Sunday, July 4, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 14(प्रथम भाग)

शाम का वक्त था। बाहरवाली कोठी में सभी लड़के खामोश बैठे थे। अजैब की मौत ने सभी को उदास कर दिया था। जब से गमदूर ने इंजीनियरिंग कालेज में अपना बड़ा ग्रुप कायम किया था, तब से यह पहली बार हुआ था कि कोई अगली कतार का लड़का पुलिस मुकाबले में मारा गया था। शाम की मीटिंग भी उसे श्रद्धांजलि देने के लिए बुलाई गई थी। इधर के सभी लड़कों के अलावा अजैब का छोटा भाई राजा भी यहीं था। बाकी सारा परिवार उस दिन अजैब के साथ ही मारा गया था। उस परिवार का इकलौता सदस्य राजा ही बचा था। वह भी पुलिस से बचता इधर-उधर छिपता घूमता था। वह चुपचाप एक कोने में बैठा था। बाहर से वह शांत था पर उसके दिल के अन्दर पता नहीं क्या कुछ उबाला खा रहा था। कभी उसका मन भर आता। कभी उसकी मुट्ठियाँ भिंच जातीं। गहरी सोच में डूबे हुए राजा का ध्यान गमदूर की आवाज़ ने भंग कर दिया। गमदूर सभी के सामने खड़ा होकर बहुत उदास और धीमी आवाज़ में अजैब के बारे में बोलने लगा। उसके लिए यह घटना नई नहीं थी। उसके बहुत से साथी मुकाबलों में मारे जा चुके थे। वह स्वयं भी कई बार चल रहे मुकाबलों में से बच कर निकला था। कई अवसर ऐसे भी आए, जब उसने बुरी तरह पड़े घेरों के दौरान मौत की आँखों में आँखें डालकर देखा, पर अभी तक उसने मौत को मौका नहीं दिया था। इन्हीं हालातों ने उसे निडर बना दिया था। अजैब के विषय में बोलते हुए पहले उसने साथी के बिछड़ जाने पर अफ़सोस प्रकट करते हुए अजैब के अच्छे गुणों का जिक्र किया। उसने अजैब को कौम का शहीद करार दिया। फिर उसकी नरम आवाज़ धीमे-धीमे सख्त होती चली गई। इतिहास के बारे में बोलते हुए और शहीदों का उल्लेख करते हुए उसका भाषण जोशीला होता गया। उसके जोशीले भाषण ने नये लड़कों में जोश भर दिया। काफ़ी देर बोलने के बाद आखिर वह चुप हो गया। उसने एक शेर बोला। सभी की ओर देखकर फतह बुलाई।
''दोस्ती दे पंध ते चलणगे किन्ना कदम होर
ऐस गल्ल का फैसला आउंदे पलां दी गल्ल है
रोणा है बुझ गियां नूं जां जगाउंणै दीप होर
ऐस पल का फैसला हुण दे पलां दी गल्ल है।''
''भाई, इसका मतलब क्या है ?'' अचानक खड़े होते हुए राजा ने गमदूर से पूछा।
''इस महान काम की राह में चलते हुए किसका साथ कब तक रहता है, इस बात का पता तो आने वाले समय के हाथ में है, पर जो कुछ हमारे हाथ में अब है, उसका फैसला तो हमें अभी करना चाहिए न ?'' गमदूर ने अनौखे ढंग से जवाब देते हुए राजा से सवाल कर दिया। '' वह कैसे भाई ?'' राजा की भारी आवाज फिर उभरी। ''वह ऐसे है कि शहीद हुए साथियों को रो रोकर उनकी शहीदी मिट्टी में मिला दें या फिर उनके अधूरे छोड़े काम को पूरा करने के लिए नये योद्धों को इस जंग में उतारें।''
गमदूर की बात सुनकर राजा के अन्दर उबलता गुस्सा लावा बन गया। वह सीधा चलते हुए सामने मेज की तरफ बढ़ा। दीवार के साथ लगा कर रखी अजैब की राइफ़ल उठा ली। उसने राइफ़ल को छाती से लगा लिया। उसके होंठ फड़क उठे, ''अच्छा भाई अजैब सिंह, तेरा छोड़ा अधूरा काम अब राजा पूरा करेगा।'' गमदूर की प्रभावशाली बातों ने अन्य नये लड़कों के हौसले भी दुगने कर दिए। उधर नंद सिंह के मरने के बाद उसके बेटे को उसकी जगह पर भर्ती कर लिया गया था। इधर अजैब की जगह राजा ने ले ली थी। गिनती दोनों तरफ पूरी हो गई थी। दो गए तो दो नये आ गए।
मन तो गुरलाभ का भी उदास था। अजैब उसके साथ रहता रहा था। उसका चित्त तो इस ख़बर के मिलने से पहले ही उखड़ा हुआ था। सत्ती के जाने के बाद की उदासी से वह अभी तक पूरी तरह बाहर नहीं निकला था। यद्यपि उसने शुक्र मनाया था कि सत्ती अपने आप ही उससे दूर चली गई, पर वह सत्ती के बग़ैर इतना उदास हो जाएगा, यह उसने नहीं सोचा था। दूसरा यह कि उसकी पार्टी भी कोई बड़ा ऐक्शन नहीं कर रही थी। वह अपने ऐक्शन भी बहुत छिप कर करता था। उसे पता था कि गमदूर ने ब्लाइंड ऐक्शन का भेद जानने के लिए और अन्य ज़ोर-जबरदस्तियों का पता लगाने के लिए नाहर की ड्यूटी लगा रखी थी। नाहर की बातों से तो अभी तक यही लगता था कि उसे कोई पक्का सबूत अभी नहीं मिला था। अब तक तो गुरलाभ संतुष्ट था, पर वैसे वह जानता था कि एक दिन तो पता लग ही जाएगा। उसके पश्चात क्या होगा, इसका ठोस फैसला उसने अभी नहीं किया था। उसका अपना दल अरजन समेत सात-आठ जनों का बन चुका था। उसे हौसला था कि अगर ज़रूरत पड़ी तो वह अपने दल के सिर पर बराबर भिड़ सकता था। इन सारी बातों के बावजूद उसका मन उकताया-सा पड़ा था। वह कुछ नया करना चाहता था, पर क्या करे, इसका उसे पता नहीं लग रहा था। इस तरह उचाट-सा हुआ, अगली रात वह अरजन को साथ लेकर रेलवे लाइन की ओर निकल पड़ा।
तीन नंबर हॉस्टल के पीछे की ओर से होकर खेतों में से चलते हुए दोनों सड़क पर आ चढ़े। उन्होंने शहर की तरफ निगाह दौड़ाई। दो फर्लांग पर कस्सी का पुल था। साथ ही पंडित का खोखा। खोखे के सामने बड़े खम्भे पर लगी ट्यूब लाइट की रोशनी सड़क पर पड़ रही थी। कस्सी के पुल तक फिर भी अँधेरा ही था। सड़क के किनारे दोनों धीरे-धीरे कस्सी के पुल की ओर चल दिए। पुल पर पहुँच कर धुंधली-सी रोशनी में दोनों जने सड़क पार करके कस्सी की बायीं पटरी पर होकर पश्चिम दिशा की ओर चल पड़े। कुछ दूर जाकर पटरी छोड़कर बायें हाथ जाते खाल(रजबहे) की राह हो लिए। दोनों अपने ख़यालों में मगन चुपचाप चले जा रहे थे। आसपास भी गहरी रात की ख़ामोशी छाई हुई थी। अक्तूबर माह का मध्य चल रहा था। मौसम यद्यपि अभी थोड़ा गरम ही था, फिर भी धीरे-धीरे बहती हवा के कारण ठंड महसूस हो रही थी। आसपास झौने पक कर तैयार खड़े थे। हालांकि वे कुछ भी तय करके नहीं चले थे, पर इस खाल पर चलते हुए उन्हें रेलवे लाइन की तरफ निकल जाना था।
जब से गमदूर ने इन ब्लाइंड ऐक्शनों का पता लगाने के लिए नाहर की ड्यूटी लगाई थी, वह जिस किसी ऐक्शन की भी जानकारी इकट्ठा करता, वह सारी एक जैसी ही होती। प्रयोग में लाये गए हथियार उनकी पार्टी के हथियार से मेल खाते, ढंग-तरीके भी उनकी तरह ही होते, पर इससे आगे कोई सुराग न मिलता। ज़बर-जिनाह के मामलों में तो लोग मुँह ही नहीं खोलते। जो भी जानकारी उसे मिली, वह इधर-उधर से मिली अधूरी जानकारी थी। अब तक उसे कोई सफलता नहीं मिली थी। अजैब के मारे जाने का सुनकर आज वह भी अपने इलाके से लौटा था और गमदूर की ओर जा रहा था। कालेज के सामने दोनों गेटों के बीचोबीच चली जा रही ट्राली के पीछे से उतर कर वह दायीं ओर के खेत में घुस गया। खेतों में से ही होता हुआ वह पंडित के खोखे के पिछवाड़े पहुँच गया। खोखा बन्द था। वह एक तरफ ईंटों के बेंच पर बैठ गया। सुन्न पड़े खोखे के ठंडे बेंच पर वह सोच में डूबा बैठा था कि उसने कस्सी के पुल की ओर पदचाप सुनी। उसके कान खड़े हो गए। वह एक तरफ सरकता हुआ कोने वाले दरख्त के साथ लगकर खड़ा हो गया। उसने पुल पर निगाह दौड़ाई तो उसे दो आदमी सड़क पार करके कस्सी पर चढ़ते दिखाई दिए। अगला आदमी उसे परिचित सा लगा। जैसे ही दोनों साये कस्सी की पटरी पर चलते हुए उसके करीब से गुजरे तो दरख्त के पीछे खड़े नाहर ने उन दोनों को पहचान लिया। आगे गुरलाभ था और पीछे अरजन। ''हैं ! इस वक्त ये हथियार उठाये किधर जा रहे हैं।'' उसने मन में सोचा। रात में बिना किसी काम के कोई अपने ठिकाने से नहीं निकलता, यह उसे पता था। आया तो इस तरफ से वह इसलिए था कि पहले कुछ देर खोखे के पीछे बैठकर आसपास का जायज़ा लेगा, फिर आगे गमदूर के ठिकाने की ओर बढ़ेगा। पर अब गुरलाभ और अरजन को आगे-पीछे जाते हुए देखकर उसके मन में भी उत्सुकता जाग उठी। वह देखना चाहता था कि वे चुपचाप से किधर जा रहे थे। उसने खेसी की बुक्कल मारी। अपना हथियार टटोला। उनके पीछे चल पड़ा। दो-तीन किल्ले पार करके गुरलाभ और अरजन रेलवे लाइन के पास पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर जब वे खड़े हो गए तो नाहर भी पीछे ही खड़ा हो गया। वे आपस में थोड़ी-बहुत बातचीत कर रहे थे। दूर होने के कारण नाहर को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। धीरे धीरे बेआवाज़ चलते हुए वह अधिक से अधिक उनके करीब होकर बैठ गया। अब उसे उनकी बातें स्पष्ट सुनाई दे रही थीं। गुरलाभ और अरजन रेलवे लाइन के इस तरफ एक पुलिया पर आमने-सामने चौकड़ी लगाए बैठे थे।
''यह यार क्या हो गया ?'' अरजन की आवाज़ उदास और फिक्रमंद थी।
''क्यों, तूने पहले नहीं कभी सोचा था कि ऐसा हो सकता है ?'' गुरलाभ निधड़क था।
''यह तो कभी ख़याल में ही नहीं आया था।''
''क्यों, जब हम ऐक्शन करते हैं तो पुलिस नहीं कर सकती।''
''कर तो सकती है, पर पहले अपने संग ऐसी कोई बात नहीं हुई न। इस कारण यकीन नहीं होता। मानो अजैब यहीं कहीं फिरता हो।''
''अकेला अजैब क्या, यह तो किसी के संग भी हो सकता है। मुझे लगता है, तू काफ़ी डर गया है।''
''हाँ, गुरलाभ। सच बात है कि पहली बार बहुत डर लग रहा है। अब तो अपने से ज्यादा परिवार की चिंता सता रही है।''
''यह तो भाई साहब उस दिन सोचना था जिस दिन हथियार उठाये थे।'' गुरलाभ ने चोट की।
''हमने कौन सा सोच-विचार कर हथियार उठाये थे ?'' अरजन निराश-सा बोला।
''और फिर किसलिए उठाये थे हथियार ?''
''हम तो यार बस यूँ ही कालेज में बदमाशी किया करते थे। पता ही नहीं चला किस वक्त इस राह पर चल पड़े।''
''नहीं अरजन, मैं तो शुरू से ही पूरे होश-हवास में चल रहा हूँ।'' गुरलाभ बोला।
''मै तो भाई अब पछताता हूँ उस वक्त को कि क्यूं यूँ ही ऐंठ में आकर मार धाड़ करते रहे। क्या लेना था इन कामों से। अब न घर के रहे, न घाट के।''
''क्यों ? घर के, घाट के को क्या हो गया अब ?'' लगता था जैसे गुरलाभ को किसी प्रकार का कोई डर न हो।
''गाँव में पुलिस घरवालों को घसीटे घूमती है, इधर हम खुद कब के रूपोश हुए घूम रहे हैं। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि अब क्या होगा।''
''कुछ नहीं होता अरजन। यूँ ही न डर।''
''कहने से गुरलाभ सिंह, हालात नहीं बदलते। अब हम नामी खाड़कू हैं। सिर पर ईनाम रखा है पुलिस ने। असल में पूछता है तो मेरा इस लहर से कोई लेना-देना नहीं। कुछ अपनी ऐंठ में और कुछ तेरे पीछे चलते हुए पता नहीं मैं कहाँ पहुँच गया।''
''हर कोई अपना जिम्मेदार स्वयं है। मेरा नाम हर कोई पता नहीं क्यों ले लेता है।'' गुरलाभ गुस्से में पलटकर बोला।
''बड़े बड़े कारनामे भी तो तू ही करता है।'' अरजन ने हिम्मत करके सच कह दिया।
''क्या मतलब ?'' गुरलाभ खड़ा होने लगा।
''बैठ जा, बैठ जा। कुछ नहीं।'' उसे शांत करता अरजन इतना कहकर चुप हो गया। उसके जेहन में वे मौके घूमने लगे जब गुरलाभ जबरन किसी न किसी को हर ऐक्शन के समय अपने संग घसीट लेता था। फिर अगला किसी तरफ का नहीं रहता था। उसे वो दिन भी याद हो आया जब गुरलाभ ने जबरन अजैब को खाड़कू बना दिया था। 'पर यह खुद क्यों नहीं डरता ?' उसने मन में सोचा। 'इसकी सरकार में ऊपर तक पूरी पहुँच है। यह तो बच भी सकता है। इसलिए बेधड़क होकर रहता है। पर हमारे जैसों को तो अब पुलिस की गोली ही मिलेगी, जब भी मिली।' ऐसा सोचते ही उसे गुरलाभ किसी दैत्य की तरह लगा।
उधर कुछ दूरी पर बैठा नाहर उनकी बातों में से कोई अर्थ खोजने की कोशिश कर रहा था, पर उसके अभी तक कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा था। वह अभी कुछ सोच ही रहा था कि उसे फिर से उनका वार्तालाप सुनाई देने लगा।
''अब कैसे बिलकुल ही मुँह सिल लिया ?'' गुरलाभ अरजन की ओर देखता हुआ बोला।
''मैं तो यूँ सोचता था यार...'' अरजन बोलते-बोलते बीच में ही चुप हो गया।
''कैसे, कुछ बोल भी।'' गुरलाभ उतावला होता हुआ बोला।
''पुलिस तो जब आएगी, देखी जाएगी। कहीं उससे पहले ही न कोई पंगा खड़ा हो जाए।''
''वह कैसे ?''
''कहीं कंजर का जीता फौजी...।''
आगे उसकी बात रेल की तेज सीटी की आवाज़ में गुम हो गई। नाहर ने बायीं ओर देखा। दूर रेल गाड़ी ने मोड़ मुड़ते हुए लम्बी सीटी बजाई थी। उसे सिर्फ़ 'जीता फौजी' ही सुनाई दिया। वह मन में सोचने लगा कि इनकी कोई बात थी जिसके बारे में जीता फौजी को भी पता था। इतना सोचते हुए उसने सामने देखा। जो बात उसे आधी ही सुनाई दी थी, वह पूरी सुनते ही गुरलाभ बौखला गया था। उसने देखा कि गुरलाभ बेहद गुस्से में था। अरजन उसे शांत कर रहा था। नाहर ने बायीं ओर निगाह दौड़ाई। रेल गाड़ी की लाइट करीब से करीब आती जा रही थी। गाड़ी का शोर भी बढ़ गया था। अचानक गुरलाभ-अरजन की भागदौड़ ने नाहर का ध्यान फिर अपनी ओर खींचा। गुरलाभ अरजन को खींचता हुआ पीछे खेत की ओर हट रहा था। अरजन के रोकते रोकते गुरलाभ घुटने टेककर गाड़ी पर फायरिंग करने लगा। यह कोई पैसेंजर गाड़ी थी। गुरलाभ ने तीन चार गोलियों की बौछार की। गाड़ी आगे बढ़ गई। शोर कुछ कम हुआ तो नाहर को गुरलाभ की गुस्से में उभरती आवाज़ सुनाई दी, ''मैं तो फूंक दूँ दुनिया... जीता फौजी मेरे सामने क्या चीज़ है।'' इतने में दूर जाकर गाड़ी की गति धीमी होने लगी। कस्सी का पुल पार करके गाड़ी रुक गई। फिर गाड़ी में से फायरिंग होने लगी। गाड़ी में पुलिस थी जो प्रत्युत्तर में गोली चला रही थी। गुरलाभ और अरजन रेलवे लाइन पार कर दुगरी की ओर भाग निकले। नाहर भी अपने बचाव को गिल्लां की ओर भाग लिया। वह भागते हुए उनकी बातों के विषय में ही सोचे जा रहा था कि कोई बात ज़रूर थी, जिसके विषय में इन दोनों के अलावा जीता फौजी को भी पता था। अरजन किसी भेद के खुल जाने से डरता था। नाहर को इस बात की भी हैरानी थी कि गुरलाभ अपनी ओर से ये कैसे ऐक्शन किए जाता है। रेल गाड़ी पर फायरिंग करने का तो उसने कोई ऐक्शन नहीं सुना था। फिर यह क्या हुआ।
घंटा भर चलते रहने के बाद आगे आबादी आ गई। नाहर एक मकान के दरवाजे के आगे रुका। फिर वह मकान की दीवार के साथ लगता हुआ पीछे की ओर गया। मकान की पिछली खिड़की पर उसने खास ढंग से ठक-ठक की। लौटकर फिर मकान के सामने आ खड़ा हुआ। ऊपर चौबारे से किसी ने देखकर उसकी पड़ताल की और फिर दरवाजे के पास आकर सूराख में से देखते हुए दरवाजा खोल दिया।
''तू इस वक्त किधर से ?'' मीता ने धीमे स्वर में पूछा।
''बस, पूछ मत। बाकी कहाँ हैं ?'' नाहर ने अन्दर घुसकर दरवाजा बन्द करते हुए पूछा।
''मैं और केवल पहरे पर हैं। बाकी नीचे सोये पड़े हैं। गमदूर यूनिवर्सिटी की तरफ है कहीं।'' मीता उसके संग अन्दर जाते हुए बोला।
''मुझे तो यार गमदूर के संग बात करनी थी। आज मैं तो कुछ और ही देखकर आ रहा हूँ।'' बग़ैर सोचे नाहर के मुँह से एकदम ही निकला।
अगले पल ही नाहर ने बात पर विचार किया, 'अभी तक तो मुझे भी पूरा पता नहीं। गुरलाभ आदि के बीच बात क्या है। क्या मालूम अजैब वाली बात पर गुस्से में आए गुरलाभ ने गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग की हो। क्या पता वो कौन सी बात है जिसकी बाबत जीते फौजी का नाम उनकी बातों में उसने सुना था। अभी पूरा पता लगाना चाहिए। गुरलाभ के बारे में कोई बात नहीं करनी चाहिए। कहीं बिना किसी खास बात के यूँ ही आपस में दरार पड़ जाए।' चुप हुआ नाहर मन में कुछ सोचने लगा।
''मैंने कहा, बोलता नहीं ? क्या बात है ?'' उसे चुप देखकर मीता ने दुबारा पूछा।
''मैं तो यूँ ही बात करता था कि इधर पुलिस का दबाव बढ़ता जा रहा है। हमें ठिकाने बदलने चाहिएं।'' नाहर बात को टाल गया।
''हाँ, यह बात तो गमदूर भी करता था। भाई जल्दी ही नये ठिकाने खोजने चाहिएं। इधर का इलाका पुलिस की नज़र में आने वाला ही है।'' मीता ने पहले चली बात के बारे में नाहर को बताया।
''कुछ खाने को है ?'' नाहर भूखा था।
''रोटियाँ तो पड़ी हैं पर सब्जी वगैरह नहीं है। अचार से खा ले।''
''आगे का कोई प्रोग्राम ?'' रोटियाँ उठाते हुए नाहर ने पूछा।
''महिंदर ने कल बरनाला जाना है। जीता दो जनो को लेकर पहले ही गया हुआ है। उधर कोई ऐक्शन है। करीब दो हफ्ते वे उधर ही रहेंगे।''
''जीते से तो मुझे खास तौर पर मिलना था। वह अगले दो हफ्ते नहीं मिल सकता।'' रोटी खाता नाहर परेशान-सा हो गया। उसने पानी का गिलास पिया। खेस उठाते हुए अन्दर पड़ी चारपाई की ओर जाने लगा।
''अच्छा, तू सो फिर। मुझे तो तड़के जल्दी काम पर भी जाना है।'' मीता वापस चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। मीता छोटी-सी फैक्टरी में भेष बदलकर काम करता था।
(जारी…)
00

3 comments:

उमेश महादोषी said...

ये कितनी समस्या और कितना आतंक है, उत्सुकता बढ रही है।

Sanjeet Tripathi said...

hmm, kahani kafi rochak mod par pahuch rahi hai, aise mod par aaj khatm hui ki agli kisht ka wait kar pana mushkil hai....

ashok andrey said...

aapka yeh oopanyaas achchhi gatii pakad rahaa hai apne samay ki pehchaan tatha ooski samasyaon se rubroo karane me bhii saksham ban paa rahaa hai aur yahi iski visheshtaa bhii hai, badhai