Sunday, July 11, 2010

धारावाहिक उपन्यास



बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)

चैप्टर- 14(शेष भाग)

डी.एम.सी. अस्पताल के एक तरफ मरीजों के रिश्तेदारों के ठहरने के लिए सराय बनी हुई थी। सराय की ऊपर वाली मंजिल पर ट्रेनिंग ले रहे डॉक्टरों का हॉस्टल था। उस हॉस्टल के ही एक कमरे में सवेरे जब गमदूर की आँख खुली तो उसने देखा कि उसके समीप ही गुरलाभ और अरजन सोये पड़े थे। कमरे का मालिक नौजवान डॉक्टर ड्यूटी पर चला गया था। वही रात में किसी वक्त गुरलाभ वैगरह को छुपाकर अन्दर ले आया था। कई दिनों के थके और गहरी नींद में सोये गमदूर को उनके आने का कोई पता नहीं चला था। वह मुँह-हाथ धोकर बाहर चाय पीने चला गया। उसने बाहर से ही पी.सी.ओ. पर से कुछ फोन किए। वापस लौटते हुए दो कप चाय के और एक अख़बार ले आया। कमरे में घुसकर उसने गुरलाभ और अरजन को उठाया।
''कैसे ? कब से पड़े हो ? कहीं अभी कच्ची नींद में तो नहीं ?'' चाय की केतली मेज पर रखता हुआ गमदूर बोला।
''नहीं, अब कैसी नींदें। वैसे भी काफ़ी देर के सोये पड़े हैं। अब तो मुझे लगता है, रणजीत भी लौटने वाला है।'' घड़ी देखते हुए गुरलाभ बोला। यह कमरा डॉक्टर रणजीत का था जिसने डॉक्टरी की डिग्री कहीं ओर से की थी और ट्रेनर के तौर पर इस अस्पताल में आ लगा था। यह लड़का भी गुरलाभ का परिचित था। यह ठहरने का अड्डा गुरलाभ ने ही बनाया था।
कुछ ही देर में गुरलाभ और अरजन नहा-धो कर तैयार हो गए। चाय पीकर थोड़ा तरोताज़ा भी हो गए।
''तुम्हारे बूट खूब सने हुए हैं गारे में। लगता है, खेतों में से होकर गुजरे होगे ?'' गमदूर ने स्वाभाविक ही पूछा।
''अँधेरी रातों में खाक छानने के सिवा और पल्ले में है भी क्या अब।'' अरजन उदास-सा बोला।
''हो गया शुरू। कुछ और भी सोच लिया कर।'' गुरलाभ ने उसे डपटा।
''अरजन, एक बात कहूँ। जिस तरह की ज़िन्दगी हम जी रहे हैं न, यह तो डे बाई डे सोच कर चलो, फिर आराम से रहोगे। मतलब, कल क्या हो गया, यह बात भूल जाओ। कल को क्या होगा, यह भी न सोचो। बस, आज जो तुम्हारे सामने है, उसे देखकर चलो। तू तो जानता ही है कि बीत गए दिनों के बारे में सोचने पर मायूसियाँ ही साथ रहती हैं। हमेशा चढ़ती कला में रहना सीखो।'' गमदूर ने सोचा था कि अरजन अभी तक अजैब के कारण उदास था।
अगले कुछ पल कोई कुछ न बोला।
''सच, गुरलाभ मैं तुझे कल खोजता रहा।'' गमदूर गुरलाभ की तरफ मुड़ा।
''वह क्यों ?'' गुरलाभ ने डरते हुए पूछा।
''मैं सोचता हूँ कि हमें उधर कालेज की तरफ के इलाके को छोड़कर इधर माडल टाउन की तरफ नये ठिकाने बनाने चाहिएं। तुझे इस काम का अच्छा तजुर्बा है।'' गमदूर की बात सुनकर गुरलाभ ने राहत की साँस ली।
''एक कोठी तो मैंने देखी हुई है। काफी बड़ी है और है भी अमीर लोगों के बीच में, बहुत सेफ जगह है।'' पिछले दिनों देखी कोठी को याद करते हुए गुरलाभ गमदूर को कोठी के बारे में बताने लगा। ''कोठी है भी बहुत बढ़िया। हर पक्ष से ठीक है। कोठी की बनावट देखकर मैंने इसका कोड नाम भी रख दिया है - रेड हाउस। मैं आज ही जाकर कोठी का साल भर का किराया दे आता हूँ।''
''पर गुरलाभ मेरी एक प्लैनिंग है।'' गमदूर कुछ सोचते हुए बोला।
''वह क्या ?''
''इस तेरे रेड हाउस में रहने के लिए कोई फैमिली ला। जो पूरी शानोशौकत से रहे और आते-जाते हम भी बीच में घुलमिल जाएँ।''
''यह कोई मुश्किल नहीं है। दिल्ली के दंगा पीड़ित कालोनी में से किसी अच्छी फैमिली को मैं ले आऊँगा। आज मैंने उस कालोनी की तरफ जाना भी है। वहाँ से तो हमें नये रंगरूट भी अधिक मिल सकते हैं।'' गुरलाभ का दंगा-पीड़ित कालोनी में अक्सर ही आना-जाना रहता था। वहीं से उसने कुछ लड़के अपने ग्रुप में शामिल किए थे।
''वह भी बाद में देख लेंगे। एक बार तू किसी बुजुर्ग -सी फैमिली को खोज जो पूरा परिवार वहाँ आकर रह सके।'' फैमिली को रेड हाउस में रखने का फैसला तो गमदूर ने सेफ्टी के तौर पर लिया था। फैमिली के रहने से उनके आने-जाने पर किसी को शक पड़ने की गुंजाइश कम थी। जब किसी घर में अकेले लड़कों का ही आना-जाना हो तो आसपास के लोग वैसे ही शक करने लगते थे। इस कारण गमदूर की योजना थी कि पुराने अड्डे जल्द छोड़े जाएँ और नये इस तरह के अड्डे बनाए जाएँ। नये रंगरूटों की भर्ती वाला आइडिया उसे पसंद नहीं था। उसकी सोच के अनुसार दिल्ली के ये नये रंगरूट बदले की भावना के कारण गुस्से में भरे हुए तो अवश्य थे, पर पंजाब के कल्चर से अनजान होने के कारण गमदूर इन पर भरोसा नहीं करता था।
''क्या समाचार हैं आजकल के ?'' अख़बार पढ़ते गमदूर से गुरलाभ ने पूछा।
''अख़बार के मुताबिक लुधियाना ज़िला खाड़कू गतिविधियों का अड्डा-अखाड़ा बनता जा रहा है। इस वक्त सबसे अधिक ऐक्शन इसी एरिये में ही हो रहे हैं। पुलिस महकमे में बड़े स्तर पर तबादले करके खाड़कूवाद के माहिर अफ़सरों को इस ज़िले में लगाया जा रहा है। पुलिस का दबाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।'' गमदूर गम्भीर हो गया।
''इसका हल ?'' अरजन गमदूर के मुँह की ओर देखते हुए बोला।
''हम कौन-सा कम हैं। हम तो पुलिस से एक कदम आगे चलते हैं। मैंने अपनी पार्टियाँ पहले ही बरनाला-बठिंडा की ओर भेज दी हैं। वे उधर ऐक्शन करने को तैयार बैठे हैं। जब तक पुलिस लुधियाना ज़िले पर पूरा ज़ोर डालेगी, हम लहर को आगे बढ़ाते हुए बठिंडे की तरफ चले जाएँगे।''
''उधर जान-पहचान बनानी पड़ेगी। अड्डे बनाने पड़ेंगे। नई जगह पैर जमाने कहाँ आसान हैं।'' गुरलाभ ने सुझाव दिया।
''यह काम अपने उधर वाले साथी करेंगे। मीता और जीता फौज़ी जैसे लोग। जीता फौजी तो अपने ग्रुप को लेकर उधर निकल भी चुका है ताकि उधर जाकर नए अड्डे बनाए। नई भर्ती का प्रबंध करे।''
'अच्छा, जीता फौजी गया है पीछे से। यह तो अच्छा ही हुआ। यूँ ही सारा दिन सिर पर तलवार लटकती रहती थी।' मन में सोचता गुरलाभ बेफिक्र होकर बैठ गया। गमदूर फिर उड़ती-सी नज़र से अख़बार देखने लगा। ख़बर थी-
'' ‘छपते-छपते’ - गिल्लां के स्टेशन से आगे रेल गाड़ी पर खाड़कुओं की ओर से फायरिंग।''
''यार, ऐसी कारवाइयों के कारण ही पुलिस का दबाव बढ़ता जा रहा है।'' ख़बर देखकर गमदूर ने अख़बार गुरलाभ की तरफ बढ़ा दिया। अख़बार पर दृष्टि डालते हुए गुरलाभ को बेचैनी-सी हुई।
''पता नहीं, अपनी नाक के ठीक नीचे कैसे कोई ऐसी घिनौनी कारवाइयाँ किए जाता है। एक बार पता तो लगे, फिर देखते हैं...। न मुड़कर नाहर ने कोई अभी तक इस भेद का पता लगाया है। इसी बात के कारण हमें बाबा बसंत की मदद नहीं मिल रही।'' गमदूर दुखी हुआ पड़ा था।
''क्यों ? तेरा क्या ख़याल है गुरलाभ। ये कारवाइयाँ करने वाला ग्रुप कौन हो सकता है ?'' अख़बार एक तरफ रखता हुआ गमदूर बोला।
''क्या पता लगे अब तो हर कोई खाड़कू बना फिरता है।'' गुरलाभ ने अरजन की तरफ देखते हुए धीमे-से कहा।
कुछ देर गमदूर सामने की ओर देखता कुछ सोचता रहा, फिर गुरलाभ की ओर मुड़ा। ''अच्छा फिर तू रेड हाउस को किराये पर लेने वाला काम कर, जैसा हमने फैसला किया है, वैसा ही। मुझे भी कहीं जाना है। अगली मुलाकात के लिए मैं तुझे कंटेक्ट कर लूँगा।''
गुरलाभ और अरजन खेसियाँ लपेट कर चल पड़े। गमदूर ने बाहर निकलकर चले जाते गुरलाभ को आवाज़ दी। गुरलाभ अकेला ही वापस गमदूर के पास आ गया।
''गुरलाभ तीन नंबर कोठी में से सामान भी उठवाना है।'' गमदूर का मतलब तीन नंबर कोठी के बेसमेंट में पड़े कुछ पैसे और हथियारों से था जो उस वक्त सप्लाई आने के समय अधिक जानकर डब्बों में डालकर बेसमेंट में छिपा दिए थे।
''उसका प्रबंध तो मैंने किया हुआ है। इधर नई कोठी लेते ही सारा सामान इधर शिफ्ट कर देना है।''
''चलो, ठीक है। फिर मिलते हैं बाद में।'' गमदूर वापस कमरे में मुड़ गया।
सवेरे जल्दी ही मीता ने अपनी जगह पहरेवाले लड़के को जगा दिया। स्वयं वह काम पर जाने के लिए तैयार होने लगा। काम पर जाने से पहले उसने महिंदर को भी उठा दिया था। महिंदर ने भी सवेरे-सवेरे बरनाले की तरफ जीते के पास जाना था। घुसुर-फुसुर सुनकर नाहर की आँख भी खुल गई। महिंदर को तैयार हुआ देखकर वह तेजी से उठकर उसकी तरफ गया, ''तू थोड़ा सा रुक, मैं भी तेरे संग ही चलता हूँ।''
''गमदूर ने तो मुझे अकेले ही जाने के लिए कहा है। तू कब आया ?'' नाहर को देखकर महिंदर हैरान होता हुआ बोला।
''आया तो मैं रात का ही हूँ। मेरा तेरे संग जाना बहुत ज़रूरी है। गमदूर को मैं खुद बता दूँगा। मुझे तो लौटना भी तुरन्त ही है।''
''ऐसा तुझे क्या काम है ? खुल कर क्यों नहीं बताता ?''
''तुझे आगे चलकर बता दूँगा सब कुछ। मुझे लगता है, अपने किए-कराये को राख करने वाला कोई करीब ही है।''
''अच्छा, तू इन ब्लाइंड ऐक्शनों की बात करता है।'' महिंदर कुछ याद करता हुआ बोला।
''मुझे लगता है भाई, मैं लक्ष्य के पास पहुँच गया हूँ।'' कुछ सोचता हुआ नाहर बोला।
''चल अच्छा, आ जा फिर। बाकी बातें राह में करेंगे। इनकी नींद में क्यों खलल डालना है।'' सोये हुए लड़कों की तरफ देखता महिंदर धीमे से बोला। दोनों आगे-पीछे चलते चुंगी पर पहुँचे। वहाँ एक सब्जी वाले ट्रक पर बैठकर दोनों सब्जीमंडी पहुँच गए। आगे सब्जीमंडी में वे अपने एक दोस्त की दुकान पर जा पहुँचे। उसने पहले चाय मंगवाई। फिर बठिंडे को जाते एक सब्जी वाले ट्रक पर दोनों को चढ़ा दिया। ट्रक पर बैठकर उन्होंने पढ़ाई की बातें जारी रखीं। फिर ऊँघते हुए सब्जी के बोरों में घुसकर सो गए। दी गई हिदायत के अनुसार ट्रक वाले ने तपा का अड्डा पार कर आगे कस्सी के पुल पर ट्रक रोक दिया और नाहर को आवाज़ दी। आसपास देखकर नाहर और महिंदर दोनों ने नीचे उतर कर ट्रक ड्राइवर से हाथ मिलाया। फिर कस्सी की पटरी पर पड़कर नीचे की ओर चल दिए। ट्रक के चलने के पाँच मिनट बाद दोनों वापस मुड़कर सड़क पर आ गए। सामने से आता खच्चर रेहड़ा रोक कर दोनों उसके संग बैठ गए। अड्डा पार करके खच्चर रेहड़ा भट्ठे की ओर मुड़ गया। वे नीचे उतर कर एक पंगडंडी-सी पर पड़कर शहर की तरफ चल दिए। थोड़ा आगे चलकर उन्होंने जीता के बताये अनुसार आस पास देखा। कुछ दूरी पर उन्होंने सिटी शूगर मिल का साईन बोर्ड देखा। वे इधर-उधर देखते हुए शूगर मिल के अन्दर चले गए। ऊपर का चक्कर लगाकर वे पीछे मज़दूरों के क्वार्टर की तरफ निकल गए। आगे जीता फौजी मज़दूर के भेष में उन्हें बाहर ही घूमता हुआ मिल गया। वह जल्दी से उन्हें एक क्वार्टर के अन्दर ले गया। अन्दर से कुंडी लगा ली। बाहर उसका आदमी सफाई करने के बहाने पहरा देने लगा।
''मैं तो अकेले महिंदर का इंतज़ार कर रहा था।'' जीता फौजी हैरान होता हुआ नाहर की ओर देखते हुए बोला।
''बस, कई बातों के कारण मैं तुझसे मिलना चाहता था। चलो, पहले तुम अपनी बातें करो। अगर कहते हो तो मैं एक तरफ हो जाता हूँ।''
''नहीं, इतनी पर्दे वाली कोई बात नहीं। अपनी पार्टी की ही बातें हैं।'' महिंदर ने उठते हुए नाहर को रोक लिया।
''जीते भाई, फिर क्या प्रोग्राम है ?'' महिंदर ने पूछा।
''प्रोग्राम तो भाई बढ़िया है। मैंने इधर चार ग्रुप तैयार कर लिए हैं। सभी अपने एरिये में बैठे हैं। बस, अगले आदेश का इंतज़ार करते हैं। यह अब तुम बताओ कि ऐक्शन क्या हैं ?''
''ऐक्शनों के बारे में तुम्हें गमदूर ने पहले ही समझा रखा है। निशानों की लिस्ट भी तेरे पास है। गमदूर की हिदायत है कि कोई निर्दोष इन ऐक्शनों में न मारा जाए। एक खास ध्यान यह भी रखना है कि ग्रामीण लोगों के घर में पनाह नहीं लेनी। बाद में पुलिस उन्हें तंग करती है। यह अड्डा तेरा बढ़िया है। इस तरह के अड्डे और बनाओ। मैं हफ्ताभर तेरे पास रहूँगा। ऐक्शनों की कमांड मेरे हाथ में होगी। बाकी काम हम सबने मिलकर ही करने हैं।''
''आज रात से काम शुरू कर देते हैं। अब तू बाकी पार्टियों को सन्देश भेजने का प्रबंध कर।'' बात खत्म करते हुए महिंदर ने नाहर की ओर देखा जैसे कह रहा हो, अब वह स्वयं ही बात शुरू करे।
जीते और महिंदर की ओर देखता हुआ नाहर कुछ देर चुप बैठा रहा।
''अगर अकेले में बात करनी है तो मैं उठकर बाहर चला जाता हूँ।'' महिंदर ने नाहर से पूछा।
''नहीं, नहीं। महिंदर तू बैठ। इतने सालों से हम इकट्ठे काम करते आ रहे हैं। अब फिर कैसा पर्दा।'' उठते हुए महिंदर को नाहर ने बिठा लिया।
''हाँ, बता फिर बात क्या है ?'' महिंदर वापस बैठते हुए अपनेपन में बोला।
''जिस बात के पीछे मैं दौड़ता घूमता हूँ, अगर यह सही निकली तो समझो हम बिलकुल तबाही के किनारे पर खड़े हैं।''
''हैं ?'' जीता फौजी और महिंदर हैरानी में एक साथ ही बोले।
''जो कुछ मैंने देखा-सुना है, उससे तो यही लगता है।''
''खुलकर बात कर यार। यहाँ कौन कोई बेगाना है।'' महिंदर बात सुनने के लिए उतावला था।
''यह तो तुम्हें पता ही है कि मेरी ड्यूटी गमदूर ने इन ब्लाइंड ऐक्शन करने वालों की खोजबीन के लिए लगाई हुई है। बाबा बसंत ने भी यही शर्त रखी है कि पहले ऐसे गलत लोगों का सफाया करो, फिर ही वह हमारे साथ मिलेगा।''
''हाँ-हाँ, यह तो ठीक है। आगे बता।''
उस दिन रेल गाड़ी पर गोली चलाने वाली बात बताते हुए नाहर आगे बोला, ''गुरलाभ और अरजन द्वारा इस तरह बग़ैर किसी आर्डर के रेल गाड़ी पर गोली चलाते देख कर मैं तो हैरान ही रह गया। आगे उनकी कोई बात मैं रेल गाड़ी के शोर के कारण सुन न सका। बस, किसी बात पर वे जीते से डरते हैं। उन्हें डर है कि जीता कोई भेद न खोल दे।'' बात समाप्त करते नाहर ने जीते की ओर देखा।
जीता बेबस सा चारपाई की बाही पर बैठ गया।
''भाई, अब जब बात खुल ही गई है तो मुझे कुछ भी छिपाने की ज़रूरत नहीं। मैं तो पहले ही कई बार मीता को बताने लगा था, पर अरजन ने मुझे डरा रखा था कि अगर बात आगे बढ़ गई तो आपस में लड़ाई होगी। अपनी पार्टी का नुकसान ही होगा। फिर उस दिन अरजन ने मेरे सामने ऐसे काम करने से गुरलाभ को रोका भी था। गुरलाभ ने भी भविष्य में ऐसे काम न करने की सौगंध खाई थी। दोनों का कहना था कि अब जब गुरलाभ ने आगे से तौबा कर ली है तो पार्टी के हक में अच्छा यही है कि मैं बात को वहीं ठप्प कर दूँ। मैं तो फिर पार्टी का हित सोचकर ही चुप रह गया।''
''पर वे करते क्या हैं ?'' नाहर ने उसे असली मुद्दे की ओर मोड़ा।
''काम कराने वाला तो गुरलाभ ही है। बाकियों को तो वह जबरन अपने पीछे लगा लेता है। अरजन का भी इतना दोष नहीं।''
फिर जीता फौजी ने गुरलाभ की सारी करतूतें जो उसने जीते के सामने की थीं या जिनके बारे में जीता को पता था, खुलकर सुनाने लगा। दुगरी कलां में मुख्बिर के परिवार का खातमा और उनकी लड़की की इज्ज़त लूटना, गिल्ल कलां की तरफ विधवा औरत की लड़की पर ज़ोर-जबरदस्ती, गरीब पंडितों के परिवार को अन्दर बन्द करके उनकी लड़की से बलात्कार। छुट्टियों के समय में मोटे मोटे सेठों को अगवा करना और फिर रिम्पा के संग मिलकर फिरौती लेना, कोठी को ऐशगाह बनाना, मौका मिलते ही बसों में से उतार कर निर्दोष हिंदुओं को मारना, इस तरह की सारी करतूतें उसने महिंदर और नाहर को बता दीं।
उसकी बातें सुनते ही महिंदर और नाहर के तो होश उड़ गए।
''मरो ओए सालो... इतने बड़े बड़े काले कारनामे।'' दोनों की आँखें फटी रह गईं।
''मैं तो भाई इतना पढ़ा लिखा भी नहीं। मैं तो पार्टी के भले के कारण ही चुप रहा। अगर तुम मुझे कसूरवार समझते हो तो बेशक मेरे गोली मारो।'' जीता बेचारा-सा बना खड़ा था।
''नहीं जीते, तेरे मन में कोई मैल नहीं। तूने तो पार्टी की भलाई सोची।''
''अपने इतने सालों के किए कामों को गुरलाभ के काले कारनामों ने मिट्टी में मिला दिया।'' महिंदर निराश था।
''हमारे संग घूमता हमारी ही जड़ें काटे जाता है।''
''उसकी एक ही सजा है - गोली।'' नाहर बोला।
''यह सजा तो पक्की है। तूने, मैंने और गमदूर ने इस बात का फैसला करना है। गमदूर भी अपने फैसले से सहमत होगा। पर तीनों में से हम दो ने फैसला लिया है तो यह पत्थर पर लकीर है।'' महिंदर ने खुलासा किया।
फिर अरजन समेत उसके चार और बन्दों की निशानदेही की गई, जिनकी सजा गोली थी।
''यह सजा दी कब जाएगी ?'' जीते ने सवाल किया।
''अभी आठ-दस दिनों तक बड़ी मीटिंग होने वाली है जिसे सभी ऐनुअल मीटिंग कहते हैं। वहाँ सभी खाड़कु होंगे। बाबा बसंत भी वहीं होगा।'' महिंदर कुछ सोचते हुए बोला।
''भाई मेरी एक विनती है।'' जीता बोला।
''सजा का फैसला तो अब सुना ही दिया। ये गोली उनके माथे में मैं ही मारूँगा। ये करतूतें उन्होंने मेरे सामने की हैं। मेरे मन पर बड़ा बोझ है।'' जीता ने उनकी मिन्नत-सी की।
''चल ठीक है। इसकी इजाज़त तुझे दी।'' नाहर बोला।
''एक अर्ज़ और है।'' जीता फिर बोला।
''हाँ, वह भी बता।''
''यह सब बातें वहाँ सबके सामने बताऊँगा भी मैं ही। भाई नाहर बस तू एक बार वहाँ बोल देना कि इन ब्लाइंड ऐक्शनों के बारे में जो रिपोर्ट तैयार की गई है, उसके बारे में जीता फौजी बोलेगा। फिर मैं पहले उनकी करतूतें सबको बताऊँगा, फिर माथे भी मैं ही फाड़ूँगा।'' जीता सख्त-सा बोला।
''बिलकुल ठीक है। सजा भी सही है। और फिर सबके सामने दी सजा के कारण सबको चेतावनी हो जाएगी।'' महिंदर ने बात का समर्थन किया।
''एक बात मैं और सोचता हूँ।'' जीता फिर बोला।
महिंदर और नाहर ने उसके मुँह की ओर देखा।
''अब हम तीनों को पता है इस बात का। मैं कहता हूँ, इस बात को यहीं खत्म कर दें। अन्य किसी के सामने अभी इस बात की भनक भी न पड़ने दें। फिर उस ऐनुअल मीटिंग वाले दिन मीटिंग में ही ठां करके सोटा मारें। अगर ज़रा सी भी बात लीक हो गई तो वे सावधान हो जाएँगे। और फिर गुरलाभ बहुत चालाक आदमी है। बात लीक होने पर वह साफ बच निकलेगा।''
''हाँ, यह बात बिलकुल ठीक है।'' नाहर ने हुंकारा भरा।
फिर तीनों ने हाथ मिलाकर बात वहीं बन्द कर दी।
''अच्छा, मैं फिर लौटता हूँ।'' नाहर जाने के लिए उठा।
''जीते, अगर कहे तो मैं भी गाँव की तरफ चक्कर लगा आऊँ। अँधेरा होते को तेरे पास लौट आऊँगा।'' महिंदर का गाँव रायकोट से आगे था। वह उधर ही किसी खेत में बनी ढाणी में जाना चाहता था। थोड़ा टाइम था। फिर तो पता नहीं कब समय मिले।
''ठीक है भाई। वैसे तो इधर अभी इतना खतरा नहीं, पर फिर भी संभल कर जाना। अलग अलग बसों पर चढ़ना।'' जीते ने सावधान करते हुए कहा। जीते के यहाँ से लौटते समय महिंदर और नाहर ने काफी हद तक भेष भी बदल लिया था। वह बरनाला से लुधियाना की ओर अलग अलग बसों पर चढ़ गए। रायकोट का कोई मुख्बिर पिछले कई दिनों से नाहर के पीछे लगा हुआ था। आज उसने बरनाला के रेलवे फाटक के पास से लुधियाना वाली बस में चढ़ते हुए उसे देख लिया था। वह हाँफता हुआ पी.सी.ओ. पर पहुँचा। रायकोट के इंस्पेक्टर से राबता कायम करके नाहर का हुलिया, बस कम्पनी का नाम और बस का नंबर सब कुछ नोट करवा दिया। बड़े दिनों बाद मुख्बिर को शिकार मिला था। नाहर की बस आगे थी। महिंदर पिछली बस में था। रायकोट थाने का इंस्पेक्टर पूरी पुलिस फोर्स लेकर दद्दा हूर के अड्डे पर आ खड़ा हुआ। पुलिस की जीपें उसने साथ वाले स्कूल के अन्दर छिपा दीं। पुलिस वाले इधर-उधर छिप कर बैठ गए। वे सिविल कपड़ों में थे। बस जैसे ही दद्दाहूर के अड्डे पर पहुँची, पुलिस इंस्पेक्टर पिछली खिड़की से बस में जा चढ़ा। उसने चौथी सीट पर बैठे नाहर को पहचान लिया। झपट कर उसने नाहर की गर्दन को अपनी बांह के लपेटे में ले लिया। इतने में दूसरे पुलिस वाले भी आ गए। हमला अचानक हुआ था। फिर भी नाहर ने साइनाईड कैप्सूल निकालने के लिए जेब की ओर हाथ बढ़ाया। पर वह कैप्सूल निकालने में सफल न हो सका। बस में से खींचकर पुलिसवालों ने उसे सड़क पर गिरा लिया। उसके हाथ-पैर बांधने लगे। जब बंधे हुए नाहर को पुलिस वाले जीप में धकेल रहे थे तो पिछली बस करीब से गुजरी। महिंदर ने ज्यों ही नाहर को पुलिस हिरासत में देखा तो उसकी सांसें रुक गईं। महिंदर रायकोट शहर से बाहर ही उतर गया। उसने शीघ्रता से किसी पी.सी.ओ. से गमदूर के अड्डे पर फोन किया।
उधर गमदूर और गुरलाभ डी.एम.सी. अस्पताल में डॉक्टरों के हॉस्टल वाले कमरे में बैठे थे। गुरलाभ ने बताया कि रेड हाउस उसने किराये पर ले लिया था। रहने का सब इंतज़ाम वहाँ हो गया था। बस, अभी उसे कोई बुजुर्ग परिवार नहीं मिला था उस कोठी में रखने के लिए। बाकी उसने बताया कि तीन नंबर कोठी में से सामान वगैरह इधर रेड हाउस में लाने का प्रबंध भी वह किए जाता था। गमदूर गुरलाभ की फुर्ती और उसके जान-पहचान के घेरे के कारण उससे बहुत प्रभावित था। ''किसी परिवार को जल्दी ला। वहाँ रहने का प्रबंध करें।'' गमदूर बोला। वह रेड हाउस भी देख आया था। उसे भी यह कोठी पसंद आई थी।
अस्पताल के सामने पी.सी.ओ. वाला लड़का गमदूर को बुलाने आया। गमदूर का फोन था।
कुछ देर बाद गमदूर फोन सुनकर लौटा तो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।
''कैसे ? ख़ैर तो है ?'' उसे परेशान देखकर गुरलाभ ने पूछा।
''क्या बताऊँ यार, नाहर को पुलिस ने उठा लिया।'' गमदूर परेशान -सा बोला।
''हैं ! कब, कहाँ ?'' हैरानगी तो गुरलाभ को भी हुई, पर अन्दर से उसे लगा मानो सर पर से कई मन बोझ उतर गया हो। 'मेरे पैरों के निशान खोजता फिरता था। चलो, किस्सा ही खत्म हो गया।' गुरलाभ ने मन में सोचा।
''तुम बैठो, मैं कोई प्रबंध करके आता हूँ।'' इतना कहते हुए गमदूर बाहर निकला।
''अब तो नहीं जीते वाली बात पर डर लगता ?'' गुरलाभ ने अरजन से व्यंग्य में पूछा।
''वह कैसे ?'' अरजन ने भौंहें उठाईं।
''मतलब अपने ऐक्शनों की इन्कुआरी नाहर करता घूमता था। तू डरता था कि कहीं जीता उसे कुछ बता न दे। अब न नाहर जीते को मिलेगा। न ही बात बाहर निकलेगी। बात दब गई कहीं गहरी। नाहर का बनेगा पुलिस मुकाबला।'' गुरलाभ खुश होता हुआ बोला। उधर अरजन चुप था। उसे नाहर के पकड़े जाने और उसके बाद के मुकाबले वाली बात में से कहीं अपना भविष्य भी दिख रहा था।
फिर घंटे भर बाद गमदूर लौट आया। उसके चेहरे पर संतुष्टि थी।
''कैसे, हुआ कोई इंतज़ाम ?'' गुरलाभ नाटक -सा करता हुआ बोला।
''हाँ, अब नहीं होता उसे कुछ। हमने हिसाब बराबर कर लिया।''
''वह कैसे ?''
''हमने लुधियाने के एक इंस्पेक्टर का भाई उठा लिया। रायकोट थाने में सन्देशा भी भेज दिया जहाँ नाहर बन्द है। कह दिया- हमारा आदमी छोड़ दो और अपना छुड़ा लो।''
''यह तो चलो ठीक हुआ।'' गुरलाभ फिर सोच में डूब गया।
अरजन ने गुरलाभ की ओर तिरछी नज़र से देखा मानो कह रहा हो- अब बोल।
(जारी…)
00

3 comments:

रूपसिंह चन्देल said...

उपन्यास ने भलीभांति बांध रखा है. लेकिन होता यह है कि पिछली किश्त को याद करने की जद्दोजहद खूब करनी पड़ती है, जबकि तुमने इसे पोस्ट करने में अपनी गतिशीलता बना रखी है. फिर भी पूरी पुस्तक को एक साथ पढ़ने और उसे किश्तों में पढ़ने में जो अंतर होता है --- वह इसके साथ भी है.

चन्देल

उमेश महादोषी said...

अब बात कुछ स्पष्ट होने लगी है। अच्छा लग रहा है। निश्चय ही किश्तों को पढने के बाद पूरा उपन्यास एक साथ पढने को दिल चाहेगा।

Sanjeet Tripathi said...

bahut hi rochak mod par aakar yah kisht khatm hui hai, besabri se agli kisht ka intejar hai....