Sunday, May 9, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 9(शेष भाग)

रिम्पा एक कमरे में मुँह लटकाये उदास-से बैठे सेठों के पास आया।
''देखो सेठ साहिब, पार्टी में रहते हुए हमारा हर किस्म के लोगों से वास्ता पड़ता है। आप तो जानते ही हैं इस बात को। आगे से आगे टोह लगाते हुए मैंने एक बिचौलिये को ढूँढ़ लिया है। पर सेठ जी, वे पैसे बहुत मांगते हैं।''
''बाबू जी ठीकठाक तो लौट आएंगे ?'' सेठ का बड़ा बेटा बोला। रिम्पा भांप गया कि सेठों को पैसे की ओर से कोई चिंता नहीं।
''मैंने बहुत ज़ोर लगाया पर वे इससे नीचे उतरते ही नहीं। मैं तो कहता हूँ, हम पुलिस को केस दे देते हैं। इतने पैसे क्यों खराब करने हैं। एस.एस.पी. को मैं खुद कॉल कर देता हूँ। पुलिस उन्हें कैसे भागने देगी।'' रिम्पा अपनी ओर से पूरा सच्चा होना चाहता था।
''रिम्पा जी, पुलिस की बहादुरी तो हम सभी जानते हैं। आप पैसों वाली बात ही करो। पर मांगते कितने हैं ?'' वे रकम सुनने को उतावले थे।
''चलो, कहते हो तो हम पैसों वाली बात ही कर लेते हैं। पर उनका कहना है कि बाद में यह बात लीक हो गई तो तुम्हें और मुझे, मेरा मतलब हम सबको खील की तरह भून देंगे।''
''न जी न, बात इस कमरे से बाहर नहीं जाएगी। आप रकम बताओ कितनी मांगते हैं।'' बड़े सेठ ने जिम्मेदारी ली।
''पैसे मांगते हैं वे सात लाख। वह भी आज रात के बारह बजे से पहले पहले। बाबू जी सवेर को घर आ जाएँगे।'' रिम्पे की बात सुनकर सभी के चेहरों के रंग उतर गए। उन्हें तो लगा था कि दो तक काम बन जाएगा। सब तरफ चुप -सी छा गई। फिर बड़ा सेठ ही आगे हुआ।
''कोई बात नहीं। बन्दा ठीक चाहिए। पैसा तो हाथों की मैल है। चलो सब और जिस के पास जितने-जितने हैं, लेकर मेरे घर आ जाओ।''
''अच्छा रिम्पा जी, प्लीज यहीं पर रहना। हम आधे घंटे में आए।'' सेठ बाहर निकले तो रिम्पे के मुँह में पानी आ गया, ' लो, लक्ष्मी तो दीवारों में टक्करें मारती फिरती है और मैं आँखें मूंदे बैठा हूँ।' आधे घंटे बाद सेठ सात लाख वाला ब्रीफकेस रिम्पे के पास ले लाए। रिम्पे ने ब्रीफकेस पकड़ा और सभी को यह कहकर वापस लौटा दिया कि दिन चढ़ने से पहले-पहले बाबू जी घर पहुँच जाएँगे। फिर, दफ्तर का दरवाजा बन्द करके उसने ब्रीफकेस में से दो लाख निकालकर ताले वाली अल्मारी में रख दिया। इतने में गुरलाभ स्कूटर पर आ पहुँचा। ब्रीफकेस आगे करता हुआ रिम्पा बोला, ''धन्यवाद गुरलाभ, आज तूने मेरी इज्ज़त रख ली। और एक निर्दोष को बचा लिया। पूछ न भाई, जब से तू यहाँ से गया, ज़मीन पर ऐड़ी नहीं लगी। चलो, काम हो गया।'' ब्रीफकेस में से एक लाख बाहर निकालकर गुरलाभ ने ब्रीफकेस बन्द कर दिया। ब्रीफकेस उठाकर चलने लगा। गुरलाभ वह एक लाख रुपया रिम्पा को पकड़ाते हुए बोला, ''वे साले लगते हैं जो सारे ले जाकर उनके आगे रख दूँ। यह लो पार्टी फंड।'' इतना कहकर गुरलाभ बाहर निकल गया। रिम्पे को लगा मानो करंट लगा हो। वह अपने आप से बोला, 'बल्ले ओए रिम्पे, यह तो तेरा भी गुरू निकला।''
पैसे गुरलाभ और रिम्पे की जेब में पड़ गए। सेठ साहब घर में ठीक ठाक पहुँच गए। परिवार की सुरक्षा के भय से बात बाहर निकलने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता था।
छुट्टियाँ समाप्त होने से पहले पहले गुरलाभ ने ऐसे चार-पाँच एक्शन किए। उसका हाथ भी खुल गया था। उसकी रिम्पा के संग गहरी यारी भी हो गई थी। दूसरा, रुपये-पैसे की ओर से भी उसका हाथ अब तंग नहीं रहा था। उसने दो और कोठियाँ किराये पर ले लीं। एक कोठी तो उसने सिर्फ़ अपने लिए रख ली। यह कोठी उसे इसलिए पसंद आई थी कि इसके नीचे तहखाना बना हुआ था जिसमें जाने के लिए गुप्त स्थान से रास्ता नीचे उतरता था। मालिक अमीर कारखानेदार थे जिन्होंने तहखाना अपने मतलब के लिए बनवाया था। बाद में वे कहीं और रहने लग पड़े। खाली पड़ी कोठी गुरलाभ ने ले ली। इस कोठी के विषय में गुरलाभ ने किसी को भी पता नहीं चलने दिया। उसकी मन की इच्छा धीरे-धीरे पूरी होती जा रही थी। वह चाहता था कि उसका कम से कम दस लोगों का अपना ग्रुप हो जिसका वह प्रधान हो। सारे लुधियाना में उसका सिक्का चले। वह मनमर्जी के एक्शन करे। वह लुधियाने के रिम्पे जैसे अन्य लीडरों तक भी पहुँच बनाना चाहता था। लेकिन धीरे धीरे। वह जानता था कि यह काम धीरे-धीरे ही होगा।
इन एक्शनों से प्राप्त हुए पैसों में से थोड़े-थोड़े पैसे उसने अर्जन और जीते को भी दिए। अर्जन तो उसका बन चुका था। जीते के दिल में उसके लिए इज्ज़त के स्थान पर नफ़रत पैदा हो गई थी। दो दिन पहले जो कुछ नज़दीक के गाँव भट्टियाँ में घटित हुआ था, उसने जीते को परेशान कर रखा था। वहाँ गाँव में गुरलाभ ने किसी घर की निशानदेही पहले ही की हुई थी। उस दिन रात के दस बजे के बाद वे भट्टियाँ में दाख़िल हुए। गुरलाभ कहता था कि यह एक्शन हथियारों के लिए किया जा रहा था। जीता और गुरलाभ घर के दरवाजे के आगे खड़े हो गए। दीवार फांदकर अर्जन ने दरवाजा खुलवाया। फिर सभी अन्दर चले गए। घरवालों के तो होश गुम हो गए। गुरलाभ ने धकिया-धकिया कर पूरे परिवार को उठा लिया। सबको एक तरफ खड़ा कर लिया।
''जितने भी तुम्हारे पास हथियार हैं, बाहर ले आओ। हम कमांडो फोर्स के खाड़कू हैं। जल्दी करो।'' गुरलाभ ने आदेश दिया।
''हमारे पास महाराज हथियार कहाँ से आ गए। हम तो गरीब आदमी हैं।'' घर का बड़ा बुजुर्ग हाथ जोड़कर बोला।
''तुम मुझे पुलिस के मुखबिर लगते हो।''
एक नहीं तो दूसरा बहाना सही।
''नहीं सिंह जी, हम तो गरीब बाह्मण हैं। लोगों के ब्याह-शादियों में कामधंधा करके पेट पालते हैं।''
गुरलाभ ने चांदनी रात के उजाले में एक एक की ओर देखते हुए एक चेहरा पहचान लिया। पंडितों की नौजवान लड़की अपनी माँ के पीछे छिपने की कोशिश कर रही थी।
''अच्छा चलो, सब अन्दर चले जाओ।'' गुरलाभ ने कमरे की ओर इशारा किया। सब अन्दर चले गए। लड़की की उसने बांह पकड़ ली, ''तू हमारे लिए चाय बना।'' लड़की को बाहर रखकर बाकी लोगों को कमरे में बन्द कर दिया और बाहर से ताला लगा दिया। जीता घर के दरवाजे के आगे खड़ा था। अर्जन ताला लगे कमरे के आगे।
गुरलाभ बन्दूक की नोक पर उस लड़की को दूसरे कमरे में ले गया।
''जैसा मैं कहता हूँ, वैसा करती चल। नहीं तो सारे टब्बर को भून देंगे।''
''भा जी, रहम करो।'' लड़की गुरलाभ के पैरों में गिरते हुए बोली।
''मेरे पास टाइम नहीं। परिवार को बचाना है तो बैड पर चल।''
बाहर खड़े जीते के कानों में लड़की की चीख पड़ी। यह तो कहता था कि हथियार लूटने हैं। फिर यह शोर कैसा ? उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा था। कमरे से बाहर आकर गुरलाभ ने अर्जन को इशारा किया।
''जा अन्दर, तेरी बारी है।''
''नहीं भाई, चलो यहाँ से निकल चलो।'' अर्जन को भी लड़की पर तरस आ गया, पर गुरलाभ से डरता वह बोल न सका।
''जैसे तेरी मर्जी।'' गुरलाभ भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। बाहर खड़े जीते ने उनकी तरफ अजीब नज़रों से देखा।
''किसी ने गलत रिपोर्ट दी है। यहाँ कहाँ हैं हथियार।'' गुरलाभ जीते की ओर देखकर सीधा-सा बनते हुए स्वयं ही बोल पड़ा।
''न, हम क्या यहाँ इसी काम के लिए आए थे ?'' जीता नफ़रत में बोला। अब गुरलाभ समझ चुका था कि जीते को सारी बात का पता चल चुका था। उसने उसे दूसरी तरह से घेरना चाहा।
''इस कौम ने जो अपने संग किया है, वह क्या कम किया है।''
''क्या किया है इस कौम ने ?''
''पिछले दिनों दिल्ली के दंगों में क्या किया है ?''
''वो हिंदुओं ने नहीं, सारा काम कांग्रेसी लीडरों और उनके गुंडों ने किया है।''
''हरमंदर साहिब पर हमला।'' गुरलाभ ने उसकी दुखती रग छेड़नी चाही।
''वह केन्द्र सरकार की फौज़ ने किया।''
''तेरे तो कोई बात पल्ले ही नहीं पड़ती। तुझे मैं अब क्या समझाऊँ।'' गुरलाभ झुंझला गया।
''नहीं नहीं। तू बता, मैं समझ लूँगा।'' जीता भी गरम हो गया था।
''ओए, ये उन्हीं हिंदुओं की औलाद हैं जिन्होंने हमारे गुरुओं के साथ अत्याचार किए थे। हमारे गुरुओं को शहीद करवाया था।''
''सतीदास और मतीदास भी तो हिंदू ही थे जो नौवें पातशाह के साथ शहीद हुए थे।'' जीता गुस्से में हाँफने लगा। हाँफते-हाँफते वह फिर बोला, ''अच्छे बुरे लोग तो हर कौम में होते हैं।''
''उसके साथ सारी कौम का क्या कसूर हुआ। और यह कौन-सा तरीका है बदला लेने का कि गरीबों की बेटियों की इज्ज़त लूटो। वह भी बेबस माँ-बाप के सामने। धिक्कार है ऐसे एक्शनों पर। यह तो अपनी...।'' इससे आगे वह चुप हो गया। गुस्से में उससे बोला नहीं जा रहा था। उनकी बहस अर्जन को बढ़ती हुई लगी। उसने गुरलाभ का हाथ दबाकर उसे इशारा किया। फिर बोला, ''वैसे काम तो जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ। इस तरह तो हम लक्ष्य से भटक जाएँगे।''
''मुझसे यार इनके द्वारा हम पर किए गए जुल्म बर्दाश्त नहीं होते। मैं बस आपे से बाहर हो जाता हूँ। फिर पता नहीं चलता कि क्या करता हूँ, क्या नहीं।'' गुरलाभ ड्रामा करने लगा।
''गुरलाभ, आज की बात हम भूल सकते हैं, अगर तू भविष्य में ऐसा न करने का वायदा करे।'' अर्जन मीठा बनकर बात को खत्म करने लगा।
''चलो ठीक है। वायदा रहा, आगे मैं तुम्हारे हुक्म से बाहर नहीं जाऊँगा।''
''चल जीते भाई, हमने भी इस बात को यहीं खत्म कर दिया। इसने आगे की तौबा कर ली। हम भी यह बात अब भविष्य में नहीं करेंगे।''
''जैसे तुम्हारी मर्जी।'' जीते ने रूखा-सा जवाब दिया।
उससे अगले दिन भी जीते ने अर्जन से यह बात दुबारा की। पर अर्जन ने फिर उसे शांत कर दिया, ''जीते, अगर यह बात हमने आगे चलाई तो बाकी पार्टी मेंबरों को भी पता चल जाएगी। इस तरह पार्टी में फूट पड़ेगी। हम अपने लक्ष्य से भटक जाएँगे। बस भाई बनकर अब एक बार होंठ सिल ले। इसने वायदा कर लिया है। मैं भविष्य में इसकी जिम्मेदारी लेता हूँ।'' जीता भी पार्टी के बारे में सोच कर चुप हो गया। उधर गुरलाभ पछता रहा था कि अगर पहले पता होता कि यह ऐसा कट्टर है तो वह उसे संग ही न ले जाता। पर अर्जन ने उसे विश्वास दिला दिया कि जीता जुबान नहीं खोलेगा। अर्जन को तो यह भी डर था कि अपनी बात को दबाने के लिए गुरलाभ कहीं इसे यूँ ही न ठिकाने लगा दे। पर एक बार हालात संभल गए। सारी बातें सोचकर जीता चुप हो गया। कुछ ही दिनों में वे फिर आपस में घुलमिल गए। ऊपर से छुट्टियाँ भी खत्म हो गईं।
(जारी…)
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2 comments:

Anonymous said...

dekha padha...sukhhad anubhav
best wishes
-dushyant
sunday magazine incharge
DAIL NEWS
JAIPUR - 98290-83476
visit-
http://www.drdushyant.tk
http://www.dailynewsnetwork.in/humlog.aspx

Sanjeet Tripathi said...

hmmm, padha is kisht ko, aisa lagaa ki apas me matbhed rahe jarur the lekin samay hi batayega ki un matbhedo ka kya hu, so aage ka intejar hai.. hamesha ki tarah...