Monday, March 1, 2010

धारावाहिक उपन्यास



दोस्तो… आज होली का दिन है। पावन रंगों का पावन त्योहार। गुलाल, अबीर और पिचकारियों का त्योहार । उमंग और उल्लास का त्योहार। अपनी मातृभूमि से कोसों दूर यहाँ ‘स्प्रिंगफील्ड’(अमेरिका) में बैठा मैं आज के दिन हिंदुस्तान में हर चेहरे पर की इस उमंग और उल्लास को बखूबी महसूस कर सकता हूँ। इन रंगों के पीछे हमारे अपने असली चेहरे छिप जाते हैं। काला गोरा सब एकसमान हो जाता है। न जाति रहती है, न धर्म, न ऊँच, न नीच। सब अपनी अपनी रोजमर्रा की दु:ख-तकलीफ़ें भुलाकर एक ही रंग में रंग जाते हैं- होली के रंग में, उमंग, खुशी और उल्लास के रंग में। बराबरी का अहसास दिलाने वाला हिंदुस्तान का यह बहुत बड़ा पर्व है। अपने ब्लॉग के इस अंक में अपने उपन्यास “बलि” के चैप्टर-चार के प्रथम भाग को आपके सम्मुख उसी उमंग और उल्लास से भरे रंगों से सराबोर होकर रख रहा हूँ, जिस उमंग और उल्लास में आज आप सब अपने अपने घरों में, गांवों में, कस्बों में, शहर में, प्रान्त और देश में ‘होली’ का त्योहार मना रहे होंगे।
आप सबको इस पावन पर्व की बहुत बहुत शुभकामनाएं देता हूँ… - हरमहिंदर चहल
बलि
हरमहिंदर चहल
(गतांक से आगे...)
चैप्टर- 4(प्रथम भाग)

इन छुट्टियों में सुखचैन घर पर ही रहा। लेकिन रम्मी से उसकी मुलाकात हर रोज़ हुआ करती थी। दोनों पहले से तय समय पर ‘मलिक फोटो स्टुडिओ’ पहुँच जाते। घंटा, दो घंटा बातचीत करके विदा हो जाते। सब कुछ ठीक चल रहा था कि दोनों एक गलती कर बैठे। हुआ यूँ कि रम्मी के कालेज की तीन-चार दिन की छुट्टियाँ आ गईं। अब रम्मी किसी भी तरह घर से नहीं निकल सकती थी। यह स्कीम रम्मी ने ही बनाई थी कि रात में घरवालों के सो जाने के बाद वह सुखचैन को बाहर नहर के किनारे आकर मिला करेगी। पहली रात जब सब सो गए तो रम्मी अपने कमरे में से बाहर निकली और दबे पांव क्वार्टर की पिछली दीवार फांद कर आगे नहर पर जा पहुँची। वहाँ सुखचैन पहले ही उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। यह क्रम तीन दिन चला। आख़िरी दिन जब रम्मी क्वार्टर में से बाहर निकली तो उसकी माँ की नींद खुल गई। उसने रम्मी का कमरा देखा तो रम्मी वहाँ नहीं थी। उसका माथा ठनका और वह वहीं एक तरफ होकर बैठ गई। उधर रम्मी सुखचैन से मिलकर उमंगित-सी वापस लौटी। आज के बाद उन्हें अगली छुट्टियों में मिलना था। रम्मी ज्यों ही आहिस्ता से अपने कमरे में पहुँची तो सामने उसकी माँ खड़ी थी। माँ ने रम्मी को खूब डराया-धमकाया पर रम्मी ने सिर्फ़ यही बहाना बनाया कि वह बाहर घूमने निकली थी। रम्मी की माँ ने समझदारी से काम लेते हुए उस समय तो चुप्पी साध ली। पर तीसरे दिन उसे ले जाकर सिधवां कालेज दाख़िल करा दिया और वहीं हॉस्टल में कमरा दिला दिया। सुखचैन को तो किसी बात का पता ही नहीं चलना था यदि उसे एक दिन फोटो स्टुडिओ वाला विक्की न मिलता। विक्की ने ही उसे बताया कि रम्मी की माँ ने किसी शक के कारण उसे सिधवां कालेज भेज दिया है।
अब सुखचैन दिन-रात परेशान रहता। वह रम्मी की हालत जानना चाहता था। आख़िर उसे एक उपाय सूझा कि क्यों न सत्ती की मदद ली जाए। वह अगले दिन सत्ती से मिला। सत्ती का विचार था कि चूँकि वह स्वयं भी सिधवां कालेज में पढ़ती रही है, शायद वह रम्मी से मिलने में कामयाब हो जाए। फिर सत्ती गुरलाभ को संग लेकर सिधवां कालेज पहुँची। संयोगवश वह रम्मी से मिलने में सफल हो गई। रम्मी ने रो रोकर अपनी दर्द कहानी सत्ती को बताई। साथ ही, उसने बताया कि उसका अगली छुट्टियों में सुखचैन से मिलना बेहद ज़रूरी है।
दीवाली की छुट्टियों में सुखचैन तय किए गए समय पर फोटो स्टुडिओ पहुँच गया। कुछ देर बाद रम्मी भी आ गई। कुछ देर दोनों गिले-शिकवे करते रहे, फिर रम्मी सीधी बात पर आ गई।
''देख सुख, अब हमारे पास वक्त नहीं है। मेरी मम्मी को मुझ पर शक है। इसलिए जितना जल्दी हो सके, हम कोई प्रबंध करें।''
''प्रबंध कैसा ?... मेरा मतलब...''
''देख, यह तो तुझे भी पता है कि मेरे घरवाले तेरे और मेरे विवाह के लिए कभी राज़ी नहीं होंगे। इसका एक ही हल है कि हम कोर्ट मैरिज कर लें।''
''रम्मी, तू तो जानती ही है कि मैं अभी मैरिज नहीं कर सकता। मेरा तो अभी कोर्स भी पूरा नहीं हुआ... ऊपर से मेरी जिम्मेदारियाँ...।''
''मैंने जो कहना था, कह दिया। आगे तू जान।''
''....''
''तू तो हर बार कह देता है कि मैं अभी कुछ नहीं कर सकता।'' इसके बाद रम्मी रोने लगी। सुखचैन उसे शान्त कराता रहा और समझाता रहा। रम्मी अपनी जगह सही थी और सुखचैन अपनी जगह। आखिर, सुखचैन ने रम्मी को मना लिया कि वह जैसे तैसे यह साल सिधवां कालेज में गुजार ले। साल पूरा होते ही वे कोर्ट मैरिज कर लेंगे। सुखचैन ने यह भी कहा कि इस बीच वह उसे सिधवां कालेज में भी मिलने की कोशिश करेगा। इस मुलाकात के बाद दोनों शान्तचित्त वहाँ से विदा हो गए।
रम्मी से मुलाकात के बाद सुखचैन हॉस्टल लौट आया। उसे रम्मी की कोर्ट मैरिज वाली सलाह सही तो लगती थी, पर साथ ही वह सोच रहा था कि इस कोर्ट मैरिज के बाद पता नहीं क्या तूफान उठ खड़ा हो। उसे लगता था कि ऐसा होने की सूरत में रम्मी के घरवाले पता नहीं क्या बवेला मचाएँ। कहीं उसकी पढ़ाई ही बीच में न रह जाए। उसे हर तरफ़ खतरा ही खतरा नज़र आता था।
'चल, जो किस्मत को मंजूर होगा, हो जाएगा। और अभी तो साल पड़ा है। शायद उस वक्त तक कोई सुखद हल ही निकल आए।' ऐसा सोचता सुखचैन सहज रहने का यत्न करता।
इन दिनों पढ़ाई भी पूरे ज़ोरों पर थी। चारों तरफ से ध्यान हटाकर उसने सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित किया हुआ था। पेपर नज़दीक आने के कारण छुट्टियाँ हो गई थीं। बहुत से लड़के गाँव चले गए थे। वह हॉस्टल में रहकर ही परीक्षा की पूरी तैयारी कर रहा था। आखिर पेपर भी हो गए। रिजल्ट आ गया। उसकी मेहनत रंग लाई। उसकी सभी विषयों में फर्स्ट डिवीज़न थी। गुरलाभ और रणदीप भी इस बार बग़ैर किसी कम्पार्टमेंट के पेपर पास कर गए थे। सभी ने तीसरा सिमेस्टर पास कर लिया था। चौथा सिमेस्टर शुरू होने से पहले करीब दो हफ्ते की छुट्टियाँ हुई थीं। हॉस्टल में आख़िरी रात थी। रणदीप रात में फेयरवेल पार्टी करना चाहता था। इसका प्रबंध वह सप्ताह भर पहले ही किए बैठा था। पिछले हफ्ते अपने पिता से मिलने गया तो वहाँ से किसी तरह घर की बोतल उठा लाया था।
''लो भई यारो, आज की रात महफ़िल जमानी है।'' सभी के बैठे रणदीप ने कहा।
''फिर तो रंग ही लग जाएंगे।''
''रंग हवा को गांठें लगाकर लगाओगे ?'' गुरलाभ ने मजाक में कहा।
''ये पकड़, रंग लगाने वाली तो हफ्ते से बैग में पड़ी इंतज़ार किए जाती है।'' रणदीप ने बोतल निकालकर मेज पर रख दी।
उन्होंने ऊपर से नौकर को आवाज़ लगाई। पानी और साथ में सलाद की प्लेट भी आ गई। उन्होंने पैग डाला। चियर्स किया। दसेक मिनट में ही सबके ग्रामोफोन बजने लग गए। दो-दो पैग और पिये तो वे एक-दूसरे के ऊपर चढ़कर बातें करने लग पड़े। उन्हें पीते हुए करीब एक घंटा हो गया था। सब शराबी हो गए थे। गुरलाभ बाहर गैलरी में आकर खड़ा हो गया। हवा लगने से नशा अन्दर हलचल मचाने लगा।
''तुम्हारी भैण की.... ओए फिरोजपुरियो...'' खड़े-खड़े उसे पुरानी बात याद हो आई। उसने ज़ोर से गाली बकी। प्रत्युत्तर में कोई जवाब न आया।
फिरोजपुरिये गुरलाभ की विरोधी पार्टी के लड़के थे। आपस में ईंटें खड़कती ही रहती थीं। कुछ महीने पहले ही गुरलाभ के दल का कोई परिचित लड़का रैगिंग के लिए पकड़ लिया था। पता चलते ही गुरलाभ और उसके सार्थियों ने हवाई फायर किए। उधर फिरोजपुरिये भी कुछ कम न थे। पर अगले दिन हॉस्टल वार्डन ने बीच में पड़कर उनके हाथ मिलवा दिए। परन्तु दोनों धड़ों के अन्दर ज़हर ज्यों का त्यों कायम था।
गुरलाभ की गाली सुनकर रणदीप बाहर निकल आया। उसने भी उनका नाम लेकर गाली निकाली। सुखचैन उनके साथ था। उसकी कोशिश उन्हें वहाँ से हटाकर कमरे में ले जाने की थी। हटते-हटाते भी वे पन्द्रह-बीस मिनट तक गालियाँ बकते रहे। हो-हल्ला मचाते रहे। फिर गिरते पड़ते कमरे में आ गए। किसी ने रोटी खाई, कोई बिना खाए ही टेढ़ा हो गया। रातभर गहरी नींद में सो कर जब सवेरे नौ बजे उठे तो पता चला कि उन्होंने रात में क्या किया था।
''गुरलाभ, क्या ज़रूरत थी ठंडी हुई बात को दुबारा उठाने की?'' सुखचैन बेचैन था।
''यार, पता ही नहीं चला। शराब ज्यादा चढ़ गई थी।'' गुरलाभ अभी भी सिर दबा रहा था।
''जब कभी भी यह पीने वाला प्रोग्राम बनता है, तभी यह लड़ाई-झगड़े वाला पंगा पड़ जाता है।'' सुखचैन पीने के हक में भी नहीं था।
''चल यार, कौन सा पहाड़ गिर पड़ा। थोड़ी बहुत हलचल होती रहनी चाहिए।'' गुरलाभ को कोई अफ़सोस नहीं था।
''गुरलाभ, एक बात मैं बता देता हूँ, ये फिरोजपुरिये एक दिन हम पर हमला ज़रूर करेंगे। बस, वो मौका तलाशते हैं।'' रणदीप की सोच पुलिसिया थी।
''मैं तो कहता हूँ, आएँ सामने। फिर देखते हैं, दादागिरी कैसे निकलती है। और फिर काफी दिनों से ठंडे हुए बैठने से वैसे ही जंग खा रहे हैं।'' गुरलाभ के डोले फड़क रहे थे। सुखचैन चुप लगा गया। उसने देख लिया था कि बोलने का कोई लाभ नहीं। वह ब्रेक फास्ट करके दुबारा रजाई में घुस गया। उसका सिर फटा जा रहा था। रणदीप पेंट कमीज पहनकर पता नहीं किधर निकल गया। गुरलाभ तैयार होने लगा। उसने सत्ती से मिलकर फिर गाँव जाना था। दो तीन घंटे और सो कर जब सुखचैन उठा तो सब जा चुके थे। कमरा खाली था। बाहर लगभग सारा हॉस्टल ही खाली हो गया था। वह भी धीरे-धीरे तैयार होने लगा।
फिरोजपुरिये यद्यपि रात को हॉस्टल में नहीं थे, पर वे अभी अपने गाँवों में नहीं गए थे। उस रात डिग्री के एक नंबर हॉस्टल में अपने दोस्तों के साथ थे। मालूम उन्हें रात में ही हो गया था कि गुरलाभ और उसके साथी हॉस्टल में उन्हें गालियाँ बक रहे थे। पर रात में उनकी हिम्मत न पड़ी। वे गुरलाभ से सीधे माथा भिड़ाने से डरते थे। गुरलाभ की दहशत ही इतनी थी। अगले रोज़ जब पता चला कि सब चले गए, सिवाय सुखचैन को छोड़कर तो उन सबकी बांछें खिल उठीं।
''चलो, थोड़ा रात वाला हिसाब तो बराबर कर लें। बाकी फिर देखी जाएगी।'' वे आगे की योजना बनाने लगे।
सुखचैन तैयार होकर गेट पर पहुँचा। सामने पंडित के खोखे पर उसने चाय का कप लिया। फिर बाहर पड़े फट्टे पर बैठकर बस की प्रतीक्षा करने लगा। सामने गिल्लां की तरफ से लोकल बस आती देखकर खड़ा होते हुए उसने बैग गले में लटका लिया। बस रुकी। वह आगे बढ़कर जैसे ही डंडे की तरफ हाथ बढ़ाने को हुआ, पीछे से अचानक दो लड़कों ने पकड़ कर उसे पीछे खींच लिया। उसने पीछे मुड़ कर देखा, फिरोजपुरिये खड़े थे। सब ताबड़ तोड़ उस पर घूंसे-मुक्के मारने लग पड़े। उसकी पगड़ी उतर गई। वह नीचे गिर पड़ा। ज़मीन पर गिरे पड़े को भी लात-घूंसे पड़ते रहे। अपना काम समाप्त करके फिरोजपुरिये तुरन्त नौ-दो-ग्यारह हो गए। सुखचैन धीरे-धीरे उठा। कपड़े झाड़ता और बैग संभालता वह खोखे की ओर मुड़ गया। वहाँ बैठे दो तीन लोगों ने उसे पकड़कर संभाला। उसे पानी पिलाया। उसके नाक से खून बह रहा था। उसकी एक आँख मुक्का लगने के कारण सूज कर गूमड़ बन गई थी। उससे एक बांह भी नहीं हिलाई जा रही थी। शायद हड्डी उतर गई थी। पाँच-दस मिनट बाद जब वह संभला तो उसे होश आया। उसे ख़याल आया कि यह काम रात वाले शोर-शराबे की वजह से ही हुआ था। उसकी आँखें भर आईं। फिर उसके अन्दर गुस्से का उबाल उठा। उसने आँखें पोंछ लीं। उसने हौसला किया। पगड़ी बांधी, कपड़े ठीक किए और अगली बस में चढ़ गया। उसे अफ़सोस यही था कि गुरलाभ और रणदीप साथ नहीं थे। नहीं तो इनकी क्या जुर्रत थी कि उसकी ओर झांक भी जाते। इन्हीं ख़यालों में गुम वह बस-अड्डे पर पहुँच गया। पहले तो वह बरनाला वाली बस में बैठ गया। फिर उस बस से उतर गया। उसने सोचा, इस तरह सूजा हुआ मुँह लेकर गाँव जाना ठीक नहीं। उसने इधर-उधर घूम कर शाम कर दी। फिर वह अंधेरा पड़ने पर गाँव पहुँचा। बस-एक्सीडेंट का बहाना बना कर उसने घरवालों को चुप करा दिया।
कालेज खुलने में चार-पाँच दिन शेष थे। उस दिन वह खेत में मोटर पर बैठा सोच में गुम था। अब उसे लगता था कि जो हो गया, सो हो गया। छोड़ो पीछा इस बात का। वह जानता था कि यदि लड़ाई बढ़ गई, फिर पढ़ाई का नुकसान भी होगा, साल भी मारा जा सकता है। गुरलाभ के स्वभाव से वह परिचित था। अगर उसने कोई मारा-मारी का बड़ा काम कर दिया तो फिर पुलिस केस भी बन सकता है। दूसरा बेशक कोई बच जाए, पर वह तो ज़रूर फंसेगा। कहीं यह न हो कि इस लफड़े के कारण उसका डिप्लोमा ही खराब हो जाए। बेहतर यही था जो हुआ, उसे भूल जाए। चुपचाप पढ़ाई करे। उसने जब यह फैसला ले लिया तो उसका मन हल्का हो गया। पर सब कुछ व्यक्ति के वश में तो नहीं होता न। हालात पता नहीं कब, कैसे मोड़ ले लेते हैं। सुखचैन खेत में बैठा यही सब सोच रहा था जब उसके गाँव की तरफ़ से मोटर साइकिल आती दिखाई दी। करीब आने पर उसने पहचान लिया। यह गुरलाभ था। 'अब तेरे हाथ में कुछ नहीं। यह पतंदर पता नहीं अब क्या-क्या धमाल मचाएगा।'
''न, तूने समझ लिया गुरलाभ मर गया ?'' बग़ैर दुआ सलाम के उसने आते ही प्रश्न किया। सुखचैन ने मार के अपमान के कारण शर्मिन्दगी में नज़रे झुका लीं। उसे इस तरह चुप देखकर गुरलाभ की आवाज़ भी नरम पड़ गई। उसने करीब बैठते हुए सुखचैन को अपनी बांह के घेरे में लिया तो सुखचैन की आँखें भर आईं।
''तेरे तो उन्होंने शरीर पर मारा है, पर मेरे दिल पर मारा है। उतना दुख तुझे नहीं होगा जितना मुझे है। जब से पता चला है, मेरे अन्दर तो बस आग की लपटें उठ रही हैं।'' गुरलाभ को चैन नहीं था। वह उठकर इधर उधर टहलने लगा। रणदीप को लुधियाना में किसी से पता चला था। वह गुजरते हुए गुरलाभ को बता गया था। सुनते ही गुरलाभ को आग लग गई। वह सीधा सुखचैन के गाँव की तरफ चल दिया।
''उस दिन मैं अकेला पता नहीं क्यों चल पड़ा। तू मेरे साथ होता तो यह दुर्घटना न घटती।'' गुरलाभ को लगा कि उसे सुखचैन को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था।
''गुरलाभ, यह तो एक दिन होना ही था। उन्होंने पड़ना भी मुझे ही था।''
''तुझे पड़ते समय वो गुरलाभ बहनोई को भूल गए ना। तू देखना तो सही मैं उनकी क्या हालत बनाता हूँ।''
''मैं तो कहता हूँ गुरलाभ, छोड़ परे... यार जो हो गया, सो हो गया। बन्द कर यह लड़ाई-झगड़ा अब।'' सुखचैन को लगता था शायद बात शान्त हो जाए।
''अच्छा, मार खा कर अन्दर दुबक कर बैठ जाएँ। लोग कहें- वो जा रहे हैं साले खुसरे ! तू ने भी कर दी बात। तू देखना तो सही कैसे जलती हैं आग की लपटें अब। मैं तो बहा दूँ खून की नदियाँ। सालों को फिरोजपुर तक न दौड़ाया तो मुझे गुरलाभ कौन कहेगा। अच्छा, चलता हूँ। मुझे बहुत से प्रबंध करने हैं। हमने इतवार को हॉस्टल जाना है। तू शनिवार की रात मेरे गाँव आ जाना। रणदीप भी वहीं होगा।'' गुरलाभ जिन पैरों से आया था, उन्हीं से वापस लौट गया। गाँव जाकर उसने मोटर साइकिल रखा। फिर अबोहर की बस में चढ़ गया।
शनिवार की शाम को जब सुखचैन गुरलाभ के घर पहुँचा तो उन्होंने बाहर वाले घर में डेरा लगा रखा था। आठ-दस लड़के गुरलाभ ने अबोहर से ला रखे थे। पाँच-छह रणदीप के साथ थे। अगले दिन होने वाले एक्शन की स्कीमें बन रही थीं। सुखचैन लड़ाई से नहीं डरता था, वह लड़ाई के बाद निकलने वाले परिणामों से डरता था। इतना सब देखकर उसे लगा कि मानो गुरलाभ कोई बड़ा शो करने का बहाना ही खोज रहा था। 'चलो, अब ओखली में सिर आ गया तो मूसल से क्या डरना।' उसने मन को तसल्ली दी।
अगले दिन लुधियाना पहुँचते ही गुरलाभ को अपने भेदिये से पता लग गया था कि फिरोजपुरिये लुधियाना बस-अड्डे पर इकट्ठा होकर तीन बजे के करीब कालेज के लिए बस में चढ़ेंगे। वे छिपते-छिपाते अपने मोर्चों पर पहुँच गए। शहर की तरफ से लोकल बस आई और गेट पर रुकी। बहुत से लड़के उतरे, पर फिरोजपुरिये दिखाई नहीं दिए। बस चली गई। बस से उतरे लड़कों का समूह भी कालेज की ओर बढ़ गया। गेट खाली हो गया। गुरलाभ ने सिर ऊँचा उठा कर आसपास निगाहें दौड़ाईं। अचानक उसने देखा कि पाँच फिरोजपुरिये लड़के मेन गेट की तरफ सड़क-सड़क चलते हुए इधर ही आ रहे थे। पिछले गेट पर शायद चौकन्ना होने के लिए ही वे उतरे थे। उन्हें पता नहीं था कि जाल तो आगे लगा हुआ है। पंडित के खोखे के बराबर आकर उन्होंने पैर मले। उनका विचार था कि कुछ देर खोखे पर बैठकर स्थिति का जायज़ा लिया जाए। वे जैसे ही खोखे की तरफ बढ़े, सामने से रणदीप, सुखचैन और पाँच-छह जने लाठियाँ लिए उन पर टूट पड़े। अचानक हुए हमले से वे बौखला गए और कालेज के गेट की तरफ भागे। गेट में घुसते ही दोनों ओर से लाठियाँ की बरसात होने लगी। गुरलाभ गेट के खम्भों की ओट में पाँच-पाँच जनों के दो-दो ग्रुप लिए बैठा था। लाठियाँ पड़ने लगीं। वे पीछे की ओर मुड़े तो पीछे रणदीप अपने साथियों के साथ खड़ा था। चारों ओर से पड़ती लाठियों ने उन्हें भुट्टों की तरह भून दिया। शोर शराबे में बाकी तो गिरते-पड़ते भाग गए, पर उनका लीडर गुरलाभ के हत्थे चढ़ गया। उसकी नीचे गिरे पड़े की बांह गुरलाभ ने मरोड़ी। सुखचैन के रोकते रोकते उसने ऊपर से घुटना मारकर उसकी बांह तोड़ दी।
''चलो, अब भाग चलो।'' रणदीप सड़क की तरफ दौड़ा।
''ओए नहीं, अन्दर कालेज में से चलो।'' डिप्लोमा के दफ्तर के सामने से निकलते हुए वे कैन्टीन की ओर निकल गए। आगे से संयोग से फिरोजपुरियों के डिग्री वाले दोस्त एक नंबर हॉस्टल से कैन्टीन की तरफ आ रहे थे। वे चार लोग थे। गुरलाभ ने ललकारा तो वे उल्टे पाँव दौड़ पड़े। वे चार थे और इधर पन्द्रह-बीस। हॉस्टल के करीब पहुँचकर वे भी घेर कर गिरा लिए। जब उन्हें गीदड़मार पड़ रही थी तो सारा एक नंबर हॉस्टल बाहर खड़ा चुपचाप देख रहा था। इधर से निपट कर वे नहर की पटरी हो लिए। लाठियाँ उन्होंने नहर में फेंक दीं और आराम से चलने लगे। पुल पर पहुँचे तो लोकल बस आ गई। वहाँ से चलकर वे एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पहुँच गए। वहाँ चार नंबर वाले हॉस्टल में अपने दोस्तों के पास ठहर गए। वहाँ बैठकर उन्होंने अगला कार्यक्रम बनाया। गुरलाभ ने अपने साथियों को समझाया कि जब तक वह लौट कर वापस नहीं आता, वे सब यहीं रुकें। गुरलाभ रात में ही चंडीगढ़ के लिए निकल गया।
आधे से अधिक फिरोजपुरिये अस्पताल में दाख़िल थे। पूरे कालेज में हाय-तौबा मच गई थी। हर तरफ 'गुरलाभ, गुरलाभ' हो रही थी। टूटी बांह वाले लड़के से पुलिस में रिपोर्ट रिखवाई गई। अगले दिन पुलिस गुरलाभ ओर उसके संगी साथियों को पकड़ने के लिए दिन भर कालेज के चक्कर लगाती रही। पर वे हाथ न आए। इधर दिन छिपे गुरलाभ यूनिवर्सिटी लौट आया। वह चंडीगढ़ में मंत्री जी से मुलाकात कर आया था। अगले दिन सवेरे ही उसने अपने सभी यार दोस्तों को विदा कर दिया। वह, रणदीप और सुखचैन तीनो कालेज की ओर चल पड़े। गेट पर आ कर वे ऑटो से उतरे। गुरलाभ सबके सामने से रौब से निकलना चाहता था। कालेज के खुलने का वक्त था। जब वह एक विजयी जरनैल की भांति हॉस्टल की तरफ जा रहा था, कालेज के लड़के खड़े होकर हैरान से देख रहे थे कि इतना कुछ करने के बावजूद ये कितनी मौज से चले जा रहे थे। आगे, उसकी पार्टी के एक लड़के ने बताया कि पुलिस कल से उन्हें तलाशती घूम रही है। काई फिक्र की बात नहीं थी क्योंकि असली मुज़रिम पकड़े गए थे। मंत्री जी के आदेश से रिपोर्ट बदल दी गई थी। नई रिपोर्ट में हमलावर फिरोजपुरिये दिखा कर उन्हें पकड़ लिया गया था। दो तीन दिन उनकी थाने में दुगर्त होती रही। उनके बाहरी दोस्तों ने दौड़ भाग कर प्रिंसीपल और चीफ वार्डन को बीच में लिया और मसला हल करने की विनती की। चार दिन बाद शाम को हॉस्टल के बाहर सभी लड़के इकट्ठा थे। प्रिंसीपल और चीफ वार्डन की उपस्थिति में फिरोजपुरियों ने गुरलाभ और उसके साथियों से माफ़ी मांगी। उन्होंने सारी गलती अपने सिर ली। इसके बाद दोनों धड़ों में राज़ीनामा करवाया गया। पिछले चार दिन से चली रही आंधी उस शाम कहीं जाकर शान्त हुई।
गुरलाभ ने इस बार ऐसा जलवा दिखाया था कि 'वाह-वाह' कर दी। उसकी चढ़त तो पहले ही बहुत थी। पर इस घटना ने उसे 'सुपरमैन ऑफ दी कालेज' बना दिया। वह जिधर से गुजरता, लड़के उसे देखते, उसकी बातें करते। जब वह चलता तो उसे लगता मानो धरती उसके आगे कांपती हो। उसे आठों पहर जैसे कोई नशा चढ़ा रहता। पुलिस के उसके हक में खड़ा होने से उसकी लगामें बिलकुल ही खुल गई थीं, वह बेलगाम हो गया था। अब उसे किसी का डर-भय नहीं रहा था। उसको लगता था कि वह तीन करे या तेरह, उसे पूछने वाला कोई नहीं। उसका अंहकार और अधिक मजबूत हो गया। हर तरफ उसकी धौंस जम गई थी। उधर हॉस्टल में भी अब शान्ति हो गई थी। फिरोजपुरिये एकबारगी तो बर्फ़ की भांति ठंडे हो गए थे। पढ़ने वालों ने पढ़ाई शुरू कर दी थी। सुखचैन ने भी पढ़ाई की ओर पूरा ध्यान देना प्रारंभ कर दिया। आरंभ में इतने बड़े वाकये ने उसे डरा दिया था। पर धीमे-धीरे माहौल शान्त होता गया। उसका मन भी स्थिर हो गया। उसे लगा, जो कुछ होना था, हो गया। बस, अब पढ़ाई करें। सुखचैन ने कह-सुन कर रणदीप और गुरलाभ को भी राह पर लगा लिया। वे पहले की तरह कालेज आने लग पड़े। अब सब ओर वातावरण शान्त हो गया लगता था। पर गुरलाभ का मन शान्त नहीं था। वह हमेशा ऊँची उड़ानों की तलाश में रहता था। वह किसी की परवाह नहीं करता था पर सत्ती के आगे मेमना बन जाता था। सत्ती से उसकी मुहब्बत ही इतनी थी कि उसके बग़ैर वह रह ही नहीं सकता था। हर शनिवार उसका सत्ती के लिए होता था। इस घटना को छिपाकर रखना चाहते हुए भी वह सत्ती से छिपा नहीं पाया। वह जानता था कि सत्ती इस घटना को लेकर बहुत नाराज होगी। लेकिन सत्ती के सामने बैठकर तो जैसे वह बेबस हो जाता था। उसकी मुहब्बत का जादू ही ऐसा था कि न ही वह उसके सामने झूठ बोल सकता था, न ही कोई बात छिपा कर रख सकता था। जब सत्ती को सारी बात का पता चला तो वह बहुत नाराज हुई। उसने गुरलाभ को बहुत समझाया। प्यार के वास्ते दिए। इस तरह की बदमाशियों से बाज आने को कहा। पर गुरलाभ को यह बदमाशी नहीं लगती थी। उसे लगता था कि इस तरह तो वह हीरो बन रहा था। सत्ती का समझाना पत्थर पर पानी गिराने के बराबर था। उसके सम्मुख तो वह सत्ती की बातें मानने का इकरार किए जाता, पर वापस आकर उसका दिमाग फिर सातवें आसमान पर जा चढ़ता।
(जारी…)

4 comments:

निर्मला कपिला said...

रोचक है ,धाराप्रवाह चल रही है कहानी। अगर अगली कडी मे पिछला थोडा सा विवरण दे दिया करें तो याद रखने मे आसानी रहती है। धन्यवाद। आपको सपरिवार होली की ढेरो बधाईयाँ और शुभकामनाएँ

Anuj Kumar said...

ाआपका यह उपन्यास एक प्रवाह लिए हुए है और रोचकता तो है ही। यह जानन की इच्छा बनी हुई है कि आगे क्या होने वाला है। खैर, थोड़ा थोड़ा करके पढ़ने में आनन्द आ रहा है। होली की आपको भी बधाई !

अनुज

ashok andrey said...

aapka yeh oopanyaas dhara pravahik roop se rochakta banae hue hei tathaa saamne vaale ki jigyaasa ko bhee badatii hei jo iss oopanyaas kii saphalta ke baare mei aashvast kartii hei ummeed kartaa hoon ki jyon-jyon yeh oopanyaas aage-aage badegaa iski apni ek pehchaan banegii iss kamnaa ke saath mei iski saphalta ke liye aapko shubh- kamnaen deta hoon

ashok andrey said...

aapka yeh oopanyaas dhara pravahik roop se rochakta banae hue hei tathaa saamne vaale ki jigyaasa ko bhee badatii hei jo iss oopanyaas kii saphalta ke baare mei aashvast kartii hei ummeed kartaa hoon ki jyon-jyon yeh oopanyaas aage-aage badegaa iski apni ek pehchaan banegii iss kamnaa ke saath mei iski saphalta ke liye aapko shubh- kamnaen deta hoon