा कराएंगे ही। आगे तुझे क्या लगता है?'' सुखचैन ने रम्मी से पूछा।
''देखो, पता नहीं। मम्मी के दिमाग में पता नहीं क्या है। अगर उसने पापा को बता दिया, फिर तो आगे पढ़ने का सवाल ही नहीं। अगर मम्मी चुप रही तो शायद अगले साल यहीं पढ़ती रहने दें।''
''अगर अगला एक साल किसी तरह निकल जाए, फिर हम नहीं रुकने वाले। बस, इसी एक साल की चिंता है।'' सुखचैन बेचैन सा बोला।
''देख सुख, समय अपने हक में नहीं चल रहा। हम जो भी करते हैं, वही उल्टा हो जाता है। तू यही सोचकर चल कि यही मेरा आखिरी साल है।'' रम्मी तपी पड़ी थी।
सुखचैन फिर उदास हो गया। वह आसपास खाली-खाली नज़रों से झांक रहा था।
''तू मेरी बात क्यों नहीं मानता ? आखिर पता तो चले, तू किससे क्या उम्मीदें लगाए बैठा है।'' रम्मी झुंझला कर बोली।
''रम्मी, उम्मीदें मुझे किससे लगानी हैं। मेरी तो वही घरेलू मजबूरियाँ है जो मेरे रास्ते में रुकावट बनी पड़ी हैं।''
''उन मजबूरियों की तरह तू इस प्रॉब्लम को भी मजबूरी क्यों नहीं समझ लेता। पहले इसे हल करें। बाद में तेरी घरेलू मजबूरियों से भी निबटेंगे। मैं तेरी हर मुश्किल में तेरे संग खड़ी होऊँगी। मेरा यकीन कर।''
''अगर तेरे पर यकीन नहीं होगा तो और किस पर होगा।'' सुखचैन के गले से बमुश्किल आवाज़ निकली।
''देख सुख, मैं तुझसे विनती करती हूँ। गुजरा हुआ वक्त हाथ नहीं आएगा। अगर ज़रा भी अवसर गवांया तो फिर पछताने के अलावा और कुछ नहीं रहेगा। बाद में तू तो दीवारों में टक्करें मारता घूमेगा ही, मैं भी सारी उम्र दोज़ख की भट्टी में जलती रहूँगी।'' रम्मी ने गालों पर लुढ़क आए आँसू पोंछे।
सत्ती से उसकी तड़प देखी नहीं जा रही थी। उसने रम्मी के कंधे पर हाथ रखा। रम्मी सत्ती से लिपट गई। सत्ती ने रम्मी को छाती से लगा लिया। ''देख, इस तरह बिलकुल ही दिल न छोड़। मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। पहले तो हम यह देखें कि छुट्टियों के बाद तुझे आगे पढ़ने के लिए भेजते हैं कि नहीं। पढ़ने या न पढ़ने के बारे में तो हमें पहले ही पता लग जाएगा। फिर हम तुरन्त ही कुछ कर लेंगे। इतना वक्त तो हमारे पास होगा ही।''
''इसका क्या पता। यह फिर कह देगा - मेरी मजबूरियाँ हैं।'' रम्मी सुखचैन के असमंजस को लेकर काफी दुखी थी।
''चल रम्मी, इसकी जिम्मेदारी मैं लेती हूँ। अगर कोई रास्ता न रहा तो यह वैसा ही करेगा, जैसा तू कहेगी। चल, अब छुट्टियों तक रुक जा।''
''पता नहीं क्यों मेरा दिल नहीं मानता। मुझे हमेशा यूँ लगता है कि कोई अनर्थ होने वाला है। हाय री मेरी बुरी किस्मत !'' कहकर उसने फिर सत्ती के गले में बाहें डाल दीं।
''चल, अब मूड ठीक कर। छुट्टियों तक हम यहाँ आते जाते रहेंगे। फिर कोई हल निकाल लेंगे।''
''ज़रा संभल कर आना, कहीं मम्मी को पता न चल जाए।'' रम्मी ने उन्हें सतर्क किया।
(जारी…)
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1 comment:

रूपसिंह चन्देल said...

भाई चहल जी,

उपन्यास का यह अंश भी पढ़ गया. वैसे पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद वास्तविक तस्वीर बन पाएगी. लेकिन मैं अपनी पहली बात पर अब भी कायम हूं. प्रारंभिक दो अंशों का प्रवाह और चित्रण की ताजगी उसके बाद के अंशों में दिख नहीं रही. इसका कारण शायद अधिक विवरणात्मकता है. यहां रम्मी प्रकरण को इतना खींचने की आवश्यकता नहीं थी. दो पैरों में कही जाने वाली बात को अधिक विस्तार देने से पाठक ऊब जाता है. खैर,

चन्देल