Sunday, October 24, 2010

‘बलि’ पर लेखकों/विद्वानों के विचार (3)



पंजाब में आतंकवाद के दौर का अहम दस्तावेज़ - 'बलि' उपन्यास
-बलदेव सिंह

लेखक को अपनी मर्जी के अनुसार और अपने सामर्थ्य के अनुसार रचना करने का पूरा हक है। पर पुस्तक रूप में छप जाने के बाद उस रचना संबंधी कोई राय बनाने का हक पाठकों का होता है। इस उपन्यास को मैंने एक पाठक के अधिकार से ही पढ़ा है।
‘बलि’ उपन्यास से पहले मुझे हरमहिंदर चहल की कोई अन्य रचना पढ़ने का अवसर नहीं मिला। लेकिन उसकी एक ही रचना से मैंने चहल के सामर्थ्य और उसकी प्रतिभा को पहचान लिया है।
अस्सी के दशक के पंजाब में घटित काले दौर के विषय में भिन्न-भिन्न लेखकों ने अपनी पहुँच और समझ के अनुसार रचनाएँ रची हैं। कहानियाँ और कविताएँ तो आम हैं। उपन्यास के रूप में ‘बलि’ से पहले मैंने कोई सार्थक रचना नहीं पढ़ी जिसमे दहशतवाद के दैत्य को जन्म देने वाले कारणों की निशानदेही करने का यत्न किया गया हो। यह विषय इतना सूक्ष्म और संवेदनशील है, यदि लेखक आतंकवाद का विरोध करता है तो सरकारी तंत्र की ओर झुकने का भय रहता है और यदि वह सरकारी धक्केशाही का जिक्र करता है तो पासा आतंकवादियों की तरफ़ झुक जाता है। इसलिए बहुत सचेत होकर तराजू के दोनों पलड़े बराबर रखने की ज़रूरत होती है। ‘बलि’ उपन्यास में चहल ने इस समतल को बा-ख़ूबी निभाया है।
उपन्यास में बहुत कुछ अनकहा भी है लेकिन वृतांत में उसकी समझ आती है। बहुत कुछ प्रगट रूप में भी सामने आता है। साहित्य कभी भी यथार्थ नहीं होता। कलात्मक बिम्बों के माध्यम से यथार्थ का पुनर्सृजन होता है। सच तो यह है, बिम्ब भी यथार्थ नहीं होते। इन बिम्बों में लेखक की कल्पना और विचारधारा समायी होती है।
उपन्यास ‘बलि’ में एक तरफ़ सरकारी प्रबंध है, दूसरी तरफ़ अफ़सरशाही है, तीसरी ओर खाड़कू टोले हैं और चौथी तरफ़ भोलेभाले और बेकसूर लोग हैं, जो किसी न किसी रूप में इन तीन धड़ों की राजनीति के पाटों के बीच में पीसे जा रहे हैं। मंत्री जैसे लोग अपने दांव पर हैं, गुरलाभ जैसे अपने दांव पर, बाबे जैसे खाड़कुओं का अपना मकसद है और रणबीर जैसे अपनी फीतियाँ और रुतबे को बढ़ाने की ख़ातिर किसी भी हद तक जा सकते हैं। रणबीर की कभी-कभी इंसानियत जागती है, पर वह अपने हितों की बलि नहीं देता। बख़्शीश सिंह, नाहर, महिंदर और अन्य ऐसे कितने ही लड़के हैं जो मोहरों की भाँति इस्तेमाल किए जाते हैं। सुखचैन और बाबे जैसे युवक जंगल में लगी आग में परिन्दों के लड़ने की तरह हैं जो सारी उम्र हारते नहीं।
उपन्यास में यह बात उभरकर सामने आती है कि खाड़कूवाद लहर का न कोई मकसद था, न कोई सिद्धांत। दहशत के माहौल में गुरलाभ जैसा मौकापरस्त पंडितों की नौजवान लड़की को कहता है- “अपने परिवार को बचाना है तो बैड पर चल।”
बहुत से आतंकी मार्केबाजी के कारण इधर जुड़े थे। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि लड़ाई किस प्राप्ति के लिए हो रही है। इन युवकों में कुछ नौजवान समझ रखने वाले थे, पर उनकी सुनता कौन था। एक आतंकी कहता है –“हम सफलता लोक लहर बनाकर ही हासिल कर सकते हैं।”
उपन्यास में चहल ने इसके एक पात्र के माध्यम से इस खाड़कू दौर की इमदाद में पड़ोसी देश के हाथ होने की ओर संकेत किया है। जब वह दूसरे से कहता है- “दरअसल वह तो हिंदुस्तान टुकड़े करके बंगला देश वाला हिसाब चुकता करना चाहता है।”
इन धारणाओं या विचारों से सहमत होने या न होने को एक तरफ़ रख दें और उपन्यास की सामग्री और इसकी वृतांत विधि की बात करें तो यह रचना बहुत ही रोचक और पठनीय है। किसी सनसनीख़ेज विषय से ही कोई रचना महान नहीं हो जाती है अगर इसमें लेखक की विचारधारा सहज रूप में पेश न हुई हो। इस तरह की रचना बोझिल हो जाती है। ‘बलि’ उपन्यास इस दोष से मुक्त है। लेखक ने इस काले दौर की जिस ढंग से चीरफाड़ करते हुए इस व्यवस्था और उसके ताने-बाने का चेहरा नंगा किया है, वह कमाल की बात है।
हर समय, चाहे वह मिथक है या इतिहास, गद्दारों ने सदैव ही किसी भी लहर या मुहिम का, युद्ध का, भारी नुकसान किया है। ये युद्ध या लहरें लोकपक्षीय हों अथवा लोकविरोधी, गद्दारों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्होंने तो सदैव अपने हितों को ही तरजीह देनी होती है। लेखक ने उपन्यास में ऐसे किरदारों का सृजन बड़ी सूझ-बूझ से किया है।
अन्त में, मैं चहल की इस शक्तिशाली रचना के लिए मुबारक देता हूँ जिसने अपने इस उपन्यास ‘बलि’ के माध्यम से एक समर्थ उपन्यासकार के तौर पर पंजाबी उपन्यास-जगत के द्वार पर दस्तक दी है।
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