Sunday, August 8, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 17
कई दिन सुखचैन चुपचाप रहा। घरवालों ने समझा कि जगह-जगह इंटरव्यू पर घूमता फिरता है, इस कारण शायद निराश था। उसे मौसी के परिवार की चिंता थी। उनके बचने का अब कोई रास्ता नहीं। अगर खाड़कुओं से बच रहे तो पुलिस नहीं छोड़ेगी। यदि पुलिस से बच गए तो ये नहीं छोड़ेंगे। बड़े बुरे दिन आए थे। वह दिनरात उन्हीं के विषय में सोचता रहता था। काम उसका चल रहा था। टाईम भी उसका वही था। सवेरे जाकर काम शुरू करवाता था। शाम को काम बन्द करवा कर घर लौटता था। जितनी भर तनख्वाह मिलती थी, उससे उसके इंटरव्युओं पर आने-जाने का खर्च चले जाता था। करीब दो हफ्ते बाद उसका पड़ोसी चाचा पंडित पूरन चंद मिला था। सवेरे जब वह काम के लिए निकल रहा था तो सामने से पूरन चंद घर की तरफ आ रहा था। सुखचैन चाचा से मिलने के लिए खड़ा हो गया।
''हाँ भई भतीजे, कैसा चलता है काम ?''
''बस, चाचा जी ठीक है।'' सुखचैन करीब आकर नमस्ते करता हुए बोला।
''क्यों ? कल तुझे चिट्ठी नहीं आई ?''
''चिट्ठी कैसी चाचा जी ?'' सुखचैन ने हैरानी में पूछा।
''जो तुमने सीवरेज बोर्ड की इंटरव्यू दी थी, उसका रिजल्ट निकला है। हमारे वाला तो सिलेक्ट हो गया है। कल ही उसे सिलेक्शन की चिट्ठी आई है।''
''अच्छा, पर मुझे तो कोई चिट्ठी नहीं आई।'' सुखचैन निराश-सा बोला।
''तुझे मैं एक बात बताता हूँ। सीवरेज महकमा इतना बढ़िया नहीं। अब कुछ ही दिनों में पब्लिक हैल्थ की भी नौकरियाँ निकलने वाली हैं। मंडी बोर्ड की भी नौकरियाँ निकलेंगी। मेरे हिसाब से सबसे बढ़िया महकमा तो नहर विभाग ही है। पोस्टें नहरी विभाग में भी निकलेंगी, पर अभी ठहर कर। तब तक ज्यादा सिफारिशी लड़के सीवरेज बोर्ड, पब्लिक हैल्थ और मंडी बोर्ड जैसे महकमों में चले जाएँगे। इसके बाद कम गिनती होने के कारण नहरी विभाग में नौकरी मिलनी आसान हो जाएगी। तू सीवरेज बोर्ड, पब्लिक हैल्थ या मंडी बोर्ड को छोड़, निगाह रख नहरी विभाग की नौकरी पर। वहाँ अपना आदमी भी है। वहाँ तेरी सिलेक्शन करवाने की मेरी जिम्मेदारी रही। अपने वाले को भी मैं नहरी विभाग में लगवाकर ही खुश हूँ। तब तक कहीं और नौकरी करता है तो करता रहे। तू अब किसी न किसी तरह जहाँ नौकरी कर रहा है, वहीं फंसा रह।'' पूरन चंद ने सुखचैन को हौसला दिया। सुखचैन निराश-सा काम पर चला गया। यद्यपि जैसे भी था, पर सीवरेज बोर्ड में सिलेक्शन न होने के कारण वह सारा दिन उदास रहा।
शाम को जब वह घर लौटा तो एक इंटरव्यू की चिट्ठी आई पड़ी थी। फिरोजपुर के नहरी विभाग की ओर से होने वाला यह इंटरव्यू चार दिन बाद था। इंटरव्यू वाले दिन तड़के जल्दी उठ कर तैयार होकर वह फिरोजपुर निकल गया। इंटरव्यू दो बजे शुरू होनी थी। वहाँ से नहरी कालोनी में जाकर उसे पता चला कि कुल आठ लड़के रखे जाने थे। इंटरव्यू आरंभ होने तक केवल सात लड़के ही मुश्किल से पहुँचे। कुछ दिन पूर्व हुई सीवरेज बोर्ड की सिलेक्शन के कारण बहुत से लड़के उधर चले गए थे। सुखचैन को कुछ आशा-सी बंधी। इंटरव्यू के समय जब उसने बताया कि इसी विभाग में वह पिछले कई महीनों से वर्क इंचार्ज के तौर पर काम कर रहा है तो उसके इस अनुभव ने इंटरव्यू लेने वालों को काफी प्रभावित किया। सप्ताह तक परिणाम बताने का कहकर सभी लड़कों को वापस भेज दिया गया। वह प्रसन्न-सा घर लौट आया। उसे लगता था कि शायद यहाँ काम बन ही जाएगा। पाँच-छह दिन बाद उसकी मुराद पूरी हो गई। फिरोजपुर सर्किल में उसे एडहॉक पर ओवरसियर रख लिया गया था। उसने मन ही मन पंडित पूरन चंद की दूरदर्शिता की दाद दी। उसने सोचा कि यही एडहॉक की नौकरी का अनुभव पक्की नौकरी के समय काम आएगा। उसकी नियुक्ति फिरोजपुर सर्किल के अबोहर डिवीजन में हुई थी। उसे अबोहर डिवीजन के दफ्तर जाकर हाज़िरी देनी थी। उसका भाई देबा उसे मुल्लांपुर से अबोहर वाली बस में चढ़ा गया। बस चली तो उसे अबोहर को लेकर पुरानी बातें याद आने लगीं। कभी इसी मुल्लांपुर के अड्डे तक वह, सत्ती और गुरलाभ इकट्ठे आए थे। कैसे वे उसे संग ले जाने के लिए ज़ोर डाल रहे थे। वे अबोहर शहर के बारे में कैसे उत्साहित होकर बातें किया करते थे। पता नहीं, किधर गए वे दिन। रम्मी विवाह करवाकर अमेरिका चली गई। दोबारा सत्ती का भी कोई पता नहीं चला और गुरलाभ तो...।
करीब दो बजे बस अबोहर अड्डे जा पहुँची। उसने फटाफट सामान रिक्शे पर रखा और नहरी कालोनी के लिए चल पड़ा। लगभग आधे घंटे के बाद उसे सात नंबर सब-डिवीजन में भेज दिया गया। इस सब-डिवीजन का एस.डी.ओ. भाग सिंह था। एस.डी.सी. ने काग़ज़ी कार्रवाई पूरी की और सुखचैन को चाय पिलाई।
''शाम में एम.डी.ओ.को मिलकर ही कहीं जाना।'' एस.डी.सी. हरजीत सिंह सुखचैन को समझा रहा था।
''पर एस.डी.ओ. साहिब यहाँ नहीं हैं ?'' सामने एस.डी.ओ. के दफ्तर की ओर देखते हुए सुखचैन ने पूछा।
''नहीं, बाहर काम पर गए हुए हैं। कंस्ट्रक्शन का काम पूरे ज़ोरों पर चल रहा है।''
''मेरा चाचा भी एस.डी.सी. है जी। पहले अखाड़ा कोठी में हुआ करता था, पर आजकल मुक्तसर में है।'' सुखचैन जान-पहचान बढ़ाने लगा।
''क्या नाम है ?''
''पंडित पूरन चंद। मलकपुर से।'' सुखचैन ने बताया।
''यार, पंडित के साथ तो मैं रहा हूँ। बहुत बढ़िया बंदा है। पर तेरा चाचा कैसे?''
''हमारे पड़ोसी हैं। बस, घरवाली बात ही है।''
''अच्छा अच्छा। फिर तो तू अपने घर का ही लड़का है।'' हरजीत की बातों से उसे अपनत्व-सा महसूस होने लगा।
''यहाँ कालोनी में रहने के लिए क्वार्टर मिल जाएगा जी कोई ?'' सुखचैन ने रिहाइश के विषय में सोचते हुए पूछा।
''ना ना, यह तो भूल जा। कालोनी है तो नहरी कर्मचारियों के लिए पर आधे से अधिक क्वार्टर दूसरे ही बाहर के महकमों वालें ने कब्ज़ा रखे हैं।''
''अच्छा जी।'' सुखचैन चिंतित-सा हो गया।
''रहने के लिए तो तेरा शहर में ही प्रबंध हो जाएगा। मैं चपरासी भेज दूँगा साथ।''
''यह तो बड़ी मेहरबानी होगी।''
''मेहरबानी वाली कौन सी बात है। वैसे मैं अभी सन्देशा भेज देता हूँ, धर्मशाला के मैनेजर को कि पाँच-सात दिनों के लिए एक कमरा चाहिए।'' हरजीत सिंह ने इतना कहते ही चपरासी को आवाज़ लगाई। उसे धर्मशाला की ओर भेजते हुए समझाया कि उसका नाम लेकर धर्मशाला के मैनेजर को एक कमरे के लिए कह आए। चपरासी चला गया तो सुनखैन ने बेचैनी-सी महसूस करते हुए हरजीत सिंह से पूछा, ''अगर कहो तो कल न मिल लूँ एस.डी.ओ. साहब को। मेरा मतलब है, मैं सवेरे का चला हुआ हूँ और बहुत थका हुआ हूँ। अब तो पाँच बजे दफ्तर भी बन्द होने वाला है।''
''नहीं, तू एस.डी.ओ. से मिले बग़ैर न जाना। इस महकमे में दफ्तर टाइम कोई नहीं। जब काम चल रहा होता है तो समझो कि चौबीस घंटे की ड्यूटी। फिर खाली। दफ्तर बन्द होने के बाद एस.डी.ओ. साहिब के घर जाकर इंतज़ार कर लेना।''
दफ्तर बन्द होने के बाद सुखचैन एस.डी.ओ. के घरवाले दफ्तर में जाकर बैठ गया। आठ बजे के करीब एस.डी.ओ. काम से वापस लौटा। सयानी-सी उम्र का सज्जन-सा एस.डी.ओ. घर आते ही पहले दफ्तर में बैठे सुखचैन से मिला।
''तेरी यह पहली नौकरी है ?'' एस.डी.ओ. भाग सिंह ने पूछा था।
''हाँ जी, नौकरी तो पहली ही है। मैंने कई महीने वर्क इंचार्ज का काम किया है। मुझे लेवल करने, बुर्जियाँ लगवाने, पलस्तर और चिनाई के सारे काम की जानकारी है। मैं यह सब कुछ करवाता रहा हूँ।''
''यह तो ठीक है। वैसे काम तो बहुत है। पर फिर भी मैं तुझे कुछ देर किसी के साथ अटैच कर देता हूँ। काम का और तजुर्बा हो जाएगा। उसके बाद तुझे एक इंडीपेंडेंट काम दे दूँगा।''
''ठीक है जी।''
''चल फिर सवेरे सात बजे आ जाना। मेरे साथ ही चलना, मैं तुझे सिद्धू ओवरसियर के पास छोड़ दूँगा।''
उसके बाद सुखचैन ने इजाज़त ली और पास वाली धर्मशाला में चला गया।
सफ़र का थका-टूटा सुखचैन सवेरे बमुश्किल सात बजे के करीब एस.डी.ओ. की कोठी पर पहुँचा। एस.डी.ओ. उसकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसके बैठते ही सरकारी जीप चल पड़ी। राह में एस.डी.ओ. उसे काम के बारे में समझाता रहा। जैसे ही वे कार्यस्थल पर पहुँचे, वहाँ सिद्धू ओवरसियर पहले ही आया खड़ा था। यह रसूलपुर माइनर था जहाँ सिद्धू के काम का एरिया था। सिद्धू को सुखचैन के बारे में समझा कर एस.डी.ओ. अगले कार्यस्थलों की ओर बढ़ गया। सिद्धू भी नई उम्र का ही लड़का था।
सुखचैन ने रिहाइश अभी धर्मशाला में ही रखी हुई थी। बाहर ढाबे पर रोटी खाकर रात को वह कमरे में आ जाता था। फालतू समय तो अभी था भी नहीं। सवेरे जल्दी काम पर जाना, अँधेरा होने पर काम पर से लौटना, यह हर रोज़ का रूटीन था। एक बात उसके लिए अच्छी हुई। सिद्धू ओवरसियर जिसके साथ उसे लगाया गया था, धर्मशाला के समीप ही कहीं रहता था। वह सुखचैन को अपने संग ही मोटरसाइकिल पर ले जाता था। साथ ही वापस ले आता था। कई बार तो सवेरे काम पर सुखचैन को छोड़कर वह कहीं ओर निकल जाता था, फिर शाम को ही लौटता था। सुखचैन से सारा काम संभाल लिया था। ठेकेदार और सिद्धू अपनी पीने-पिलाने की महफ़िल जमा लिया करते थे। हर दूसरे-तीसरे दिन एस.डी.ओ. देखता था कि सुखचैन लेबर के सिर पर खड़ा होकर काम करवा रहा होता। उधर सिद्धू और ठेकेदार महफ़िल जमाये बैठे होते। इन बातों ने एस.डी.ओ. के दिल में सुखचैन के लिए अच्छी जगह बना दी। फिर एक महीने बाद ही इसी रसूलपुर माइनर पर आगे एक अन्य ठेकेदार को काम अलॉट करके एस.डी.ओ. ने सुखचैन को उस काम का फुल इंचार्ज बना दिया। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। अब वह भी सब-डिवीज़न के चार अन्य ओवरसियरों के बराबर था। वह जी तोड़ काम करने लगा। काम की तरफ से उसने कभी शिकायत नहीं आने दी। काम चलता गया। गुजरते समय के साथ उसके अन्दर आत्मविश्वास आता गया। नये ठेकेदार ने उसे बाहर एक अच्छा कमरा दिलवा दिया। वह ठेकेदार के साथ ही काम पर आता-जाता था। दूसरों की तरह उसकी भी तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई होने लगी। वह घर पर पैसे भेजने लगा। एस.डी.ओ. की सलाह के अनुसार उसने सबसे पहले मोटरसाइकिल खरीदा। एस.डी.ओ. जानता था कि काम को तो निरंतर बढ़ते ही जाना था। इसलिए अपनी सवारी होना ज़रूरी था। सुखचैन शरीफ और सादा व्यक्ति होने के कारण एस.डी.ओ. का भरोसेमंद बन गया था। जहाँ पुराने ओवरसियर एस.डी.ओ. से चोरी ही सीमेंट और ईंटें वगैरह खपा देते थे, वहीं वह एस.डी.ओ. से किसी भी बात को छिपा कर नहीं रखता था। एस.डी.ओ. कहता था कि मैटीरियल न बेचा जाए क्योंकि कमाई के अन्य बहुत से साधन थे। सुखचैन उसके बताये अनुसार ही चलता था। फिर नहरी विभाग में सरकार ने ओवरसियरों के स्थायी पद निकाले। सुखचैन की सिलेक्शन इसी एस.डी.ओ. भाग सिंह ने अपनी सिफारिश से ही करवा ली थी। महकमें में भी उसकी अच्छी पोज़ीशन बन गई थी। अपने काम पर जाते समय वह एक नहरी कोठी के सामने से गुजरता था। वहाँ से गुजरते हुए उसे बचपन में देखे सपने याद आ जाते। बचपन में उसका सपना था कि किसी नहरी कोठी में वह ओवरसियर लगे। उसे अब कोई कमी नहीं थी, पर उसका मन किसी नहरी कोठी में लगने को मचलता था।
इधर से काम खत्म करते ही एस.डी.ओ. भाग सिंह के सब-डिवीज़न को सूलर माइनर की कंस्ट्रक्शन का काम अलॉट हो गया। यह माइनर काफी बड़ा था। यहाँ काम भी बहुत था। यह अबोहर शहर से काफी दूर पड़ता था। इस नये माइनर पर एस.डी.ओ. ने सबसे अधिक काम सुखचैन को दिया। उसका ठेकेदार भी पुराना ही था। दोनों की जोड़ी बनी भी बहुत बढ़िया थी। पूरी चढ़ाई के साथ उन्होंने नया काम आरंभ किया। उनका काम सबसे अधिक रफ्तार से चल रहा था। इस काम पर जाते हुए काफी दूर एक नहरी कोठी पड़ती थी- रतनगढ़। यह बिलकुल उजाड़ इलाका था। सुखचैन जब कभी उधर जाता तो उसका बड़ा मन होता कि वह इस कोठी का ओवरसियर लगे, पर अभी ऐसा होना आसान नहीं था क्योंकि जो ओवरसियर इस समय रतनगढ़ का इंचार्ज था, वह एक्सीयन का खास आदमी था। सुखचैन जब कभी भी कोठी की तरफ से गुजरता तो वह ललचाई नज़रों से उस कोठी की ओर देखता। अगले छह महीने बहुत ज़ोरों का काम चला। सुखचैन ने सूलर माइनर का काम भी खत्म कर दिया। अब तक वह चार पैसे कमा चुका था। उसकी घरेलू स्थिति भी ठीक थी। उसके हाथ में भी चार पैसे थे। अच्छा बैंक-बैलेंस भी बन गया था। फिर अचानक सीमेंट का अभाव हो गया। पीछे से सीमेंट आना बन्द हो गया। सब चलते काम रुक गए। ठेकेदार और मकहमे वाले सब खाली हो गए। ओवरसियर सारा दिन दफ्तर में बैठे गप्पें मारते। शाम को इकट्ठे होकर महफ़िलें जमाते। वह हालांकि इतना पियक्कड़ तो नहीं बना था पर वह भी इन महफ़िलों में लुत्फ़ उठाता। कई बार वह शहर में यूँ ही घूमता-फिरता रहता। अपने महकमे को छोड़कर स्थानीय तौर पर उसकी अन्य कोई जान पहचान नहीं बनी थी। शहर में घूमता कई बार वह सत्ती के विषय में सोचता। वह तो सत्ती का गाँव भी नहीं जानता था। गुरलाभ के ननिहाल वाले गाँव का अवश्य पता था। वह सीतो गुन्नों रोड पर जाते हुए अक्सर ही अमरगढ़ गाँव में से गुजरता था। यहाँ से निकलते हुए हमेशा ही उसका मन उचाट-सा हो जाता, 'गुरलाभ को क्या ज़रूरत पड़ी थी इस राह पर पड़ने की। यूँ ही भंग के भाणे ज़िन्दगी गवां ली।' वह मन में सोचता। जो हो गया था, वह तो हो गया था। अब उसके सोचने से क्या बनने वाला था। कई बार वह शहर में यूँ ही घूमता रहता। शायद कहीं सत्ती ही मिल जाए। उसे लोगों के इतने बड़े समूह में भी कोई परिचित चेहरा न मिलता। बस, वह व्यर्थ ही इधर-उधर चला फिरता। खाली बैठे का वक्त कहाँ बीतता था।
फिर सरकार ने नहरी विभाग के दो अलग अगल विभाग बना दिए। नए कंस्ट्र्क्शन विभाग को इरीगेशन कंस्ट्रक्शन बना कर इसका सबकुछ पृथक कर दिया। चलती हुई नहरों को संभालने वाला दूसरा विभाग इरीगेशन रनिंग बना दिया। पुराने एक्सीअन की बदली हो गई। वह अपने खास आदमी को रतनगढ़ कोठी से तबादला करवा कर अपने संग ही ले गया। फिर सुखचैन ने भाग सिंह, एस.डी.ओ. की मिन्नत करके उसकी सिफारिश से इरीगेशन रनिंग के आदेश करवा लिए और रतनगढ़ कोठी में पोस्टिंग करवा ली। यह उसके लिए सबसे अधिक खुशी का दिन था। उसका बचपन का सपना पूरा हुआ था। अब वह रतनगढ़ सैक्शन का इंचार्ज था। उसका हैड-क्वार्टर नहरी कोठी, रतनगढ़ था। उसने कंस्ट्रक्शन के कामों का चार्ज किसी दूसरे ओवरसियर को दे दिया। इधर से मुक्त हो गया। फिर उसने नए आदेशों के अनुसार एक्सीअन रनिंग के दफ्तर में उपस्थित होने की रिपोर्ट की। नए एस.डी.ओ. से मिलकर उसी दिन अपनी नई नियुक्ति अर्थात रनिंग सैक्शन, रतनगढ़ की ओर चल दिया।
अबोहर - बठिंडा हाईवे पर जाते हुए मलोट से थोड़ा आगे जा कर रतनगढ़ डिस्ट्रीब्यूटरी आ गई। यहाँ से उसने मोटरसाइकिल नहर की पटरी पर चढ़ा लिया। यहाँ करीब तीन मील के फासले पर कलेरां की झाल थी। यहीं से उसका एरिया रतनगढ़ सैक्शन शुरू होता था। झाल के पुल पर थोड़ी देर रुककर उसने गेज पर दृष्टि डाली। पानी का लेवल पूरा था। वह आगे बढ़ गया। अक्तूबर का महीना था। नहर के दोनों ओर नरमा और कपास के खेत सफेद चादर की तरह बिछे हुए थे। दोपहर ढलकर दिन का पिछला पहर हो चुका था। पिछले पहर की गुनगुनी धूप में धीमे-धीमे आसपास का मुआयना करता हुआ वह शाम होते तक रतनगढ़ कोठी पहुँच गया। कोठी का सारा स्टाफ उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी आमद का तार-घर में सन्देश पहुँच गया था। मोटरसाइकिल रैस्ट हाउस के बरामदे में लगा कर वह चबूतरे पर रखी कुर्सी की ओर आ गया। स्टाफ में से सबसे पहले मेट ने उसे फौजी ढंग से ऐड़ियाँ जोड़कर सलूट मारा। उसके चलने-फिरने और बोलने के तरीके से लगता था कि वह रिटायर्ड फौजी था। सलूट मारते ही मेट ने अपना नाम राम चंद बताया। फिर वह बाकी कर्मचारियों के विषय में बताने लगा। ज्यादातर बेलदार थे। बेलदारों के अलावा एक चौकीदार, माली, रसोइया और एक तार बाबू था। माली ने फूल बूटों की कटाई-छंटाई करके और पानी का छिड़काव करके नहरी कोठी दुल्हन की तरह सजा रखी थी। तार बाबू जगदीश चंद पढ़ा लिखा और समझदार व्यक्ति था। कोठी के कर्मचारियों से मिलने के बाद वह कोठी में इधर-उधर चहल-कदमी सी करता कोठी के गेट पर आ गया। गेट पर बोर्ड लगा हुआ था, ''नहरी कोठी, रतनगढ़''। उसे ख़याल आया, 'यही उसका सपना था, किसी नहरी कोठी में ओवरसियर लगने का।' गेट से उसने पश्चिम की ओर निगाह दौड़ाई। न कोई फसल, न ही कोई पेड़। बस, सब तरफ टीले ही टीले दिखाई देते थे। सूरज छिपने की तैयारी में था। वह डूबते सूरज की ओर चलता हुआ डिफेंस रोड के पुल पर जा पहुँचा। यहीं डिफेंस रोड नहर को काटती थी। उसने दायीं ओर दृष्टि घुमाई। सड़क की काली लकीर दूर तक दिखती दायें हाथ की ओर मोड़ मुड़ जाती थी। बायें हाथ पर डिफेंस रोड ऊपर की ओर चढ़ती टीले के ऊपर से गुजरती थी। वह बायीं ओर चल पड़ा। काफी दूर चढ़ाई चढ़कर वह टीले के बिलकुल ऊपर पहुँच गया। कुछ देर पहले जहाँ उसे सूरज का लाल रंग का गोला दिखाई दे रहा था, वहाँ वह अब स्वयं खड़ा था। टीले के शिखर पर खड़े होकर उसने आसपास नज़र दौड़ाई। उजाड़ जंगल बिलकुल शांत पड़ा था। दूर टीले की जड़ों में नहरी कोठी एक दरख्तों का झुंड-सा ही लगती थी। अस्ताचल की ओर हल्की सी लाली ही रह गई थी। चारों तरफ कालिमा-सी फैलने लग पड़ी थी। अँधेरा उतरने लगा था। वह टीले के बीच वाली पगडंडी से होता हुआ वापस कोठी पहुँच गया। अच्छा-खासा अँधेरा हो गया था। रसोइया ठंडी चाय लिए बैठा था। उसे आता देख वह शीघ्रता से ताजी चाय बना लाया। वह चबूतरे पर बिछी कुर्सी पर बैठ चाय पीने लगा। कोठी के सभी कर्मचारी अभी भी वहाँ इकट्ठे हुए बैठे थे। उसने सभी को जाने के लिए कह दिया। इतने में तार बाबू रजिस्टर लेकर आया।
''आप बाबू जी, नए हो न ?'' उसने नई-सी उम्र के सुखचैन को देखकर पूछा।
''हाँ, नहर मकहमे में किसी सैक्शन में पहली नियुक्ति है।''
''लो फिर अपनी पहुँच की एंट्री कर दो ताकि मैं आपकी पहुँचने की रिपोर्ट एक्सीअन दफ्तर को भेज दूँ।'' तार बाबू अनुभवी लगता था।
''तू खुद ही लिख ले, जो लिखना है। मैं दस्तख़त कर देता हूँ।'' सुखचैन के कहने पर तार बाबू ने रजिस्टर उसके आगे कर दिया। सुखचैन से दस्तख़त करवा कर वह तार घर की ओर मुड़ गया।
अगले दिन पंछियों के मधुर संगीत ने सुखचैन को तड़के ही जगा दिया। सुबह की ठंडी और ताजी हवा उसे बहुत भली लगी। उसने चौबारे पर से चारों ओर निगाह मारी। लगता था जैसे शांत बियाबान सूरज की किरणों की प्रतीक्षा कर रहा हो। कुछ देर बाद रात वाला सूरज का गोला पूर्व दिशा के टीले के शिखर पर से झांकता हुआ दिखाई दिया। वह उठकर नीचे आ गया। कुछ देर उसने सैर की। फिर नहा-धोकर तैयार हो गया। चाय-नाश्ता करके वह चबूतरे पर कुर्सी डालकर बैठ गया। इतने में तार बाबू जगदीश आ गया। उसने खुला रजिस्टर उसके सामने किया। रूटीन काम था, गेजें सब ठीक थीं। ऊपर से पानी ठीक आ रहा था। नहर के अन्तिम छोर पर पानी सही पहुँच रहा था।
(जारी…)
00

4 comments:

उमेश महादोषी said...

वातावरण का चित्रण बहुत अच्छा करते हैं ..........यह किस्त भी अच्छी लगी

Sanjeet Tripathi said...

to kahani ne aise mod liya, chaliye dekhte hain, aage-aage kya hota, yah shanti kisi bade visfot ki or ishara kar rahi hai aisa lagta hai.......agli kisht ki pratikshhaa me

ashok andrey said...

aapka yeh upanyaas ansh apni sahii gatii ke sath ek lambe saphar ki aur bad rahaa hai jo iski saphalta ka prichayak hai ummeed karta hoon ki iska ant bahut khoobsurat hogaa,badhai

सुरेश यादव said...

upanyas bahut hi sahaj rup men aage badh raha hai.ek saath padhane ka aanand alag hoga.badhai.