Sunday, April 4, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल

(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 7(प्रथम भाग)

यूनियन वाले फिरोजपुरियों के पैर तो पिछले साल ही उखड़ने शुरू हो गए थे। फिर उनका जुलूस नाकामयाब होने के कारण वे और भी पतले हो गए। धीरे-धीरे हर तरफ उनका ज़ोर घटता चला गया। रणदीप के प्रधान बनने से तो उनका बोरिया-बिस्तर ही गोल हो गया। गुरलाभ वाली फेडरेशन की हर ओर धूम मच गई थी। लेकिन लाला का क़त्ल होना और अर्जन के क़त्ल में फंसने के कारण वे उलझ गए थे। उन्हें पता नहीं लग रहा था कि वह आगे क्या करें। गुरलाभ मंत्री जी के पास जाना चाहता था, पर रणदीप का विचार था कि यह कोई सीधा क़त्ल नहीं है, पता नहीं किस तरफ मोड़ ले ले। अभी उन्हें सामने नहीं आना चाहिए। जब वारिस भी दिलचस्पी नहीं दिखा रहे और उधर पर्चा भी किसी खास आदमी के नाम नहीं था तो फिर पुलिस को क्या पड़ी थी कि यूँ ही इधर-उधर हाथ मारती घूमे। पुलिस अफ़सर का लड़का होने के कारण उसे पूर्ण विश्वास था कि पुलिस इस केस से पीछे हट जाएगी। जब एक बार शान्ति हो गई, फिर सिफ़ारिश लगवा कर अर्जन का नाम निकलवा लेंगे। अगर अब अर्जन पुलिस के हत्थे चढ़ गया, फिर क़त्ल का तो केस बेशक उस पर न पड़े, पर पुलिस बुरा हाल कर देगी। उसके विचार से सभी सहमत थे। उसके कहने पर सभी कक्षाओं में जाने लगें। अर्जन अभी हॉस्टल से बाहर नहीं निकलता था। कक्षाएँ लगानी उन्होंने इसलिए आरंभ कर दीं ताकि देखने वाले को वे स्वाभाविक से दिखाई दे। लाला का केस तो ठंडा पड़ता जा रहा था पर फिरोजपुरियों का लीडर गोगा और अन्य बाहरी लीडर पुलिस के पीछे पड़े हुए थे। पुलिस उनसे बड़ी तंग थी। इधर फेडरेशन वाले उनसे तंग थे और उधर पुलिस।
अर्जन आई.टी.आई. जाने के बजाए डिप्लोमा वाले हॉस्टल में इधर-उधर घूमता रहता था। मीता के पड़ोस वाले कमरे में रहता होने के कारण वह देख रहा था कि उसके कमरे को तीन दिन से ताला लगा हुआ था। एक दिन दोपहर के समय उसने देखा कि ताला खुला हुआ था। अन्दर से धीमी-धीमी आवाज़ें आ रही थीं। वह उधर गुरलाभ के कमरे से आया था। वापस गुरलाभ के पास जाकर उसने इस बारे में गुरलाभ को बताया। मीता हालांकि लड़ाकू किस्म का लड़का नहीं था पर था वह गुरलाभ के ग्रुप के साथ ही। सच्चा-सुच्चा और शरीफ-सा लड़का होने के कारण उसका सभी से प्रेम था। उस दिन उसके मुँह से आग बरसती देखकर सभी हैरान रह गए थे।
इधर रात को पेट भरकर रोटी खाने के बाद गमदूत और उसके साथी आराम से पड़ गए। पता नहीं कब के जगे हुए थे कि पड़ते ही सो गए और बारह-तेरह घंटे उनकी नींद न टूटी। अगले दिन दोपहर के समय मीता ने उन्हें जगाया। अगले दिन भी वे कमरे के अन्दर ही रहे। रात में रोटियाँ खाकर फिर सो गए। आपस में अधिक बातें न हुईं, न ही मीता ने अधिक विस्तार में कुछ पूछा। वर्तमान मौजूदा हालात पर बातें होती रहीं। मीता ने पुलिस के हाथों हुई अपने अपमान की बात अवश्य बताई। मीता को इतना तो पता लग ही गया था कि ये लड़के खाड़कू थे।
''भाई गमदूत, अगर तुम पुलिस वाले को और चिरंजी लाल को सोध दो तो एक बारगी तो कलेजा ठंडा हो जाए।''
''गुरमीत, हुआ तो तेरे संग बहुत जुल्म है, पर हमें और बहुत से काम हैं। हमें क्या एक्शन करना होता है, यह हमारे हाथ में नहीं। हमें तो ऊपर से हुक्म मिलता है।''
''यार, मेरे अन्दर तो आग लगी है। या फिर दो घंटों के लिए यह बंदे-खाणी एक मुझे दे दो।'' मीता ए.के. 47 की ओर देखता हुआ बोला।
''छोटे वीर, यह काम न करना। तू तो घरवालों का इकलौता पुत्र है। अगर कुछ हो गया तो माँ-बाप तो जीते-जी मर जाएँगे।''
''जगह-जगह ठाँय-ठाँय हुए जा रही है। यह कहाँ पता लगता है कि कौन कारनामा कर गया।''
''नहीं भाई, तू इस रास्ते पर न पड़ना। यह तो वन-वे स्ट्रीट है। अगर एकबार इस तरफ आ गया तो फिर लौट नहीं सकता। फिर तो जब कभी भी पड़ती है, मौत की रानी से ही जफ्फी पड़ती है।'' गमदूत मीते को सावधान कर रहा था। वह देख रहा था कि सीधे साधे से लड़के के अन्दर कितना ज़हर भरा पड़ा है। उधर मीता सोच रहा था कि रात के अंधेरे में वह संत राम या चिरंजी को ठिकाने लगा दे, यहाँ कहाँ किसी को पता चलेगा। उससे अपना अपमान बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। वे ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी। तीनों जने अपनी राइफ़लों की तरफ दौड़े। मीते ने कुर्सी पर चढ़कर दरवाजे के ऊपरी झरोखे में से बाहर झांका। उसने उन्हें राइफ़लें फिर से अल्मारी में रख देने का इशारा किया। बाहर अर्जन और गुरलाभ खड़े थे। उनके कमरे के बाहर से अन्दर होतीं बातें सुनकर अर्जन गुरलाभ को बुला लाया था। मीते द्वारा दरवाजा खोलने पर जब वे दोनों अन्दर आए तो अन्दर के सभी जन आराम से बैड पर बैठे बातें कर रहे थे। मीता ने परिचय करवाया। बताया कि ये लड़के यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और उसके गाँव के हैं। गुरलाभ को सभी जानते ही थे।
''मीते, तू क्लासें नहीं लगाता ?'' अर्जन ने सरसरी तौर पर पूछा।
''तू भी तो यहीं बैठा है, अपनी आई.टी.आई. नहीं जाता।'' मीता ने ठाँय से डंडा मारा।
''मेरे पीछे तो वो भैण... फिरोजपुरिया गोगा पड़ा हुआ है। अब मुझे क़त्ल के केस में फंसाने को घूमता है।''
''यार, सता रखा है इन यूनियन वालों ने तो।'' गुरलाभ की नाराज़गी बोली।
''हमने तो यूनिवर्सिटियों में से इनकी जड़ों को उखाड़कर ही साँस लिया। अब अकेली फेडरेशन रह गई है। कोई चूँ नहीं करता।'' गमदूत ने बात आगे बढ़ाई।
''किल्ले तो इनके यहाँ भी उखड़े पड़े हैं। अब तक भगा देने थे पर इस अर्जन वाली बात ने उलझा दिया हमें।''
''वैसे भाई मैं एक राय देता हूँ तुम्हें। जितना जल्दी हो इनकी जड़ें उखाड़कर इन्हें बाहर करो। नहीं तो ये टिक कर नहीं बैठेंगे, कोई न कोई पंगा डाले रखेंगे।''
''यही मैं सोचता हूँ कि कैसे करें ?''
''तुम एक बड़ा प्लैन बनाकर एकबार ही इनके सभी अड्डों पर अटैक कर दो। मार मार लाठियाँ टाँगे-बांहें तोड़ दो। ये तभी निकलेंगे यहाँ से। इन्हें यहाँ से निकाले बग़ैर शान्ति नहीं होगी।''
''वैसे तो हम भी बहुत हैं पर फिर भी और बंदों की ज़रूरत पड़ेगी। मैं सोचता हूँ कि आदमी गाँव से ले आऊँ या फिर क्या करूँ ?''
''भाई, हद हो गई। तुम भी फेडरेशन वाले हो और हम भी। अपना लक्ष्य भी एक है। तुम तैयारी करो, आदमी हम लाएँगे।'' गमदूत ने देखा कि बात उसकी सोच के मुताबिक आगे बढ़ रही थी।
''एक्शन बड़ा होगा। हथियार भी चाहिए होंगे। हमारे पास तो दो-तीन हैं जेब के खिलौने।''
''वे भी जैसे कहोगे, वैसे आ जाएँगे। तुम देर न करो। यह काम तुरत-फुरत का ही होता है।'' गमदूत गरम लोहे पर चोट करने को उतावला था।
''चल, आज शाम को करते हैं सलाह।'' इतना कहते हुए गुरलाभ ने उनके चेहरों की तरफ गौर से देखा। सात पत्तणों का तैराक गुरलाभ ताड़ गया कि ये लोग कोई पहुँची हुई चीज़ थे।
''तुम ऐसा करो। आज शाम को सबको इकट्ठा करो। हम भी आएँगे। फिर करके सलाह-मशविरा कल ही टंटा खत्म कर देते हैं।'' उठकर जाते हुए गुरलाभ को रोक कर गमदूत ने पक्का किया।
शाम को मैस टाइम के बाद गुरलाभ ने अपने लोगों को एकत्र किया। अगले दिन शाम को मैस के टाइम पर एक्शन करने का प्लैन बना लिया। इधर-उधर से आदमी इकट्ठे करने की ड्यूटियाँ लगा दीं। फिर उसने गमदूत से हथियारों के बारे में बात चलाई।
''देख भाई, इस एक्शन को हम तुम्हारा नहीं बल्कि फेडरेशन का समझ कर सपोर्ट करेंगे।''
''पर हथियार ? हथियारों के बिना मार न खा जाएँ।'' गुरलाभ को वाकई हथियारों की चिंता थी।
''हथियार सब होंगे। तुम्हारे हर ग्रुप के साथ मेरा एक हथियारबंद व्यक्ति होगा। लेकिन बिना ज़रूरत के हथियार का दिखावा नहीं करना क्योंकि हथियार अपने हैं ज़ोरदार। बिना मतलब उनकी नुमाइश करना ठीक नहीं। और यह भी एक उसूल है कि जहाँ रहना-ठहरना हो, वहाँ अपने आप को कम से कम शो करो। एक बात यह भी है कि मेरे आदमी परदे के पीछे रहेंगे। हथियार छिपाकर रखेंगे। पर अगर ज़रूरत पड़ गई तो फिर खील की तरह बिखेर देंगे। इस बात से तू बेफ़िक्र रहना।'' गुरलाभ हथियार देखना चाहता था, पर गमदूत भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेला हुआ था।
अगले दिन फेडरेशन के सभी बंदों ने अपने-अपने मोर्चे संभाल लिए। तीन नंबर हॉस्टल की मैस पहले खुलती थी। यूनियन वाले पाँच-सात जन जब पहली पारी की रोटी खाकर बाहर आकर लॉबी में खड़े हुए तो दोनों तरफ से ताबड़तोड़ लाठियाँ पड़ने लगीं। आठ-दस जनों के पास चार-चार फुट की लाठियाँ थीं। बड़ी-बड़ी लाठियाँ काट कर छोटी कर रखी थीं ताकि ऊपर छत में न अड़ें। सीढ़ियाँ किसी को भी नहीं चढ़ने दिया गया। बरसती लाठियों से बचने के लिए वे कैंटीन की तरफ भागे। कैंटीन की तरफ से आगे वे एक नंबर हॉस्टल की तरफ भागे। वैसा ही एक नंबर मैस में हो रहा था। पीटते हुए यूनियन वालों को खुले ग्राउंड की तरफ ले जाया गया। एक ग्रुप दो नंबर हॉस्टल की ओर से चीखता-चिल्लाता हुआ आ रहा था। फटे हुए सिर और टूटी हुई बांहें लेकर यूनियन वाले जिधर भी राह मिला, उधर ही भाग निकले। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए, फेडरेशन वालों की संख्या बढ़ती गई। ऐसा लग रहा था मानो गिनती के चोरों के पीछे पूरा गाँव पड़ गया हो। हर कोई सोटी-डंडा उठाकर फेडरेशन वालों के साथ मिल गया। अंधेरे का लाभ उठाकर यूनियन वाले खिसकने लगे। अर्जन की निगाह फिरोजपुरिये गोगे पर थी। वह उसे अभी तक दिखाई नहीं पड़ा था। आखिर एक ओर खड़े अर्जन ने उसे ऊपर तीसरी मंज़िल के कमरे में देख लिया। उसके शोर मचाने की देरी थी कि हुजूम ऊपर की तरफ दौड़ पड़ा। अर्जन नीचे ही छिप कर बैठ गया। जब हुजूम ऊपर पहुँचा तो गोगा ने नीचे छलांग लगा दी। गीली मिट्टी पर वह ऐड़ियों के बल आ गिरा। वहाँ से उठकर वह भागा तो उसने देखा कि उसके पीछे अर्जन था। नहर की पटरी पर चढ़कर उसे कुछ न सूझा तो उसने नहर में छलांग लगा दी। अर्जन उकड़ू होकर बैठ गया। आसपास देखकर गोगा तैर कर दूसरे किनारे की तरफ जाने लगा। पीछे से अर्जन ने उस पर गोली चला दी। तैरना छोड़कर पानी में डुबकियाँ लगाता गोगा पीछे की तरफ देखने लगा। अर्जन ने निशाना बांधकर एक ओर गोली उसके माथे में मारी। गुड़प-गुड़प करता दो मिनट के बाद ही वह वहीं पर शान्त हो गया। उसका शरीर गहरे पानी में हमेशा के लिए लुप्त हो गया।
बचे हुए गिने-चुने यूनियन वाले नहर के पुल की ओर भाग निकले तो आगे गुरलाभ का एक ग्रुप राह रोके खड़ा था। यहाँ कुछ मुकाबला भी हुआ। लेकिन यूनियन वाले यहाँ से भी जान बचाकर भागे। गुरलाभ पुल के एक सिरे पर अंधेरे में खड़ा था। उसके पीछे से एक यूनियन वाला हाथ में किरपाण लिए दबे पाँव उसकी तरफ बढ़ा। वह किरपाण का वार करने ही वाला था कि उसके बायीं ओर से ए.के. 47 की बरसती गोलियों ने उसके चिथड़े उड़ा दिए। सिर पर आ चढ़ी किरपाण देखकर तो एकबार गुरलाभ के होश उड़ गए थे पर तभी बायीं ओर से हुई गोलियों की बौछार ने उसे बचा लिया था। गोलियों की बौछार करके गमदूत ने राइफ़ल फिर से कंधे पर टांगकर उसे खेसी की बुक्कल के नीचे छिपा लिया। गुरलाभ के पास आता वह धीमे स्वर में बोला, ''तुझे कहा था न कि खास हथियार ज़रूरत पड़ने पर ही इस्तेमाल करना है। यूँ ही नुमाइश नहीं करनी।''
गुरलाभ को अब पता चला था कि गमदूत और उसके साथी कौन थे। लेकिन उसने यह रहस्य सिर्फ़ अपने तक ही रखा। उसके अतिरिक्त गमदूत और उसके साथियों के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था।
''ले पकड़ इसे पैरों से।'' दोनों ने उठाकर उसे नहर में फेंक दिया।
आधा-पौना घंटा चले आपरेशन ने इंजीनियरिंग कालेज में से यूनियन की जड़ें हमेशा-हमेशा के लिए उखाड़ फेंकी। सब तरफ फेडरेशन की चढ़त हो गई। फेडरेशन वालों के सभी जनों ने वापस लौट कर मैस में रोटी खाई।
''सो जाओ भाइयो अब कान तले बांह रख कर। दुश्मनों की जड़ें उखाड़ दी गई हैं।''
''और पुलिस ?'' किसी ने डर प्रगट किया।
''पुलिस नहीं कालेज में घुस सकती। बेफिक्र होकर जाओ।'' गुरलाभ ने सभी को भेजते हुए कहा।
अगले दिन अख़बारों में मुख्य ख़बर थी कि नहर के गिलां वाले पुल के पास दो खाड़कू ग्रुपों की आपसी टक्कर। कई ज़ख्मी। कुछ मरे।
सवेरे लड़के तैयार होकर मैस के बाहर मैस के खुलने की प्रतीक्षा में खड़े थे कि तभी पुलिस से भरी दो जीपें आ गईं। वे सीधी हॉस्टल में आ कर रुकीं। चीफ़ वार्डन अगली जीप में बैठा हुआ था।
''यह क्या ? चीफ़ वार्डन खुद हॉस्टल में पुलिस ले आया। पर यह तो खुद इस बात के खिलाफ है।'' लड़कों के चेहरे उतर गए। चीफ़ वार्डन ने लड़का भेजकर रणदीप को बुलाया। एक इंस्पेक्टर और चीफ़ वार्डन रणदीप को संग लेकर सामने मैस मैनेजर के कमरे में चले गए। सभी की साँसें रुक गईं। कुछ ही मिनट बीते थे कि अन्दर से रणदीप की रोने-चीखने की आवाज़ें आने लगीं। ''अरे, यह क्या माज़रा हुआ ?'' किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। गुरलाभ दौड़कर रणदीप के पास चला गया। सभी लड़के इकट्ठा होकर भौंचक से देख रहे थे जब इंस्पेक्टर अन्दर से बाहर निकला। वह आहिस्ता-आहिस्ता चलकर लड़कों की भीड़ के सामने आ खड़ा हुआ। ''देखो भाई, तुम सब जानते हो कि रणदीप के पिता जी पुलिस में इंस्पेक्टर थे। बड़े दुख की घटना है कि रात को आतंकवादियों ने उन्हें गोलियाँ मार कर मार दिया।'' इस दुखद घटना के बारे में बताकर इंस्पेक्टर जीप की ओर चला गया। रणदीप संभाले नहीं संभल रहा था। रोते-चीखते रणदीप का बुरा हाल था। उसकी पगड़ी उतरकर गिर पड़ी। केश बिखर गए। सदमा इतना गहरा था कि उसे अपनी कोई सुध-बुध नहीं रही थी। गुरलाभ, सुखचैन और हरकीरत उसे संभाल रहे थे। काफी देर बाद जब वह संभला तो गुरलाभ गाँव पहुँचने की योजना बनाने लगा। पुलिस वाले पहले ही एक जीप फालतू लेकर आए थे। गुरलाभ और सुखचैन भी रणदीप के साथ ही चले गए। गाँव पहुँचे तो वहाँ इतनी भीड़ थी कि तिल रखने को जगह नहीं थी। बड़े-बड़े नेता, पुलिस के बड़े अफ़सर, पुलिस डी.जी.पी. और अन्य बहुत सारे सरकारी अफ़सर वहाँ मौजूद थे। उसके बाद हवा में गोलियाँ चलाकर शहीद अफ़सर को सलामी दी गई। सरकारी सम्मान के साथ संस्कार किया गया। अखंडपाठ के भोग तक गुरलाभ और सुखचैन वहीं रहे। भोग के समय फिर बड़े अफ़सर उपस्थित थे। पुलिस के कुछ अफ़सर लगातार रणदीप को हौसला दे रहे थे। रणदीप के अन्दर भी आतंकवादियों के खिलाफ़ नफ़रत की ज्वाला धधक रही थी। फिर डी.जी.पी. ने अपने भाषण में पहले रणदीप के पिता की प्रशंसा की, फिर उसने रणदीप को पुलिस के नियमानुसार मृतक से एक पद नीचे के पद पर पुलिस में नौकरी देने का प्रस्ताव रखा। रणदीप मन ही मन पहले ही तैयार था। वह समझता था कि यही एक तरीका था, पिता के क़ातिलों से बदला लेने का। नियम के अनुसार उसे सब-इंस्पेक्टर के तौर पर भर्ती के कागज दे दिए गए और ट्रेनिंग पर भेजने का इंतज़ाम कर दिया गया। रणदीप एकबार गाँव गया तो फिर वापस हॉस्टल नहीं लौटा। लौटे सिर्फ़ गुरलाभ और सुखचैन ही। वे भी यार के बिछुड़ने पर बहुत दुखी थे।
(जारी…)
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2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

hmm, padh raha hu, thnx for the link

Anonymous said...

Harmohinder Chahalji, Thanks for making your upnayas available to us. It looks interesting. How can we get it in book form?

Happy writing and Best regards,

Archana Painuly