Saturday, August 28, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 19(प्रथम भाग)

गाँव मल्लसिंह वाला से बाहर एक ढाणी में मीटिंग चल रही थी। यह ढाणी थी सुखचैन की मौसी के लड़के दीपे की। मीटिंग की अगवाई कर रहा था बाबा बसंत। बाबा बसंत की लाख कोशिश के बावजूद कमांडो फोर्स का यह ग्रुप दो हिस्सों में बंट चुका था। एक ग्रुप तो बाबा बसंत के साथ था। दूसरे आठ-दस लोगों ने अपना लीडर बलविंदर रजोरी को चुन लिया था। बलविंदर रजोरी भी पुराना ईमानदार लीडर था। लेकिन अब वह भी बाबा के आदमियों को टेढ़ी नज़र से देखने लग पड़ा था। लगता था कि यदि दोनों ग्रुप अलग-अलग न हुए तो आपस में ही लड़ मरेंगे। आज का मुद्दा था आसपास की ढाणियों में हो रही वहशी कार्रवाइयों का। औरतों की लुटती इज्ज़त का।
''बाबा, वैसे तो तू कहता है कि माँ-बहनों की इज्ज़त बर्बाद करने वाले तेरे नम्बर एक दुश्मन हैं, पर अब तूने अपने आदमियों की लगामें खुली छोड़ रखी हैं।''
रजोरी ग्रुप में से किसी ने खड़े होकर बाबा से प्रश्न किया।
''ओए, करते यह काम तुम हो, सिर हमारे लगाते हो।'' बाबा के ग्रुप का एक व्यक्ति खड़ा होकर पूरे जोश में बोला।
''हमारे सिर लगाने से पहले तुम अपने आदमियों की लगाम कसो।'' दोनों ग्रुपों के लड़के 'तू-तू, मैं-मैं' करते एक दूसरे की ओर राइफ़लें सीधी करके खड़े हो गए। बाबा बसंत दौड़कर दोनों के बीच खड़ा हो गया, ''ओए, रब का वास्ता। क्यों आपस में ढह-ढह कर मरते हो।''
''बाबा, तू एक तरफ हो जा। हमें जिन पर शक है, उनका निपटारा कर लेने दे।'' तभी दीपे की माँ और भाभी दौड़कर बीच में आ गईं- ''रे ना रे बेटो, आपस में ना लड़ो।'' दीपे के पिता ने भी बीच में पड़कर उन्हें शान्त करने की कोशिश की।
''माता, तुम हमेशा इनकी मदद करते हो।''
''हमेशा हमारे में ही दोष निकालते हो।''
''इन्हें कुछ नहीं कहते क्योंकि ये तुम्हारे गाँवों की तरफ के हैं।
बाबा ग्रुप के कुछ लड़के दीपे के घरवालों पर गुस्सा निकालने लगे। उन्हें लगता था कि घरवाले उन्हें अच्छा समझते थे और उनको बुरा।
''रे बेटो, मेरे लिए तो तुम सब एक जैसे हो। मैं क्यों फ़र्क़ करूँगी।''
''आज तुम्हारी लड़ाई किस बात की है।'' दीपे के पिता ने रजोरी दल वालों से पूछा। वह बाद में आया था। उसे लड़ाई-झगड़े का कारण नहीं पता था।
''इनके कुछ लोग रात में लोगों के घर जाते हैं। घर के आदमियों को कमरों में बन्द करके औरतों के संग मुँह काला करते हैं।''
''यह काम हम नहीं, इनके लड़के करते हैं।'' बाबा के ग्रुप का कोई लड़का बीच में बोला।
''मेरी मिन्नत मानो तो पहले सब बैठ जाओ। हम बातचीत के रास्ते हल निकालते हैं।'' दीपे के पिता ने विनती करके सभी को बिठाया। फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''मैं तुम्हें एक राय देता हूँ।''
''क्या ?''
''तुम ऐसा करो। दोनों दलों के दो-दो लड़के चुनकर एक कमेटी बना लो। फिर वो कमेटी इन एक्शनों के बारे में पूछताछ करके असलियत का पता लगाये।''
उसकी कमेटी वाली बात सुनकर बाबा बसंत के दिमाग में एक बिजली-सी कौंधी। उसे वह बात स्मरण हो आई जब लुधियाना में उन्होंने ऐसी घटनाओं के जिम्मेदार गुरलाभ को खोज निकाला था।
''मेरी दोनों धड़ों से एक विनती है। मुझे लगता है कि यह काम कोई बाहरी बन्दा कर रहा है।'' बाबा बसंत अचानक खड़ा हो गया।
''बाबा यह बात किस आधार पर कह रहे हो।'' रजोरी दल में से ही कोई बोला।
''मैं ऐसे केस से पहले भी निपट चुका हूँ। मुझे तुम चार दिन का समय दो। बन्दे तुम्हारे सामने ला दूँगा। अगर फिर भी न कुछ बना तो मैं अपना ग्रुप लेकर यहाँ से चला जाऊँगा। यह मेरा वायदा रहा।'' उसकी दलील के सम्मुख कोई नहीं बोला।
सभी उठकर अपने-अपने कमरों की तरफ चले गए।
बाबा ने अपने संग दो व्यक्ति और लिए और खेतों की तरफ निकल गया। वे चले भी जा रहे थे और आपस में सलाह-मशवरा भी कर रहे थे। अचानक उन्होंने दायें हाथ एक ढाणी देखी। दरवाजा खुलवाकर वे अन्दर चले गए। उनके चोले और लम्बी दाढ़ियाँ देखकर घर के मालिक के मन में पता नहीं क्या आया कि उसने पगड़ी उतार कर बाबा बसंत के पैरों में रख दी। उसके पैर पकड़ते हुए मिन्नत की, ''खालसा जी, पहले मेरे गोली मार दो। फिर जो चाहे करना। इतनी जिल्लत बर्दाश्त से बाहर है।''
''बात क्या है ?'' बाबा ने पैर पीछे हटाते हुए पूछा।
''बात अब खालसा जी आपसे कहाँ छिपी है ?''
''नहीं, मुझे कुछ नहीं पता। हम तीनों तो तुम्हारे घर पहली बार आए हैं।''
''मैं अपने मुँह से कैसे कहूँ। आपके ही बन्दे आते हैं। नित्य। कभी दो होते हैं, कभी तीन। मुझे और मेरे बेटों को कमरों में बन्द करके मेरी बेटियों...।'' इससे आगे उससे बोला न गया।
''खालसा जी, मेरी एक बात सुन लो ध्यान से। वे हमारे आदमी नहीं। सच पूछो तो हम भी उन्हें ही तलाश रहे हैं। हमें उनके बारे में कुछ बताओ, कोई निशानी, कोई नाम। कुछ भी।'' बाबा को लगा कि अब तो वे आदमी पकड़े ही गए।
''तीन चार तो जी साधारण-से लगते हैं। एक जो उनका लीडर है, वो सरदार सा लगता है। सामने तो वे काका जी कहते हैं। बाद में कई बार उसका नाम भी लेते हैं।''
''क्या नाम है ?''
''गुरलाभ।''
बाबा बसंत के कानों में सांय-सांय होने लगी। शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। गुस्सा ज्वाला बन उठा। 'जिसे कब से खोजता फिरता था, वो तो बिलकुल सामने ही बैठा है।' बाबा ने मन में सोचा।
''अच्छा, हम छिपकर बैठते हैं। शायद आज आएँ।''
''इंतज़ार करना है तो कर लो। मुझे तो लगता है, उनका अड्डा भी करीब ही है।''
''अड्डा करीब ही है। करीब कहाँ ?''
''ये सामने वाली नहरी कोठी- सोहणके।''
''हैं ! यह कोठी ?'' बाबा को अपने आप पर अफ़सोस हुआ कि सामने नज़दीक ही खाली पड़ी कोठी की तरफ उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया।
''अच्छा, हम फिर लौट कर आते हैं।'' इतना कहकर बाबा साथियों को लेकर नहरी कोठी सोहणके की ओर चल पड़ा। गोरा, जीवन और गणेश शराबी हुए खुर्राटे भर रहे थे। बाबा और उसके साथियों ने पहले उनके पास पड़े हथियार अपने कब्ज़े में लिए। फिर उन्हें काबू में कर लिया। उनकी खूब मार-पिटाई की गई। उन्हें गुरलाभ के एक ही अड्डे का पता था। वह था नवदीप का कमरा। बाबा ने उन तीनों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया। फिर वे गुरलाभ को लेकर सोचने लगे।
''हम यहीं उसका इंतज़ार करते हैं। अपने अड्डे पर तो आएगा ही।'' एक जन का विचार था।
''नहीं, वह काला कौआ है। यहाँ नहीं अब वह आएगा। जितना शीघ्र हो सके हमें उसे फिरोजपुर जाकर दबोचना चाहिए।'' बाबा बसंत ने सुझाव दिया।
''इस वक्त जाने का क्या बंदोबस्त करें ?''
''वक्त को क्या है। दिन चढ़ने वाला ही है। दीपे को मंडी में भैंसों को लेकर जाना है, बेचने के लिए। उसी ट्राली में चलते हैं।''
''ठीक है। हो सका तो उसे जिन्दा ही पकड़कर ढाणी पर लेकर आना है। बड़ा नुकसान किया है उसने लहर का।'' बाबा के मन में दुख की लहर-सी उठी। आज गुरलाभ नवदीप के पास शहर में ही रुक गया था।
जब तक बाबा और उसके साथी ढाणी पहुँचे तब तक दीपे का सीरी भैंसें ट्राली पर चढ़ा कर फिरोजपुर जाने के लिए तैयार खड़ा था। यह बात बाबा बसंत ने अपने साथियों को पहले ही समझा दी कि जब तक गुरलाभ पकड़ा या मारा नहीं जाता, तब तक किसी भी बात का शेष साथियों से जिक्र नहीं करना। अब तक सोहणके कोठी में क्या हुआ, किसी को भी पता नहीं था। बाबा और उसके साथियों ने ढाणी पहुँचकर हथियार संभाल कर रख दिए। खेत-कामगरों वाले कपड़े पहनकर ट्राली में चढ़ गए। हथियार उन्होंने अपने फिरोजपुर वाले ठिकाने से उठाने थे। अलग-अलग ठिकानों पर हथियार पड़े रहते थे। जहाँ ज़रूरत होती, वहीं इस्तेमाल कर लिए जाते थे। दिन चढ़ते को ट्रैक्टर सादिक पहुँच गया। आगे, थाने के पास पुलिस ने नाका लगा रखा था। अन्य लोग भी शहर की तरफ पशु खरीदने-बेचने जा रहे थे। नाके पर बाबा और उसके साथियों को नीचे उतार कर तलाशी ली गई।
''किधर जा रहे हो ?''
''जी, भैंसें बेचने मंडी जा रहे हैं।''
वहाँ से क्लीअर होकर वह आगे चल पड़े। वे कुछ ही दूर गए होंगे जब उनके पास से गुरलाभ कार लेकर गुजरा। उसने ठाठा बांधकर मुँह-सिर लपेट रखा था। ट्राली में खड़े बाबा बसंत को लेकर उसे शक-सा पड़ा। थोड़ा आगे जाकर उसने कार रोक ली। उसने अपना चेहरा और अच्छी तरह से ढक लिया। कार मोड़कर वह फिर फिरोजपुर की तरफ चल दिया। ट्राली में दो भैंसें खड़ी थीं। एक तरफ ट्राली की सपोर्ट को पकड़े बाबा बसंत और दो अन्य जन खड़े थे। ट्रैक्टर के खड़के में उन्होंने पीछे आती कार नहीं देखी। गुरलाभ ने ट्राली के बिलकुल करीब कार को लाकर बाबा बसंत को पहचान लिया। 'बगल में लड़की, गाँव में ढिंढ़ोरा' उसकी बांछे खिल उठीं। उसे ट्राली को क्रास नहीं करना पड़ा। आगे किसी गाँव का बस-अड्डा आ गया था। उसने कार को एक तरफ लगा दिया। ट्राली आगे जा चुकी थी। कुछ पल उसने बैठकर सोचा कि क्या किया जाए। अब अवसर रणदीप के ऊपर होने का था। वह पी.सी.ओ. पर गया। अबोहर एस.पी. के दफ्तर में फोन मिलाया। पता चला कि एस.पी. रणदीप तो फिरोजपुर ही था। उसने अबोहर के दफ्तर से रणदीप का फिरोजपुर वाला कंटेक्ट नंबर पूछा।
''नहीं जी, वह नहीं दे सकते।'' उधर से जवाब मिला।
''देखो मैं उसका खास सोर्स हूँ। उनसे बात होनी बहुत ज़रूरी है।''
''अपना नाम या कोई कोर्ड वर्ड बताओ, फिर हम साहब से पूछकर ही उनका नंबर दे सकते हैं।''
''कोड नंबर... कोड नंबर… नंबर है- रेड हाउस, लुधियाना।''
''अच्छा, एक मिनट होल्ड करो।''
गुरलाभ ने फोन होल्ड कर लिया। उधर कोई दूसरे फोन पर रणदीप से बात कर रहा था। गुरलाभ का दिल धक-धक किए जाता था। बाबा बसंत कहीं खिसक न जाए। ''एक मिनट रुको जी, साहब सीधे ही लाइन पर आते हैं।'' रणदीप रेड हाउस सुनते ही समझ गया कि फोन गुरलाभ का था। उसने आगे से आगे लाइन मिलाने के लिए कहा।
''हैलो।''
''हैलो गुरलाभ, तू दुबारा मिला ही नहीं।'' रणदीप अपनेपन की एक्टिंग करने लगा।
''तू तो बहुत खोजता रहा।'' गुरलाभ ने व्यंग्य में चोट की।
''एक मिनट होल्ड कर।'' रणदीप ने गुरलाभ को बोलने से रोका। फिर बोला, ''रास्ते के रसीवर बन्द करो। कोई बातचीत न सुने।'' रणदीप की डांट सुनते ही दोनों तरफ के आपरेटरों ने फोन रख दिए।
''हाँ, अब बता गुरलाभ क्या कह रहा था।''
''मैं कहता था कि तू तो मेरे पीछे चोर की तरह पड़ गया। पहले पुलिसवाले को सी.आई.डी. बनाकर मेरी ननिहाल भेजा, फिर आप भी...।'' इसके आगे गुरलाभ चुप्पी लगा गया। वह बातचीत में रणदीप के ऊपर होना चाहता था।
''वे बातें तो मिलकर भी कर सकते हैं। अब की इमरजैंसी के बारे में बता।'' रणदीप मधुर आवाज़ में बोल रहा था।
''जिसने मलोट-अबोहर में आतंक मचा रखा है, जिस खातिर तुझे मंत्री जी स्पेशयली अबोहर में लाए हैं, अगर उससे मिलवा दूँ तो ?''
''तेरा मतलब बाबा बसंत से ?'' रणदीप के अन्दर भी खुशी नृत्य करने लगी।
''हाँ, बाबा बसंत। सारा इनाम तेरा। बल्ले-बल्ले तेरी। प्रोमोशन तेरी। पर मुझे क्या मिलेगा ?'' गुरलाभ गंभीर हो गया था।
''तुझे मैं खाली चैक देता हूँ, जो चाहे भर लेना।'' रणदीप ने सोचा कि मलोट-अबोहर के एरिये में बाबा बसंत, बाबा बसंत हुई पड़ी थी, अगर उसे वह मिल गया तो लोगों और खास तौर पर मंत्री जी की नज़रों में हीरो बन जाएगा।
''पुलिसवाले झूठे वायदे करके मुकर जाया करते हैं।'' गुरलाभ सुनिश्चित कर लेना चाहता था।
''बच्चे की सौगंध है गुरलाभ। मैं वायदे से नहीं फिरता।''
''एक बात और। वे जा रही ट्राली रोक पर चढ़े हैं। मेरा मतलब ट्राली वाले का कोई कसूर नहीं। उसे नहीं छेड़ना।'' गुरलाभ लम्बे झमेले में पड़ने से डरता था।
''यह भी वायदा रहा।''
''अच्छा, सुन फिर...।'' इसके बाद गुरलाभ ने सारी सूचना रणदीप को दे दी। रणदीप ने तुरन्त कमांडो तैयार किए। फिरोजपुर सादिक रोड के ऊपर नाका लगा लिया। बाबा बसंत और उसके साथी निश्चिंत होकर आ रहे थे। आजकल जगह-जगह नाके लगे रहते थे। पुलिसवाले तलाशी लेकर चलता कर देते थे। रणदीप नाके वाली झोपड़ी के अन्दर बैठा था। कई वर्ष पहले देखे बाबा बसंत को वह अब भी पहचान सकता था। दूर से आती ट्राली में लम्बे ऊँचे बाबा बसंत को खड़े उसने दूर से ही देख लिया। उसने अपने आदमियों को इशारा किया। नाकेवालों ने हाथ देकर ट्राली को रोका। काफी लोग ट्राली की ओर भाग कर आते देख बाबा बसंत और उसके साथियों को शक हो गया। वे छलांगे लगाते भाग निकले। कमांडो पुलिस वाले भी पीछे दौड़ पड़े। ट्राली वाला ट्राली चलाकर निकल गया। बाबा बसंत और उसके साथी निहत्थे पुलिस के जाल में से भागने में सफल न हो सके। भागते जाते बाबा बसंत ने सायनाइड का कैपसूल निगल लिया। उसे ऐसा करते देख उसके साथ भाग रहे दूसरे साथी ने भी सायनाइड का कैपसूल खा लिया। तीसरे के पुलिस वालों ने गोली मारी। तीनों मारे गए। जब रणदीप करीब पहुँचा तो बाबा बसंत के मुँह से झाग निकल रही थी।
''इन्हें जल्दी उठाओ, ट्रक में फेंको।'' रणदीप फुर्ती से दिमाग लड़ा रहा था।
तीनों को ट्रक में फेंक रणदीप स्वयं भी आगे ड्राइवर के साथ बैठ गया। जल्दी से जल्दी उसने ट्रक को अबोहर वाली अपनी सरकारी कोठी पर जा लगाया। वह शाम होने की प्रतीक्षा करने लगा। अच्छा-खासा अँधेरा होने पर उसने वही ट्रक मलोट रोड पर डाल लिया। बिजली बोर्ड के बड़े दफ्तर से पहले ही दायें हाथ ट्रक को खेतों में जा खड़ा किया। तीनों की लाशों को दूर-दूर फेंक दिया। उनके हाथों में राइफ़लें पकड़ा दीं। फिर नौ बजे के करीब उसने अपने आदमियों को इशारा किया। उसके पुलिसवालों ने लाशों के आसपास बैठकर ऊपर की ओर गोलाबारी शुरू कर दी। उधर रणदीप ने सभी स्थानीय अख़बार वालों को फोन पर खबर देना शुरू कर दिया। रणदीप ने अपने पूरे सोर्स लड़ाते हुए यह खबर टी.वी. पर प्रसारित करवा दी। साढ़े नौ बजे के करीब टी.वी. यह खबर दे रहा था, ''पिछले दो महीनों से मलोट-अबोहर के इलाके में आतंक मचाने वाले कमांडो-फोर्स के खूंखार आतंकवादी बाबा बसंत को पुलिस के जांबाज अफ़सर एस.पी. रणदीप ने घेर लिया है। दोनों तरफ से ज़बर्दस्त गोली चल रही है। पुलिस को पूरा भरोसा है कि आतंकवादियों को पकड़ लिया जाएगा।
(जारी…)

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